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Books - मित्रभाव बढ़ाने की कला

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मित्रता की आवश्यकता

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मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपने आप में पूर्ण नहीं है। मेढ़क का बच्चा जनम लेने के बाद अपने आप, अपने बाहुबल से अपना जीवनयापन कर लेता है। परंतु मनुष्य का बच्चा बिना दूसरे की सहायता के एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता। उसे माता-पिता की, वस्त्रों की, मकान की, चिकित्सा की आवश्यकता होती है। यह चीजें दूसरों की सहायता पर ही निर्भर है। बड़े होने पर भी उसे भोजन, वस्त्र, व्यापार, शिक्षा, मनोरंजन आदि की जिन वस्तुओं की जरूरत पड़ती है, वे उसे दूसरों की सहायता से ही प्राप्त होती हैं। यही कारण है कि मनुष्य सदा ही दूसरों के सहयोग का भिखारी रहता है। यह सहयोग उसे प्राप्त न हो, तो उसका जीवन निर्वाह होना कठिन है।

अपना अस्तित्व स्थिर रखने के लिए मानव प्राणी (जो कि अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत कमजोर है) दूसरों का सहयोग लेता है और उन्हें अपना सहयोग देता है। रुपये को माध्यम बनाकर इस सहयोग का आदान-प्रदान समाज में प्रचलित है। एक आदमी अपने एक दिन के समय एवं श्रम से तीस सेर लकड़ी जमा करता है। दूसरा मनुष्य एक दिन के समय एवं श्रम से मिट्टी के दो घड़े बनाता है। अब घड़े वाले को लकड़ी की जरूरत है और लकड़ी वाला घड़े चाहता है तो आधी लकड़ी वह घड़े वाले को दें देता है और घड़े वाला अपना एक घड़ा लकड़ी वाले को दें देता है। दूसरे शब्दों में इस परिवर्तन को यों भी कह सकते हैं कि आधे-आधे दिन का समय एक ने दूसरे को बदल लिया। चीजों को यहां से वहां ले जाने की कठिनाई के कारण श्रम या समय को रुपयों में परिवर्तन किया जाने लगा, इससे लोगों को सुविधा हुई। बीस सेर लकड़ी को बीस रुपये में बेच दिया अर्थात् एक दिन के श्रम को बीस रुपये से बदल लिया। यह बीस रुपया एक मनुष्य के एक दिन का श्रम है। दूसरे मनुष्यों का श्रम भी इसी प्रकार रुपयों में परिवर्तित होता है और फिर इन रुपयों से जो चीजें खरीदी जाती हैं वह चीजें भी समय का ही मूल्य है। इस प्रकार (1) श्रम (2) वस्तु (3) रुपया—यह तीनों चीजें तीन रूप में दिखाई देते हुए भी वस्तुतः एक ही पदार्थ है।

दुनिया में रुपये से मनोवांछित सामग्री मिल सकती है। इसका अर्थ यह है कि हम अपना श्रम दूसरों को देते हैं और दूसरे अपना श्रम हमें देते हैं। इस देन-लेन से ही दुनिया का कारोबार चल रहा है। अर्थात् यों कहिए कि एक-दूसरे के सहयोग से सुदृढ़ आधार पर संसार की समस्त प्रणाली टिकी हुई है। यदि यह प्रणाली टूट जाए, तो मनुष्य को फिर आदिम युग में लौटना पड़ेगा। गुफाओं में नंगधड़ंग रहकर कंदमूल, फलों पर निर्वाह करना पड़ेगा। वर्तमान समय तक हुई सारी प्रगति का लोप हो जायेगा।

धन अर्थात् श्रम का परिवर्तन — सहयोग भली-भांति प्रचलित है। वह हमारे जीवन का एक अंग बन गया है। अपने श्रम एवं धन के बदले में हम विद्वानों, डॉक्टरों, वकीलों, वक्ताओं, इंजीनियरों, कलाकारों, मजदूरों का सहयोग जितने समय तक चाहे उतने समय तक ले सकते हैं। इसी प्रकार इच्छित वस्तुएं भी मनचाही मात्रा में ले सकते हैं। यह सहयोग प्रणाली व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर चलती है। इस प्रणाली से हम सब अपना जीवन धारण किये हुए हैं और सांसारिक कार्य चला रहे हैं।

जीवनयापन में परस्पर सहयोग की धन के आधार पर एक प्रणाली बन गई है। इससे बहुत हद तक जीवन क्रम चल भी जाता है। परंतु जो वस्तुएं पैसे के परिवर्तन से प्राप्त हो सकती हैं केवल मात्र उनसे ही मनुष्य की तुष्टि नहीं हो सकती, क्योंकि धन भौतिक पदार्थ है, उससे भौतिक वस्तुएं ही प्राप्त होती हैं। मनुष्य को जितना भाग भौतिक है, इससे कहीं अधिक भाग आध्यात्मिक है, उसे आध्यात्मिक वस्तुएं भी चाहिए। आत्मीयता एक ऐसा आध्यात्मिक पदार्थ है, जिसका मूल्य भौतिक पदार्थों से असंख्य गुना है। मनुष्य उसे सबसे अधिक चाहता है, उसकी सबसे अधिक इच्छा करता है और उसे ही प्राप्त करके वह तृप्त होता है।

जिन व्यक्तियों में आपस में आत्मीयता का भाव रहता है, उनमें एक-दूसरे के लिए असाधारण आकर्षण रहता है। एक-दूसरे का हित चाहते हैं, समृद्धि चाहते हैं, उन्नति चाहते हैं, सुख चाहते हैं, सहायता के लिए तैयार रहते हैं, भूलों और कमजोरियों को उदारतापूर्वक सहन कर लेते हैं तथा मुसीबत के वक्त अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु यहां तक कि प्राण तक देने को तैयार रहते हैं। रुपये से चीजें मिल सकती हैं आत्मीयता नहीं मिल सकती। वेश्या का रूप यौवन और हाव-भाव पैसे से खरीदा जा सकता है, पर पतिव्रता पत्नी की-सी वफादारी और आत्मीयता विपुल संपत्ति देकर भी नहीं खरीदी जा सकती। बड़े-बड़े दिमाग पैसे के लिए अपनी सेवाएं दें सकते हैं, किंतु आंतरिक वफादारी कितनी ही संपत्ति देने पर भी नहीं मिल सकती। चापलूस, खुशामदी, मधुरभाषी, ठग या भांड़ प्रकृति के दरबारी लोग, धनियों की तोंद के आस-पास जोंक की तरह चिपके रहते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। पर जब स्वार्थ सिद्धि में बाधा आती है, कोई लाभ नहीं होता, तो जैसे मरे बैल को छोड़कर कली लें भाग जाते हैं वैसे ही वे भी भाग जाते हैं। लाभ की आधा में विघ्न पड़ना यही एक कारण नीच पुरुषों के लिए शत्रुता का बहुत बड़ा कारण बन जाता है। आत्मीयता एक ऐसा आध्यात्मिक सात्त्विक पदार्थ है, जो राजसिकता या तामसिकता से लाभ या भय से प्राप्त नहीं हो सकता।

दो हृदयों का जहां एकीकरण होता है, जहां सच्चे हृदय से दो मनुष्य आपस में आत्मभाव, अपनापन, स्थापित करते हैं, वहां मैत्री का बीज जमता है। जब किसी मनुष्य को यह पूरी तरह विश्वास हो जाता है कि अमुक मनुष्य सच्चे रूप से मेरे प्रति आत्मीयता रखता है, मेरी कमजोरियों को जानते हुए भी उदार दृष्टिकोण रखता है, मेरी उन्नति में सहायक, सुख-दुःख में साथी और आपत्ति में ढाल-तलवार का काम देता है तो उसके प्रति अंतस्तल में प्रेम उत्पन्न होता है। दो हृदयों में एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता होना ही मैत्री है। ऐसी मैत्री इस लोक की एक बहुमूल्य संपत्ति हैं। जैसे—धन, विद्या, स्वास्थ्य, चतुरता, कीर्ति इस लोक की प्रधान संपत्तियां है वैसे ही मैत्री भी एक बहुमूल्य संपत्ति है। मैत्री की महिमा अपार है। दूध और पानी की मैत्री प्रसिद्ध है। एक-दूसरे को अपने में घुला-मिला लेते हैं। सुदामा और कृष्ण की मित्रता प्रसिद्ध है। सत्संग एक प्रकार की मैत्री है। गुरु और शिष्य आपस में मित्र ही तो होते हैं। सत्संग की महिमा गाते-गाते शास्त्रकार थकते नहीं, यह महिमामय सत्संग उन्हीं में होता है, जिनके हृदय आपस में एक हों। मित्रता बहुत बड़ी आकर्षण शक्ति है, वह दो व्यक्तियों को जोड़कर एक कर देने में बढ़िया सीमेंट का काम करती है।

धनी धन को और मानी मान को पाकर प्रसन्न होता है, कलाकार को कलामय वस्तुएं देखने में रस आता है, इंद्रियां अपने-अपने विषय-भोगों में संतुष्ट रहती हैं। आत्मा को भी अपना स्वजातीय चाहिए। जब कोई आत्मा किसी दूसरी आत्मा का स्पर्श या आलिंगन करती है तो दोनों में असाधारण आनंद उत्पन्न होता है। एक अनुपम तृप्ति का अनुभव होता है। अमुक व्यक्ति मेरा सच्चा हितू है, आड़े वक्त काम आयेगा, मेरे लिए उसके मन में सच्चा आदर एवं आत्मभाव है। इस कल्पना से मनुष्य के अंतःकरण में एक उल्लास, आनंद, संतोष एवं साहस का आविर्भाव होता है। निर्जीव वस्तुएं एक और एक मिलकर दो होती हैं, परंतु दो सजीव आत्माओं का सम्मिलन होने से 1 और 1 मिलकर 11 हो जाते हैं।

सांसारिक उतार-चढ़ाव के कारण जो प्रिय-अप्रिय घटनाएं घटित होती हैं। मनुष्य के मन पर उनकी प्रतिक्रिया, रोष, क्रोध क्षोभ, शोक, निराशा, भय, बेचैनी या घृणा के रूप में होती है अथवा हर्ष, आशा, उत्साह का नशा छा जाता है। कभी-कभी इन भले या बुरे उद्वेगों की मात्रा मस्तिष्क में बहुत अधिक भर जाती है और न सोचने लायक बातें सोची जाने लगती हैं। ऐसी अवस्था में मनुष्य अर्ध-विक्षिप्त हो जाता है और कुछ का कुछ कर बैठता है। ऐसे समय पर सच्चे मित्रों की उपस्थिति बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। मनुष्य अपने मन के भाव उस पर प्रकट कर देते हैं, अपने मन की बातें उससे कह देता है। यह कह देने से जी बड़ा हल्का हो जाता है और उद्वेगों का आवेश शांत हो जाता है। जिसके सामने मन की हर एक कमजोरी प्रकट की जा सके और यह विश्वास रहे कि इन बातों को सुनकर, वह न तो घृणा या उपहास करेगा और वह दूसरों पर उन बातों को प्रकट करेगा, ऐसे मित्र भाग्यवानों को ही प्राप्त होते हैं। मन की सारी व्यथाएं जिसके सामने प्रकट की जा सकती हैं और व्यवहार योग्य समुचित सलाह, जिससे प्राप्त हो सकती है वह सच्चा मित्र है। ऐसे मित्रों को होना जीवन की एक बहुमूल्य सफलता कहना चाहिए।

मित्रता का उत्तरदायित्व — यों तो इस बनावट के युग में शिष्टाचार या स्वार्थ प्रयोजन के लिए साधारण परिचय और साधारण संबंधों को भी मित्रता कहते हैं। इस प्रकार कहने में कुछ विशेष हर्ज भी नहीं है। परंतु वास्तविक मित्रता दूसरी वस्तु है। आत्मीयता का दूसरा नाम मित्रता है। जैसा पति-पत्नी में, माता-पुत्र में, गुरु-शिष्य में, भाई-भाई में घनिष्ठ आत्मभाव होता है, वैसा ही अपना मन जिन दो मित्रों में हो उसे मित्रता कहते हैं, सच्चे मित्र अपने मित्र के हानि-लाभ को अपने निजी हानि-लाभ के समान देखते हैं, उसमें समान रूप से सुख-दुःख अनुभव करते हैं और समान रूप से प्रयत्नशील रहते हैं। जैसे अपनी समृद्धि में आनंद आता है, वैसी मित्र की समृद्धि में भी सच्चे मित्र को दिलचस्पी होती है।

रामायण में मित्रता के संबंध में कहा गया है—

जे न मित्र दुख होंहि दुखारी । तिन्हहिं विलोकत पातक भारी ।।

निज दुख गिरि सम रज कर जाना । मित्र के रज दुख मेरु समाना ।।

जिन्हके असमति सहज न आई । ते शठ कत हठि करत मिताई ।।

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रकटे अवगुनहिं दुरावा ।।

देत लेत मन शंक न धरईं । बल अनुमान सदा हित करईं ।।

विपतिकाल कर सतगुन नेहा । श्रुति कहि संत मित्र गुन एहा ।।

आगे कह मृदु वचन बनाई । पीछे अनहित मन कुटिलाई ।।

जाकर चित अहिगति समभाई । अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ।।

मित्रता की स्थापना के साथ-साथ एक भारी उत्तरदायित्व दोनों के सिर पर आ जाता है। वैसे पति-पत्नी दोनों सम्मिलित उत्तरदायित्व को सिर पर उठाते हैं। वैसे ही मित्रता का भी एक सम्मिलित उत्तरदायित्व होता है। पुराने समय में मित्रता की स्थापना भी एक संस्कार रूप में की जाती थी। पगड़ी पलटना या टोपी पलटना उसका मुख्य चिह्न था। दो मित्र आपस में अपनी पगड़ी या टोपी बदल लेते थे। इस कर्मकांड को गुरुदीक्षा या पाणिग्रहण-संस्कार जैसा पवित्र एवं जीवन भर निबाहने योग्य समझा जाता था। स्त्रियों में भी ‘भायेली’ या ‘सखी’ बनने के लिए चुनरी पलटने की प्रथा है। स्त्रियां आपस में अपनी चुनरी बदल लेती हैं और फिर जीवन भर भायेली, वरवी या बहिन का रिश्ता निभाती हैं। इस प्रकार के सच्चे दो-चार मित्रों का होना बाजारू हजार मित्रों से बढ़कर है। बाजारू मित्रता में केवल उसी हद तक मैत्री रहती है, जहां तक कि दोनों के स्वार्थ एक-दूसरे से सधते हैं। इस पारस्परिक स्वार्थ साधना में तनिक-सी ढील आते ही मित्रता ढीली पड़ जाती है और यदि वह स्वार्थ-व्यापार टूट जाए तो आज की चहकती मित्रता कल साधारण परिचय मात्र रह जाती है। इस मित्रता को ‘‘व्यापारिक सहयोगियों से कलापूर्ण मधुर व्यवहार’’ कहा जा सकता है। परिस्थितियों ने, समान कार्यक्रम ने, स्वार्थ-साधन ने, जिन लोगों को आपस में मिला दिया है और वे चतुर या भावुक होने के कारण अपने सामयिक साथियों के साथ अच्छा, मीठा, उदार व्यवहार करते हैं तो यह सच्ची मित्रता नहीं, बाजारू मित्रता ही कही जाएगी, क्योंकि उस परिस्थिति, कार्यक्रम या व्यापार के न रहने पर मित्रता उस रूप में कदापि न रहेगी। परंतु सच्ची मित्रता में ऐसी बात नहीं है, क्योंकि वह स्वार्थ या परिस्थितियों के कारण नहीं, स्वाभाविक प्रेम के कारण स्थापित होती है और त्यागपूर्ण आत्मीयता की आधारशिला पर वह खड़ी होती है।

स्वभाव की समानता मित्रता का मूल आधार है। कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से, जातीय दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से, विद्या की दृष्टि से असमान भले ही हों, पर जिनका स्वभाव एक-सा है, मनोवृत्तियों, इच्छा और आकांक्षाओं में समता है, वे आपस में मित्र बन सकते हैं। जिनका अंतःकरण एक स्थान पर केंद्रीभूत न होगा, स्वभाव न मिलता होगा, उनकी मित्रता न तो सुदृढ़ हो सकेगी और न स्थायी। इसलिए मित्रता की स्थापना करते समय यह देख लेना चाहिए कि हमारे बीच में स्वाभाविक समानता है या नहीं? भीतरी वृत्तियां आपस में मिलती हैं या नहीं? यदि मिलती होंगी तो मैत्री सुदृढ़ हो सकती है। कई व्यक्ति कमजोर इच्छा शक्ति वाले होते हैं। उनके विचार एवं भाव ढीले-ढाले होते हैं और प्रबल इच्छा शक्ति वालों के सामने वे झेंपकर उनकी हां में हां मिलाने लगते हैं। ऐसे लोगों को बे-पेंदी का लोटा कहते हैं। जो चाहे जिसके प्रभाव से प्रभावित हो जाते हैं। जिनकी अपनी कोई स्वतंत्र मति नहीं, ऐसे लोगों की मित्रता को पलटा लेते भी देर नहीं लगती। ढीले स्वभाव के लोगों की मित्रता भी ढीली ही होती है। कोई कठिन अवसर सामने आ जाने पर उसकी परीक्षा की कसौटी पर खरा उतरना कठिन है।

स्वभाव की समानता का आकर्षण दो मनुष्यों को खींचकर पास-पास ले आता है। ऐसे मनुष्य कुछ समय पास-पास रहें और उनमें मधुरता एवं उदारता का यदि बिलकुल ही अभाव न हो, तो वे साधारणतः आपस में मित्र बन जाते हैं। जब एक-दूसरे के स्वार्थों के किसी अंश में पूरक बनते हैं, एक से दूसरे को कुछ लाभ होता है, तो यह मैत्री और भी घनी होने लगती है, परंतु पक्की मित्रता तब होती है, जब एक-दूसरे के चरित्र को विश्वसनीय मान लेते हैं। जब एक व्यक्ति को यह पता लगता है कि दूसरे व्यक्ति का भूतकाल का जीवन अविश्वस्त रहा है, उसने वचन भंग, विश्वासघात, छल, ठगी, धूर्तता एवं मायाचार किये हैं, तो उसके संबंध में अविश्वास एवं संदेह उत्पन्न होता है। वह अब भी दूसरों के साथ ठगी एवं दगा-फरेब का व्यवहार कर रहा है, तो कोई अपने मतलब के लिए उससे कितना ही मीठा व्यवहार क्यों न कर ले, पर हृदय से उसका भरोसा नहीं कर सकता। उसके संबंध में सदा ही यह आशंका बनी रहती है कि अवसर पड़ने पर वह अपने साथ भी दगा-फरेबी कर सकता, जैसा दूसरों को धोखा दिया है वैसा अपने को भी दे सकता है। ऐसे संदेहों के होते हुए सच्ची मैत्री कायम नहीं हो सकती। चोर, उठाईगीरी, गुंडे, जुआरी, नशेबाज आपस में मित्र जैसा व्यवहार करते देखे गये हैं, पर जरा-सी बात पर उनमें बिगड़ जाती है। चरित्रवान्, प्रतिज्ञा पूरी करने वाले, ईमानदार और ईमानदार और खरे आदमियों के बीच, समान स्वभाव के आधार पर जो मैत्री स्थापित होती है, वह स्थायी होती है। ऐसे ही लोग एक-दूसरे के लिए त्याग कर सकते हैं।

मित्रों का चुनाव करने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। खरे, ईमानदार, निष्कपट, चरित्रवान्, वचन के धनी, बुद्धिमान् और साहसी व्यक्तियों को ही मित्र बनाना चाहिए। इस प्रकार के संबंध ही जीवन विकास में उपयोगी हो सकते हैं। मैत्री से परस्पर दोनों ही पक्षों को लाभ होता है, परंतु होता तभी है जब वह मनुष्यता के लक्षणों वाले मनुष्यों के बीच में हो। दुश्चरित्र, बदनाम, मूर्ख, कायर, कपटी और लबार मित्र तो शत्रु से भी बुरे हैं। उनकी छाया में बैठना, उनके साथ अच्छा संपर्क रखना भी शत्रुता के समान हानिकारक होता है। उनके द्वारा जो प्रभाव पड़ेगा वह नीचे गिराने वाला, बदनाम करने वाला और गलत रास्ते पर ले जाने वाला होगा। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से यथासंभव बचते ही रहना चाहिए।

यह स्मरण रखने की बात है कि सज्जनों की मित्रता एक अत्यंत ही मूल्यवान् संपत्ति के समान हैं। उसे वैसी ही सावधानी के साथ संभालकर रखना चाहिए जैसे कि सोना-चांदी या जवाहरात को संभालकर रखते हैं। इन चीजों को यदि लापरवाही से असंरक्षित रखा जाए तो उनके खो जाने या नष्ट हो जाने की आशंका रहती है। इसी प्रकार यदि मित्रता को असुरक्षित रखा जाए उसकी सुरक्षा पर पूरी सावधानी के साथ ध्यान न दिया जाए तो टूट जाने या नष्ट हो जाने का भय रहता है। मित्रता निबाहने के लिए यह भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए कि लेने की नहीं—देने की नीति पर चलेंगे। मित्र के लिए उदारता की, सहायता की, सेवा की, इच्छा रखनी चाहिए। उससे लेने का भाव कम से कम रखना चाहिए, मित्रता को तोड़ने वाले तीन कारण सबसे प्रधान हैं—(1) रुपये-पैसे का लीचड़ लेन-देन, (2) मित्र के घर की तरुण स्त्रियों में अधिक आना-जाना, (3) निरर्थक वाद-विवाद। इन तीनों बातों से जहां तक हो सके बचने का प्रयत्न करना चाहिए।

उधार लेने और उधार देने का व्यवहार मित्रता को तोड़ने वाले प्रधान कारणों में से एक हैं। कर्ज लेना हो तो महाजन से बाजारू शर्तों के अनुसार लेना चाहिए, क्योंकि हर आदमी अपने पैसे से भरपूर लाभ उठाना चाहता है, महाजन जैसे शर्तें तय कर सकता है मित्र वैसा नहीं करता। उसे ब्याज आदि का कम लाभ रहता है। दूसरे न चुकाये जाने की आशंका भी बनी रहती है। यह खीज और आशंका जब मन में रहती है तो स्वभावतः मित्रभाव घटने लगता है। इसलिए जहां तक हो सके मित्र से कर्ज न लेना चाहिए, यदि लेना ही पड़े तो अपने आपको इतना खरा रखना चाहिए कि चुकाये जाने के संबंध में किसी प्रकार की आशंका दूसरे के मन में न उठने पाये। जिसने कर्ज दिया है वह मित्र संकोचवश कुछ कह नहीं सकता, जिसने कर्ज लिया है वह ढील छोड़ देता है, तो हिसाब पिछला, पुराना और गंदा हो जाता है। ऐसा लीढ खाता अक्सर मित्रता का अंत कर देने का कारण बन जाता है। लिया हुआ कर्ज कब तक चुका दिया जाएगा? किस प्रकार चुका दिया जाए? आदि बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए और उस वचन का पालन करने का जी-तोड़ प्रयत्न करना चाहिए। किसी प्रकार यदि नियत समय पर न चुकाया जा सके, तो उसका कारण बताते हुए, नये निश्चय का ठीक समय पर प्रकटीकरण कर देना चाहिए। इस प्रकार खरा लेन-देन यदि बरता जाए, तो कर्ज के द्वारा मित्रता पर पड़ने वाले कुप्रभाव को रोका जा सकता है। साथ-साथ रहने के कारण मित्र के ऊपर अपने खर्च का बोझ न पड़ने पाये, इसका भी ध्यान रखना चाहिए। सिनेमा, खेल, तमाशे, सिगरेट, पान, तांगा सवारी आदि के खर्चे को शिष्टाचारवश एक बार एक मित्र कर दें, तो उसका बैलेंस बराबर करने के लिए दूसरी बार दूसरे को खर्च करना चाहिए। केवल मित्रता के नाम पर मित्र के पैसों से लाभ उठाना अनुचित है।

सगे पारिवारिक बहिन, भतीजा, बुआ, मौसी आदि के पवित्र रिश्तों को छोड़कर अन्य स्त्रियों से विशेषकर तरुणी स्त्रियों से केवल अत्यंत आवश्यक अवसर पर आवश्यक वार्ता संक्षिप्त रूप में समाप्त कर लेने का हमारा स्वभाव होना चाहिए। परंतु मित्र के घर में तो इस बात का विशेष रूप से ध्यान करना चाहिए कि किसी को किसी प्रकार उंगली उठाने या चरित्र संबंधी आशंका करने का अवसर न आए। मित्र के घर की तरुण स्त्रियों से अधिक वार्तालाप, उनके पास अधिक आवागमन, भेंट-उपहार, यह सब बातें अकारण मित्रता पर आघात पहुंचाती हैं। यदि कुछ भेंट उपहार, स्त्री-बच्चों को भिजवाना ही हो, तो मित्र के सामने उसकी स्वीकृति से ही होना चाहिए।

वाद-विवाद का तरीका हमारे देश में बहुत बुरा है। बातचीत शुरू होती है किसी विषय पर से, पर अंत में मैं, तू का सवाल आ जाता है। इसलिए किसी विषय पर नम्रता, मधुरता के साथ एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करते हुए विचार-विनिमय होना चाहिए। व्यक्तिगत चर्चा को वाद-विवाद में नहीं घसीटना चाहिए। मित्रों के बीच में उद्दंड, निरर्थक, उग्र, कटु, व्यक्तिगत वाद-विवाद तो कभी होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि अस्त्र-शस्त्रों की भांति कटुवचन भी एक हथियार है, जिसके प्रहार से मित्र का दिल घायल होता है और मित्रता टूट जाती है।

ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि मित्र को यह आशंका न हो कि मुझसे अनुचित स्वार्थ साधन करने के लिए मित्रता की गई है। मित्रता और दुकानदारों में यही अंतर है कि दुकानदार और ग्राहक चीज की कीमत पहले ले-दे लेते हैं, मित्र उस कीमत को हृदय से तोल लेता है और सौदा होने के बाद उसकी कीमत किसी न किसी रूप से चुकाते हैं। मित्र स्वेच्छा से अपने मित्र के स्वार्थ साधन का ग्राहक बनता है, यदि उसे अपने स्वार्थ का साधन बनाया गया तो वही व्यवहार आशंका उत्पन्न करने वाला बन जाता है।

सांसारिक पदार्थों, भौतिक वस्तुओं के दुनियावी स्वार्थों में सहायता देने वाली मित्रता स्थूल मैत्री है। वह स्थूल वस्तुओं के समान ही अस्थिर एवं परिवर्तनशील होती है। पर जिस मैत्री का आधार हृदयगत भावनाओं का आदान-प्रदान है, वह सूक्ष्म एवं सात्त्विक होती है और दो हृदयों को वास्तविक तृप्ति प्रदान करती हुई चिरस्थायी होती है। दुख-सुख की मनःस्थिति में हिस्सा बटना, आवेशों और उद्वेगों का निवारण करना मित्र का आवश्यक कर्तव्य है। कई बार मनुष्य किन्हीं आवेशों, उद्वेगों में पड़ जाता है, उस अवस्था में उसे यह भान नहीं होता कि मैं इस समय एक प्रकार के मानसिक ज्वर से पीड़ित हूं। उस उद्विग्न अवस्था में प्रायः गलत-हानिकर विचार मस्तिष्क में आते हैं और उस अवस्था में कार्य भी वैसे ही कर बैठता है। इस स्थिति में सच्चा मित्र ही वह गुरु है, जो मित्र के हृदयस्थल को स्पर्श करके उसे वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराते हुए मानसिक स्वस्थता की समतल भूमि पर ला सकता है।

हर मनुष्य में कमजोरियां होती हैं, उसके चरित्र में दोष पाये जाते हैं। कुछ छिपाने योग्य बातें होती हैं। जिन सिद्धांतों का वह प्रत्यक्षतः समर्थन करता है, परीक्षा रूप में चुपके-चुपके उनसे विपरीत भी काम करता है। इस तरह की गुप्त बातें कुछ न कुछ हर व्यक्ति के संबंध में होती है। उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकट किया जाए तब तो उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा नष्ट होती है और समाज में घृणा का पात्र बनकर बदनाम होता है। यदि उन गुप्त बातों को वह अपने मन में ही छिपाये बैठा रहे, तो मनोविज्ञानशास्त्र की दृष्टि में इसका उसके स्वास्थ्य पर भयंकर प्रभाव पड़ेगा। वह किसी नासूर, भगंदर, कुष्ठ, बवासीर, संग्रहणी, दमा सरीखे चिरस्थायी रोग का शिकार हो सकता है या स्मरणशक्ति का नाश, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, हृदय की धड़कन, दुःस्वप्न दीखना जैसे मानसिक रोग से ग्रस्त हो सकता है। मनोविज्ञान शास्त्र के आचार्यों की चिकित्सा प्रणाली में ‘मानसिक जुलाब’ की सर्वोपरि आवश्यकता बताई है। वे कहते हैं कि पेट का जुलाब, इंद्रिय जुलाब, रक्त का जुलाब (फस्द खोलना, सिंगी जाक आदि) आदि जुलाबों से मानसिक जुलाब का महत्त्व बहुत अधिक है। अगर रोगी या अस्वस्थ व्यक्ति अपने जीवन भर के सारे पापों, दोषों, बुराइयों, चोरियों, कुकर्मों का सच्चा-सच्चा हाल अपने किसी मित्र पर प्रकट कर दें और एक भी बात छिपाकर न रखे, तो उसका मन बहुत ही हलका हो जाता है और शारीरिक तथा मानसिक व्यथाओं से छुटकारा पाने में इतनी सहायता मिलती है, जिसका मुकाबला संसार की कोई कीमती से कीमती औषधि नहीं कर सकती। सच्चे मित्र के सामने अपनी बुराइयों, कमजोरियों और भूलों को मनुष्य कह सकता है। वह बिना घृणा किये उन्हें सुन सकता है और गुप्त रख सकता है। इस प्रकार कमजोरियों और बुराइयों को गुप्त रखने से मनुष्य के मन पर जो अत्यंत हानिकर भार पड़ता है, वह विश्वसनीय साथी को सुना देने से अनायास ही हट जाता है। वे सच्चे मित्र जो आपस में एक-दूसरे की गुप्त बातें कह-सुनकर मन का भार हलका कर लेते हैं वास्तव में एक-दूसरे के लिए जीवन मूरि के समान उपयोगी है। जिन परिस्थितियों में भूलें हुईं उनका वास्तविक कारण जानकर उनके निराकरण का वास्तविक उपाय भी वह मित्र बता सकता है। गुरु के प्रति आदर भाव की मात्रा अधिक होने के कारण लज्जा या शिष्टाचारवश वे सब बातें नहीं कहीं जा सकतीं, पर सच्चा मित्र आसानी से जान लेता है और उन कमजोरियों को दूर करने का उचित एवं सुलभ मार्ग बता सकता है। इस प्रकार वह गुरु का काम दें सकता है। श्रीकृष्ण जी अर्जुन के सच्चे मित्र थे, उन्होंने उसके गुरु का काम भी किया। ऐसे सच्चे मित्रों के लिए ‘सखा’ शब्द का प्रयोग करना उपयुक्त है।

संसार में धन, संपत्ति, विद्या, ख्याति बढ़ाने के अनेक साधन हैं। उपदेशकों और धर्म चर्चा करने वालों की भी कमी नहीं है। परंतु हृदय के भीतरी कोने को जो स्पर्श कर सके, सहानुभूति, सहृदयता, और आत्मीयता के साथ मित्र के दोषों को सुन सके, साथ ही उन कमजोरियों को बढ़ावे नहीं, वरन् धीरे-धीरे उन्हें घटाने का निरंतर प्रयत्न करते रहें और अंत में अपने मित्र को आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ाते-बढ़ाते आत्मशांति तक ले पहुंचे ऐसे सखा कम हैं। जिन भाग्य वालों को सच्चे सखा मिल जाते हैं, उन्हें जीवन का सच्चा लाभ प्राप्त होता है।

मित्रता-निबाहरना — सच्ची मित्रता आत्मीयता का, अपनेपन का भाव होता है। जहां अपनापन न हो वहां मैत्री भी विडंबना ही समझनी चाहिए। मनुष्य अपनों के प्रति उदार होता है, आपने प्रिय परिजनों की प्रसन्नता और हित कामना का उसे ध्यान रहता है। मित्र के लिए भी रहना चाहिए। यह भाव है या नहीं, इसकी सबसे प्रधान परीक्षा यह है कि पीठ पीछे वह उसके संबंध में कैसे भाव व्यक्त करता है? सामने, एकांत में निंदा, आलोचना, भर्त्सना वह कर लेगा, वह पीठ पीछे प्रशंसा ही करेगा। दूसरों के मन पर मित्र के व्यक्तित्व का अच्छा चित्र अंकित करना मित्र का कर्तव्य है, क्योंकि प्रतिष्ठा भी सोने-चांदी की तरह एक प्रकार की संपत्ति है। किसी को रुपये का नुकसान पहुंचाना या उसकी प्रतिष्ठा नष्ट करना एक समान है। जिसकी समाज में प्रतिष्ठा घट जाएगी, उसे दूसरों से सहयोग कम मिलेगा, फलस्वरूप उसे आर्थिक हानि होगी। कोई आदमी अपने सच्चे हितैषी को अकारण धन की हानि पहुंचाना पसंद नहीं करता वैसे ही सच्चा मित्र भी उसकी प्रतिष्ठा को कम नहीं कर सकता। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में ‘‘गुण प्रकटै अवगुणहि दुरावा’’ उसकी प्रधान नीति होगी। मित्र के गुणों को प्रकाश में लाना, उसके अवगुणों पर समाज में पर्दा डालना, पर एकांत रूपेण सुधाने का प्रयत्न करना मित्र का कर्तव्य है।

आजकल एक फैशन-सा चल पड़ा है कि मुंह के सामने मीठी-मीठी खुशामदी बातें बनाना और पीछे-पीछे निंदा-उपहास छिद्रान्वेषण या मखौल करना एवं गुप्त भेदों तथा कमजोरियों को फैलाते फिरना, इस प्रकार का जिनका स्वभाव हो, उन्हें कपटी मित्र कहना चाहिए। ऐसे आस्तीन के सांप लाभ कम पहुंचाते हैं, हानि की उनसे अधिक संभावना रहती है। ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए। जहां परायेपन का भाव होता है, जिसके लिए हृदय में स्थान नहीं होता, उसकी निंदा प्रचारित की जा सकती है परंतु जिसे अपना मान लिया जाए, उसके सुधार के लिए तो प्रयत्न किया जाता है, पर बदनाम नहीं किया जाता।

जिस प्रकार पीठ पीछे निंदा करना परायेपन का, कपट भाव का चिह्न है, वैसे ही चापलूसी, ठाकुर सुहाती एवं खुशामद भरी बातें करके रिझाना भी धूर्तता है। ऐसी धूर्तता केवल ऐसे स्वार्थी लोग किया करते हैं, जिन्हें अपना मतलब गांठना होता है। ऐसे लोग मुंह के सामने तरह-तरह के भाव बनाकर तरह-तरह के प्रसंगों में नानाविधि प्रशंसा किया करते हैं, ऐसी खुशामद सुनने वाले को कुछ प्रसन्नता तो होती है, पर उसका मिथ्या अभिमान बढ़ने लगता है। राजा, रईस, अमीर, उमराव ऐसी ही खुशामदों द्वारा बुरी तरह बर्बाद किये जाते हैं, वे अपने दरबारी लोगों द्वारा दिन-रात अपना बड़प्पन सुनते-सुनते एक प्रकार से ‘हिप्नोटाइज्ड’ हो जाते हैं और अपने को वैसा ही मानने लगते हैं। वस्तुस्थिति छोटी या हलकी होने पर भी जब मनुष्य अपने को बड़ा मान बैठता है, तो उसकी आगे बढ़ने की प्रगति रुक जाती है, अहंकार बढ़ जाता है, साथ ही अनेक भ्रांत धारणाएं बन जाने के कारण उसका मन विकृत हो जाता है, विचारवानों की दृष्टि में ऐसे मनुष्य बहुत ही निम्न कोटि के ठहरते हैं। खुशामदी लोग केवल प्रशंसा ही करते हों सो बात नहीं, वरन् उसकी उचित-अनुचित हर एक धारणा इच्छा या आकांक्षा का समर्थन भी करते हैं। अधिकांश भोगेच्छाएं, अनीति मूलक कामनाएं ही मनुष्य के हृदय में अधिक उठती हैं, खुशामदी लोगों द्वारा उनको प्रोत्साहन एवं पोषण दिया जाता है। हम देखते हैं कि भले घरों के कितने ही लड़के ऐसे लोगों के कुसंग में पड़कर मद्यपान, व्यभिचार तथा अन्य प्रकार के दुर्व्यसनों में पड़कर बर्बाद हो गए। तालाब सूख जाने पर पखेरू उसे छोड़कर उड़ जाते हैं, उसी तरह से खुशामदी लोग भी जब देखते हैं, उनका मित्र (1) छूंछ हो गया, उसमें रस नहीं रहा, तो उसे छोड़कर दूर भाग जाते हैं। फिर उससे साधारण संबंध कायम रखना भी उन्हें पसंद नहीं होता, उलटे शत्रुता करने लगते हैं।

पीछे निंदा करना और सामने ठाकुर सुहाती कहना कपटमयी मित्रता के दो प्रधान लक्षण हैं। सच्चा मित्र पीछे-पीछे अपने मित्र के व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित बनाने का प्रचार करता है और सामने उसे उचित मार्ग पर ले जाने की खरी सलाह देता है। एक दिन में सुधरने की वह असंभव आशा नहीं करता और न जिद्द-दुराग्रह के साथ अपनी इच्छा उसके ऊपर लाद देता है, वरन् धीरे-धीरे मधुर व्यवहार द्वारा उसके अंतःकरण में ऐसे संस्कारों का आरोपण करता है, जिससे उसकी कमजोरियां स्वयमेव दूर होती जाती हैं और एक दिन वह अपने सभी प्रधान दोषों से मुक्त हो जाता है। मित्र के मनोरंजन, हास्य–विनोद, साहचर्य, आवागमन में साथ रहते हुए प्रसन्नता होनी चाहिए, छोटे-मोटे खान-पान जैसी भेंट-उपहारों का आदान-प्रदान करने में संकोच न होना चाहिए। मित्र को समृद्ध, संपन्न एवं उन्नति करने वाले लाभदायक कामों में मदद देनी चाहिए और जब उसके ऊपर कोई विपत्ति टूट पड़े तो अधिक से अधिक त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह मित्रों का साधारण धर्म है। विशेष धर्म यह है कि दो आत्माएं एक-दूसरे का आलिंगन करके आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करें और सात्त्विक आत्मबल प्राप्त करते हुए जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए एक-दूसरे को सहायता प्रदान करें।

पूरी तरह से सच्ची मित्रता का प्राप्त हो जाना बड़ा कठिन है। किन्हीं सौभाग्यशालियों को ही वैसे सखा मिलते हैं। पर इससे नीचे दर्जे के भले मानस मध्यम श्रेणी के मित्र मिल जाएं तो भी अच्छा है। वैसी मित्रता भी उपयोगी होती है। संभव है कि किसी मित्र से भूल हो, वह उतनी सच्चाई या जिम्मेदारी न प्रकट कर सके जितनी कि सच्ची मित्रता के लिए आवश्यक है, तो भी निरुत्साहित न होना चाहिए। जो भूल दूसरे की ओर से दिखाई गई हो उसकी उपेक्षा कर देना चाहिए। उलाहने के या झगड़े के रूप में नहीं, वरन् अकेले में अत्यंत मधुर शब्दों में उसे समझा देना चाहिए कि वैसी भूल करना उचित नहीं। यह बहुत ही बुरा है कि मित्र की भूल के लिए उससे पूछा न जाए या उसे समझाया न जाए, पर पेट में बुराई की गांठ के रूप में बांध लिया जाए, ऐसी गांठें जब मन में इकट्ठी होती रहती है, तो धीरे-धीरे मन-मुटाव बढ़ने लगता है और एक मित्रता टूटने का अवसर आ जाता है, इसलिए एक-दूसरे के प्रति की गई भूलों को लापरवाही के कारण हुई मानकर उपेक्षा कर देनी चाहिए और उसका कुछ प्रभाव मन पर न रहने देना चाहिए, पर यदि कोई बात ऐसी हो जिसका मन पर गहरा असर पड़ा हो, तो उसका कारण पूछ लेना चाहिए या कहा-सुनी करके मन की सफाई कर लेना चाहिए। जब सभी प्रकार के मनोगत भाव मित्र पर प्रकट किये जा सकते हैं, तो उसके प्रति संदेह उत्पन्न करने वाले भावों को भी प्रकट कर देने से छिपाने की क्या आवश्यकता है? ऐसी निष्कपटता और उदारता का व्यवहार रखने पर मित्रता स्थायी और एकसार बनी रहती है।

मित्रभाव बढ़ाने के लिए हमें यह प्रतीक्षा न करनी चाहिए कि दूसरे लोग अपनी ओर से हमसे मित्रता स्थापित करने के अवसर उपस्थित करें। वरन् जिन लोगों के साथ अपने व्यापारिक या सामाजिक क्षेत्रों में अच्छे संबंध हैं, उनमें से कुछ भले, विवेकशील और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को चुन लेना चाहिए। उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार आरंभ कर देना चाहिए। कोई सहयोग का, भेंट-उपहार का, सलाह का, समय देने का, कठिनाई में हाथ बटाने का अवसर आये तो उसे बिना चूके अपना सहयोग देना चाहिए। मन, वचन एवं कार्य द्वारा किसी के द्वारा आत्मीयता का व्यवहार होते हुए जब देखा जाता है तो मन बरबस उधर खिंच जाता है। लगातार बार-बार आत्मीयता के परिचय अपनी ओर से उपस्थित करने पर दूसरा भी वैसा करने को विवश होता है। यह सहयोग कुछ समय तक लगातार चलता रहे, एक-दूसरे को अपनी सद्भावनाओं का आदान-प्रदान करते रहें तो संबंध सुदृढ़ एवं स्थायी हो जाते हैं और मित्र-भाव बढ़ जाता है। अपने से जो किसी भी दृष्टि से अधिक बड़े हैं, उनकी योग्यता एवं महत्ता का प्रभावशाली छाया ग्रहण करने के लिए उनसे मित्र भाव बढ़ाना आवश्यक है। इसी प्रकार जो अपने से छोटे हैं, उन्हें अपना सहयोग देकर ऊंचा उठाने की मानवता मयि आकांक्षाओं के साथ मित्र बनाना चाहिए। मित्रता बड़ों से और छोटों से दोनों में ही समान रूप से उपयोगी है। बड़े लोग अपनी कृपा से हमें ऊंचा उठाते हैं और छोटे लोग सेवा-सहायता करने का अवसर देकर हमारी सात्त्विकता को, परमार्थता को जाग्रत और चरितार्थ होने का स्वर्ण सुयोग प्रदान करते हैं। बड़ों की कृपा प्राप्त करके जैसे इहलोक और परलोक की संपदा मिलती है वैसी ही श्री समृद्धि छोटों की सेवा-सहायता से भी उपलब्ध होती है। इसलिए छोटे और बड़े का भेद-भाव न करके सज्जनता का ध्यान रखकर मित्रता का चुनाव करते समय रखना चाहिए।

मैत्री निःस्वार्थ होनी चाहिए। दो आत्माओं की एकता का जो आध्यात्मिक आनंद है। असल में वही मित्रता का सबसे बड़ा स्वार्थ है। लोग संपत्ति को प्राप्त करके सुख अनुभव करते हैं, चेतन आत्मा को जड़ संपत्ति की समीपता से भी कुछ सुख मिलता है, परंतु चेतन आत्मा को दूसरी स्वजातीय चेतन आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करके जो सुख मिलता है, वह अवर्णनीय है। परमात्मा में आत्मा को मिलाकर योगीजन परमानंद प्राप्त करते हैं, परंतु आत्मा में आत्मा को मिलाकर साधारण मनुष्य भी एक विशेष आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। जिन पति-पत्नी में पूर्ण रूप से आत्मा का केंद्रीकरण हो जाता है, वे जानते हैं कि उनको जीवन की प्रत्येक तरंग कितनी रसमयी होती है? प्रेम को उपनिषदों ने परमात्मा कहा है। श्रुति कहता है कि ‘रसो वै सः’ अर्थात् प्रेम ही परमात्मा है। भक्ति द्वारा, प्रेम द्वारा ही परमात्मा को प्राप्त किया जाता है। इस प्रेम को विकसित करने की आरंभिक सीढ़ी मैत्री है। दार्शनिक कारलाइल ने कहा है ‘‘जो सच्ची मित्रता करने में सफल नहीं हुआ, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।’’ सांसारिक सुख-दुःख में साझीदार बनना, उन्नति के पथ में सहायक बनाना ही मैत्री का लाभ नहीं है, वरन् आध्यात्मिक विकास उसका प्रमुख उद्देश्य है। गुरु भक्ति को योगशास्त्रों में अत्यधिक महत्त्व दिया है। गुरु को ईश्वर की बराबर समझकर उसकी मन, कर्म और वचन से भक्ति करने का आदेश दिया है, इसका रहस्य यह है कि पहले हम मनुष्य से सच्ची निःस्वार्थ पवित्र-आध्यात्मिक मित्रता करें, जब वह जमने लगेगी, परिपक्व होने लगेगी, तो ईश्वरीय प्रेम अपने आप उपलब्ध हो जायेगा। आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु भक्ति की, गृहस्थी क्षेत्र में दांपत्य प्रेम की अधिक महिमा है। सामाजिक क्षेत्र में भी सन्मैत्री का वैसा ही स्थान है। जिसे कुछ थोड़े से भी सच्चे मित्र उपलब्ध हैं, वह धन्य है।

हर एक मित्रता करने वाले को यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि मित्रता का उद्देश्य ‘आत्मसुख’ है। उसे व्यापार या भिक्षावृत्ति न मान लेना चाहिए। अमुक व्यक्ति से हमारी मित्रता है, इसलिए उससे अमुक-अमुक लाभ हम उठाएंगे, ऐसी कल्पनाएं न बांधनी चाहिए। जो ऐसी आशा बांधते हैं वे मित्र नहीं, व्यापारी या भिक्षुक हैं। जो मित्रों की आशा पर अपने प्रयत्न छोड़ देते हैं। स्वयं अपने बलबूते पर अपना पतवार आप नहीं खेते उनकी नांव मझधार में डूबती है। कभी स्पष्ट या खुले शब्दों में इस प्रकार अपनी आवश्यकता मित्र के सामने प्रकट न करनी चाहिए कि उसे पूरे न कर सकने पर स्वयं दुख हो या मित्र को शर्मिंदगी उठानी पड़े।

यदि अच्छे व्यक्तियों का संग प्राप्त न हो, तो बिना संग के रहना अच्छा, पर कुसंग से, दुष्ट लोगों की समीपता से तो सदा ही दूर रहना चाहिए। साधारण संबंधों को भी मधुर व्यवहार से हम मित्रता जैसा बना सकते हैं। मधुर वार्तालाप और उदार व्यवहार से सहज ही दूसरों का मन अपनी ओर आकर्षित होता है। इस प्रकार साधारण संबंधों को भी मधुर बनाकर मैत्री जैसा आनंद उपलब्ध किया जा सकता है। एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि मित्र का समय अनावश्यक रीति से गपशप में या निरर्थक बातों में खर्च न कराया जाए, जिससे उसके आवश्यक कार्यक्रम में रुकावट हो, जीविका में बाधा पड़े या उसके घर वालों को कष्ट हो, इसी प्रकार मित्रता के नाम पर किसी के पैसे खर्च कराने से भी सतर्क रहना चाहिए क्योंकि इन सब बातों से मित्रता कमजोर पड़ने लगती है और एक दिन उसके टूटने का अवसर आ जाता है।

अच्छे मित्र न मिलें तो उत्तम ज्ञानवर्धक, जीवन को ऊंचा उठाने वाली अच्छी पुस्तकें पढ़नी चाहिए। पुस्तकों के माध्यम द्वारा हम संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों से सत्संग कर सकते हैं, उनके अनुभव और विचारों से लाभ उठा सकते हैं। पुस्तकों में ज्ञान का अपार भंडार छिपा पड़ा है, उनमें असंख्य उद्योगी, आदर्श व्यक्तियों के अनुभव दबे पड़े हैं उन्हें हृदयंगम करके भी हम मित्रता के लाभों को उठा सकते हैं। सच्ची संगति का, सच्ची मित्रता का महत्त्व अपार है। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में उसकी महिमा अनिर्वचनीय है—

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।।

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