
प्रयोजन के अनुरूप दायित्व भी भारी
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‘अखण्ड ज्योति’ हिन्दी मासिक तथा अन्य भाषाओं में उसके संस्करणों के स्थाई सदस्यों की संख्या प्राय: पाँच लाख है। ‘अखण्ड ज्योति’ के पाठकों के साथ विगत पचास वर्षों से सम्पर्क, विचार- विनिमय और परामर्श का क्रम चलता रहा है। इनमें से अधिकांश ऐसे हैं, जो कई- कई बार यात्राएँ करके यहाँ आते और घनिष्ठता सम्पादन करते रहे हैं। इस आधार पर इन्हें परिवार के सदस्य और परिजन माना जाता रहा है। शिक्षक भी अभिभावकों की गणना में आते हैं। गोत्र वंश- परम्परा से भी मिलते हैं और अध्यापक- परम्परा से भी। इतना बड़ा परिवार अनायास ही कैसे जुट गया? सम्भवत: पूर्व जन्मों के संचित किन्हीं संस्कारों ने यह मिलन- संयोग स्तर का सुयोग बना दिया हो।
महत्त्वपूर्ण प्रसंगों पर स्वजन- सम्बन्धी ही याद किए जाते हैं। उन्हें ही हँसी- खुशी एवं दुःख दर्द के प्रसंगों में याद किया जाता है। सहभागी भी प्राय: वे रहते हैं। बाहर के लोग तो कौतुक- कौतूहल भर देखने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए उनसे कोई बड़ी आशा- अपेक्षा भी नहीं की जाती। महाभारत में कृष्ण का प्रयोजन पूरा करने के लिए पाँच पाण्डव ही आगे रहे। पंच प्यारे सिख धर्म में भी प्रसिद्ध हैं। महाकाल के सौंपे हुए नवसृजन का दायित्व भी भारी है और उसमें भाग लेने वालों को श्रेय भी असाधारण मिलने वाला है। इसलिए हर किसी से बड़ी आशा भी नहीं की जा सकती। पाँच में से एक उभर आए, तो बहुत है। पाँच लाख की स्थिति देखते हुए यदि एक लाख कदम से कदम मिलाकर चल सकें, तो बहुत हैं। इतनों के सहारे सौंपा हुआ दायित्व भी निभ जाएगा।
मनुष्य शरीर पाँच तत्त्वों का बना है। अन्य शरीरधारियों की तरह उसकी भी संरचना है, इसलिए अन्य प्राणियों की तरह शारीरिक दृष्टि से उसमें भी सीमित सामर्थ्य ही पाई जाती है। उच्चस्तरीय मनोबल तो केवल मनुष्य को ही प्राप्त है, जिसके बल पर गाँधी जैसा ५ फीट २ इंच और ९६ पौंड वजन का व्यक्ति भी संसार को हिला देने वाले काम कर सकता है। बुद्ध, परशुराम जैसों में ऐसे ही लोगों की गणना होती है।
मनोबल कुछ तो शरीर में भी होता है, जिसके आधार पर वह थोड़ी हिम्मत दिखाता और किसी सीमा तक साहस का परिचय देता है। असाधारण मनोबल जो प्रवाह को उलट सके और वातावरण को उलट कर किसी नए ढाँचे में बदल सके, इतना अनुदान दैवी चेतना के विशेष अनुग्रह से ही प्राप्त होता है। उस प्रकार की उपलब्धि न होने पर मात्र कायिक पुरुषार्थ कुछ थोड़ा- बहुत ही कर या चल पाता है। कंकड़- पत्थर जहाँ- तहाँ पड़े रहते हैं; पर सोना- चाँदी जैसी बहुमूल्य वस्तुओं को कीमती तिजोरियों में संचित कर रखा जाता है। शरीरगत स्वल्प परिश्रम या पुरुषार्थ तो किसी सीमा तक हर किसी को प्राप्त होता है; पर उसके सहारे बन प्राय: इतना ही पड़ता है कि शारीरिक आवश्यकताएँ या क्रियाएँ पूरी हो सकें। कान, संगीत से लेकर चापलूसी भरी प्रशंसा सुनने भर के लिए लालायित रहता है। आँखों को सुन्दर- सुहावने दृश्यों में रुची होती है। जीभ को नए- नए स्वाद चाहिए। जननेन्द्रिय का प्रवाह भी प्राय: अधोगामी होता है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है, उसे संग्रह की तृष्णा और बड़प्पन की प्रशंसा चाहिए। इतनी ही परिधि के पुरुषार्थ प्राय: शरीर कर पाता है, पर जिसमें आत्मबल की आवश्यकता पड़ती है, वह दैवी वरदान की तरह प्राप्त होता है। उसके लिए छिटपुट कर्मकाण्ड या चिह्न- पूजा जैसे उपहार- मनुहार प्रस्तुत करने से भी काम नहीं चलता, उसके लिए आवश्यक पात्रता चाहिए।
किसी बरतन में कितना पानी भरा जा सकता है, यह उसकी गहराई और चौड़ाई से विदित होता है। शरीर का बाहरी कलेवर तो इन्द्रियजन्य आवश्यकता तक के काम आकर समाप्त हो जाता है, किन्तु जिसे तेजस्वी प्रतिभा कहा जाता है, वह तो मनोबल या आत्मबल से संग्रह होती है। उसे प्राप्त करने के लिए ऐसे आदर्शवादी पुरुषार्थ करने पड़ते हैं, जो शारीरिक सुविधा तक सीमित न हों वरन् पुण्यपरमार्थ जैसे अभ्यासों में अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकें। यही अन्तराल की वह गहराई है, जिसे माप कर दैवी अनुग्रह बरसते हैं और ओजस्वी, तेजस्वी व मनस्वी स्तर की उच्च उपलब्धियाँ हस्तगत की जाती हैं।
रहने का छोटा- सा घर बनाने के लिए कितना समय, श्रम और पैसा लगता है, इसे सभी जानते हैं, फिर विश्व का नवनिर्माण करने के लिए कितना मनोबल, कितना श्रम, कितने साधन चाहिए, उसका अनुमान लगाना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। इतना वर्चस्व किसी मनुष्य- तनधारी में नहीं हो सकता। इसके लिए ईश्वरीय आत्मबल एवं सुसंस्कारित द्वारा संचित मनोबल की बहुत बड़ी मात्रा चाहिए और उसे प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। आवश्यकता एक ही बात की है और वह है- आदर्शों का परिपालन निष्ठापूर्वक किया जाए। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के प्रति गहरी आस्था हो, अपना मूल्य और महत्त्व समझा जाए और जो क्षमता जन्मजात रूप से उपलब्ध है, उसका समुचित उपयोग किया जाए।
मनुष्य के पूर्वसंचित संस्कारों का संग्रह तथा उसके फलित होने का अवसर मोटे तौर से हस्तरेखाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करके जाना जा सकता है। अँगूठे की छाप व्यक्ति की हस्तरेखाओं की तरह ही भिन्न होती है। जिसकी इन्हें समुचित जानकारी है, वे मनुष्य की भावी सम्भावनाओं, उनकी रोकथाम तथा बढ़ोत्तरी करने के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जान सकते हैं। अनिष्टों को रोकने तथा अशुभ सम्भावनाओं की रोकथाम करने के सम्बन्ध में क्या उपाय किया जाए, इस सन्दर्भ में भी अनुमान लगाने तथा उपाय खोजने में समर्थ हो सकते हैं।
फोटोग्राफी से मात्र आकृति सम्बन्धी जानकारी ही नहीं मिलती वरन् उससे गुण, कर्म, स्वभाव के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जाना समझा जा सकता है। ये जानकारियाँ मात्र वस्तुस्थिति को ही नहीं बताती वरन् भावी सम्भावनाओं एवं बीते हुए घटनाक्रमों का भी आभास देती हैं। साधारणतः तो यह अंकन भिन्नतासूचक चित्र- विचित्र जानकारियाँ ही दे पाते हैं, पर जिन्हें इनके सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान है, वे यह पता भी लगा लेते हैं कि अगले दिनों क्या कुछ शुभ- अशुभ घटनाक्रम घटित होने जा रहा है। इस आधार पर कठिनाइयों का निवारण- निराकरण ही नहीं, सुखद सम्भावनाओं के अधिक अच्छी तरह फलित होने के सम्बन्ध में भी मार्गदर्शन किए जा सकते हैं। कोई भी घटनाक्रम अनिवार्य या अकाट्य नहीं है। उन सभी के उपाय- उपचार हैं।
कई रोग असाध्य या कष्टसाध्य समझे जाते हैं, पर ऐसा नहीं है कि उनका उपाय- उपचार हो ही न सकता हो? मनुष्य को अपने भाग्य का विधाता इसी दृष्टि से कहा गया है कि वह जहाँ भवितव्यता से प्रेरित रहता है, वहाँ उसमें उस क्षमता के बीज भी मौजूद हैं कि निवारण- निराकरण के उपाय खोज सके, भवितव्यता को टाल सके और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके। यदि बदलाव सम्भव न हो तो मनुष्य भाग्यचक्र की कठपुतली मात्र बनकर ही रह जाएगा।
महत्त्वपूर्ण प्रसंगों पर स्वजन- सम्बन्धी ही याद किए जाते हैं। उन्हें ही हँसी- खुशी एवं दुःख दर्द के प्रसंगों में याद किया जाता है। सहभागी भी प्राय: वे रहते हैं। बाहर के लोग तो कौतुक- कौतूहल भर देखने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए उनसे कोई बड़ी आशा- अपेक्षा भी नहीं की जाती। महाभारत में कृष्ण का प्रयोजन पूरा करने के लिए पाँच पाण्डव ही आगे रहे। पंच प्यारे सिख धर्म में भी प्रसिद्ध हैं। महाकाल के सौंपे हुए नवसृजन का दायित्व भी भारी है और उसमें भाग लेने वालों को श्रेय भी असाधारण मिलने वाला है। इसलिए हर किसी से बड़ी आशा भी नहीं की जा सकती। पाँच में से एक उभर आए, तो बहुत है। पाँच लाख की स्थिति देखते हुए यदि एक लाख कदम से कदम मिलाकर चल सकें, तो बहुत हैं। इतनों के सहारे सौंपा हुआ दायित्व भी निभ जाएगा।
मनुष्य शरीर पाँच तत्त्वों का बना है। अन्य शरीरधारियों की तरह उसकी भी संरचना है, इसलिए अन्य प्राणियों की तरह शारीरिक दृष्टि से उसमें भी सीमित सामर्थ्य ही पाई जाती है। उच्चस्तरीय मनोबल तो केवल मनुष्य को ही प्राप्त है, जिसके बल पर गाँधी जैसा ५ फीट २ इंच और ९६ पौंड वजन का व्यक्ति भी संसार को हिला देने वाले काम कर सकता है। बुद्ध, परशुराम जैसों में ऐसे ही लोगों की गणना होती है।
मनोबल कुछ तो शरीर में भी होता है, जिसके आधार पर वह थोड़ी हिम्मत दिखाता और किसी सीमा तक साहस का परिचय देता है। असाधारण मनोबल जो प्रवाह को उलट सके और वातावरण को उलट कर किसी नए ढाँचे में बदल सके, इतना अनुदान दैवी चेतना के विशेष अनुग्रह से ही प्राप्त होता है। उस प्रकार की उपलब्धि न होने पर मात्र कायिक पुरुषार्थ कुछ थोड़ा- बहुत ही कर या चल पाता है। कंकड़- पत्थर जहाँ- तहाँ पड़े रहते हैं; पर सोना- चाँदी जैसी बहुमूल्य वस्तुओं को कीमती तिजोरियों में संचित कर रखा जाता है। शरीरगत स्वल्प परिश्रम या पुरुषार्थ तो किसी सीमा तक हर किसी को प्राप्त होता है; पर उसके सहारे बन प्राय: इतना ही पड़ता है कि शारीरिक आवश्यकताएँ या क्रियाएँ पूरी हो सकें। कान, संगीत से लेकर चापलूसी भरी प्रशंसा सुनने भर के लिए लालायित रहता है। आँखों को सुन्दर- सुहावने दृश्यों में रुची होती है। जीभ को नए- नए स्वाद चाहिए। जननेन्द्रिय का प्रवाह भी प्राय: अधोगामी होता है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है, उसे संग्रह की तृष्णा और बड़प्पन की प्रशंसा चाहिए। इतनी ही परिधि के पुरुषार्थ प्राय: शरीर कर पाता है, पर जिसमें आत्मबल की आवश्यकता पड़ती है, वह दैवी वरदान की तरह प्राप्त होता है। उसके लिए छिटपुट कर्मकाण्ड या चिह्न- पूजा जैसे उपहार- मनुहार प्रस्तुत करने से भी काम नहीं चलता, उसके लिए आवश्यक पात्रता चाहिए।
किसी बरतन में कितना पानी भरा जा सकता है, यह उसकी गहराई और चौड़ाई से विदित होता है। शरीर का बाहरी कलेवर तो इन्द्रियजन्य आवश्यकता तक के काम आकर समाप्त हो जाता है, किन्तु जिसे तेजस्वी प्रतिभा कहा जाता है, वह तो मनोबल या आत्मबल से संग्रह होती है। उसे प्राप्त करने के लिए ऐसे आदर्शवादी पुरुषार्थ करने पड़ते हैं, जो शारीरिक सुविधा तक सीमित न हों वरन् पुण्यपरमार्थ जैसे अभ्यासों में अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकें। यही अन्तराल की वह गहराई है, जिसे माप कर दैवी अनुग्रह बरसते हैं और ओजस्वी, तेजस्वी व मनस्वी स्तर की उच्च उपलब्धियाँ हस्तगत की जाती हैं।
रहने का छोटा- सा घर बनाने के लिए कितना समय, श्रम और पैसा लगता है, इसे सभी जानते हैं, फिर विश्व का नवनिर्माण करने के लिए कितना मनोबल, कितना श्रम, कितने साधन चाहिए, उसका अनुमान लगाना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। इतना वर्चस्व किसी मनुष्य- तनधारी में नहीं हो सकता। इसके लिए ईश्वरीय आत्मबल एवं सुसंस्कारित द्वारा संचित मनोबल की बहुत बड़ी मात्रा चाहिए और उसे प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। आवश्यकता एक ही बात की है और वह है- आदर्शों का परिपालन निष्ठापूर्वक किया जाए। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के प्रति गहरी आस्था हो, अपना मूल्य और महत्त्व समझा जाए और जो क्षमता जन्मजात रूप से उपलब्ध है, उसका समुचित उपयोग किया जाए।
मनुष्य के पूर्वसंचित संस्कारों का संग्रह तथा उसके फलित होने का अवसर मोटे तौर से हस्तरेखाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करके जाना जा सकता है। अँगूठे की छाप व्यक्ति की हस्तरेखाओं की तरह ही भिन्न होती है। जिसकी इन्हें समुचित जानकारी है, वे मनुष्य की भावी सम्भावनाओं, उनकी रोकथाम तथा बढ़ोत्तरी करने के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जान सकते हैं। अनिष्टों को रोकने तथा अशुभ सम्भावनाओं की रोकथाम करने के सम्बन्ध में क्या उपाय किया जाए, इस सन्दर्भ में भी अनुमान लगाने तथा उपाय खोजने में समर्थ हो सकते हैं।
फोटोग्राफी से मात्र आकृति सम्बन्धी जानकारी ही नहीं मिलती वरन् उससे गुण, कर्म, स्वभाव के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जाना समझा जा सकता है। ये जानकारियाँ मात्र वस्तुस्थिति को ही नहीं बताती वरन् भावी सम्भावनाओं एवं बीते हुए घटनाक्रमों का भी आभास देती हैं। साधारणतः तो यह अंकन भिन्नतासूचक चित्र- विचित्र जानकारियाँ ही दे पाते हैं, पर जिन्हें इनके सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान है, वे यह पता भी लगा लेते हैं कि अगले दिनों क्या कुछ शुभ- अशुभ घटनाक्रम घटित होने जा रहा है। इस आधार पर कठिनाइयों का निवारण- निराकरण ही नहीं, सुखद सम्भावनाओं के अधिक अच्छी तरह फलित होने के सम्बन्ध में भी मार्गदर्शन किए जा सकते हैं। कोई भी घटनाक्रम अनिवार्य या अकाट्य नहीं है। उन सभी के उपाय- उपचार हैं।
कई रोग असाध्य या कष्टसाध्य समझे जाते हैं, पर ऐसा नहीं है कि उनका उपाय- उपचार हो ही न सकता हो? मनुष्य को अपने भाग्य का विधाता इसी दृष्टि से कहा गया है कि वह जहाँ भवितव्यता से प्रेरित रहता है, वहाँ उसमें उस क्षमता के बीज भी मौजूद हैं कि निवारण- निराकरण के उपाय खोज सके, भवितव्यता को टाल सके और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके। यदि बदलाव सम्भव न हो तो मनुष्य भाग्यचक्र की कठपुतली मात्र बनकर ही रह जाएगा।