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Books - बच्चे और उनका मनोविज्ञान

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Language: HINDI
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बालक का सामाजिक विकास

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मानव सामाजिक प्राणी है। इस कथन की सत्यता का आभास शिशु के प्रारम्भिक जीवन से ही मिलने लगता है। जिस प्रकार प्रौढ़ व्यक्ति विभिन्न आवश्यकताओं के लिये दूसरों पर निर्भर रहता है, उसी प्रकार बालक भी दूसरों की सहायता पर आश्रित रहता है। ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता है, दूसरों पर उसकी निर्भरता कम होती जाती है तथापि दूसरों के सम्पर्क बिना वह कभी नहीं रह सकता। फलतः विभिन्न लोगों से उसका सम्पर्क बढ़ता जाता है। इन विभिन्न लोगों की उसमें उतनी रुचि नहीं होती, जितनी कि उसके माता-पिता उसमें रुचि रखते हैं।

फलतः उसके व्यवस्थापन में कठिनाइयां आती हैं। इन कठिनाइयों तथा उसके उत्तरोत्तर विकास के कारण उसका सामाजिक व्यवहार जटिलतर रूप लेता जाता है। बालक के पूरे विकास पर उसके सामाजिक सम्पर्क का बड़ा प्रभाव पड़ता है। बचपन में विभिन्न बातों का प्रभाव व्यक्ति पर बहुत शीघ्र पड़ जाता है। अतः विभिन्न प्रभावों द्वारा उसका विकास किसी भी प्रकार का बनाया जा सकता है। बालक का पहला सामाजिक सम्पर्क कुटुम्ब होता है। इसीलिये उसकी प्रारम्भिक आदतें तथा अभिवृत्तियां कुटुम्ब द्वारा ही निर्धारित होती हैं। सामाजिक विकास का अर्थ दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार कर सकने की योग्यता तथा अपने पैरों पर खड़ा हो सकने की शक्ति से है। अपनी अभिरुचियों, अभिवृत्तियों, रुचियों, आदतों तथा व्यवहार में प्रौढ़ता प्राप्त करने को सामाजिक विकास कहा जा सकता है। यह प्रौढ़ता अचानक नहीं आ जाती। यह धीरे-धीरे आती है और सामान्यतः बालक के शारीरिक विकास के साथ-साथ यह भी आती रहती है।

 सामाजिक विकास के साथ नई रुचियों, नए व्यवहार तथा नए प्रकार के मित्रों के चुनाव में वृद्धि होती है। सामाजिक विकास की दृष्टि से प्रौढ़ व्यक्ति केवल दूसरों के साथ रहना नहीं चाहता, वरन् दूसरों के साथ काम भी करना चाहता है। सामाजिक विकास अन्य प्रकार के विकास से स्वतन्त्र नहीं होता। सामाजिक विकास का शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास तथा व्यक्तित्व विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुतः सामाजिक विकास इन सब विविध विकासों का एक प्रकार से गुणनफल है। दूसरों के साथ सामाजिक व्यवहार दिखलाना बालक धीरे-धीरे सीखता है। यह सीखना विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व के सम्पर्क में आने पर निर्भर करता है। इस सम्पर्क का ज्यों-ज्यों उसे अवसर मिलेगा, उसका सामाजिक विकास होता जायेगा। बालक के वांछित सामाजिक विकास के लिये एक निश्चित योजना और निर्देशन की आवश्यकता है।

यदि बालक बुरे समूह के प्रभाव में आ गया तो उसका सामाजिक विकास दूषित हो जायेगा। बालक के पास इतना अनुभव नहीं होता कि वह अपना विकास सुचारु रूप से संचालित कर सके। अतः माता-पिता, शिक्षक और अभिभावकों को इस विषय में बड़ा सतर्क रहना चाहिए। सामाजिक विकास के साथ-साथ बालक अपने व्यक्तित्व का स्थापन भी करता रहता है। ज्यों-ज्यों बालक अपने आत्म-प्रकाशन में सफल होता जाता है, उसका सामाजिक विकास बढ़ता हुआ कहा जा सकता है, क्योंकि इसके साथ अपने पैरों पर खड़ा होने की भी उसमें शक्ति आ जाती है और कुछ अपनी ऐसी मान्यताओं और आकांक्षाओं का प्रकाशन करता है, जिनमें सामाजिकता निहित होती है। इस विकास के साथ वह अपने व्यवहार में अधिक व्यैक्तिक और स्वतन्त्र दिखलाई पड़ता है।

अब ऐसा जान पड़ता है कि अपनी बातों में वह अपनी रुचि को भी प्रधानता देना चाहता है। अब दूसरों के इशारों पर ही नाचना उसे पसन्द नहीं रहता, परन्तु इस सबका यह अर्थ नहीं कि उसमें सामाजिकता की कमी आ रही है। वस्तुतः एक प्रकार से सामाजिकता अब बढ़ जाती है। पहले ही की तरह अब भी वह दूसरों के साथ रहने में प्रसन्नता का भाव प्रकट करता है। दूसरों के साथ का वह स्वागत करता है। दूसरों के साथ वह सहानुभूति और दया का भाव दिखलाता है। वह दूसरों से प्रशंसा की कामना करता है। वह अपने दल के साथ भक्ति दिखलाता है और उसके आदर्शों के अनुसार चलने के लिये सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। बालकों के सामाजिक विकास की धारा एक क्रम में चलती है।

 इस क्रम के कारण ही यह अनुमान करना कठिन नहीं होता कि किस अवस्था विशेष में उनके सामाजिक विकास का साधारण स्वरूप क्या होगा? इस स्वरूप के ज्ञान के आधार पर कहा जा सकता है कि किस उम्र पर वह दूसरों के बीच अधिक खेलने का इच्छुक होगा और किस उम्र पर उसमें प्रतियोगिता अथवा नेतृत्व की भावना का प्रादुर्भाव होगा? सामाजिक व्यवहार के कुछ रूप—प्रारम्भिक सामाजिक सम्पर्क के फलस्वरूप बालक कुछ ऐसे सामाजिक व्यवहार सीख लेता है, जो आगे चलकर उसके व्यवस्थापन में बड़ी सहायता करते हैं। अन्य बालकों के साथ खेल में बालक यह सीखता है कि समूह में अन्य बालकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये और अपनी वस्तुओं में दूसरों को कैसे हिस्सा देना चाहिये? दूसरों के भावों, शब्दों और क्रियाओं के अनुकरण से बालक अपने को दूसरों के समान बनाने का प्रयत्न करता है, जिससे समूह के लोग उसे सहर्ष स्वीकार कर सकें।

अतः वह वही कार्य करना चाहता है, जिससे उसे सामाजिक प्रशंसा मिले। तीन वर्ष की अवस्था के बालकों में कुछ अकड़न देखी जाती है और अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी बात को मानना वे अस्वीकार कर देते हैं। उनके व्यवहार का यह रूप सामान्य समझना चाहिये, क्योंकि यह सभी बालकों में प्रायः पाया जाता है। चौथे साल के बाद अकड़न में कुछ कमी आ जाती है, क्योंकि बालक यह समझने लगता है कि प्रौढ़ों के रहने अनुसार चलने में उसी का लाभ है। इस अकड़न में कमी आने का यह भी कारण हो सकता है कि प्रौढ़ लोग भी बच्चे की इच्छाओं का आदर करना धीरे-धीरे आवश्यक समझने लगते हैं। चौथे वर्ष की अवस्था से बालकों के व्यवहार में द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता की भावना विशेष देखी जाती है। द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता से बालक अपनी कोटि के अन्य बालकों से क्रियाशीलता तथा वस्तुओं के संकलन में बढ़ जाना चाहता है, जिससे कि दूसरों से वह प्रशंसा प्राप्त करे।

 छोटे बच्चे एक दूसरे के साथ खेलना चाहते हैं, परन्तु साथ ही वे आपस में झगड़ा भी खूब करते हैं, क्योंकि खेल में सहयोग दिखलाने की प्रवृत्ति अभी उनमें ठीक से नहीं पाई जाती। झगड़े में बालक दूसरे का खेल अथवा वस्तुएं बिगाड़ देता है, रोता है, चिल्लाता है अथवा दूसरों से लड़ाई करता है। जब घर में कोई नया खिलौना आता है और वह इतनी संख्या में नहीं है कि दूसरों को भी दिया जा सके तो उसके लिये बच्चों में झगड़ा अवश्य होता है। बच्चों में झगड़ा या आपसी मनमुटाव केवल थोड़ी ही देर के लिये होता है, फिर बाद में उनमें पूर्ववत् मित्रता स्थापित हो जाती है। इस प्रकार झगड़ा और मित्रता बच्चों में साथ ही साथ चलती रहती है। छोटे बच्चों की अपेक्षा बड़े बच्चों में अधिक झगड़ा होता है, क्योंकि दूसरे बच्चों के सम्पर्क में वे अत्यधिक नहीं आते। ‘

ऐवेल’ का कहना है कि 2 वर्ष के बच्चों की अपेक्षा चार वर्ष के बच्चे अधिक देर तक झगड़ा करते हैं और बड़े लड़के अपने झगड़ों में भय का प्रदर्शन अधिक करते हैं। भय में चिल्लाते हैं, शाब्दिक विरोध करते हैं या झगड़े के निपटारे के लिये बड़ों के पास जाते हैं। बच्चे ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं उनका सामाजिक व्यवस्थापन होता जाता है और वे कम झगड़े करते हैं। बच्चों के झगड़ों में लिंगभेद भी पाया जाता है। ‘ग्रीन’ के अनुसार लड़के, लड़कियों की अपेक्षा अधिक झगड़े प्रारम्भ करते हैं और बदला लेने की भावना उनमें अधिक होती है। लड़के झगड़ों में अधिक शारीरिक शक्ति लगाते हैं, अथवा मारपीट करते हैं और लड़कियां झगड़े में शाब्दिक तर्क और विरोध बहुत करती हैं। झगड़ा करने के साथ-साथ कुछ लड़कों में दूसरों को तंग करने या चिढ़ाने की भी आदत होती है।

 चिढ़ाने के लिये दूसरे के किसी दोष की ओर संकेत किया जाता है अथवा किसी उपनाम से उसे पुकारा जाता है। तंग करने में चुटकी काटना, पिन चुभाना, बाल या कपड़े खींचना, धक्का देना, बैठते समय पीछे से कुर्सी खींच लेना या बैठने से पहले कुर्सी पर कोई ऐसी वस्तु रख देना जो बैठने से शरीर में गढ़े। इस प्रकार की शरारतें छोटे बच्चों की अपेक्षा बड़े बच्चे अधिक करते हैं। वस्तुतः बड़े बच्चे ही छोटे बच्चों को इस प्रकार परेशान करते हैं। लड़के लड़कियों से अधिक ऐसा व्यवहार दिखाते हैं। जिन लड़कों का सामाजिक व्यपन वस्था ठीक नहीं हुआ रहता है और जो आत्महीनता के भावना ग्रन्थि के अभियुक्त रहते हैं वे ही दूसरों को इस प्रकार परेशान करते हैं। सामाजिक स्वीकृति की अभिलाषा— सामाजिक स्वीकृति की अभिलाषा सार्वलौकिक है।

अतः एक छोटा शिशु भी चाहता है कि लोग उसी की ओर आकर्षित हों और उसकी क्रियाशीलताओं तथा कार्यों की प्रशंसा करें। चौथे या पांचवे वर्ष की अवस्था से बच्चे की आत्म चेतनता इस बिन्दु पर पहुंच जाती है कि उसके लिये प्रकाशन की आवश्यकता होती है। बात-चीत कर सकने के पहले ही बच्चा यह समझने लगता है कि वह दूसरों के आकर्षण और प्रशंसा का केन्द्र हो रहा है। जब दूसरे लोग उसकी विविध गतियों पर ध्यान देते हैं तो वह प्रसन्न होता है और जब उस पर कोई ध्यान नहीं देते तो वह दुःखी होता है। घर के लोग यदि उस पर बहुत ध्यान देते हैं तो बड़ा होने पर उसको कुछ निराशा का सामना करना होगा, क्योंकि बाहरी लोग उस पर उतना ध्यान नहीं दें सकते। ऐसा प्रायः इकलौते अथवा जेष्ठ बच्चों के सम्बन्ध में देखा जाता है। अपेक्षानुसार दूसरों का ध्यान आकर्षित न कर सकने पर बच्चे लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिये कुछ नए उपायों को अपनाने का प्रयत्न करते हैं।

विकास की प्रत्येक अवस्था के साथ बच्चे की यह इच्छा बढ़ती जाती है कि लोग उसके कार्यों की प्रशंसा करें। प्रारम्भ में तो वह प्रौढ़ों से ही प्रशंसा की अपेक्षा करता है, परन्तु बाद में वह अपनी उम्र के अन्य बच्चों से भी प्रशंसा पाने की कामना करने लगता है। इस कामना की पूर्ति के लिये वह सभी संभव साधनों का सहारा लेता है और इसमें सफलता पाने पर उसके आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। अपने कार्यों से दूसरों को प्रभावित करने के क्रम में बच्चे कुछ ऐसे कार्य अवश्य कर जाते हैं कि जिनका प्रौढ़ लोग विरोध करते हैं और समाज निन्दा करता है। यदि बच्चे देखते हैं कि उसके कार्यों की प्रशंसा नहीं की जा रही है तो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये वे कुछ असामाजिक व्यवहार भी दिखाते हैं।

असामाजिक कार्य—किशोरावस्था आने के थोड़ा पहले लड़कियों में 12 वे वर्ष और लड़कों में 14 वे वर्ष के लगभग कुछ असामाजिक व्यवहार दिखलाने की प्रवृत्ति बहुत दिन तक नहीं चलती। लड़कियों में केवल दो-तीन साल और लड़कों में इससे कुछ अधिक समय तक यह प्रवृत्ति रहती है। तरुणावस्था के प्रारम्भ होते ही इस प्रवृत्ति का लोप हो जाता है। इस समय लड़के और लड़कियां दोनों दूसरों के शब्दों का गलत अर्थ लगाते हैं और सोचते हैं कि उनके पहले के मित्र अब शत्रु हो रहे हैं और जो पहले प्रेम करते थे वे ही अब कटु शब्द बोलते हैं। इस भावना के कारण वे अपने घर, माता-पिता तथा समाज की बहुधा निन्दा करते हैं। किसी कार्य में हाथ बटाने के लिये कहा जाता है तो उसमें वे सन्देह करते हैं।

अतः वे अपने पुराने मित्रों का साथ छोड़ने का प्रयत्न करने लगते हैं, और अपने अवकाश काल को अकेले ही बिताना चाहते हैं। वे अपने समय को पढ़ने अथवा हवाई किला बांधने में बिताते हैं। अकेले रहने में वे यह धारणा बनाने लगते हैं कि कोई उन्हें प्यार नहीं करता, उनके जीवन में अब कोई रस नहीं है। इस प्रकार की भावना उनकी विशिष्ट शारीरिक अवस्था के कारण आती है। बारहवें या तेरहवें वर्ष के लगभग लड़के और लड़कियों की शारीरिक शक्ति कुछ कम हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों का अनुमान है कि उनमें शारीरिक शक्ति की इस कमी का आना उनमें काम सम्बन्धी प्रौढ़ता के आने का स्वाभाविक परिणाम है। अपने पुराने साथियों के साथ कठिन परिश्रम वाले खेलों में वह सब सरलता से भाग नहीं ले सकता, अतः अपने समय को बिताने के लिये वह कुछ नई रुचियों का विकास करता है। मनोवैज्ञानिकों की धारणा हैं कि लड़के और लड़कियों में असामाजिक प्रवृत्ति आने के दो प्रधान कारण हैं

(1) बुरा स्वास्थ्य और
(2) बुरा वातावरण।

जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, पूर्ण किशोर में व्यक्ति का स्वास्थ्य साधारणतः गिर जाता है। स्वास्थ्य के गिर जाने पर प्रायः सभी लोग असामाजिक रूप में कुछ व्यवहार दिखलाते हैं। अतः लड़के और लड़कियों के लिये भी असामाजिक व्यवहार दिखलाना स्वाभाविक ही है। घर की बुरी दशा, माता, पिता, का बच्चे की परिस्थिति का न समझना, वातावरण में आये हुए परिवर्तनों को बच्चे का न समझना, उपयुक्त पोष्टिक भोजन का अभाव तथा घर व स्कूल के अत्यधिक कार्य आदि सभी लड़के और लड़कियों की मानसिक स्थिति को पूर्ण किशोरावस्था में अप्रिय बनाते हैं। बुरी आर्थिक स्थिति वाले लड़के और लड़कियों पर इन सब परिस्थितियों का अच्छी आर्थिक स्थिति वालों की अपेक्षा प्रायः अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। 
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बच्चे और उनका मनोविज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
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