
धर्मशास्त्रों की शिक्षा और प्रेरणा
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भवानी शंकरौ बन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।।
मैं श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और श्री शंकरजी को प्रणाम करता हूं जिनके बिना सिद्ध पुरुष अपने में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षित रक्षितः ।
तमाद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्म हतोऽवधीत् ।।
—मनु0 8।15
जो धर्म को नष्ट करता है धर्म उसको नष्ट कर देता है, धर्म की जो रक्षा करता है रक्षा किया हुआ धर्म उसकी रक्षा करता है। इस कारण धर्म को न मारना चाहिये कहीं कि मरा हुआ धर्म हमको न मार दे।
धर्मः कायङ्मनो भिः सुचरितम् ।
(सुधुतोपरि डल्हणाचार्य कृत टीका)
मन वाणी शरीर का जो सुन्दर व्यवहार वही धर्म है। दया (निःस्वार्थ दूसरे के दुःख दूर करने का यत्न करना) दूसरे का अनिष्ट चिन्तन न करना, किसी के दृव्य तथा स्त्री पर मन न चलाना गुरु व शास्त्र वचनों पर श्रद्धा रखना ये मन के सुन्दर चरित्र हैं।
सत्यप्रिय और हितकारी वचन बोलना, धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करना यह वाणी का सुन्दर चरित्र है।
दान देना, सत् की रक्षा करना, और ब्रह्मचर्य से रहना यह शरीर का सुन्दर व्यवहार है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवा व धार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेपानं तदाचेरत् ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 3।255।44)
धर्म का तत्व सुनो, सुनकर करके अमल में लाओ वह धर्म का तत्व क्या है? जो व्यवहार अपने विरुद्ध हो उसको दूसरे के साथ मत करो यही धर्म का तन्त्र है।
यतोऽभ्युदय निश्रेयसः सिद्धि सधर्मः ।।
(वैशेषिक)
जिस व्यवहार से इस लोक में आनन्द भोगते हुए परलोक में कल्याण प्राप्त हो वही धर्म है।
यमार्याक्रियमाणं हि शंसन्त्यागम वेदिनः ।
सधर्मो यं विगर्हन्ति तमधम प्रचक्षते ।।
(कामन्दकीयनीतिसार 6।7)
शास्त्रज्ञ सदाचारी जिस कार्य की प्रशंसा करें वह धर्म है जिसकी निन्दा करें वह अधर्म है।
आरम्भो न्याययुक्रो यः सहि धर्म इतिस्मृतः
अनाचार स्त्व धर्मेतिह्येतच्छेष्टानुशसनम् ।।
(भ0 भा0 वन0 207। 67)
न्याययुक्त कार्य धर्म, और अन्याय युक्त कार्य अधर्म है यही श्रेष्ठ पुरुषों का मत है।
येनोपायेन यर्त्यानां लोक यात्रा प्रसिध्यति ।
तदेव कार्य ब्रह्मज्ञै रिदंधर्मः सनातनः ।।
(शाब्दार्थ चिन्तामणि)
जिस उपाय से मनुष्य का जीवन निर्वाह भले प्रकार हो जाय वही करना वह सनातन धर्म है।
धर्म कार्य यतन्शक्त्या नोचेत्प्राप्नोति मानवः ।
प्राप्तो भवति तत्पुरूचमत्र नास्तिष संशयः ।।
(म0 भा0 उ0 92।6)
श्री कृष्ण चन्द्र विदुर जी से कहते हैं कि—
धर्म के कार्य को सामर्थ्य भर करते हुए यदि सफल न हो सके तो भी उसके पुण्य फल को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्म मुहुर्ते बुध्येतधर्मार्थौचानु चिन्तयेत् ।
काय क्लेशांश्च तन्भूलान् वेदतत्वार्थ मेवच ।।
(मनु0 4।92)
ब्राह्ममुहूर्त्त [1।। घंटा रात] में उठे, धर्म और अर्थ जिस प्रकार प्राप्त हो वह विचारे। धर्म और अर्थ के उपार्जन में शरीर के क्लेश का भी नवचरवा यदि धर्म अर्थ अल्प हुआ और शरीर को क्लेश अधिक हुआ तो ऐसे धर्म और अर्थ को न करे। उस समय ईश्वर का चिन्तन करे, कारण कि वह समय बुद्धि के विकास का है।
गुणादश स्नान परस्य साधोरु पंच पुष्टिश्च वलंच तेजः ।
आरोग्य मायुश्च मनोनुरुद्व दुःस्वप्न घातश्च तपश्चमेधा
(दक्ष0 2 14)
रूप, पुष्टि, बल, तेज आरोग्यता, आयु, मनका निग्रह, दुःस्वप्न का नाश, तप और बुद्धि का विकास ये दस गुण स्नान करने वाले को प्राप्त होते हैं।
वाङ् मनोजल शौचानि सदायेषां द्विजन्मनाम् ।
त्रिभिः शौचे रुपेतो यः स स्वर्ग्यो नात्र संशयः ।।
वृद्ध पराशर स्मृति 6।216
वाणी का शौच, मन का शौच, और जल का शौच इन तीन शौच से जो युक्त है वह स्वर्ग का भागी है। इसमें संशय नहीं।
कठोरता, मिथ्या, चुगलखोरी, व्यर्थ की बक बक, इन चार विषयों से बची वाणी शुद्ध है।
सर्वेषा मेव शौचनामर्थ शौचं परं स्मृतम् ।
याऽर्थे शुचिहि सशुचिर्न मृद वारि शुचिः शुचिः ।।
(मनु 5।106)
सारी पवित्रताओं में धन सम्बन्धी पवित्रता ईमानदारी बड़ी है। जो धन के द्वारा पवित्र है वह पवित्र है। मिट्टी जल से पवित्रता वास्तविक पवित्रता नहीं। अर्थात् ईमानदारी का पैसा जिसके पास है वास्तव में वही पवित्र है।
शौचाना मर्थ शौचञ्च0
(पद्मपु0 5।8।6।66)
पवित्रताओं में ऊंची कोटि की पवित्रता ईमानदारी का पैसा है।
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यान्नाद्याश्चैव तथात्तरा ।
नचैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्
(मनु0 2।56)
अपना झूंठा किसी को न देवे और न किसी का झूंठा खावे। दिन और रात्रि के बीच में तीसरी बार भोजन न करे, अधिक पेट भर के न खावे झूंठे मुख कहीं न जावे।
मित भोजनं स्वास्थ्यम् ।।
चाणक्य सूत्र 3।7
मर्यादित भोजन स्वास्थ्यकर है।
अजीर्णे भोजनं विषम् ।। 3।10
अजीर्ण में भोजन करना विष है।
मात्राशी सर्व कालंस्यान्मात्राह्यग्नेः प्रवर्तिका । 8।2
(वाग भट्ट सूत्र स्थान)
सदा मर्यादित भोजन करना चाहिये। ऐसा खाना ही जठराग्नि को बढ़ाता है।
मात्रा प्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद् विजीयते ।।2।।
जो भोजन सहज में पच जाय यही इसकी मात्रा है।
न पीडयेदिन्द्रियाण न चैतान्यति लालयेत् । (2।29)
रूखा, सूखा, बेस्वाद भोजन कर या शीत धूप सहकर इन्द्रियों को पीड़ा न दे और न अधिक आराम तलब बने।
सम्पन्न तर मेवान्नं दरिद्रा भुज्जते जनाः ।
क्षुत्स्वादुतां जनयति साचाढयेषु दुर्लभः ।।
(म0 भा0 उ0 34।50)
अन्न का असली स्वाद दरिद्री (मिहनती) पुरुषों को मिला करता है। कारण कि क्षुधा अन्न में स्वाद पैदा करती अर्थात् जोर से भूख लगने पर खाने में स्वाद आता है वह स्वाद धनवान को दुर्लभ है।
कृच्छे स्वपि न तत्कुयात्साधूनां यदसम्मतम् ।
जीर्णाशी चहिताशीच मिताशीच सदाभवेत ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 2।233।265)
सज्जन पुरुषों के विरुद्ध व्यवहार विपत्तिकाल में भी न करे। और हमेशा जीर्णाशी (भूख लगने पर खाने वाला) मिताशी (अन्दाज का खाने वाला) और हिताशी (जो पदार्थ लाभदायक हो उसको खाने वाला) होवे। इस व्यवहार से इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त होता है।
नहि मांसं तृणाद् काष्ठादुपलाद्वापि जायते ।
हते जन्तौ भवेन्मांसं तस्मातत्परिवर्जयेत् ।।
(स्कं0 पु0 6।29।232)
यह मांस तृण, काष्ठ, और पत्थर से उत्पन्न नहीं होता जीव के मरने पर प्राप्त होता है इसलिए इसको त्याग दे।
सुरामत्स्याः पशोर्मां संद्विजातीनां बलिस्तथा ।
धूर्त्तैः प्रवर्तितं यज्ञेनैतद् वेदेषु कथ्यते ।।
(म0 भा0 शां0 265।9)
शराब, मछली, पशु का मांस द्विजातियों में जीव का बलिदान इनको धूर्तों ने यज्ञ में प्रवृत्त किया है वेदों में कहीं नहीं कहा।
यक्ष रक्षपिशा चान्नं मद्यं मांसं सुरसवम् ।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवाना मत्रांता हविः ।।
(मनु0 11।96)
मांस मदिरा आदि यक्ष, राक्षस और पिशाचों का भोजन है ब्राह्मण को न खाना चाहिए।
मांस भक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् (चाणक्य सूत्र 6।73)
ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचिद् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
(मनु0 5।4)
प्राणी की हिंसा किये बिना मांस नहीं मिलता और प्राणी का वध स्वर्ग देने वाला नहीं अतः मांस न खाना चाहिए।
देय मार्त्तस्य शयनं स्थित श्रान्तस्य चासनम् ।
तृषितस्य च पानीय क्षुधितस्य चभोजनम् ।।54।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषितम् ।
उत्थाय चासनं दद्यादेषधर्मः सनातनः ।।55।।
(म0 भा0 बन0 अ0 2)
रोग पीड़ित को शयन के लिये स्थान, थके को आसन, प्यासे को पानी, भूखे को भोजन देना चाहिए। आये हुए को प्रेम दृष्टि से देखे, मन से चाहे, मीठी वाणी से बोले, उठ करके आसन दे यह सनातन धर्म है।
दान मेव कलौयुगे (पराशर0 1।23)
दानमेकं कलौयुगे (मनु0 1।86)
कलियुग में दान ही मुख्य धर्म है।
न्यायार्जित धनं चापि विधिवद्य त्प्रदीयते ।
अर्थिभ्यः श्रद्धयायुक्त दान मेतदुदाहृतम् ।।
ईमानदारी से पैदा किया हुआ पैसा विधि पूर्वक अर्थी (चाहने वाले) को श्रद्धा के साथ देना—दान है।
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणो गृहमामते ।
क्रीडंत्यौषधः सर्वा यास्यामः परमा गतिम् ।
(व्यास 4।50)
विद्या विनय से युक्त ब्राह्मण को घर आते देखकर घर का अन्न क्रीड़ा करता है। प्रसन्न होता है कि हमारी इस सुपात्र के पास पहुंचने पर परम गति होगी।
यद् यद् इष्ट तमं लोके यच्चात्मदयितं भवेत् ।
तद् तद् गुणवते देयं तदे वाक्षयमिच्छता ।।
(दक्षस्मृति 3।32)
संसार में जो जो पदार्थ हमें रुचिकर हों वह पदार्थ गुणवान को देना चाहिये।
न्यायेनार्जनमर्था नां वर्द्ध नं चाभिरक्षणम् ।
सत्पात्र प्रतिपत्तिश्च सर्वशास्त्रेषु पठ्यते ।।
(मत्स्य पु0 274।1)
न्यायानुसार द्रव्य का इकट्ठा करना, इकट्ठे किये हुए को बढ़ाना, फिर बढ़े हुए को सुपात्र को दान देना ऐसा सब शास्त्रों का आदेश है।
न्यायार्जितस्य वित्तस्य दानात सिद्धिः समश्नुते ।
(शिव पु0 13।65)
न्यायानुसार कमाये हुए वित्त के दान करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
सत्कर्म निरता यापि देयं यत्नेन नारद ।
(नारद पु 12।18)
सदाचार के लिये यत्न से देना चाहिये।
माता पित्रो गुरौ मित्रे विनीते चोपकारिणी ।
दीना नाथ विशिष्टेपु दत्तं च सफलं भवेत ।।
(दक्ष0 3।16)
माता, पिता, गुरु, मित्र, विनीत, उपकार करने वाला दीन, अनाथ और सदाचारी विद्वान इनको दिया हुआ दान सफल है।
सर्त्रत्रदान्ताः श्रुतिकर्ण पूर्णा जितेन्द्रियाः प्राणि बधे
निवृत्ताः । प्रतिगृहे संकुचिता गृहस्तास्ते ब्राह्मणास्तार
यितुं समर्थाः ।।
(वसिष्ठ0 6।22)
सर्वत्र विनयी, वेदपाठी, जितेन्द्रिय अहिंसक, भिकमंगापन से बचे हुए ऐसे ब्राह्मण संसार समुद्र से पार करने को समर्थ हैं ऐसों को धन आदि से सेवा करनी चाहिये।
इह चत्वारि दानानि प्रोक्तानि परमार्षिभिः ।
विचार्य नाना शास्त्राणे शर्मंणेत्र परत्रच ।।22।।
भीतेभ्य श्चाभयं देयं व्यसवेतेभ्यस्तर्थोषधम् ।।
देया विद्यार्थि नां विद्या देयमन्नं क्षुधातुरे ।।23।।
(शिव पु0 रुद्र संहिता खं0 4।5)
इस लोक में बड़े बड़े ऋषियों ने अनेक शास्त्रों को विचार कर चार दान निश्चित किये जो इस लोक व परलोक में कल्याणदायक हैं। वे चार दान ये हैं कि विपत्तिग्रस्त की विपत्ति छुड़ाना, रोगी को चिकित्सा का दान, विद्यार्थी को विद्यादान, भूखे को अन्न दान देना चाहिये।
पाखण्डिनो विकर्म स्थान वैडालव्रतिकाञ्छठात ।
हैतुकान्वक वृत्तीश्ंच वाङ मात्रेणापि सेत ।
पाखण्डी—शास्त्र विरुद्ध वेषधारी (जैसे मनुष्य की खोपड़ी) विकर्म स्थान—निषिद्ध कर्म करने वाले, हैतुकान्—भ्रम पैदा करने वाले, वैडालवृत्ति वाले (जैसे बिल्ली चूहे के घात में ताकती रहती है) और बक वृत्ति वाले (जैसे बगुला मछली पकड़ने को नीचे को दृष्टि कर चुपचाप खड़ा रहता है) का वाणी मात्र से भी आदर न करे।
शक्तः परजने दाता स्वजने दुख जीवने ।
मध्वा पातो विषास्वादः सधर्म प्रतिरूपकः ।।
(मनु0 11।9)
जो धनी पुरुष अपने पुरुषों (माता पिता भाई आदि जन) को दुखी देखते हुए औरों को दृव्य देता है। (नाम के लिये) वह शहद पाते हुए अन्त में विष खाने के फल को प्राप्त होता है।
भृत्याना मुपरोधेन यत्करो त्यौर्ध्व देहिकम् ।
तद्भवत्यसुखोदर्क जीवतश्च मृतस्य च ।।10।।
पुत्र स्त्री इत्यादि को क्लेश दान देकर जो परलोक के लिये दानादि करते हैं वह उभय लोक में दुख देने वाला है।
योऽसाधुम्योऽर्थं मादाय साधुम्यः सं प्रयच्छति ।
सकृत्वाप्लव मात्मानं संतार यतिता बुमौ ।।19।।
जो पुरुष नीच कर्म करने वाले से दृव्य लेकर सज्जन पुरुषों को देता है वह अपने आत्मा को नौका बनाकर उन दोनों को (जिस से लिया और जिसको दिया) दुःख से पार कर देता है।
अवताश्चा नधीयाना यत्र मौक्ष्य चराद्विजाः ।
तं ग्रामं दंडयेद राजा चौरभक्तद् दंडवत् ।।
(अत्रि0 22 पराशर0 वसिष्ठ अ0 3)
जिस ग्राम में अवती (ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित) ब्राह्मणों का जीवन निर्वाह भिक्षा द्वारा होता है उस ग्रामवासियों को राजा चोर के समान दंड दे।
विद्वद् भाज्य मविद्वांसोयेषु राष्ट्रेषु भुंजते ।
तेष्वना वृष्टि मिच्छन्ति महद् वाजायते मयम् ।।
(वसिष्ठ0 3।23)
जिस देश में विद्वानों के भोगने योग्य पदार्थों को मूर्ख भोगते हैं वहां अनावृष्टि होती है, बड़ी विपत्ति पड़ती है।
नष्ट शौचे व्रतभ्रष्टे विप्रे वेद विवर्जिते ।
दीयमानं रुदत्यन्नं भयाद् वैदुष्कृत कृतम् ।।51।।
(व्यास0 4।51)
भ्रष्टाचारी, शास्त्र शून्य, विप्र को देने पर अन्न रोता है कि मेरा बड़ा दुरुपयोग हुआ।
नास्ति दानात्परं मित्र मिह लोके परत्रच ।
अपात्रे किन्तु यद्दत्तं दहत्या सप्तमं कुलम् ।।
(अत्रि संहिता)
इस लोक और परलोक में दान के बराबर कोई मित्र नहीं परन्तु वह दान यदि कुपात्र को दिया जाता है तो सात पीढ़ी को जलाता है।
येके चित्हापनिरता निंदिताः स्वजनैः सदा ।
नतेम्यः प्रतिग्रह्णीयान्न च दद्याद् द्विजोत्तम् ।।
नारद पु0 12।18)
जो पापी हैं, श्रेष्ठ जनों से निन्दित हैं उनसे न तो कुछ ले और न कुछ उनको दे अर्थात् पापियों से असहयोग रखे ।।18।।
क्षारं जलं वारि मुचः विपन्ति तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति ।
सन्तस्था दुर्जन दुर्वचांसि वीत्वाच सूक्तानि समुद् गिरन्ति ।।
(सु0 20 भां0)
बादल समुद्र के खारी जल को पीते हैं उसी को मधुर करके बरसाते हैं इसी प्रकार सन्त पुरुष दुर्जनों के अनुचित वचनों को सुनकर उत्तर में मीठे वचन बोलते हैं।
नात्मानमव मन्येत पूर्वाभि रसमृद्धि भिः ।
आमृत्योः श्रियमन्विच्छे न्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ।।
(मनु0 4।137)
प्रयत्न करने पर यदि धन न मिले तो अपने को भाग्यहीन न समझे मरण पर्यन्त यत्न करता रहे इस लक्ष्मी को दुर्लभ न समझे।
आरंभे तैव कर्माणि श्रांतः श्रांतः पुनः पुनः ।
कर्मंण्यारममाणंहि पुरुषं श्रीर्निषेवते ।। 300।।
(मनु0 अ0 9)
कर्म करते हुए थका हुआ पुरुष बार-बार कर्म करे, कर्म के आरंभ करने वाले को लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
उद्योगिनं पुरुष सिंह मुपैतिलक्ष्मी दैवेन देय मिति
का पुरुषा वदन्ति । दवं विलंघ्य कुरु पौरुष मात्मशक्त्य
यत्ने कृते यदि नसिध्यति कोऽत्रदोषः । (चाणक्यनीति)
उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है ‘‘जो कुछ होता है प्रारब्धानुसार होता है’’ इस प्रकार कायर पुरुष कहा करते हैं। प्रारब्ध को छोड़कर सामर्थ्यानुसार पुरुषार्थ करे यत्न करने पर यदि कार्य सिद्धि न हो तो कोई दोष नहीं।
कोतिभारः समर्थानां कि दरेव्यवसायिनाम् ।
को विदेश सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।
(चाणक्य नीति)
सामर्थ्य वालों को कोई कार्य कठिन नहीं, व्यापारियों को कोई देश दूर नहीं, विद्वानों को कोई विदेश नहीं, प्रियवादियों का कोई शत्रु नहीं।
उत्साहवन्तो हि नराय लोके सीदन्ति कर्मष्वति
दुष्करेषु । कुमार संभव
हिम्मत वाले पुरुष कठिन कार्य करने पर नहीं घबड़ाते ।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नमयेन नीचैः ।
प्रारभ्य विघ्न निहता बिरमन्ति मध्याः।।
विघ्नैमुर्हुर्मुहुरयि प्रतिहन्यमाना ।
प्रारभ्य चोत्तम जना न परित्यजन्ति ।।
(नोतशतक)
नीची कोटि के पुरुष विघ्न के भय से कार्य का प्रारंभ ही नहीं करते, मध्यम कोटि के पुरुष कार्य प्रारंभ करते हैं परन्तु कुछ ही विघ्न पड़ने पर बीच में ही छोड़ देते हैं उत्तम कोटि के पुरुष बारम्बार विघ्न पड़ने पर भी पूरा किये बिना नहीं छोड़ते।
नक्षत्रमति पृच्छन्तं वालमर्थोतिवर्तते ।
अर्थो ह्यर्थस्य नक्षत्रं किंकरिष्यन्ति तारकाः ।।
(कौ0 आ0 शा0 9।5।37)
नक्षत्र (मुहूर्त्त) की अधिक पूछताछ करने वाले का अर्थ (प्रयोजन-कार्य) नष्ट हो जाता है। अर्थ ही अर्थ का नक्षत्र है ये तारे क्या करेंगे।
नात्मान भवमन्येत इस मनुवचन (4।137)
की मेधा तिथि कृत टीका में एक वचन लिखा है—
हीनाः पुरुषकारेण गणयन्ति गृहस्थितिम् ।
सत्वोद्यम समर्थानां नासाध्यं व्यवसायिनाम् ।।
अर्थात् पुरुषार्थ से हीन पुरुष गृह दशा दिखाया करता है सामर्थ्यवान् उद्योगी पुरुषों को कोई भी कार्य असाध्य नहीं।
साहसे खलु श्रीर्वसति (चाणक्य सूत्र 2।50)
उद्योगी पुरुष के यहां लक्ष्मी का निवास रहता है।
धिग् जीवतं योद्यम वर्जितस्य ।
(स्कंद पु0 4।1।65)
उद्यम हीन का जीवन धिक्कार है।
जीवन्भृतः कस्तु निरुद्यमोयः ।
(प्रश्नोत्तर मणिमाला)
जो निरुद्यमी है वह जीता हुआ ही मरे में शुमार है।
अत्रैकं पौरुषंयत्नं वर्जयित्वे तरागतिः ।
सर्व दुखक्षये प्राप्तौ न काचिदुपजायेते ।।
(योग वासिष्ठ 3।6।14)
इस संसार में सब दुखों का क्षय करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं।
न तदस्ति जगत्कोशे शुभकर्मानुपातिना ।
यत्पौरुषेण शुद्धे न नसमासाद्यते जनैः ।।
(3।92।8)
संसार रूपी कोश में ऐसा कोई रत्न नहीं हो शुद्ध पुरुषार्थ से किये हुए शुभ कर्म द्वारा न प्राप्त हो सके।
कः केन हन्यते जन्तुर्जन्तुः कः केन रक्ष्यते ।
हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यसत्साधु समाचरन् ।।
(वि पु 18।13)
कौन किसको मारता है? कौन किसकी रक्षा करता है? यह जीव ही बुरा भला आचरण करता हुआ अपने को मारता है रक्षा करता है।
शुभ कृच्छुभमाप्नोति पाप कृत्पापमश्नु ते ।
विभीषणः सुखं प्राप्तस्त्वं प्राप्तः पाप मीदृशम् ।।
(वा-रा-पु-114।26)
शुभ कर्म करने वाला शुभ (सुख) को प्राप्त करता है पाप कर्म करने वाला पाप (दुःख) को प्राप्त होता है। देखो विभीषण को सुख प्राप्त हुआ है और तुमको ऐसा दुख (ककरीली जमीन पर पड़े हो) प्राप्त हुआ। यह वचन मरते समय रावण से मन्दोदरी ने कहा है।
सुख दुख दोन चान्योऽस्ति यतः स्वकृत भुक् पुमान्
(भा, 10।54।38)
सुख दुख देने वाला और कोई नहीं मनुष्य अपने किये हुए कर्मों के फल भोगता है।
उद्यमी नीति कुशलो धर्म युक्नः, प्रियंवदः ।
गुरु पूजा रतो यत्र तसिमन्नैव वसाम्यहम् ।।
(कार्तिक महात्म्य)
दरिद्रता देवी कहती है कि जिस घर में परिश्रमी, नीति निपुण, धर्मात्मा, प्रिय वचनवादी, और बड़ों की सेवा करने वालों का निवास है उस घर में मैं नहीं रहती।
रात्रौदिवा गृहे यस्मिन् दम्पत्योकलहोभवेत् ।
निराशा यान्त्य तिथयस्तस्मिन् स्थानेरतिर्मम ।।
जिस घर में दिन रात स्त्री पुरुष में कलह रहती है, आये हुए महानुभावों का सत्कार नहीं होता उस स्थान में मेरा (दरिद्रता का) निवास रहता है।
(कार्तिक महात्म्य)
वसामि नित्यं शुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणिवर्तमाने ।
अक्रोधने देवपरे कृज्ञेत जितेन्द्रिय नित्य मुदीर्ण सत्वे ।।
(म0 भा0 अनुशा0 11।6)
लक्ष्मी देवी का कहना है कि जो पुरुष बोलने में चतुर, कर्त्तव्य कर्म में लगे हुए, क्रोध रहित, श्रेष्ठों के उपासक, उपकार के मानने वाले, जितेन्द्रिय और पराक्रमी हैं उनके यहां मेरा निवास रहता है।
पित्रो पात्ता श्रियं भुंक्ने पित्राकृच्छ्रात्समुद्धत ।
विज्ञायतेच यः पित्रा मानवः सोऽस्तुनोकुले ।।
(मार्कण्डेय पु0 125।29)
पिता के पैदा किये दृव्य को भोगाने वाला, पिता के द्वारा विपत्ति से छूटने वाला (ऐसा काम कर बैठता है कि जो पिता को निबटेरा करना पड़ता है) पिता के नाम से जिसका परिचय दिया जाता है ऐसा पुरुष हमारे कुल में पैदा न हो।
स्वयमार्जित बित्तानां ख्यातिं स्वयमुपेयुषाम् ।
स्वयं मिस्तीर्ण कृच्छ्राणांयागतिः सास्तुमेगतिः ।।30।।
स्वयं वित्तोपार्जित करने वाले, स्वयं नाम पैदा करने वाले, स्वयं विपत्ति से छूटने वाले पुरुषों की जो सदगति होती है, हे प्रभु वह मेरी गति हो।
को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः कोवा विदेश स्तथा ।
यंदेशं श्रयते तमेवकुरुते वाहु प्रता पार्जितम् ।
यद् दंष्ट्रा नखलांगल प्रहरणः सिंहो वनं गाहते,
तस्मिन्नेव हतद्विपेन्द्र रुधिरै स्तृष्णां छिनत्यात्मनः ।।
(सुभाषितरत्नभांड़ागार)
वीर और धीर पुरुष को स्वदेश और विदेश कुछ नहीं, जिस जगह पहुंच जाते हैं वहीं अपने पराक्रम से सब कुछ कर दिखाते हैं। दांत, नख, पुच्छ से काम लेने वाला सिंह जिस वन में पहुंच जाता है उसी में मारे हुए हाथी के खून से अपनी प्यास बुझा लेता है।
न दैव प्रमाणा नां कार्य सिद्धिः (चाणक्य सूत्र 2।29)
दैव (प्रारब्ध) के भरोसे रहने वालों की कार्य सिद्धि नहीं होती।
निरुत्साहो दैवं शयति (चाणक्य सूत्र)
निरुद्यमी मनुष्य दैव को दोष देता है।
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैव मनु वतते ।
वृथा श्राम्पति सम्प्राप्य पर्ति क्लीवमिवाङ्गना ।।
पुरुषार्थ करके जो दैव के भरोसे से रहता है वह अन्त में पछताता है जैसे नपुंसक पति को प्राप्त कर स्त्री।
ये समुद्योग मृत्सृज्य स्थितादैव परायणाः ।
ते धर्मअर्थ कामं च नाश यन्त्यात्मविद्विषः ।।
(योग वासिष्ठ 2।7।3)
जो उद्योग को छोड़कर दैव का भरोसा करते हैं वे अपने ही दुश्मन हैं। और धर्म, अर्थ, काम सबको नष्ट कर देते हैं।
गुरुश्चे दुद्धर त्यज्ञ मात्मीयात्पौरुषादृते ।
उष्ट्रं दान्तं वलीवर्द तत्कस्मानोद्धरत्यसौ ।।
(योग वासिष्ठ 5।43।16)
यदि गुरु किसी व्यक्ति का उसके अपने पुरुषार्थ के बिना ही उद्धार कर सकते हैं तो वे ऊंट हाथी बैल का उद्धार क्यों नहीं कर देते।
धर्मार्थ काम मोक्षणा मारोग्यं मूलमुत्तमम् ।24।।
आरोग्यता ही धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की उत्तम जड़ है। (चरक श्लोक स्थान)
वृत्त्युपापान् विषेवेत येस्युर्धंर्माविरोधिनः ।।
शम मध्ययनं चैव सुख मेवं समश्नुते ।। 5।103।।
मन का बुरे विषयों से हटाना, सद्ग्रन्थों का अध्ययन इस प्रकार से सुख को प्राप्त करता है।
कालेहित मिंतमधुरार्थ वादी (8।22)
समय पर, हितकारी, मर्यादित, मधुर शब्दों में सार्थक बोले।
सर्व मन्यत्परित्यज्य शरीर मनुपालयेत् ।
तद भावेहि भावानां सर्वाभावः शारीरिणाम्
[ चरक-निदानस्थान 6।11 ]
अन्य सब विषयों को छोड़कर शरीर की रक्षा करे शरीर सुरक्षित न होने पर भी शरीर धारियों के सारे भावों का अभाव हो जाता है।
नित्यं हिताहार विहार सेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्नोप सेवीचमवत्यरोगः ।।
(2।45)
नित्य हितकर आहार (भोजन) विहार (शारीरिक परिश्रम) करने वाला, विषयों में अनासक्त, सोच समझ कर करने वाला, दानी, रागद्वेष रहित, सत्यवादी, क्षमाशील, सदाचारी विद्वानों का उपासक पुरुष, रोग से निर्मुक्त रहता है।
सत्यवादी, अक्रोधी, मद्य और मैथुन से बचा हुआ, अहिंसक, परिश्रमी, शान्तचित्त, प्रियवादी, यजनकर्त्ता, पवित्रता परायण, धीर, दानकर्त्ता, तपस्वी, गौ देवता ब्राह्मण आचार्य गुरु वृद्ध इनकी सेवा में परायण, निष्ठुरता रहित, दया परायण, उचित काल में जागने सोने वाले, नित्य प्रति दूध घी खाने वाले देशकाल के प्रमाण का जानने वाला, युक्तिज्ञ, अहंकार रहित, सदाचारी, एक धर्मावलंबी, अध्यात्मज्ञानवेत्ता, वृद्धों का सेवक, आस्तिक, जितेन्द्रियों का उपासक, धर्मशास्त्र परायण, पुरुष यद्यपि रसायन सेवन न करे तो भी रसायन सेवन का फल प्राप्त करता है।
(चरक—चिकित्सा स्थान 1।4)
त्रार्ग शून्यं नारंभं भजेत्तं चाविरोधयन् ।
(2।30)
कोई भी कार्य हो परन्तु त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) से शून्य न होय तो धर्म प्राप्त हो या अर्थ प्राप्त हो या इन्द्रियों का भोग ही प्राप्त हो जिस कार्य से इन तीनों में से कोई न हो तो उसको न कर।
आर्द्र संतानता त्याग काय वाक् चेतसादमः ।
स्वार्थ बुद्धि परार्थेषु पर्याप्त मितिसद् ब्रतस् ।।
(2।46)
कोमलता—कृपा का बर्ताव, उदारता, शरीर, वाणी, मन को पाप कर्मों से बचाना, पुण्य कार्यों को अपने ही समझकर उनके बनाने का प्रयत्न करना, इतना सदाचार काफी है।
आहार शयनाऽब्रह्मचर्यै युक्त्या प्रयोजितैः ।
शरीरं धार्य ते नित्य मागार मिवधारणैः । (7।52)
आहार, नींद, मैथुन ये तीन बातें शरीर के धारण में कारण है जैसे खम्भे मकान को धारण किये रहते हैं।
सत्यवादिन मक्रोध मध्यात्म प्रवणेन्द्रियम् ।
शान्तं सद्वृत्त निरतं विद्यान्निप्यं रसायनम् ।।
(उत्तरस्थान 39।179)
सत्यवादी, अक्रोधी, जितेन्द्रिय, शान्तचित्त, सदाचारी ऐसे लक्षण वाला पुरुष नित्य ही मानो रसायन सेवन करता है।
यथा खर श्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्तानतुचन्दनस्य ।
एवंहि शास्त्राणि वहून्यधीत्य चार्थेवु मूढाः खर बद् वहन्ति ।।
(सुश्रुत सूत्र स्थान 4।4)
जैसे गधे पर चन्दन लदा हो तो वह उसको बोझ ही समझता है चन्दन नहीं समझता। इसी प्रकार बहुत से शास्त्र पढ़ लिये पर वास्तविक अर्थ नहीं समझा तो गधे के समान है।
ईर्ष्या भय क्रोध परिक्षतेन लुब्धेन शुग् दैनयनिपीडितेन।
प्रेद्वषयुक्त न च सेव्यमान मन्नं न सम्यक् परिपाक मेति ।।
(46।501)
डाह (जलन) भय, क्रोध से युक्त अन्य की बढ़ती देखकर दुखी, लोभी, चिंतित, दीनतायुक्त द्वेषी ऐसे पुरुष को खाया हुआ अन्न भले प्रकार नहीं पचता।
नोद्धत वेषधरः स्यात् । (चाणक्य नीति 1।66)
विचित्र वेष न धारण करे जिसे देखकर लोग अंगुली उठाने लगें। अर्थात् सादगी में रहे।
नव्यसन परस्य कार्या वाप्तिः ।।68।।
व्यसनी का कार्य सिद्ध नहीं होता ।
इन्द्रिय वशवतिं नो नास्तिकार्या वाप्ति ।।69।।
जो इन्द्रियों के गुलाम हैं इनके कार्य की सिद्धि नहीं होती।
भाग्यवन्त मपि अपरीक्ष्य कारिणं श्रीः परित्यजति ।
(2।24)
बिना विचारे कार्य करने वाले भाग्यवान् का भी लक्ष्मी साथ छोड़ देती है।
यः संसदि परदोषं वक्ति स स्व दोष बहुत्वं प्रख्यापयति ।
(2।47)
जो सभा में दूसरे के दोष कहता है वह मानो अपने दोषों को बहुत करके प्रगट करता है।
कदाचिदपि चारित्रं न लंघयेत् ।।2।63।।
किसी काल में भी सदाचार का उल्लंघन न करे।
शत्रुं जयति सुव्रतः ।।2।। 103।।
सदाचारी शत्रु को जीत लेता है।
लोके प्रशस्तः समतिमान् ।।3।32।।
लोक में जिसकी सत्कीर्ति है वह बुद्धिमान् है।
मातापि दुष्टात्यक्तव्या ।।4।।
दुष्ट माता का भी त्याग कर देना चाहिए फिर और की तो बात ही क्या है।
यशः शरीरं नविनश्यति ।।4।8।।
यश रूपी शरीर कभी नष्ट नहीं होता।
म्लेच्छा ना मपि सुवृत्तंग्राह्यम् ।।14।।
म्लेच्छों से भी सुन्दर चरित्र सीख लेना चाहिये।
अयशोभयं भयेषु ।।25।।
भयों में बड़ा भय बदनामी है।
सर्वेषां भूषणां धर्मः ।।79।।
सबसे बड़ा आभूषण धर्म है।
जिव्हायत्तौवृद्धि विनाशौ ।
वृद्धि और विनाश जिह्वा के आधीन है।
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्न मातिष्ठेद् विद्वान् यन्ते ववाजिनाम् ।।
(मनु0 2।88)
जिस प्रकार सारथी अपने रथ के घोड़ों को वश में रखता है। वैसे ही विद्वान् विषयों में दौड़ने वाली इन्द्रियों को यत्न पूर्वक वश में रखे।
न जातु कामः कामानामुप भोगेन शम्याति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवामिवर्द्धते ।।
(मनु0 2।94)
कभी विषयों के उपभोग से इच्छा शान्त नहीं होती भोगने से इस प्रकार बढ़ती है कि जैसे घृत की अहुति से अग्नि।
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसिच ।
न विप्र दुष्ट भावस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित ।।
(मनु0 2।97)
वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप यह सब भी दुष्ट भाव वाले विषयी मनुष्य को कदापि सिद्धि नहीं देते।
वशे कृत्वेन्द्रिय ग्रामं संयम्य च मनस्तथा ।
सवान् संसाधयेदर्थान क्षिण्वन्योगतस्तनुम् ।।
(मनु 2 100)
इन्द्रियों को वश में करके मन को रोककर शरीर को पीड़ा न देकर सम्पूर्ण अर्थों (प्रयोजनों) की सिद्धि करे।।
दशकामस मुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च ।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ।।
(मनु0 7।4)
दश प्रकार का कामज और आठ प्रकार का क्रोधज यह 18 प्रकार के व्यसन हैं। इन दुरन्त (परिणाम में हानिकारक) व्यसनों को तुरन्त यत्न पूर्वक त्याग देवें।
मृगया क्षोदिवास्वप्नः परि वादः स्त्रियोमदः ।
तौर्यत्रिकं वृथाढ्या च कामजो दशको गणः ।।47।।
शिकार खेलना, जूआ—दिनका सोना—निन्दा—स्त्रियों में अधिक आसक्ति,—शराब आदि का नशा—नाच-गाना—अधिकता—वृथा भ्रमण, ये 10 कामज व्यसन हैं।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यांऽसूयार्थ दूषणम् ।
वाग्दण्डजञ्च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोष्टकः ।।48।।
चुगलखोरी, उतावलेपन से काम करना, द्रोह (दूसरे का अनिष्ट चिन्तन) ईर्ष्या (किसी के गुण में दोष लगना) किसी के धन को हर लेना, वाणी और दंड की कठोरता ये 8 क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन हैं।
व्यसनस्य च मृतोश्च व्यसनं कष्टमुच्यते ।
व्यसन धोऽधो व्रजति स्वर्यात्य व्यसनी मृतः ।।53।।
व्यसन और मृत्यु के बीच में व्यसन अत्यन्त दुखदाई कहा है व्यसनी मर कर नीचे नरक जाता है और अव्यसनी स्वर्ग प्राप्त करता है।
व्यस्यत्ये नं श्रेयसइति व्यसनम् ।।
(कौटिल्य अर्थ शास्त्र 8।1।12)
व्यसन मनुष्य को कल्याण के रास्ते से जो गिरा देता है।
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
दंडस्य हि मयात्सर्वं जगद् भोगाय कल्पते ।।
(मनु. 7।22)
दण्ड से जीता हुआ सारा जगत् सन्मार्ग में स्थिति रहता है क्योंकि स्वभाव से शुद्ध मनुष्य दुर्लभ है और दण्ड के भय से सारा संसार वस्तुओं को मर्यादा में भोगने में समर्थ होता है।
कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च ।
राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते ।।301।।
सतयुग त्रेता द्वापर कलियुग ये चार युग राजा की चेष्टा बर्ताव है राजा से ही सत्य आदि युगों की प्रवृत्ति होती है इसलिये राजा को युग कहते हैं।
कालौवा कारणं राज्ञो राजावा काल कारणम् ।
इतिते संशयो माभूत् राजा कालस्य कारणम् ।।
(म-भा-शां-69।79)
समय राजा का कारण है या राजा समय का कारण है। यह संशय तुम मत करो। राजा ही युग समय का कारण है। श्री रामचन्द्र के राज्य में त्रेता की जगह सतयुग हो गया।
योऽनित्ये न शरीरेण सतां गेठां यशोध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं कल्पः सवाच्य शोच्यएवसः ।।
।। भा- 10।72।20 ।।
सज्जन जिसकी सराहना करें ऐसे यश को समर्थ होते हुए भी जो पुरुष इस अनित्य शरीर द्वारा इकट्ठा नहीं करता वह शोचने योग्य और निन्दनीय है।
कीर्ति हि पुरुषं लोके संजीवयति मातृवत् ।
अकीर्ति जीवितंहन्ति जीवन्तोऽपि शारीरिणः ।।
(भ0 भा0 वन0 299।32)
कीर्ति पुरुष को माता के समान जिलाता है बदनामी जिन्दे को ही मार देती है।
तीर्थ स्नानार्थिनी नारी पतिपादोदकं पिवेत ।
शंकर स्यापि विष्णोर्वा प्रयातिपरमं पदम् ।।
(वसिष्ठ0 3।135)
तीर्थ स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री अपने पति के चरणोदक का आचमन करे तो शंकर या विष्णु के लोक को प्राप्त होती है।
सुवेषं वा नरं दृष्ट्वा भ्रातरं पितरं सतम् ।
मन्यते चपरं साध्वी साचभार्या पतिव्रता ।।
(पद्म पु0 150।59)
जो सुन्दर पुरुषों को भ्राता, पिता या पुत्र की दृष्टि से देखती है वह स्त्री पतिव्रता है।
माता स्वस्रा दुहित्रा वा नविविक्तासनो भवेत ।
वलवानिन्द्रिय ग्रामो विद्वांसमपिकर्षति ।।
(मनु0 2।215)
माता बहन लड़की इनके भी साथ एकान्त में न बैठे क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समूह विद्वानों को भी वश में कर लेता है।
न जीर्ण मल वद् वासा भवेच्च विभवेसति ।।
(मनु0 4।34)
धन रहते हुए कभी पुराने और मैले वस्त्र धारण न करें।
हीनांगानति रिक्तांगान् विद्याहीनान् वयोधिकान ।
रूवदृव्य विहीनांश्च जाति हीनांश्च नाक्षिपेत ।।
(मनु0 4।141)
हीन अंग वाले, अधिक अंग वाले, विद्याहीन, अवस्था में बूढ़े, कुरूप, और निर्धन तथा जातिहीन वालों का उपहास न करो।
षड् दोषाः पुरुवेणेह हातव्या भूतिंमिच्छता ।
निद्रा तंद्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घ सूत्रता ।।
(म0 भा0 उद्यो0 33।78)
इस संसार में उन्नति चाहने वाले पुरुष को छः दोष त्याग कर देने चाहिए अधिक नींद, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और लापरवाही।
कोषेन धर्म कामश्च परलोक स्तथा ह्यम् ।
तं चधर्मेण लिप्सेत ना धर्मेण कदाचन ।।
(म0 भा0 शां0 130।50)
दृव्य से धर्म और काम की प्राप्ति होती है यह लोक और परलोक बनता है परन्तु उस धन को धर्म (न्याय) के द्वारा पैदा करे अधर्म के द्वारा कदापि नहीं।
अकृत्वा पर संताप मगत्वा खल मन्दिरम् ।
अनुत्सृज्य सतावर्त्म यत्स्वल्पमहितद्वहु ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
किसी को दुख न देकर, नीचों के गृह न जाकर, सज्जनों का मार्ग न त्यागकर, जो थोड़ा भी मिले वह बहुत है।
वरं दारिद्रय मन्याय प्रभवाद् विभवादिह ।
कृशता मिमता देहे पीनता न तुषोफतः ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
अन्याय से पैदा किये दृव्य से दरिद्र अवस्था में रहना अच्छा। किसी बीमारी से फूल जाने की अपेक्षा शरीर का पतला-हलका होना अच्छा है।
वयसः कर्मणोऽर्यस्य श्रुतस्याभिजनस्य च ।
वेप वाग् बुद्धि सारूपस माचरन् विचरोदिह ।।
(मनु-4 18)
अवस्था, कर्म, धन, वेद, कुल इनके अनुरूप वेष, वाणी, बुद्धि करता हुआ विचार करे।
बुद्धि वृद्धि कराण्याशु धन्यानि हितानिच ।
नित्यं शास्त्राण्य वेक्षेत निगमांश्चैव वैदिवान ।
(मनु- 4।19)
शीघ्र बुद्धि को बढ़ाने वाले, धन देने वाले, हित करने वाले, शास्त्र का अध्ययन करे। ज्ञान के तत्व का नित्य विचार किया करे।
अनेक संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्तयन्धएवसः ।।
(चाणक्यनीति)
अनेक संशय को छेदन करने वाला, परोक्ष अर्थ को दिखाने वाला और सबका नेत्र, शास्त्र है जिसके यह शास्त्र रूपी नेत्र नहीं वह अंधा है।
तदहर ब्राह्मणो भवति यदहः स्वाध्यायं नाधीते ।
तस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ।।
(शतपथ 11।5।7)
उसी दिन वह ब्राह्मण अब्राह्मण हो जाता है। अर्थात् ब्राह्मणत्व से गिर जाता है जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता। भगवद् गीता में स्वाध्याय को वाणी का तप माना है देखो अ0 17 श्लोक-15)
षट् पदः पुष्प मध्यस्थो यथासारं समुद्ध ।
तथा सर्वेषु शास्त्रेषु सारं गृह्णन्ति पंडिताः ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
भोंरा पुष्प में से सार सार ले लेता है उसी प्रकार चतुर पुरुष सब शास्त्रों में से सार सार ले ले।
सत्यं वृयात् प्रियं वृयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नामृतं व्रृयादेष धर्मः सनातनः ।।
(मनु- 4।138)
सत्य बोले, और प्रिय बोले अप्रिय सत्य न कहे। मिथ्या प्रिय न कहे यह सनातन धर्म है।
अजरामर वत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्म माचरेत ।।
अपने को अजर अमर समझता हुआ विद्या और अर्थ का संग्रह करे। मौत से ग्रसा हुआ समझकर धर्म का संग्रह करे।
न यमं यममित्याहु रात्मावै यम उच्यते ।
आत्मा संयमितो येन तं यमः किंकरष्यति ।।
(आपस्तम्व 10।3)
यमराज यमराज नहीं, अपना आत्मा ही यमराज है जिसने अपने आत्मा (मन) को काबू में कर लिया अर्थात् बुरे विचारों से हटा लिया उसका वह यमराज क्या करेगा।
येन केन चिद्भर्मेण मृदुनादारुणेन च ।
उद्धरेद्दीन मात्मान समर्थो धर्म माचरेत् ।।
(पराशर0 74।2)
विपत्ति में कठिन या नरम जिस किसी धर्म से गिरी हुई स्थिति से उद्धार करले। समर्थ होकर फिर धर्म का आचरण करे।
कामः क्रोधो मयोहष लोभोदर्पस्तथैवच ।
रिपवः षड् विजेतव्याः पुरुषेण विपश्चिता ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 3।233।257)
काम, क्रोध, भय, हर्ष (अधिक हर्ष में धर्माधर्म का विचार नहीं रहता) लोभ, दर्प, विद्वानों को इन छः बैरियों को जीतना चाहिए।
नहायनैन पलितैनं वित्तेन नवन्धुभिः ।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः सनोमहान् ।।
(मनु0 2।154)
न अधिक वर्षों से, न सफेद बालों से, न धन और बंधुओं से कोई बड़ा होता है। ऋषियों ने ऐसा माना है कि जो ज्ञानवान् है वही बड़ा है।
विप्राणां ज्ञानतो ज्येष्ठं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः
वैश्यानां धान्य, धनतः शूद्राणा मेवजन्मतः ।।55।।
ब्राह्मणों में ज्ञान से, क्षत्रियों में बल से, वैश्यों में धन धान्य से और शूद्रों में जन्म से श्रेष्ठता होती है।
यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग् गुप्ते च सर्वदा ।
सवै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ।।
[मनु0 2।160]
जिसके मन और वाणी सुरक्षित और शुद्ध हैं अर्थात् ईर्ष्या द्रोह आदि से रहित मन है अमृत चुगलखोरी रूखेपन से रहित वाणी है वही वेदान्त के फल को प्राप्त होता है।
यं माता पितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् ।–––––––-
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्त्तं वर्षशतैरपि ।2।227।
माता पिता जो क्लेश मनुष्य की उत्पत्ति में सहन करते हैं उसका बदला संतान सदा चुकाती रहे तो भी चुकना कठिन है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ये रमन्ते तत्र देवता ।
यत्रै तास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रिया ।3।56
जहां स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहां देवता रमण करते हैं और जहां इनका अनादर होता है वहां की सम्पूर्ण क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।
शोचग्ति जामयो यत्र विनस्यत्य शु तत्कुलम् ।
नशोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।57।।
जिस कुल में स्त्रियां दुःख पाती हैं उसका शीघ्र ही नाश हो जाता है और जिस कुल में वह सुखी रहती हैं वहां सदा धनादि की वृद्धि होती है।
तृणाति भूमिरुदकंवाक् चतुर्थी च सूनृता ।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यते कदाचन ।3।101
चटाई आदि बिछाना, ठहरने के लिये भूमि, जल, सत्य और प्रिय वाणी से सज्जनों के गृह से कभी दूर नहीं होते अर्थात् इन वस्तुओं के द्वारा अतिथियों का सत्कार होता रहता है।
उपासतेये गृहस्थाः परमाकमबुद्धयः ।
तेनते प्रेत्य पशुतां ब्रजन्त्यन्नादि दायिनाम् ।104।
अच्छा भोजन मिलेगा इस लोभ से जो दूसरे अतिथि बनते हैं वह मरने पर अन्नदाताओं के पशु बनते हैं।
न हीदृरामनायुष्यं लोके किंचन विद्यते ।
यादृशं पुरुषस्येह परदारो पसेवनम् ।।4।134।।
पर स्त्री सेवन के समान दूसरा काम इस संसार में मनुष्य की आयु कम करने वाला नहीं है।
अधार्मिक नरोयोहि यस्य चाप्यनतं धनम् ।
हिंसा रतश्च यो नित्यं नेहासौ सुख मेधते ।
जो अधर्मी हैं जिनका मिथ्या भाषण ही धन हैं जिसकी रुचि सदा हिंसा में ही रहती है उसको संसार में सुख नहीं मिलता।
अन्नादे भ्रृणहा मार्ष्टि पत्यौ भाया पचारिणी ।
गुरौ शिष्यश्चयाज्यश्च स्तेनो राजनि किल्विषम् ।।
[8।217]
जो ब्रह्म हत्या करने वाले का अन्न खाता है वह उसके पाप का भागी होता है, स्त्री के पाप का भागी उसका पति होता है शिष्य के किये पाप को उसका गुरु भुगतता है। चोर के पाप को राजा भुगतता है।
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते ।
नेवं कुर्यां पुनरिति निवृत्यां पूयते तुसः ।।11।230।।
मनुष्य पाप करके फिर सच्चे दिल से पछताने से और मैं फिर ऐसा न करूंगा ऐसा कहने से निवृत्ति रूप संकल्प करने से उस पाप से छूट जाता है।
ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्यरक्षणम् ।
वैश्यस्य तुं तपो वार्तातपः शूद्रस्य सेवनम् ।।
(11।235)
ज्ञान होना यह ब्राह्मण का तप है रक्षा करना यह क्षत्रिय का तप है खेती वाणिज्य पशुपालन यह वैश्य का तप है सेवा करना यह शूद्रों का तप है।
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं त्र सुसंचितम् ।
दम्पत्यो कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।
(चाणक्य नीति)
मूर्खों का जहां आदर नहीं होता जहां अन्न का संग्रह रहता है स्त्री पुरुषों में जहां कलह नहीं होता वहां लक्ष्मी स्वयं आती है।
प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये वार्जितं धनम् ।।
तृतीयं नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किंकरिष्यति ।।
(चाणक्य नीति)
बाल्य अवस्था में विद्या नहीं पढ़ी जवानी में धन प्राप्त नहीं किया, वृद्धा अवस्था में धर्म प्राप्त नहीं किया तो मरने के क्या मरेगा।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मंण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।
(चाणक्य नीति)
महात्माओं के मन वाणी शरीर में एक बात होती है। अर्थात् जो बात मन में है वही वाणी से कहेंगे और उसी को करेंगे। दुष्टों के मन में कुछ और वाणी में कुछ और करने में कुछ और ही।
मातृ वत्पर दारेषु पर दृव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मवत्सर्व भूतेषु यः पश्यति स पंडित ।।
(चाणक्य नीति)
पराई स्त्रियों को माता की दृष्टि से पराये धन को मिट्टी के समान सब जीवों को अपने समान जो देखता है वह पंडित है।
कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौव्ययागमौ ।।
कस्या हं काचमै शक्नि रिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ।।
(चाणक्य नीति)
समय कैसा है मेरे मित्र कौन-कौन हैं, देश कैसा है, आमदनी और खर्च कितना है मैं किसका हूं मेरी सामर्थ्य कैसी है इस प्रकार बार बार विचार करे।
सतप्ता यसि संस्थित स्यपयसो नामापि नज्ञायते ।
मुक्ताकार तयातदेव नलिनी पत्र स्थितं राजते ।
अन्तः सागर शुक्ति मध्य पतितं तन्मौक्तिकं जायते ।
प्रायेणाधम मध्यमोत्तम गुणः संसर्ग तो जायते ।।
(भर्तृ हरि नीतिशतक)
गरम तवे पर जल का बूंद यदि छोड़ो तो नाम निशान नहीं रहता वही जल की बूंद यदि कमल के पत्ते पर छोड़ो तो मोती सा हो जाता है वही जल की बूंद यदि समुद्र के बीच सीप में पड़ जाय तो साक्षात सच्चा मोती हो जाता है इससे सिद्ध होता है कि प्राय करके अधम मध्यम उत्तमः गुण संसर्ग से होते हैं।
इन्द्रियाणि वशीकृत्य गृह एव वसेन्नरः ।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्कराणि च ।।
(व्यास0 4।31)
इन्द्रियों को बुरे विषयों से रोककर घर में रहे तो वहीं उसका कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं।
सुखं वा यदि वा दुखं यत् किंचित् क्रियतेपरे ।
यत्क्रसंतुपुनः पश्चात् सर्व मात्मनि तद्भवेत् ।।
(दक्ष0 3।22)
जो सुख दुख दूसरे के लिये किया जाता है वह पीछे करके अपने ऊपर पड़ता है।
गंगादि पुण्य तीर्थेषु योनरः स्नाति सर्वदा ।
यः करोति सत संगं तयोः सत्संगमो वरः ।।
(पद्म पु0 आदि कांड 23।6)
गंगादि पुण्य तीर्थों में स्नान करना और सत्पुरुषों का संग करना इसमें सत्संग श्रेष्ठ है।
साक्षरा विपरीताश्च राक्षसा स्त इतिस्मृताः ।
तस्माद्वै विपरीतं च कर्म नैवा चरेद्बुधः ।।
(शिव पु0 विद्येश्वर संहिता 6।21।25)
यदि साक्षर विद्वान् होकर विपरीत चले तो वह राक्षस है (साक्षरा को उलटा पढ़ो तो राक्षसा हो जायगा) तिस कारण बुद्धिमान् को विपरीत आचरण न करना चाहिए।
श्रुति स्मृति श्चेतिहासाः पुराणं च शिवात्मज ।
प्रमाणं चेत्ततो दुष्ट वधेदोषो न विद्यते ।।
(स्कन्द पु0 1।2।33।11)
श्रुति स्मृति इतिहास पुराण यदि इनको प्रमाण माना जाता है तो दुष्ट के वध में दोष नहीं।
परद्रोह धियो ये च परेर्ष्या कारिणाश्चये ।
परोपतापिनो येवै तेषां काशी न सिद्धये ।।
(वीर मित्रोदय—तीर्थ प्रकाश)
दूसरे के अनिष्ट चिन्तन वाले, दूसरे की बढ़ती को देखकर कुढ़ने वाले, दूसरे को दुःखदायी, ऐसे पुरुषों का काशी वास सिद्धि देने वाला नहीं।
परदार परदृव्य परद्रोह पराङ् मुखः ।
गंगा ब्रू ते कदागत्य मामयं पावयिष्यति ।।
(जयसिंह कल्पद्रुम)
पराई स्त्री, पराये धन, पर निन्दा से जो बचा है गंगा महारानी कहती हैं कि ऐसा पुरुष आकर मुझे कब पवित्र करेगा।
मर्त्यावतार स्त्विह मर्त्य शिक्षणं, रक्षो वधायव
न केवलं विभो । (भा0 5।19।5)
श्री रामचन्द्र जी का जो अवतार है वह केवल रावण के मारने के लिए नहीं वरन् मनुष्य के शिक्षा के लिए है। अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी ने भरत आदि के साथ जो व्यवहार किया है यह हम सब को करना चाहिए।
धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पंचधावि भजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ।।
।। भा0 8।19।37 ।।
धर्म के निमित्त, यश के लिए, वढ़ाने के निमित्त, अपने शरीर के आराम के लिए, और स्वजनों की सहायता के लिए इस प्रकार पांच प्रकार से दृव्य खर्च कराया हुआ इस लोक और परलोक में सुख पाता है।
पुंसस्त्रि वर्गों विहितः सुहृदाह्यनु भावितः ।
न तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थाय कल्पते ।।
।। भा0 10।5।28 ।।
स्वजनों को आराम देते हुए धर्म अर्थ काम सेवन ठीक है स्वजनों के क्लेश भोगते हुए त्रिवर्ग सुख कारक नहीं।
मातावा जनको वापि भ्राता वा तनयोस्पिव ।
अधर्मं कुरुते यस्तु सएव रिपुरिष्यते ।।
।। नारद पु0 8।15 ।।
माता पिता भ्राता पुत्र भी यदि अधर्मी हैं तो बैरी समझना चाहिए।
ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक् कर्मबुद्धिभिः ।
ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम् ।।
।। म0 मा0 वन0 200।99 ।।
मन वाणी शरीर के पाप से जो बचे हैं वे बड़े महात्मा हैं बड़ी तपस्या कर रहे हैं केवल शरीर का सुखाना तप नहीं।
वनेऽपि दोष प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रिय
निग्रहस्तपः । अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्त
रागस्य गृहं तपोवनम् ।।
पद्म पु0 सृष्टि खं0 19।195)
रागी पुरुषों को (जिनके हृदय में काम क्रोधादि है) वन में चले जाने पर भी दोष लगे रहते हैं घर में रहता हुआ इन्द्रियों को बुरे विषयों से रोके हुए है तो वह मानो तप कर रहा है खोटे कर्म (हिंसा चोरी आदि) में प्रवृत्ति नहीं राग द्वेष से रहित है ऐसे पुरुष को घर ही तपोवन है।
आरोग्य लाभो लाभानाम्
(पद्म पु0 5।86।64)
लाभों में सबसे बड़ा लाभ आरोग्यता है।
परोपकार पुण्यानाम् ।।65।।
पुण्यों में बड़ा पुण्य परोपकार है।
शौचाना मर्थ शौचं च दानानामभर्य तथा ।।66।।
ईमानदारी का पैसा पास होना सबसे भारी पवित्रता है। दानों में सबसे बड़ा दान सत्पुरुषों को विपत्ति से छुटाना है।
यस्योपदेशतः पुण्यं पापं वाकुरुते जनः ।
स तद् भागी भवेन्मर्त्त्य इति शास्त्रेषु निश्चितम् ।।
(पद्म पु0 7।1।16)
जिसके उपदेश से मनुष्य पाप और पुण्य करता है वह उपदेष्टा उस पाप पुण्य का भागी होता है।
वृत्तेन मवत्यार्यो न धनेनन विद्यया ।
सुन्दर व्यवहार (आचरण) से आर्य (श्रेष्ठ) माना जाता है धन व विद्या से नहीं। (भ0 भा0 उद्योग0 90।53)
वृत्तस्थो योऽपि चाण्डालस्तं देवा ब्राह्मणंविदुः ।।
(पद्म पु0 सृष्टि खंड अ0 50)
सदाचार सम्पन्न यदि चाण्डाल है तो देवता भी उसको ब्राह्मण समझते हैं।
पाठका पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्र चिन्तकाः ।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् सपंडितः ।।
314।110
पढ़ने वाले पढाने वाले और भी शास्त्र चिन्तक ये व्यसनी समझो जो शास्त्रानुसार चलने वाला है वह पंडित है।
चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तिः सशूद्रादतिरिच्यते ।
योग्निहोत्र परोदान्तः स ब्राह्मण इतिस्मृतः ।।111।।
चारों वेदों का जानकार यदि दुराचारी है तो वह शूद्र से भी गया बीता है। जो अग्निहोत्री (काम क्रोध लोभादि को हनन करने वाला) और इन्द्रिय निग्रही है वह ब्राह्मण है।
इदमेवहि पांडित्यं चातुर्यमिद मेवहि ।
अयमेव परोधर्मो यदायान्नाधिकोव्ययः ।।
यही पांडित्य है यही चतुरता है यही परम धर्म है कि आमदनी से अधिक खर्च न हो।
अन्यायेन परधनादि ग्रहणं स्तेयम् ।
(मनु0 6।92 कु-भा-)
अन्याय से दूसरे का धनादि लेना चोरी है।
न्यायागतोऽर्थ (चाणक्य सूत्र 2।54)
न्यायानुसार आया हुआ धन असली धन है।।
न धर्म पर एवस्यान्न चार्थ परमोवरः ।
न काम परमो वास्यात् सर्वान् सेवेत सर्वदा ।।
(म0 भा0 वन- 33।39)
केवल धर्म में ही मत लगे रहो (निर्वाह के लिये आजीविका की ओर देखो तथा शरीर की रक्षा करो) और केवल धन कमाने में ही मस्त मत रहो (शरीर की रक्षा करते हुए परलोक के लिये कुछ धर्म का संग्रह करलो) और दिन भर शरीर को सजाते ऐश आराम में ही मत गुजारो (जीवन निर्वाह का उपाय धर्मानुकूल करते रहो) सबका (धर्म अर्थ काम) सब काल में अविरुद्ध रूप से सेवन करो।
अनुरामं जनोयति परोक्षे गुण कीर्तनम् ।
नविभ्यति च सत्वानि सिद्धिलक्षण मुत्तमम् ।।64।।
मनुष्यों का जिसमें प्रेम हो परोक्ष में प्रशंसा करें किसी प्राणी को उससे भय की संभावना न हो यह सिद्धि का उत्तम लक्षण है।
कुचैलिनं दंत मलोपधारिणं वव्हाशिनं निष्ठुर भाषिणं च ।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदिचक्रपाणिः ।।
(चाणक्य नीति)
मलिन वस्त्रधारी, मैले दांत वाले, बहुभोजी, निष्ठुर भाषी सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले यदि विष्णु भगवान क्यों न हो लक्ष्मी साथ छोड़ देगी।
धर्माविरोधिनी कार्या काम सेवा सदैवतु ।
धर्मोत्तर पु- 26।2।3
धर्मानुकूल काम सेवन करना चाहिए।
सत्यमेव जयते नानृतम् (मु0 1।2।13)
सत्य की जय होती है झूंठ नहीं।
विवर्जनं ह्य कार्याणां मेतत्सत्पुरुष व्रतम् ।
(म- भा- विराट- 14।36)
खोटे कार्यों का परित्याग कर देना सत्पुरुषों का व्रत है।
परिनिर्मश्य वाग्जालं निर्णीत मिद मेवहि ।
नोपकारात्परो धर्म नापकारादघ परम् ।।
(स्कं- पु- खं- 34 पू0 6।7)
पराहित सरिसधर्म नहिं भाई ।
पर पीडा सम वहिं अधमाई ।।
सारे शास्त्रों का मंथन करके यह निश्चय किया है कि परोपकार की बराबर कोई धर्म नहीं और पर अपकार की बराबर कोई पाप नहीं।
तपः स्वधर्म वर्तित्वम् (म0 भा0 वन0 313।88)
अपने कर्त्तव्य कर्म से विचलित न होना ही तप है।
हीरकार्य निवर्त्तमम् ।।88।।
कुकर्म से बचना ही लज्जा है।
गुणाधिकान् मुदं लिप्से दनुक्रोशं गुणाधमान् ।
मैत्री समानादन् विच्छेन्नता पै रमि भूयते ।।
(भा- 48।34)
अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्नता प्रकट करें, कमत को देखकर कृपा दृष्टि करे। गुण में बराबर वाले को देखकर मित्रता का भाव करे, इस व्यवहार से प्राणी संताप को प्राप्त नहीं होता है।
य एवं नैव कुप्यन्ते न लुभ्यन्ति तृणेष्वपि ।
त एव नः पूज्य तमायचापि प्रिय वादिनः ।।
(59।22)
जो कभी क्रोध नहीं करते, जो तृण पर भी नीयत नहीं डुलाते, जो प्रियवादी हैं ऐसे पुरुष हमारे पूजनीय हैं।
जानन्नापि च यः पापं शक्तिमान न नियच्छति ।
ईशः सन् सोऽपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते ।।11।।
(म0 भा0 आदि0 180)
पाप होता हुआ समझकर शक्तिशाली होते हुये जो पाप को दूर करने का भरसक प्रयत्न नहीं करता वह पाप का भागी होता है।
भीष्मजी कहते हैं हे युद्धिष्ठिर?
माते राष्ट्रे याचनका भूवन्मा चापि दस्यवः ।
(म0 भा0 शां 84।24)
तेरे राज्य में चोर और भिकारी न होने पावें ।
शास्त्राण्य धीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरुष सविद्वान् ।
सुचिन्ततं चौषध तुराणां न नाम मात्रेण करोत्यरोगम् ।।
(सु0 रत्न भां0)
शास्त्रों को पढ़ कर भी मूर्ख रहते हैं। जो शास्त्रोक्त विधि का पालन करने वाले हैं वे विद्वान हैं। औषधि को विचारते रहे, बार बार नाम लेते रहे तो क्या वह रोगी को निरोग कर देगी।
सा श्रीर्या न मदं कुयान्स सुखी तृष्ण योजिझत ।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः पुरुषः स जितेन्द्रियः ।।
लक्ष्मी वही श्रेष्ठ है जिनमें मद न हो, सुखी वही है जिसने तृष्णा को जीत लिया है, मित्र वही है जिस में विश्वास है और पुरुष वही है जो जितेन्द्रिय है।
क्वचिद्रुष्टः क्वचितुष्टः रुष्टस्त्तुष्टः क्षणे क्षणे ।
अव्यवस्थितचितस्य प्रसादोऽपि भयंकरः ।।
कभी अप्रसन्न और कभी प्रसन्न, इस प्रकार जो मनुष्ट क्षण-क्षण में असंतुष्ट और संतुष्ट होता रहता है, उसकी प्रसन्नता या कृपा भी भयानक है।
कष्टा वृत्तिः पराधीना कष्टो वासो निराश्रयः ।
निर्धनो व्यवसायश्च सर्वकष्टा दरिद्रता ।।
पराधीन जीविका से जीवन, आश्रय बिना निवास और धन बिना व्यवसाय बड़ा कष्टकारी होता है और दरिद्रता तो सब प्रकार से कष्ट देने वाली होती है।
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थैः ।।
धन न होने पर भी मनुष्य को आरोग्य, विद्वत्ता सज्जनों के साथ मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म और स्वाधीन वृत्ति रखने से ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानसगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रश्र् ।।
मधुर वाणी के साथ दान, अहंकार रहित ज्ञान, क्षमा युक्त वीरता और त्याग (दान) में नियुक्त धन ये चारों दुर्लभ हैं।
स जीवति यशशो यस्य कीर्तिर्यस्य स जीवति ।
अयशोऽकीर्ति संयुक्तो जीवन्नपि सृतोपमः।।
यशस्वी और कीर्ति वाले मनुष्य का ही जीवन है, कीर्तिहीन मनुष्य जीता हुआ भी मरे के समान है।
निन्दंतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु ।
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगांतरे वा ।
न्यायात्पथः प्रविचलंति पदं न धीराः ।।
चाहे नीतिवान पुरुष निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मी रहे या जाय, मरण चाहे आज हो या युगान्तर में। परन्तु धीर पुरुष न्याय मार्ग से एक पद भी विचलित नहीं होते।
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूणां ।
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं ।
निज हदि विकसंतः संति संतः कियन्त ।।9।।
जिनका मन, वचन और शरीर पुण्य रूपी अमृत से पूर्ण है, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हैं, जो दूसरों के जरा से गुण को पर्वत के समान करके अपने हृदय को विकसित करते हैं, ऐसे सज्जन कितने हैं।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्यंति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ।।
विद्या नम्रता को देती है, नम्रता से योग्यता आती है। योग्य ही धन कमा सकता है। धन से धर्म और धर्म से सुख होता है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च,
प्रिया च भायो प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या,
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।।
ये बातें सुख देने वाली होती हैं—नित्य धन लाभ, निरोगिता, प्यारी और मीठा बोलने वाली स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र और अर्थकारी विद्या।
निर्गुणोष्यपि सर्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।
नहि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः ।।
गुणहीन प्राणियों पर भी सज्जन दया ही किया करते हैं। चंद्रमा चांडाल के घर पर से अपनी चांदनी हटा नहीं लेता।
यत्र विद्वज्जनो नासित श्लाध्यस्तत्रल्पधीरपि ।
निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते ।।
जहां विद्यावान् मनुष्य नहीं होता, वहां थोड़ी बुद्धि वाला भी सराहा जाता है। जहां पेड़ नहीं होते वहां एरंड ही पेड़ मान लिया जाता है।
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे ।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।
उत्सव में, व्यसन में, दुर्भिक्ष में, गदर के समय, कचहरी में और श्मशान में जो साथ है, वही बांधव है।
रहस्य भेदो याञ्चा च नैष्ठुर्यं चलचित्तता ।
क्रोधो निःसत्यता द्यूतमेतन्मित्रस्य दूषणम ।।
मित्र में यह दोष न होने चाहिए, गुप्त बातों को प्रकट करना, मांगना, कठोरता, चित्त की चपलता, क्रोध, असत्य और जुआ खेलना।
मनस्यन्यत्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।।
दुरात्मा लोगों के मन में कुछ, वाणी में कुछ, कर्मों में कुछ और ही होता है। पर महात्माओं के मन में वाणी में और कर्म में एक ही बात होती है।
अर्थनाशं सनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।
वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
धन का नाश, मन का दुःख, घर के दुःश्चरित, ठगी और अपमान ये बातें बुद्धिमान किसी से न कहे।
कःकालः कानि मित्राणि को देशःकौ व्ययागमौ ।
को वाऽहं का च मे शक्तिरिति चिंत्यमुहुर्मुहुः ।।
क्या समय है, कौन सा देश है, आय व्यय कैसे हैं, मैं कौन हूं और मेरी शक्ति कितनी है। ये बातें मनुष्य को बार बार सोचनी चाहिये।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
इमे संसेविते येन सफलं तस्य जीवनम् ।।
माता और जन्मभूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बड़ी हैं। जिसने इन दोनों की सेवा करली, उसका जन्म सफल होगा।
कुग्रामवासः कुजनस्य सेवाकुभोजनं क्रोधमुखी च भाय
मूर्खश्च पुत्रो विधवा च कन्या
विनाग्निना संदेहते शरीरम् ।।
बुरे गांव का वास, बुरे आदमी की सेवा, बुरा भोजन, क्रोध वाली स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या ये सब आग बिना ही शरीर को भस्म करते हैं।
धनिनोऽपि निरुन्मादो युवानोपि न चंचलाः ।
प्रभवोऽप्यप्रमत्तास्ते महामहिमशालिनः ।।
बड़ी महिमा वाले उत्तम पुरुष धनी होने पर उन्मत्त, युवावस्था में चंचल और प्रभुता पाने पर प्रमादी नहीं होते।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं सन्मित्र रहितस्य च ।
मुर्खस्य च दिशः शून्याः सर्व शून्या दरिद्रता ।।
पुत्र और सन्मित्र के बिना घर सूना है, मूर्ख की सब दिशायें सूनी है और दरिद्रता सब बात से सूनी है।
वज्रादपि कठोराणि मृदून कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमहति ।।
उत्तम पुरुषों को हृदय वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल होता है। उसे जानने में समर्थ कौन है?
आहारनिद्राभयमैथुनश्च ।
सामान्यमेतत्पशुभिर्रराणाम ।
धर्मोहि तषामधिको विशेषा ।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
खाना, सोना, डर, सन्तान पैदा करना ये बातें मनुष्यों और पशुओं में समान ही होती हैं। धर्म ही मनुष्य में विशेष होता है। इसके बिना वे पशु हैं।
उद्योगिनं पुरुषसिंह मुपैति लक्ष्मी—
र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोत्र दोषः ।।
उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी मिलती है। भाग्य का भरोसा कायर लोग किया करते हैं। भाग्य को दबा कर पुरुषार्थ करो। यत्न करने पर काम न बने तब विचारना चाहिए कि इसमें दोष किसका है।
उद्योगेनहि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
उद्योग से ही काम बनते हैं मन में सोचने मात्र से नहीं। सोते हुए सिंह के मुंह में कहीं कोई मृग आ सकते हैं?
काव्यशास्त्रविनोदेन कालोगच्छति धीमताम्
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
बुद्धिमानों का समय काव्य शास्त्रों के पढ़ने सुनने में जाता है और मूर्खों का व्यसन, निद्रा और झगड़ों में।
इज्याध्ययनदानानि तपःसत्य धृतिः क्षमा ।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः
धर्म के आठ मार्ग हैं—यज्ञ करना, पढ़ना, दान देना, तप, सत्य, धैर्य, क्षमा, और निर्लोभ।
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडितः ।।
जो पराई स्त्रियों में माता को, पराये धन में मिट्टी का और सब जीवों में अपने आत्मा का भाव रखता है, वही पण्डित है।
ईर्ष्या घृणी त्वसन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशंकितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः ।।
डाही, घृणी, असन्तोषी, क्रोधी, सदा सन्देही, परभाग्य से जीने वाला, ये छः दुःखी रहते हैं।
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुत्तौ
प्रकतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
विपत्तिकाल में धैर्य, सम्पत्ति में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि, सुनने में शौक ये बातें महात्माओं में स्वभाव से ही होती हैं।
सम्पदियस्यन हर्षो विपदि विषादो रणेचधीरत्वम् ।
तंभुवनत्रयतिलकं जनयतिनजनी सुतंविंरलम् ।
जिसको सम्पत्ति में हर्ष और विपत्ति में दुख न हो, तथा रण में धीरता हो, ऐसे त्रिलोकी तिलक पुत्र को कोई विरली ही माता जनती है।
षडदोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भवं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
ये छः दोष कल्याण चाहने वाले मनुष्य को छोड़ देने चाहिए। निद्रा, तन्द्रा, भय क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता (देर में काम करना)।
मांसपुरीषामूत्रस्थिनिर्मितेऽस्मिन् कलेवरे ।
विनश्वरे विहायास्थां यशः पालय मित्र मे ।।
मांस विष्ठा मूत्र और हड्डी से बने हुए इस नाशमान शरीर का मोह छोड़कर हे मित्र! तू यश का पालन कर अर्थात् यश के लिये शरीर की पर्वा मत कर।
खादन्न गच्छेदध्वानै न च हास्येन भाषणम् ।
शोक न कुर्यान्नष्टस्य स्वकृतेरपि जल्पनम् ।।
खाते-खाते रास्ता चलना उचित नहीं, हस कर बात न करे, नष्ट वस्तु के लिए शोक न करे, तथा अपने कार्य का भी कीर्तन न करे।
स्वशंकिताना समीप्यं त्यजेतै नीचसेवनम् ।।
संलापं न व शृणु याद् गुप्तं कस्यापि सर्वदा ।।
अपने से शंकित व्यक्ति के पास जाना उचित नहीं, तथा नीच-व्यक्ति की सेवा भी न करनी चाहिए। किसी का गुप्त आलाप कभी न सुनो।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।।
मैं श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और श्री शंकरजी को प्रणाम करता हूं जिनके बिना सिद्ध पुरुष अपने में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षित रक्षितः ।
तमाद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्म हतोऽवधीत् ।।
—मनु0 8।15
जो धर्म को नष्ट करता है धर्म उसको नष्ट कर देता है, धर्म की जो रक्षा करता है रक्षा किया हुआ धर्म उसकी रक्षा करता है। इस कारण धर्म को न मारना चाहिये कहीं कि मरा हुआ धर्म हमको न मार दे।
धर्मः कायङ्मनो भिः सुचरितम् ।
(सुधुतोपरि डल्हणाचार्य कृत टीका)
मन वाणी शरीर का जो सुन्दर व्यवहार वही धर्म है। दया (निःस्वार्थ दूसरे के दुःख दूर करने का यत्न करना) दूसरे का अनिष्ट चिन्तन न करना, किसी के दृव्य तथा स्त्री पर मन न चलाना गुरु व शास्त्र वचनों पर श्रद्धा रखना ये मन के सुन्दर चरित्र हैं।
सत्यप्रिय और हितकारी वचन बोलना, धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करना यह वाणी का सुन्दर चरित्र है।
दान देना, सत् की रक्षा करना, और ब्रह्मचर्य से रहना यह शरीर का सुन्दर व्यवहार है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवा व धार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेपानं तदाचेरत् ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 3।255।44)
धर्म का तत्व सुनो, सुनकर करके अमल में लाओ वह धर्म का तत्व क्या है? जो व्यवहार अपने विरुद्ध हो उसको दूसरे के साथ मत करो यही धर्म का तन्त्र है।
यतोऽभ्युदय निश्रेयसः सिद्धि सधर्मः ।।
(वैशेषिक)
जिस व्यवहार से इस लोक में आनन्द भोगते हुए परलोक में कल्याण प्राप्त हो वही धर्म है।
यमार्याक्रियमाणं हि शंसन्त्यागम वेदिनः ।
सधर्मो यं विगर्हन्ति तमधम प्रचक्षते ।।
(कामन्दकीयनीतिसार 6।7)
शास्त्रज्ञ सदाचारी जिस कार्य की प्रशंसा करें वह धर्म है जिसकी निन्दा करें वह अधर्म है।
आरम्भो न्याययुक्रो यः सहि धर्म इतिस्मृतः
अनाचार स्त्व धर्मेतिह्येतच्छेष्टानुशसनम् ।।
(भ0 भा0 वन0 207। 67)
न्याययुक्त कार्य धर्म, और अन्याय युक्त कार्य अधर्म है यही श्रेष्ठ पुरुषों का मत है।
येनोपायेन यर्त्यानां लोक यात्रा प्रसिध्यति ।
तदेव कार्य ब्रह्मज्ञै रिदंधर्मः सनातनः ।।
(शाब्दार्थ चिन्तामणि)
जिस उपाय से मनुष्य का जीवन निर्वाह भले प्रकार हो जाय वही करना वह सनातन धर्म है।
धर्म कार्य यतन्शक्त्या नोचेत्प्राप्नोति मानवः ।
प्राप्तो भवति तत्पुरूचमत्र नास्तिष संशयः ।।
(म0 भा0 उ0 92।6)
श्री कृष्ण चन्द्र विदुर जी से कहते हैं कि—
धर्म के कार्य को सामर्थ्य भर करते हुए यदि सफल न हो सके तो भी उसके पुण्य फल को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्म मुहुर्ते बुध्येतधर्मार्थौचानु चिन्तयेत् ।
काय क्लेशांश्च तन्भूलान् वेदतत्वार्थ मेवच ।।
(मनु0 4।92)
ब्राह्ममुहूर्त्त [1।। घंटा रात] में उठे, धर्म और अर्थ जिस प्रकार प्राप्त हो वह विचारे। धर्म और अर्थ के उपार्जन में शरीर के क्लेश का भी नवचरवा यदि धर्म अर्थ अल्प हुआ और शरीर को क्लेश अधिक हुआ तो ऐसे धर्म और अर्थ को न करे। उस समय ईश्वर का चिन्तन करे, कारण कि वह समय बुद्धि के विकास का है।
गुणादश स्नान परस्य साधोरु पंच पुष्टिश्च वलंच तेजः ।
आरोग्य मायुश्च मनोनुरुद्व दुःस्वप्न घातश्च तपश्चमेधा
(दक्ष0 2 14)
रूप, पुष्टि, बल, तेज आरोग्यता, आयु, मनका निग्रह, दुःस्वप्न का नाश, तप और बुद्धि का विकास ये दस गुण स्नान करने वाले को प्राप्त होते हैं।
वाङ् मनोजल शौचानि सदायेषां द्विजन्मनाम् ।
त्रिभिः शौचे रुपेतो यः स स्वर्ग्यो नात्र संशयः ।।
वृद्ध पराशर स्मृति 6।216
वाणी का शौच, मन का शौच, और जल का शौच इन तीन शौच से जो युक्त है वह स्वर्ग का भागी है। इसमें संशय नहीं।
कठोरता, मिथ्या, चुगलखोरी, व्यर्थ की बक बक, इन चार विषयों से बची वाणी शुद्ध है।
सर्वेषा मेव शौचनामर्थ शौचं परं स्मृतम् ।
याऽर्थे शुचिहि सशुचिर्न मृद वारि शुचिः शुचिः ।।
(मनु 5।106)
सारी पवित्रताओं में धन सम्बन्धी पवित्रता ईमानदारी बड़ी है। जो धन के द्वारा पवित्र है वह पवित्र है। मिट्टी जल से पवित्रता वास्तविक पवित्रता नहीं। अर्थात् ईमानदारी का पैसा जिसके पास है वास्तव में वही पवित्र है।
शौचाना मर्थ शौचञ्च0
(पद्मपु0 5।8।6।66)
पवित्रताओं में ऊंची कोटि की पवित्रता ईमानदारी का पैसा है।
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यान्नाद्याश्चैव तथात्तरा ।
नचैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्
(मनु0 2।56)
अपना झूंठा किसी को न देवे और न किसी का झूंठा खावे। दिन और रात्रि के बीच में तीसरी बार भोजन न करे, अधिक पेट भर के न खावे झूंठे मुख कहीं न जावे।
मित भोजनं स्वास्थ्यम् ।।
चाणक्य सूत्र 3।7
मर्यादित भोजन स्वास्थ्यकर है।
अजीर्णे भोजनं विषम् ।। 3।10
अजीर्ण में भोजन करना विष है।
मात्राशी सर्व कालंस्यान्मात्राह्यग्नेः प्रवर्तिका । 8।2
(वाग भट्ट सूत्र स्थान)
सदा मर्यादित भोजन करना चाहिये। ऐसा खाना ही जठराग्नि को बढ़ाता है।
मात्रा प्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद् विजीयते ।।2।।
जो भोजन सहज में पच जाय यही इसकी मात्रा है।
न पीडयेदिन्द्रियाण न चैतान्यति लालयेत् । (2।29)
रूखा, सूखा, बेस्वाद भोजन कर या शीत धूप सहकर इन्द्रियों को पीड़ा न दे और न अधिक आराम तलब बने।
सम्पन्न तर मेवान्नं दरिद्रा भुज्जते जनाः ।
क्षुत्स्वादुतां जनयति साचाढयेषु दुर्लभः ।।
(म0 भा0 उ0 34।50)
अन्न का असली स्वाद दरिद्री (मिहनती) पुरुषों को मिला करता है। कारण कि क्षुधा अन्न में स्वाद पैदा करती अर्थात् जोर से भूख लगने पर खाने में स्वाद आता है वह स्वाद धनवान को दुर्लभ है।
कृच्छे स्वपि न तत्कुयात्साधूनां यदसम्मतम् ।
जीर्णाशी चहिताशीच मिताशीच सदाभवेत ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 2।233।265)
सज्जन पुरुषों के विरुद्ध व्यवहार विपत्तिकाल में भी न करे। और हमेशा जीर्णाशी (भूख लगने पर खाने वाला) मिताशी (अन्दाज का खाने वाला) और हिताशी (जो पदार्थ लाभदायक हो उसको खाने वाला) होवे। इस व्यवहार से इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त होता है।
नहि मांसं तृणाद् काष्ठादुपलाद्वापि जायते ।
हते जन्तौ भवेन्मांसं तस्मातत्परिवर्जयेत् ।।
(स्कं0 पु0 6।29।232)
यह मांस तृण, काष्ठ, और पत्थर से उत्पन्न नहीं होता जीव के मरने पर प्राप्त होता है इसलिए इसको त्याग दे।
सुरामत्स्याः पशोर्मां संद्विजातीनां बलिस्तथा ।
धूर्त्तैः प्रवर्तितं यज्ञेनैतद् वेदेषु कथ्यते ।।
(म0 भा0 शां0 265।9)
शराब, मछली, पशु का मांस द्विजातियों में जीव का बलिदान इनको धूर्तों ने यज्ञ में प्रवृत्त किया है वेदों में कहीं नहीं कहा।
यक्ष रक्षपिशा चान्नं मद्यं मांसं सुरसवम् ।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवाना मत्रांता हविः ।।
(मनु0 11।96)
मांस मदिरा आदि यक्ष, राक्षस और पिशाचों का भोजन है ब्राह्मण को न खाना चाहिए।
मांस भक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् (चाणक्य सूत्र 6।73)
ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचिद् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
(मनु0 5।4)
प्राणी की हिंसा किये बिना मांस नहीं मिलता और प्राणी का वध स्वर्ग देने वाला नहीं अतः मांस न खाना चाहिए।
देय मार्त्तस्य शयनं स्थित श्रान्तस्य चासनम् ।
तृषितस्य च पानीय क्षुधितस्य चभोजनम् ।।54।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषितम् ।
उत्थाय चासनं दद्यादेषधर्मः सनातनः ।।55।।
(म0 भा0 बन0 अ0 2)
रोग पीड़ित को शयन के लिये स्थान, थके को आसन, प्यासे को पानी, भूखे को भोजन देना चाहिए। आये हुए को प्रेम दृष्टि से देखे, मन से चाहे, मीठी वाणी से बोले, उठ करके आसन दे यह सनातन धर्म है।
दान मेव कलौयुगे (पराशर0 1।23)
दानमेकं कलौयुगे (मनु0 1।86)
कलियुग में दान ही मुख्य धर्म है।
न्यायार्जित धनं चापि विधिवद्य त्प्रदीयते ।
अर्थिभ्यः श्रद्धयायुक्त दान मेतदुदाहृतम् ।।
ईमानदारी से पैदा किया हुआ पैसा विधि पूर्वक अर्थी (चाहने वाले) को श्रद्धा के साथ देना—दान है।
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणो गृहमामते ।
क्रीडंत्यौषधः सर्वा यास्यामः परमा गतिम् ।
(व्यास 4।50)
विद्या विनय से युक्त ब्राह्मण को घर आते देखकर घर का अन्न क्रीड़ा करता है। प्रसन्न होता है कि हमारी इस सुपात्र के पास पहुंचने पर परम गति होगी।
यद् यद् इष्ट तमं लोके यच्चात्मदयितं भवेत् ।
तद् तद् गुणवते देयं तदे वाक्षयमिच्छता ।।
(दक्षस्मृति 3।32)
संसार में जो जो पदार्थ हमें रुचिकर हों वह पदार्थ गुणवान को देना चाहिये।
न्यायेनार्जनमर्था नां वर्द्ध नं चाभिरक्षणम् ।
सत्पात्र प्रतिपत्तिश्च सर्वशास्त्रेषु पठ्यते ।।
(मत्स्य पु0 274।1)
न्यायानुसार द्रव्य का इकट्ठा करना, इकट्ठे किये हुए को बढ़ाना, फिर बढ़े हुए को सुपात्र को दान देना ऐसा सब शास्त्रों का आदेश है।
न्यायार्जितस्य वित्तस्य दानात सिद्धिः समश्नुते ।
(शिव पु0 13।65)
न्यायानुसार कमाये हुए वित्त के दान करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
सत्कर्म निरता यापि देयं यत्नेन नारद ।
(नारद पु 12।18)
सदाचार के लिये यत्न से देना चाहिये।
माता पित्रो गुरौ मित्रे विनीते चोपकारिणी ।
दीना नाथ विशिष्टेपु दत्तं च सफलं भवेत ।।
(दक्ष0 3।16)
माता, पिता, गुरु, मित्र, विनीत, उपकार करने वाला दीन, अनाथ और सदाचारी विद्वान इनको दिया हुआ दान सफल है।
सर्त्रत्रदान्ताः श्रुतिकर्ण पूर्णा जितेन्द्रियाः प्राणि बधे
निवृत्ताः । प्रतिगृहे संकुचिता गृहस्तास्ते ब्राह्मणास्तार
यितुं समर्थाः ।।
(वसिष्ठ0 6।22)
सर्वत्र विनयी, वेदपाठी, जितेन्द्रिय अहिंसक, भिकमंगापन से बचे हुए ऐसे ब्राह्मण संसार समुद्र से पार करने को समर्थ हैं ऐसों को धन आदि से सेवा करनी चाहिये।
इह चत्वारि दानानि प्रोक्तानि परमार्षिभिः ।
विचार्य नाना शास्त्राणे शर्मंणेत्र परत्रच ।।22।।
भीतेभ्य श्चाभयं देयं व्यसवेतेभ्यस्तर्थोषधम् ।।
देया विद्यार्थि नां विद्या देयमन्नं क्षुधातुरे ।।23।।
(शिव पु0 रुद्र संहिता खं0 4।5)
इस लोक में बड़े बड़े ऋषियों ने अनेक शास्त्रों को विचार कर चार दान निश्चित किये जो इस लोक व परलोक में कल्याणदायक हैं। वे चार दान ये हैं कि विपत्तिग्रस्त की विपत्ति छुड़ाना, रोगी को चिकित्सा का दान, विद्यार्थी को विद्यादान, भूखे को अन्न दान देना चाहिये।
पाखण्डिनो विकर्म स्थान वैडालव्रतिकाञ्छठात ।
हैतुकान्वक वृत्तीश्ंच वाङ मात्रेणापि सेत ।
पाखण्डी—शास्त्र विरुद्ध वेषधारी (जैसे मनुष्य की खोपड़ी) विकर्म स्थान—निषिद्ध कर्म करने वाले, हैतुकान्—भ्रम पैदा करने वाले, वैडालवृत्ति वाले (जैसे बिल्ली चूहे के घात में ताकती रहती है) और बक वृत्ति वाले (जैसे बगुला मछली पकड़ने को नीचे को दृष्टि कर चुपचाप खड़ा रहता है) का वाणी मात्र से भी आदर न करे।
शक्तः परजने दाता स्वजने दुख जीवने ।
मध्वा पातो विषास्वादः सधर्म प्रतिरूपकः ।।
(मनु0 11।9)
जो धनी पुरुष अपने पुरुषों (माता पिता भाई आदि जन) को दुखी देखते हुए औरों को दृव्य देता है। (नाम के लिये) वह शहद पाते हुए अन्त में विष खाने के फल को प्राप्त होता है।
भृत्याना मुपरोधेन यत्करो त्यौर्ध्व देहिकम् ।
तद्भवत्यसुखोदर्क जीवतश्च मृतस्य च ।।10।।
पुत्र स्त्री इत्यादि को क्लेश दान देकर जो परलोक के लिये दानादि करते हैं वह उभय लोक में दुख देने वाला है।
योऽसाधुम्योऽर्थं मादाय साधुम्यः सं प्रयच्छति ।
सकृत्वाप्लव मात्मानं संतार यतिता बुमौ ।।19।।
जो पुरुष नीच कर्म करने वाले से दृव्य लेकर सज्जन पुरुषों को देता है वह अपने आत्मा को नौका बनाकर उन दोनों को (जिस से लिया और जिसको दिया) दुःख से पार कर देता है।
अवताश्चा नधीयाना यत्र मौक्ष्य चराद्विजाः ।
तं ग्रामं दंडयेद राजा चौरभक्तद् दंडवत् ।।
(अत्रि0 22 पराशर0 वसिष्ठ अ0 3)
जिस ग्राम में अवती (ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित) ब्राह्मणों का जीवन निर्वाह भिक्षा द्वारा होता है उस ग्रामवासियों को राजा चोर के समान दंड दे।
विद्वद् भाज्य मविद्वांसोयेषु राष्ट्रेषु भुंजते ।
तेष्वना वृष्टि मिच्छन्ति महद् वाजायते मयम् ।।
(वसिष्ठ0 3।23)
जिस देश में विद्वानों के भोगने योग्य पदार्थों को मूर्ख भोगते हैं वहां अनावृष्टि होती है, बड़ी विपत्ति पड़ती है।
नष्ट शौचे व्रतभ्रष्टे विप्रे वेद विवर्जिते ।
दीयमानं रुदत्यन्नं भयाद् वैदुष्कृत कृतम् ।।51।।
(व्यास0 4।51)
भ्रष्टाचारी, शास्त्र शून्य, विप्र को देने पर अन्न रोता है कि मेरा बड़ा दुरुपयोग हुआ।
नास्ति दानात्परं मित्र मिह लोके परत्रच ।
अपात्रे किन्तु यद्दत्तं दहत्या सप्तमं कुलम् ।।
(अत्रि संहिता)
इस लोक और परलोक में दान के बराबर कोई मित्र नहीं परन्तु वह दान यदि कुपात्र को दिया जाता है तो सात पीढ़ी को जलाता है।
येके चित्हापनिरता निंदिताः स्वजनैः सदा ।
नतेम्यः प्रतिग्रह्णीयान्न च दद्याद् द्विजोत्तम् ।।
नारद पु0 12।18)
जो पापी हैं, श्रेष्ठ जनों से निन्दित हैं उनसे न तो कुछ ले और न कुछ उनको दे अर्थात् पापियों से असहयोग रखे ।।18।।
क्षारं जलं वारि मुचः विपन्ति तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति ।
सन्तस्था दुर्जन दुर्वचांसि वीत्वाच सूक्तानि समुद् गिरन्ति ।।
(सु0 20 भां0)
बादल समुद्र के खारी जल को पीते हैं उसी को मधुर करके बरसाते हैं इसी प्रकार सन्त पुरुष दुर्जनों के अनुचित वचनों को सुनकर उत्तर में मीठे वचन बोलते हैं।
नात्मानमव मन्येत पूर्वाभि रसमृद्धि भिः ।
आमृत्योः श्रियमन्विच्छे न्नैनां मन्येत दुर्लभाम् ।।
(मनु0 4।137)
प्रयत्न करने पर यदि धन न मिले तो अपने को भाग्यहीन न समझे मरण पर्यन्त यत्न करता रहे इस लक्ष्मी को दुर्लभ न समझे।
आरंभे तैव कर्माणि श्रांतः श्रांतः पुनः पुनः ।
कर्मंण्यारममाणंहि पुरुषं श्रीर्निषेवते ।। 300।।
(मनु0 अ0 9)
कर्म करते हुए थका हुआ पुरुष बार-बार कर्म करे, कर्म के आरंभ करने वाले को लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
उद्योगिनं पुरुष सिंह मुपैतिलक्ष्मी दैवेन देय मिति
का पुरुषा वदन्ति । दवं विलंघ्य कुरु पौरुष मात्मशक्त्य
यत्ने कृते यदि नसिध्यति कोऽत्रदोषः । (चाणक्यनीति)
उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है ‘‘जो कुछ होता है प्रारब्धानुसार होता है’’ इस प्रकार कायर पुरुष कहा करते हैं। प्रारब्ध को छोड़कर सामर्थ्यानुसार पुरुषार्थ करे यत्न करने पर यदि कार्य सिद्धि न हो तो कोई दोष नहीं।
कोतिभारः समर्थानां कि दरेव्यवसायिनाम् ।
को विदेश सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।
(चाणक्य नीति)
सामर्थ्य वालों को कोई कार्य कठिन नहीं, व्यापारियों को कोई देश दूर नहीं, विद्वानों को कोई विदेश नहीं, प्रियवादियों का कोई शत्रु नहीं।
उत्साहवन्तो हि नराय लोके सीदन्ति कर्मष्वति
दुष्करेषु । कुमार संभव
हिम्मत वाले पुरुष कठिन कार्य करने पर नहीं घबड़ाते ।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नमयेन नीचैः ।
प्रारभ्य विघ्न निहता बिरमन्ति मध्याः।।
विघ्नैमुर्हुर्मुहुरयि प्रतिहन्यमाना ।
प्रारभ्य चोत्तम जना न परित्यजन्ति ।।
(नोतशतक)
नीची कोटि के पुरुष विघ्न के भय से कार्य का प्रारंभ ही नहीं करते, मध्यम कोटि के पुरुष कार्य प्रारंभ करते हैं परन्तु कुछ ही विघ्न पड़ने पर बीच में ही छोड़ देते हैं उत्तम कोटि के पुरुष बारम्बार विघ्न पड़ने पर भी पूरा किये बिना नहीं छोड़ते।
नक्षत्रमति पृच्छन्तं वालमर्थोतिवर्तते ।
अर्थो ह्यर्थस्य नक्षत्रं किंकरिष्यन्ति तारकाः ।।
(कौ0 आ0 शा0 9।5।37)
नक्षत्र (मुहूर्त्त) की अधिक पूछताछ करने वाले का अर्थ (प्रयोजन-कार्य) नष्ट हो जाता है। अर्थ ही अर्थ का नक्षत्र है ये तारे क्या करेंगे।
नात्मान भवमन्येत इस मनुवचन (4।137)
की मेधा तिथि कृत टीका में एक वचन लिखा है—
हीनाः पुरुषकारेण गणयन्ति गृहस्थितिम् ।
सत्वोद्यम समर्थानां नासाध्यं व्यवसायिनाम् ।।
अर्थात् पुरुषार्थ से हीन पुरुष गृह दशा दिखाया करता है सामर्थ्यवान् उद्योगी पुरुषों को कोई भी कार्य असाध्य नहीं।
साहसे खलु श्रीर्वसति (चाणक्य सूत्र 2।50)
उद्योगी पुरुष के यहां लक्ष्मी का निवास रहता है।
धिग् जीवतं योद्यम वर्जितस्य ।
(स्कंद पु0 4।1।65)
उद्यम हीन का जीवन धिक्कार है।
जीवन्भृतः कस्तु निरुद्यमोयः ।
(प्रश्नोत्तर मणिमाला)
जो निरुद्यमी है वह जीता हुआ ही मरे में शुमार है।
अत्रैकं पौरुषंयत्नं वर्जयित्वे तरागतिः ।
सर्व दुखक्षये प्राप्तौ न काचिदुपजायेते ।।
(योग वासिष्ठ 3।6।14)
इस संसार में सब दुखों का क्षय करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं।
न तदस्ति जगत्कोशे शुभकर्मानुपातिना ।
यत्पौरुषेण शुद्धे न नसमासाद्यते जनैः ।।
(3।92।8)
संसार रूपी कोश में ऐसा कोई रत्न नहीं हो शुद्ध पुरुषार्थ से किये हुए शुभ कर्म द्वारा न प्राप्त हो सके।
कः केन हन्यते जन्तुर्जन्तुः कः केन रक्ष्यते ।
हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यसत्साधु समाचरन् ।।
(वि पु 18।13)
कौन किसको मारता है? कौन किसकी रक्षा करता है? यह जीव ही बुरा भला आचरण करता हुआ अपने को मारता है रक्षा करता है।
शुभ कृच्छुभमाप्नोति पाप कृत्पापमश्नु ते ।
विभीषणः सुखं प्राप्तस्त्वं प्राप्तः पाप मीदृशम् ।।
(वा-रा-पु-114।26)
शुभ कर्म करने वाला शुभ (सुख) को प्राप्त करता है पाप कर्म करने वाला पाप (दुःख) को प्राप्त होता है। देखो विभीषण को सुख प्राप्त हुआ है और तुमको ऐसा दुख (ककरीली जमीन पर पड़े हो) प्राप्त हुआ। यह वचन मरते समय रावण से मन्दोदरी ने कहा है।
सुख दुख दोन चान्योऽस्ति यतः स्वकृत भुक् पुमान्
(भा, 10।54।38)
सुख दुख देने वाला और कोई नहीं मनुष्य अपने किये हुए कर्मों के फल भोगता है।
उद्यमी नीति कुशलो धर्म युक्नः, प्रियंवदः ।
गुरु पूजा रतो यत्र तसिमन्नैव वसाम्यहम् ।।
(कार्तिक महात्म्य)
दरिद्रता देवी कहती है कि जिस घर में परिश्रमी, नीति निपुण, धर्मात्मा, प्रिय वचनवादी, और बड़ों की सेवा करने वालों का निवास है उस घर में मैं नहीं रहती।
रात्रौदिवा गृहे यस्मिन् दम्पत्योकलहोभवेत् ।
निराशा यान्त्य तिथयस्तस्मिन् स्थानेरतिर्मम ।।
जिस घर में दिन रात स्त्री पुरुष में कलह रहती है, आये हुए महानुभावों का सत्कार नहीं होता उस स्थान में मेरा (दरिद्रता का) निवास रहता है।
(कार्तिक महात्म्य)
वसामि नित्यं शुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणिवर्तमाने ।
अक्रोधने देवपरे कृज्ञेत जितेन्द्रिय नित्य मुदीर्ण सत्वे ।।
(म0 भा0 अनुशा0 11।6)
लक्ष्मी देवी का कहना है कि जो पुरुष बोलने में चतुर, कर्त्तव्य कर्म में लगे हुए, क्रोध रहित, श्रेष्ठों के उपासक, उपकार के मानने वाले, जितेन्द्रिय और पराक्रमी हैं उनके यहां मेरा निवास रहता है।
पित्रो पात्ता श्रियं भुंक्ने पित्राकृच्छ्रात्समुद्धत ।
विज्ञायतेच यः पित्रा मानवः सोऽस्तुनोकुले ।।
(मार्कण्डेय पु0 125।29)
पिता के पैदा किये दृव्य को भोगाने वाला, पिता के द्वारा विपत्ति से छूटने वाला (ऐसा काम कर बैठता है कि जो पिता को निबटेरा करना पड़ता है) पिता के नाम से जिसका परिचय दिया जाता है ऐसा पुरुष हमारे कुल में पैदा न हो।
स्वयमार्जित बित्तानां ख्यातिं स्वयमुपेयुषाम् ।
स्वयं मिस्तीर्ण कृच्छ्राणांयागतिः सास्तुमेगतिः ।।30।।
स्वयं वित्तोपार्जित करने वाले, स्वयं नाम पैदा करने वाले, स्वयं विपत्ति से छूटने वाले पुरुषों की जो सदगति होती है, हे प्रभु वह मेरी गति हो।
को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः कोवा विदेश स्तथा ।
यंदेशं श्रयते तमेवकुरुते वाहु प्रता पार्जितम् ।
यद् दंष्ट्रा नखलांगल प्रहरणः सिंहो वनं गाहते,
तस्मिन्नेव हतद्विपेन्द्र रुधिरै स्तृष्णां छिनत्यात्मनः ।।
(सुभाषितरत्नभांड़ागार)
वीर और धीर पुरुष को स्वदेश और विदेश कुछ नहीं, जिस जगह पहुंच जाते हैं वहीं अपने पराक्रम से सब कुछ कर दिखाते हैं। दांत, नख, पुच्छ से काम लेने वाला सिंह जिस वन में पहुंच जाता है उसी में मारे हुए हाथी के खून से अपनी प्यास बुझा लेता है।
न दैव प्रमाणा नां कार्य सिद्धिः (चाणक्य सूत्र 2।29)
दैव (प्रारब्ध) के भरोसे रहने वालों की कार्य सिद्धि नहीं होती।
निरुत्साहो दैवं शयति (चाणक्य सूत्र)
निरुद्यमी मनुष्य दैव को दोष देता है।
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैव मनु वतते ।
वृथा श्राम्पति सम्प्राप्य पर्ति क्लीवमिवाङ्गना ।।
पुरुषार्थ करके जो दैव के भरोसे से रहता है वह अन्त में पछताता है जैसे नपुंसक पति को प्राप्त कर स्त्री।
ये समुद्योग मृत्सृज्य स्थितादैव परायणाः ।
ते धर्मअर्थ कामं च नाश यन्त्यात्मविद्विषः ।।
(योग वासिष्ठ 2।7।3)
जो उद्योग को छोड़कर दैव का भरोसा करते हैं वे अपने ही दुश्मन हैं। और धर्म, अर्थ, काम सबको नष्ट कर देते हैं।
गुरुश्चे दुद्धर त्यज्ञ मात्मीयात्पौरुषादृते ।
उष्ट्रं दान्तं वलीवर्द तत्कस्मानोद्धरत्यसौ ।।
(योग वासिष्ठ 5।43।16)
यदि गुरु किसी व्यक्ति का उसके अपने पुरुषार्थ के बिना ही उद्धार कर सकते हैं तो वे ऊंट हाथी बैल का उद्धार क्यों नहीं कर देते।
धर्मार्थ काम मोक्षणा मारोग्यं मूलमुत्तमम् ।24।।
आरोग्यता ही धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की उत्तम जड़ है। (चरक श्लोक स्थान)
वृत्त्युपापान् विषेवेत येस्युर्धंर्माविरोधिनः ।।
शम मध्ययनं चैव सुख मेवं समश्नुते ।। 5।103।।
मन का बुरे विषयों से हटाना, सद्ग्रन्थों का अध्ययन इस प्रकार से सुख को प्राप्त करता है।
कालेहित मिंतमधुरार्थ वादी (8।22)
समय पर, हितकारी, मर्यादित, मधुर शब्दों में सार्थक बोले।
सर्व मन्यत्परित्यज्य शरीर मनुपालयेत् ।
तद भावेहि भावानां सर्वाभावः शारीरिणाम्
[ चरक-निदानस्थान 6।11 ]
अन्य सब विषयों को छोड़कर शरीर की रक्षा करे शरीर सुरक्षित न होने पर भी शरीर धारियों के सारे भावों का अभाव हो जाता है।
नित्यं हिताहार विहार सेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्नोप सेवीचमवत्यरोगः ।।
(2।45)
नित्य हितकर आहार (भोजन) विहार (शारीरिक परिश्रम) करने वाला, विषयों में अनासक्त, सोच समझ कर करने वाला, दानी, रागद्वेष रहित, सत्यवादी, क्षमाशील, सदाचारी विद्वानों का उपासक पुरुष, रोग से निर्मुक्त रहता है।
सत्यवादी, अक्रोधी, मद्य और मैथुन से बचा हुआ, अहिंसक, परिश्रमी, शान्तचित्त, प्रियवादी, यजनकर्त्ता, पवित्रता परायण, धीर, दानकर्त्ता, तपस्वी, गौ देवता ब्राह्मण आचार्य गुरु वृद्ध इनकी सेवा में परायण, निष्ठुरता रहित, दया परायण, उचित काल में जागने सोने वाले, नित्य प्रति दूध घी खाने वाले देशकाल के प्रमाण का जानने वाला, युक्तिज्ञ, अहंकार रहित, सदाचारी, एक धर्मावलंबी, अध्यात्मज्ञानवेत्ता, वृद्धों का सेवक, आस्तिक, जितेन्द्रियों का उपासक, धर्मशास्त्र परायण, पुरुष यद्यपि रसायन सेवन न करे तो भी रसायन सेवन का फल प्राप्त करता है।
(चरक—चिकित्सा स्थान 1।4)
त्रार्ग शून्यं नारंभं भजेत्तं चाविरोधयन् ।
(2।30)
कोई भी कार्य हो परन्तु त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) से शून्य न होय तो धर्म प्राप्त हो या अर्थ प्राप्त हो या इन्द्रियों का भोग ही प्राप्त हो जिस कार्य से इन तीनों में से कोई न हो तो उसको न कर।
आर्द्र संतानता त्याग काय वाक् चेतसादमः ।
स्वार्थ बुद्धि परार्थेषु पर्याप्त मितिसद् ब्रतस् ।।
(2।46)
कोमलता—कृपा का बर्ताव, उदारता, शरीर, वाणी, मन को पाप कर्मों से बचाना, पुण्य कार्यों को अपने ही समझकर उनके बनाने का प्रयत्न करना, इतना सदाचार काफी है।
आहार शयनाऽब्रह्मचर्यै युक्त्या प्रयोजितैः ।
शरीरं धार्य ते नित्य मागार मिवधारणैः । (7।52)
आहार, नींद, मैथुन ये तीन बातें शरीर के धारण में कारण है जैसे खम्भे मकान को धारण किये रहते हैं।
सत्यवादिन मक्रोध मध्यात्म प्रवणेन्द्रियम् ।
शान्तं सद्वृत्त निरतं विद्यान्निप्यं रसायनम् ।।
(उत्तरस्थान 39।179)
सत्यवादी, अक्रोधी, जितेन्द्रिय, शान्तचित्त, सदाचारी ऐसे लक्षण वाला पुरुष नित्य ही मानो रसायन सेवन करता है।
यथा खर श्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्तानतुचन्दनस्य ।
एवंहि शास्त्राणि वहून्यधीत्य चार्थेवु मूढाः खर बद् वहन्ति ।।
(सुश्रुत सूत्र स्थान 4।4)
जैसे गधे पर चन्दन लदा हो तो वह उसको बोझ ही समझता है चन्दन नहीं समझता। इसी प्रकार बहुत से शास्त्र पढ़ लिये पर वास्तविक अर्थ नहीं समझा तो गधे के समान है।
ईर्ष्या भय क्रोध परिक्षतेन लुब्धेन शुग् दैनयनिपीडितेन।
प्रेद्वषयुक्त न च सेव्यमान मन्नं न सम्यक् परिपाक मेति ।।
(46।501)
डाह (जलन) भय, क्रोध से युक्त अन्य की बढ़ती देखकर दुखी, लोभी, चिंतित, दीनतायुक्त द्वेषी ऐसे पुरुष को खाया हुआ अन्न भले प्रकार नहीं पचता।
नोद्धत वेषधरः स्यात् । (चाणक्य नीति 1।66)
विचित्र वेष न धारण करे जिसे देखकर लोग अंगुली उठाने लगें। अर्थात् सादगी में रहे।
नव्यसन परस्य कार्या वाप्तिः ।।68।।
व्यसनी का कार्य सिद्ध नहीं होता ।
इन्द्रिय वशवतिं नो नास्तिकार्या वाप्ति ।।69।।
जो इन्द्रियों के गुलाम हैं इनके कार्य की सिद्धि नहीं होती।
भाग्यवन्त मपि अपरीक्ष्य कारिणं श्रीः परित्यजति ।
(2।24)
बिना विचारे कार्य करने वाले भाग्यवान् का भी लक्ष्मी साथ छोड़ देती है।
यः संसदि परदोषं वक्ति स स्व दोष बहुत्वं प्रख्यापयति ।
(2।47)
जो सभा में दूसरे के दोष कहता है वह मानो अपने दोषों को बहुत करके प्रगट करता है।
कदाचिदपि चारित्रं न लंघयेत् ।।2।63।।
किसी काल में भी सदाचार का उल्लंघन न करे।
शत्रुं जयति सुव्रतः ।।2।। 103।।
सदाचारी शत्रु को जीत लेता है।
लोके प्रशस्तः समतिमान् ।।3।32।।
लोक में जिसकी सत्कीर्ति है वह बुद्धिमान् है।
मातापि दुष्टात्यक्तव्या ।।4।।
दुष्ट माता का भी त्याग कर देना चाहिए फिर और की तो बात ही क्या है।
यशः शरीरं नविनश्यति ।।4।8।।
यश रूपी शरीर कभी नष्ट नहीं होता।
म्लेच्छा ना मपि सुवृत्तंग्राह्यम् ।।14।।
म्लेच्छों से भी सुन्दर चरित्र सीख लेना चाहिये।
अयशोभयं भयेषु ।।25।।
भयों में बड़ा भय बदनामी है।
सर्वेषां भूषणां धर्मः ।।79।।
सबसे बड़ा आभूषण धर्म है।
जिव्हायत्तौवृद्धि विनाशौ ।
वृद्धि और विनाश जिह्वा के आधीन है।
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्न मातिष्ठेद् विद्वान् यन्ते ववाजिनाम् ।।
(मनु0 2।88)
जिस प्रकार सारथी अपने रथ के घोड़ों को वश में रखता है। वैसे ही विद्वान् विषयों में दौड़ने वाली इन्द्रियों को यत्न पूर्वक वश में रखे।
न जातु कामः कामानामुप भोगेन शम्याति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवामिवर्द्धते ।।
(मनु0 2।94)
कभी विषयों के उपभोग से इच्छा शान्त नहीं होती भोगने से इस प्रकार बढ़ती है कि जैसे घृत की अहुति से अग्नि।
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसिच ।
न विप्र दुष्ट भावस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित ।।
(मनु0 2।97)
वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप यह सब भी दुष्ट भाव वाले विषयी मनुष्य को कदापि सिद्धि नहीं देते।
वशे कृत्वेन्द्रिय ग्रामं संयम्य च मनस्तथा ।
सवान् संसाधयेदर्थान क्षिण्वन्योगतस्तनुम् ।।
(मनु 2 100)
इन्द्रियों को वश में करके मन को रोककर शरीर को पीड़ा न देकर सम्पूर्ण अर्थों (प्रयोजनों) की सिद्धि करे।।
दशकामस मुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च ।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ।।
(मनु0 7।4)
दश प्रकार का कामज और आठ प्रकार का क्रोधज यह 18 प्रकार के व्यसन हैं। इन दुरन्त (परिणाम में हानिकारक) व्यसनों को तुरन्त यत्न पूर्वक त्याग देवें।
मृगया क्षोदिवास्वप्नः परि वादः स्त्रियोमदः ।
तौर्यत्रिकं वृथाढ्या च कामजो दशको गणः ।।47।।
शिकार खेलना, जूआ—दिनका सोना—निन्दा—स्त्रियों में अधिक आसक्ति,—शराब आदि का नशा—नाच-गाना—अधिकता—वृथा भ्रमण, ये 10 कामज व्यसन हैं।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यांऽसूयार्थ दूषणम् ।
वाग्दण्डजञ्च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोष्टकः ।।48।।
चुगलखोरी, उतावलेपन से काम करना, द्रोह (दूसरे का अनिष्ट चिन्तन) ईर्ष्या (किसी के गुण में दोष लगना) किसी के धन को हर लेना, वाणी और दंड की कठोरता ये 8 क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन हैं।
व्यसनस्य च मृतोश्च व्यसनं कष्टमुच्यते ।
व्यसन धोऽधो व्रजति स्वर्यात्य व्यसनी मृतः ।।53।।
व्यसन और मृत्यु के बीच में व्यसन अत्यन्त दुखदाई कहा है व्यसनी मर कर नीचे नरक जाता है और अव्यसनी स्वर्ग प्राप्त करता है।
व्यस्यत्ये नं श्रेयसइति व्यसनम् ।।
(कौटिल्य अर्थ शास्त्र 8।1।12)
व्यसन मनुष्य को कल्याण के रास्ते से जो गिरा देता है।
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
दंडस्य हि मयात्सर्वं जगद् भोगाय कल्पते ।।
(मनु. 7।22)
दण्ड से जीता हुआ सारा जगत् सन्मार्ग में स्थिति रहता है क्योंकि स्वभाव से शुद्ध मनुष्य दुर्लभ है और दण्ड के भय से सारा संसार वस्तुओं को मर्यादा में भोगने में समर्थ होता है।
कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च ।
राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते ।।301।।
सतयुग त्रेता द्वापर कलियुग ये चार युग राजा की चेष्टा बर्ताव है राजा से ही सत्य आदि युगों की प्रवृत्ति होती है इसलिये राजा को युग कहते हैं।
कालौवा कारणं राज्ञो राजावा काल कारणम् ।
इतिते संशयो माभूत् राजा कालस्य कारणम् ।।
(म-भा-शां-69।79)
समय राजा का कारण है या राजा समय का कारण है। यह संशय तुम मत करो। राजा ही युग समय का कारण है। श्री रामचन्द्र के राज्य में त्रेता की जगह सतयुग हो गया।
योऽनित्ये न शरीरेण सतां गेठां यशोध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं कल्पः सवाच्य शोच्यएवसः ।।
।। भा- 10।72।20 ।।
सज्जन जिसकी सराहना करें ऐसे यश को समर्थ होते हुए भी जो पुरुष इस अनित्य शरीर द्वारा इकट्ठा नहीं करता वह शोचने योग्य और निन्दनीय है।
कीर्ति हि पुरुषं लोके संजीवयति मातृवत् ।
अकीर्ति जीवितंहन्ति जीवन्तोऽपि शारीरिणः ।।
(भ0 भा0 वन0 299।32)
कीर्ति पुरुष को माता के समान जिलाता है बदनामी जिन्दे को ही मार देती है।
तीर्थ स्नानार्थिनी नारी पतिपादोदकं पिवेत ।
शंकर स्यापि विष्णोर्वा प्रयातिपरमं पदम् ।।
(वसिष्ठ0 3।135)
तीर्थ स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री अपने पति के चरणोदक का आचमन करे तो शंकर या विष्णु के लोक को प्राप्त होती है।
सुवेषं वा नरं दृष्ट्वा भ्रातरं पितरं सतम् ।
मन्यते चपरं साध्वी साचभार्या पतिव्रता ।।
(पद्म पु0 150।59)
जो सुन्दर पुरुषों को भ्राता, पिता या पुत्र की दृष्टि से देखती है वह स्त्री पतिव्रता है।
माता स्वस्रा दुहित्रा वा नविविक्तासनो भवेत ।
वलवानिन्द्रिय ग्रामो विद्वांसमपिकर्षति ।।
(मनु0 2।215)
माता बहन लड़की इनके भी साथ एकान्त में न बैठे क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समूह विद्वानों को भी वश में कर लेता है।
न जीर्ण मल वद् वासा भवेच्च विभवेसति ।।
(मनु0 4।34)
धन रहते हुए कभी पुराने और मैले वस्त्र धारण न करें।
हीनांगानति रिक्तांगान् विद्याहीनान् वयोधिकान ।
रूवदृव्य विहीनांश्च जाति हीनांश्च नाक्षिपेत ।।
(मनु0 4।141)
हीन अंग वाले, अधिक अंग वाले, विद्याहीन, अवस्था में बूढ़े, कुरूप, और निर्धन तथा जातिहीन वालों का उपहास न करो।
षड् दोषाः पुरुवेणेह हातव्या भूतिंमिच्छता ।
निद्रा तंद्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घ सूत्रता ।।
(म0 भा0 उद्यो0 33।78)
इस संसार में उन्नति चाहने वाले पुरुष को छः दोष त्याग कर देने चाहिए अधिक नींद, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और लापरवाही।
कोषेन धर्म कामश्च परलोक स्तथा ह्यम् ।
तं चधर्मेण लिप्सेत ना धर्मेण कदाचन ।।
(म0 भा0 शां0 130।50)
दृव्य से धर्म और काम की प्राप्ति होती है यह लोक और परलोक बनता है परन्तु उस धन को धर्म (न्याय) के द्वारा पैदा करे अधर्म के द्वारा कदापि नहीं।
अकृत्वा पर संताप मगत्वा खल मन्दिरम् ।
अनुत्सृज्य सतावर्त्म यत्स्वल्पमहितद्वहु ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
किसी को दुख न देकर, नीचों के गृह न जाकर, सज्जनों का मार्ग न त्यागकर, जो थोड़ा भी मिले वह बहुत है।
वरं दारिद्रय मन्याय प्रभवाद् विभवादिह ।
कृशता मिमता देहे पीनता न तुषोफतः ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
अन्याय से पैदा किये दृव्य से दरिद्र अवस्था में रहना अच्छा। किसी बीमारी से फूल जाने की अपेक्षा शरीर का पतला-हलका होना अच्छा है।
वयसः कर्मणोऽर्यस्य श्रुतस्याभिजनस्य च ।
वेप वाग् बुद्धि सारूपस माचरन् विचरोदिह ।।
(मनु-4 18)
अवस्था, कर्म, धन, वेद, कुल इनके अनुरूप वेष, वाणी, बुद्धि करता हुआ विचार करे।
बुद्धि वृद्धि कराण्याशु धन्यानि हितानिच ।
नित्यं शास्त्राण्य वेक्षेत निगमांश्चैव वैदिवान ।
(मनु- 4।19)
शीघ्र बुद्धि को बढ़ाने वाले, धन देने वाले, हित करने वाले, शास्त्र का अध्ययन करे। ज्ञान के तत्व का नित्य विचार किया करे।
अनेक संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्तयन्धएवसः ।।
(चाणक्यनीति)
अनेक संशय को छेदन करने वाला, परोक्ष अर्थ को दिखाने वाला और सबका नेत्र, शास्त्र है जिसके यह शास्त्र रूपी नेत्र नहीं वह अंधा है।
तदहर ब्राह्मणो भवति यदहः स्वाध्यायं नाधीते ।
तस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ।।
(शतपथ 11।5।7)
उसी दिन वह ब्राह्मण अब्राह्मण हो जाता है। अर्थात् ब्राह्मणत्व से गिर जाता है जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता। भगवद् गीता में स्वाध्याय को वाणी का तप माना है देखो अ0 17 श्लोक-15)
षट् पदः पुष्प मध्यस्थो यथासारं समुद्ध ।
तथा सर्वेषु शास्त्रेषु सारं गृह्णन्ति पंडिताः ।।
(सुभाषित रत्न भांडागार)
भोंरा पुष्प में से सार सार ले लेता है उसी प्रकार चतुर पुरुष सब शास्त्रों में से सार सार ले ले।
सत्यं वृयात् प्रियं वृयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नामृतं व्रृयादेष धर्मः सनातनः ।।
(मनु- 4।138)
सत्य बोले, और प्रिय बोले अप्रिय सत्य न कहे। मिथ्या प्रिय न कहे यह सनातन धर्म है।
अजरामर वत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्म माचरेत ।।
अपने को अजर अमर समझता हुआ विद्या और अर्थ का संग्रह करे। मौत से ग्रसा हुआ समझकर धर्म का संग्रह करे।
न यमं यममित्याहु रात्मावै यम उच्यते ।
आत्मा संयमितो येन तं यमः किंकरष्यति ।।
(आपस्तम्व 10।3)
यमराज यमराज नहीं, अपना आत्मा ही यमराज है जिसने अपने आत्मा (मन) को काबू में कर लिया अर्थात् बुरे विचारों से हटा लिया उसका वह यमराज क्या करेगा।
येन केन चिद्भर्मेण मृदुनादारुणेन च ।
उद्धरेद्दीन मात्मान समर्थो धर्म माचरेत् ।।
(पराशर0 74।2)
विपत्ति में कठिन या नरम जिस किसी धर्म से गिरी हुई स्थिति से उद्धार करले। समर्थ होकर फिर धर्म का आचरण करे।
कामः क्रोधो मयोहष लोभोदर्पस्तथैवच ।
रिपवः षड् विजेतव्याः पुरुषेण विपश्चिता ।।
(विष्णु धर्मोत्तर पु0 3।233।257)
काम, क्रोध, भय, हर्ष (अधिक हर्ष में धर्माधर्म का विचार नहीं रहता) लोभ, दर्प, विद्वानों को इन छः बैरियों को जीतना चाहिए।
नहायनैन पलितैनं वित्तेन नवन्धुभिः ।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः सनोमहान् ।।
(मनु0 2।154)
न अधिक वर्षों से, न सफेद बालों से, न धन और बंधुओं से कोई बड़ा होता है। ऋषियों ने ऐसा माना है कि जो ज्ञानवान् है वही बड़ा है।
विप्राणां ज्ञानतो ज्येष्ठं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः
वैश्यानां धान्य, धनतः शूद्राणा मेवजन्मतः ।।55।।
ब्राह्मणों में ज्ञान से, क्षत्रियों में बल से, वैश्यों में धन धान्य से और शूद्रों में जन्म से श्रेष्ठता होती है।
यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग् गुप्ते च सर्वदा ।
सवै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ।।
[मनु0 2।160]
जिसके मन और वाणी सुरक्षित और शुद्ध हैं अर्थात् ईर्ष्या द्रोह आदि से रहित मन है अमृत चुगलखोरी रूखेपन से रहित वाणी है वही वेदान्त के फल को प्राप्त होता है।
यं माता पितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् ।–––––––-
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्त्तं वर्षशतैरपि ।2।227।
माता पिता जो क्लेश मनुष्य की उत्पत्ति में सहन करते हैं उसका बदला संतान सदा चुकाती रहे तो भी चुकना कठिन है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ये रमन्ते तत्र देवता ।
यत्रै तास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रिया ।3।56
जहां स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहां देवता रमण करते हैं और जहां इनका अनादर होता है वहां की सम्पूर्ण क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।
शोचग्ति जामयो यत्र विनस्यत्य शु तत्कुलम् ।
नशोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।57।।
जिस कुल में स्त्रियां दुःख पाती हैं उसका शीघ्र ही नाश हो जाता है और जिस कुल में वह सुखी रहती हैं वहां सदा धनादि की वृद्धि होती है।
तृणाति भूमिरुदकंवाक् चतुर्थी च सूनृता ।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यते कदाचन ।3।101
चटाई आदि बिछाना, ठहरने के लिये भूमि, जल, सत्य और प्रिय वाणी से सज्जनों के गृह से कभी दूर नहीं होते अर्थात् इन वस्तुओं के द्वारा अतिथियों का सत्कार होता रहता है।
उपासतेये गृहस्थाः परमाकमबुद्धयः ।
तेनते प्रेत्य पशुतां ब्रजन्त्यन्नादि दायिनाम् ।104।
अच्छा भोजन मिलेगा इस लोभ से जो दूसरे अतिथि बनते हैं वह मरने पर अन्नदाताओं के पशु बनते हैं।
न हीदृरामनायुष्यं लोके किंचन विद्यते ।
यादृशं पुरुषस्येह परदारो पसेवनम् ।।4।134।।
पर स्त्री सेवन के समान दूसरा काम इस संसार में मनुष्य की आयु कम करने वाला नहीं है।
अधार्मिक नरोयोहि यस्य चाप्यनतं धनम् ।
हिंसा रतश्च यो नित्यं नेहासौ सुख मेधते ।
जो अधर्मी हैं जिनका मिथ्या भाषण ही धन हैं जिसकी रुचि सदा हिंसा में ही रहती है उसको संसार में सुख नहीं मिलता।
अन्नादे भ्रृणहा मार्ष्टि पत्यौ भाया पचारिणी ।
गुरौ शिष्यश्चयाज्यश्च स्तेनो राजनि किल्विषम् ।।
[8।217]
जो ब्रह्म हत्या करने वाले का अन्न खाता है वह उसके पाप का भागी होता है, स्त्री के पाप का भागी उसका पति होता है शिष्य के किये पाप को उसका गुरु भुगतता है। चोर के पाप को राजा भुगतता है।
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते ।
नेवं कुर्यां पुनरिति निवृत्यां पूयते तुसः ।।11।230।।
मनुष्य पाप करके फिर सच्चे दिल से पछताने से और मैं फिर ऐसा न करूंगा ऐसा कहने से निवृत्ति रूप संकल्प करने से उस पाप से छूट जाता है।
ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्यरक्षणम् ।
वैश्यस्य तुं तपो वार्तातपः शूद्रस्य सेवनम् ।।
(11।235)
ज्ञान होना यह ब्राह्मण का तप है रक्षा करना यह क्षत्रिय का तप है खेती वाणिज्य पशुपालन यह वैश्य का तप है सेवा करना यह शूद्रों का तप है।
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं त्र सुसंचितम् ।
दम्पत्यो कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।
(चाणक्य नीति)
मूर्खों का जहां आदर नहीं होता जहां अन्न का संग्रह रहता है स्त्री पुरुषों में जहां कलह नहीं होता वहां लक्ष्मी स्वयं आती है।
प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये वार्जितं धनम् ।।
तृतीयं नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किंकरिष्यति ।।
(चाणक्य नीति)
बाल्य अवस्था में विद्या नहीं पढ़ी जवानी में धन प्राप्त नहीं किया, वृद्धा अवस्था में धर्म प्राप्त नहीं किया तो मरने के क्या मरेगा।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मंण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।
(चाणक्य नीति)
महात्माओं के मन वाणी शरीर में एक बात होती है। अर्थात् जो बात मन में है वही वाणी से कहेंगे और उसी को करेंगे। दुष्टों के मन में कुछ और वाणी में कुछ और करने में कुछ और ही।
मातृ वत्पर दारेषु पर दृव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मवत्सर्व भूतेषु यः पश्यति स पंडित ।।
(चाणक्य नीति)
पराई स्त्रियों को माता की दृष्टि से पराये धन को मिट्टी के समान सब जीवों को अपने समान जो देखता है वह पंडित है।
कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौव्ययागमौ ।।
कस्या हं काचमै शक्नि रिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ।।
(चाणक्य नीति)
समय कैसा है मेरे मित्र कौन-कौन हैं, देश कैसा है, आमदनी और खर्च कितना है मैं किसका हूं मेरी सामर्थ्य कैसी है इस प्रकार बार बार विचार करे।
सतप्ता यसि संस्थित स्यपयसो नामापि नज्ञायते ।
मुक्ताकार तयातदेव नलिनी पत्र स्थितं राजते ।
अन्तः सागर शुक्ति मध्य पतितं तन्मौक्तिकं जायते ।
प्रायेणाधम मध्यमोत्तम गुणः संसर्ग तो जायते ।।
(भर्तृ हरि नीतिशतक)
गरम तवे पर जल का बूंद यदि छोड़ो तो नाम निशान नहीं रहता वही जल की बूंद यदि कमल के पत्ते पर छोड़ो तो मोती सा हो जाता है वही जल की बूंद यदि समुद्र के बीच सीप में पड़ जाय तो साक्षात सच्चा मोती हो जाता है इससे सिद्ध होता है कि प्राय करके अधम मध्यम उत्तमः गुण संसर्ग से होते हैं।
इन्द्रियाणि वशीकृत्य गृह एव वसेन्नरः ।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्कराणि च ।।
(व्यास0 4।31)
इन्द्रियों को बुरे विषयों से रोककर घर में रहे तो वहीं उसका कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं।
सुखं वा यदि वा दुखं यत् किंचित् क्रियतेपरे ।
यत्क्रसंतुपुनः पश्चात् सर्व मात्मनि तद्भवेत् ।।
(दक्ष0 3।22)
जो सुख दुख दूसरे के लिये किया जाता है वह पीछे करके अपने ऊपर पड़ता है।
गंगादि पुण्य तीर्थेषु योनरः स्नाति सर्वदा ।
यः करोति सत संगं तयोः सत्संगमो वरः ।।
(पद्म पु0 आदि कांड 23।6)
गंगादि पुण्य तीर्थों में स्नान करना और सत्पुरुषों का संग करना इसमें सत्संग श्रेष्ठ है।
साक्षरा विपरीताश्च राक्षसा स्त इतिस्मृताः ।
तस्माद्वै विपरीतं च कर्म नैवा चरेद्बुधः ।।
(शिव पु0 विद्येश्वर संहिता 6।21।25)
यदि साक्षर विद्वान् होकर विपरीत चले तो वह राक्षस है (साक्षरा को उलटा पढ़ो तो राक्षसा हो जायगा) तिस कारण बुद्धिमान् को विपरीत आचरण न करना चाहिए।
श्रुति स्मृति श्चेतिहासाः पुराणं च शिवात्मज ।
प्रमाणं चेत्ततो दुष्ट वधेदोषो न विद्यते ।।
(स्कन्द पु0 1।2।33।11)
श्रुति स्मृति इतिहास पुराण यदि इनको प्रमाण माना जाता है तो दुष्ट के वध में दोष नहीं।
परद्रोह धियो ये च परेर्ष्या कारिणाश्चये ।
परोपतापिनो येवै तेषां काशी न सिद्धये ।।
(वीर मित्रोदय—तीर्थ प्रकाश)
दूसरे के अनिष्ट चिन्तन वाले, दूसरे की बढ़ती को देखकर कुढ़ने वाले, दूसरे को दुःखदायी, ऐसे पुरुषों का काशी वास सिद्धि देने वाला नहीं।
परदार परदृव्य परद्रोह पराङ् मुखः ।
गंगा ब्रू ते कदागत्य मामयं पावयिष्यति ।।
(जयसिंह कल्पद्रुम)
पराई स्त्री, पराये धन, पर निन्दा से जो बचा है गंगा महारानी कहती हैं कि ऐसा पुरुष आकर मुझे कब पवित्र करेगा।
मर्त्यावतार स्त्विह मर्त्य शिक्षणं, रक्षो वधायव
न केवलं विभो । (भा0 5।19।5)
श्री रामचन्द्र जी का जो अवतार है वह केवल रावण के मारने के लिए नहीं वरन् मनुष्य के शिक्षा के लिए है। अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी ने भरत आदि के साथ जो व्यवहार किया है यह हम सब को करना चाहिए।
धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पंचधावि भजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ।।
।। भा0 8।19।37 ।।
धर्म के निमित्त, यश के लिए, वढ़ाने के निमित्त, अपने शरीर के आराम के लिए, और स्वजनों की सहायता के लिए इस प्रकार पांच प्रकार से दृव्य खर्च कराया हुआ इस लोक और परलोक में सुख पाता है।
पुंसस्त्रि वर्गों विहितः सुहृदाह्यनु भावितः ।
न तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थाय कल्पते ।।
।। भा0 10।5।28 ।।
स्वजनों को आराम देते हुए धर्म अर्थ काम सेवन ठीक है स्वजनों के क्लेश भोगते हुए त्रिवर्ग सुख कारक नहीं।
मातावा जनको वापि भ्राता वा तनयोस्पिव ।
अधर्मं कुरुते यस्तु सएव रिपुरिष्यते ।।
।। नारद पु0 8।15 ।।
माता पिता भ्राता पुत्र भी यदि अधर्मी हैं तो बैरी समझना चाहिए।
ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक् कर्मबुद्धिभिः ।
ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम् ।।
।। म0 मा0 वन0 200।99 ।।
मन वाणी शरीर के पाप से जो बचे हैं वे बड़े महात्मा हैं बड़ी तपस्या कर रहे हैं केवल शरीर का सुखाना तप नहीं।
वनेऽपि दोष प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रिय
निग्रहस्तपः । अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्त
रागस्य गृहं तपोवनम् ।।
पद्म पु0 सृष्टि खं0 19।195)
रागी पुरुषों को (जिनके हृदय में काम क्रोधादि है) वन में चले जाने पर भी दोष लगे रहते हैं घर में रहता हुआ इन्द्रियों को बुरे विषयों से रोके हुए है तो वह मानो तप कर रहा है खोटे कर्म (हिंसा चोरी आदि) में प्रवृत्ति नहीं राग द्वेष से रहित है ऐसे पुरुष को घर ही तपोवन है।
आरोग्य लाभो लाभानाम्
(पद्म पु0 5।86।64)
लाभों में सबसे बड़ा लाभ आरोग्यता है।
परोपकार पुण्यानाम् ।।65।।
पुण्यों में बड़ा पुण्य परोपकार है।
शौचाना मर्थ शौचं च दानानामभर्य तथा ।।66।।
ईमानदारी का पैसा पास होना सबसे भारी पवित्रता है। दानों में सबसे बड़ा दान सत्पुरुषों को विपत्ति से छुटाना है।
यस्योपदेशतः पुण्यं पापं वाकुरुते जनः ।
स तद् भागी भवेन्मर्त्त्य इति शास्त्रेषु निश्चितम् ।।
(पद्म पु0 7।1।16)
जिसके उपदेश से मनुष्य पाप और पुण्य करता है वह उपदेष्टा उस पाप पुण्य का भागी होता है।
वृत्तेन मवत्यार्यो न धनेनन विद्यया ।
सुन्दर व्यवहार (आचरण) से आर्य (श्रेष्ठ) माना जाता है धन व विद्या से नहीं। (भ0 भा0 उद्योग0 90।53)
वृत्तस्थो योऽपि चाण्डालस्तं देवा ब्राह्मणंविदुः ।।
(पद्म पु0 सृष्टि खंड अ0 50)
सदाचार सम्पन्न यदि चाण्डाल है तो देवता भी उसको ब्राह्मण समझते हैं।
पाठका पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्र चिन्तकाः ।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् सपंडितः ।।
314।110
पढ़ने वाले पढाने वाले और भी शास्त्र चिन्तक ये व्यसनी समझो जो शास्त्रानुसार चलने वाला है वह पंडित है।
चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तिः सशूद्रादतिरिच्यते ।
योग्निहोत्र परोदान्तः स ब्राह्मण इतिस्मृतः ।।111।।
चारों वेदों का जानकार यदि दुराचारी है तो वह शूद्र से भी गया बीता है। जो अग्निहोत्री (काम क्रोध लोभादि को हनन करने वाला) और इन्द्रिय निग्रही है वह ब्राह्मण है।
इदमेवहि पांडित्यं चातुर्यमिद मेवहि ।
अयमेव परोधर्मो यदायान्नाधिकोव्ययः ।।
यही पांडित्य है यही चतुरता है यही परम धर्म है कि आमदनी से अधिक खर्च न हो।
अन्यायेन परधनादि ग्रहणं स्तेयम् ।
(मनु0 6।92 कु-भा-)
अन्याय से दूसरे का धनादि लेना चोरी है।
न्यायागतोऽर्थ (चाणक्य सूत्र 2।54)
न्यायानुसार आया हुआ धन असली धन है।।
न धर्म पर एवस्यान्न चार्थ परमोवरः ।
न काम परमो वास्यात् सर्वान् सेवेत सर्वदा ।।
(म0 भा0 वन- 33।39)
केवल धर्म में ही मत लगे रहो (निर्वाह के लिये आजीविका की ओर देखो तथा शरीर की रक्षा करो) और केवल धन कमाने में ही मस्त मत रहो (शरीर की रक्षा करते हुए परलोक के लिये कुछ धर्म का संग्रह करलो) और दिन भर शरीर को सजाते ऐश आराम में ही मत गुजारो (जीवन निर्वाह का उपाय धर्मानुकूल करते रहो) सबका (धर्म अर्थ काम) सब काल में अविरुद्ध रूप से सेवन करो।
अनुरामं जनोयति परोक्षे गुण कीर्तनम् ।
नविभ्यति च सत्वानि सिद्धिलक्षण मुत्तमम् ।।64।।
मनुष्यों का जिसमें प्रेम हो परोक्ष में प्रशंसा करें किसी प्राणी को उससे भय की संभावना न हो यह सिद्धि का उत्तम लक्षण है।
कुचैलिनं दंत मलोपधारिणं वव्हाशिनं निष्ठुर भाषिणं च ।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदिचक्रपाणिः ।।
(चाणक्य नीति)
मलिन वस्त्रधारी, मैले दांत वाले, बहुभोजी, निष्ठुर भाषी सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले यदि विष्णु भगवान क्यों न हो लक्ष्मी साथ छोड़ देगी।
धर्माविरोधिनी कार्या काम सेवा सदैवतु ।
धर्मोत्तर पु- 26।2।3
धर्मानुकूल काम सेवन करना चाहिए।
सत्यमेव जयते नानृतम् (मु0 1।2।13)
सत्य की जय होती है झूंठ नहीं।
विवर्जनं ह्य कार्याणां मेतत्सत्पुरुष व्रतम् ।
(म- भा- विराट- 14।36)
खोटे कार्यों का परित्याग कर देना सत्पुरुषों का व्रत है।
परिनिर्मश्य वाग्जालं निर्णीत मिद मेवहि ।
नोपकारात्परो धर्म नापकारादघ परम् ।।
(स्कं- पु- खं- 34 पू0 6।7)
पराहित सरिसधर्म नहिं भाई ।
पर पीडा सम वहिं अधमाई ।।
सारे शास्त्रों का मंथन करके यह निश्चय किया है कि परोपकार की बराबर कोई धर्म नहीं और पर अपकार की बराबर कोई पाप नहीं।
तपः स्वधर्म वर्तित्वम् (म0 भा0 वन0 313।88)
अपने कर्त्तव्य कर्म से विचलित न होना ही तप है।
हीरकार्य निवर्त्तमम् ।।88।।
कुकर्म से बचना ही लज्जा है।
गुणाधिकान् मुदं लिप्से दनुक्रोशं गुणाधमान् ।
मैत्री समानादन् विच्छेन्नता पै रमि भूयते ।।
(भा- 48।34)
अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्नता प्रकट करें, कमत को देखकर कृपा दृष्टि करे। गुण में बराबर वाले को देखकर मित्रता का भाव करे, इस व्यवहार से प्राणी संताप को प्राप्त नहीं होता है।
य एवं नैव कुप्यन्ते न लुभ्यन्ति तृणेष्वपि ।
त एव नः पूज्य तमायचापि प्रिय वादिनः ।।
(59।22)
जो कभी क्रोध नहीं करते, जो तृण पर भी नीयत नहीं डुलाते, जो प्रियवादी हैं ऐसे पुरुष हमारे पूजनीय हैं।
जानन्नापि च यः पापं शक्तिमान न नियच्छति ।
ईशः सन् सोऽपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते ।।11।।
(म0 भा0 आदि0 180)
पाप होता हुआ समझकर शक्तिशाली होते हुये जो पाप को दूर करने का भरसक प्रयत्न नहीं करता वह पाप का भागी होता है।
भीष्मजी कहते हैं हे युद्धिष्ठिर?
माते राष्ट्रे याचनका भूवन्मा चापि दस्यवः ।
(म0 भा0 शां 84।24)
तेरे राज्य में चोर और भिकारी न होने पावें ।
शास्त्राण्य धीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरुष सविद्वान् ।
सुचिन्ततं चौषध तुराणां न नाम मात्रेण करोत्यरोगम् ।।
(सु0 रत्न भां0)
शास्त्रों को पढ़ कर भी मूर्ख रहते हैं। जो शास्त्रोक्त विधि का पालन करने वाले हैं वे विद्वान हैं। औषधि को विचारते रहे, बार बार नाम लेते रहे तो क्या वह रोगी को निरोग कर देगी।
सा श्रीर्या न मदं कुयान्स सुखी तृष्ण योजिझत ।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः पुरुषः स जितेन्द्रियः ।।
लक्ष्मी वही श्रेष्ठ है जिनमें मद न हो, सुखी वही है जिसने तृष्णा को जीत लिया है, मित्र वही है जिस में विश्वास है और पुरुष वही है जो जितेन्द्रिय है।
क्वचिद्रुष्टः क्वचितुष्टः रुष्टस्त्तुष्टः क्षणे क्षणे ।
अव्यवस्थितचितस्य प्रसादोऽपि भयंकरः ।।
कभी अप्रसन्न और कभी प्रसन्न, इस प्रकार जो मनुष्ट क्षण-क्षण में असंतुष्ट और संतुष्ट होता रहता है, उसकी प्रसन्नता या कृपा भी भयानक है।
कष्टा वृत्तिः पराधीना कष्टो वासो निराश्रयः ।
निर्धनो व्यवसायश्च सर्वकष्टा दरिद्रता ।।
पराधीन जीविका से जीवन, आश्रय बिना निवास और धन बिना व्यवसाय बड़ा कष्टकारी होता है और दरिद्रता तो सब प्रकार से कष्ट देने वाली होती है।
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थैः ।।
धन न होने पर भी मनुष्य को आरोग्य, विद्वत्ता सज्जनों के साथ मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म और स्वाधीन वृत्ति रखने से ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानसगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रश्र् ।।
मधुर वाणी के साथ दान, अहंकार रहित ज्ञान, क्षमा युक्त वीरता और त्याग (दान) में नियुक्त धन ये चारों दुर्लभ हैं।
स जीवति यशशो यस्य कीर्तिर्यस्य स जीवति ।
अयशोऽकीर्ति संयुक्तो जीवन्नपि सृतोपमः।।
यशस्वी और कीर्ति वाले मनुष्य का ही जीवन है, कीर्तिहीन मनुष्य जीता हुआ भी मरे के समान है।
निन्दंतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु ।
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगांतरे वा ।
न्यायात्पथः प्रविचलंति पदं न धीराः ।।
चाहे नीतिवान पुरुष निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मी रहे या जाय, मरण चाहे आज हो या युगान्तर में। परन्तु धीर पुरुष न्याय मार्ग से एक पद भी विचलित नहीं होते।
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूणां ।
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं ।
निज हदि विकसंतः संति संतः कियन्त ।।9।।
जिनका मन, वचन और शरीर पुण्य रूपी अमृत से पूर्ण है, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हैं, जो दूसरों के जरा से गुण को पर्वत के समान करके अपने हृदय को विकसित करते हैं, ऐसे सज्जन कितने हैं।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्यंति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ।।
विद्या नम्रता को देती है, नम्रता से योग्यता आती है। योग्य ही धन कमा सकता है। धन से धर्म और धर्म से सुख होता है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च,
प्रिया च भायो प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या,
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।।
ये बातें सुख देने वाली होती हैं—नित्य धन लाभ, निरोगिता, प्यारी और मीठा बोलने वाली स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र और अर्थकारी विद्या।
निर्गुणोष्यपि सर्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।
नहि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः ।।
गुणहीन प्राणियों पर भी सज्जन दया ही किया करते हैं। चंद्रमा चांडाल के घर पर से अपनी चांदनी हटा नहीं लेता।
यत्र विद्वज्जनो नासित श्लाध्यस्तत्रल्पधीरपि ।
निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते ।।
जहां विद्यावान् मनुष्य नहीं होता, वहां थोड़ी बुद्धि वाला भी सराहा जाता है। जहां पेड़ नहीं होते वहां एरंड ही पेड़ मान लिया जाता है।
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे ।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।
उत्सव में, व्यसन में, दुर्भिक्ष में, गदर के समय, कचहरी में और श्मशान में जो साथ है, वही बांधव है।
रहस्य भेदो याञ्चा च नैष्ठुर्यं चलचित्तता ।
क्रोधो निःसत्यता द्यूतमेतन्मित्रस्य दूषणम ।।
मित्र में यह दोष न होने चाहिए, गुप्त बातों को प्रकट करना, मांगना, कठोरता, चित्त की चपलता, क्रोध, असत्य और जुआ खेलना।
मनस्यन्यत्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।।
दुरात्मा लोगों के मन में कुछ, वाणी में कुछ, कर्मों में कुछ और ही होता है। पर महात्माओं के मन में वाणी में और कर्म में एक ही बात होती है।
अर्थनाशं सनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।
वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
धन का नाश, मन का दुःख, घर के दुःश्चरित, ठगी और अपमान ये बातें बुद्धिमान किसी से न कहे।
कःकालः कानि मित्राणि को देशःकौ व्ययागमौ ।
को वाऽहं का च मे शक्तिरिति चिंत्यमुहुर्मुहुः ।।
क्या समय है, कौन सा देश है, आय व्यय कैसे हैं, मैं कौन हूं और मेरी शक्ति कितनी है। ये बातें मनुष्य को बार बार सोचनी चाहिये।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
इमे संसेविते येन सफलं तस्य जीवनम् ।।
माता और जन्मभूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बड़ी हैं। जिसने इन दोनों की सेवा करली, उसका जन्म सफल होगा।
कुग्रामवासः कुजनस्य सेवाकुभोजनं क्रोधमुखी च भाय
मूर्खश्च पुत्रो विधवा च कन्या
विनाग्निना संदेहते शरीरम् ।।
बुरे गांव का वास, बुरे आदमी की सेवा, बुरा भोजन, क्रोध वाली स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या ये सब आग बिना ही शरीर को भस्म करते हैं।
धनिनोऽपि निरुन्मादो युवानोपि न चंचलाः ।
प्रभवोऽप्यप्रमत्तास्ते महामहिमशालिनः ।।
बड़ी महिमा वाले उत्तम पुरुष धनी होने पर उन्मत्त, युवावस्था में चंचल और प्रभुता पाने पर प्रमादी नहीं होते।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं सन्मित्र रहितस्य च ।
मुर्खस्य च दिशः शून्याः सर्व शून्या दरिद्रता ।।
पुत्र और सन्मित्र के बिना घर सूना है, मूर्ख की सब दिशायें सूनी है और दरिद्रता सब बात से सूनी है।
वज्रादपि कठोराणि मृदून कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमहति ।।
उत्तम पुरुषों को हृदय वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल होता है। उसे जानने में समर्थ कौन है?
आहारनिद्राभयमैथुनश्च ।
सामान्यमेतत्पशुभिर्रराणाम ।
धर्मोहि तषामधिको विशेषा ।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
खाना, सोना, डर, सन्तान पैदा करना ये बातें मनुष्यों और पशुओं में समान ही होती हैं। धर्म ही मनुष्य में विशेष होता है। इसके बिना वे पशु हैं।
उद्योगिनं पुरुषसिंह मुपैति लक्ष्मी—
र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोत्र दोषः ।।
उद्योगी पुरुष सिंह को लक्ष्मी मिलती है। भाग्य का भरोसा कायर लोग किया करते हैं। भाग्य को दबा कर पुरुषार्थ करो। यत्न करने पर काम न बने तब विचारना चाहिए कि इसमें दोष किसका है।
उद्योगेनहि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
उद्योग से ही काम बनते हैं मन में सोचने मात्र से नहीं। सोते हुए सिंह के मुंह में कहीं कोई मृग आ सकते हैं?
काव्यशास्त्रविनोदेन कालोगच्छति धीमताम्
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
बुद्धिमानों का समय काव्य शास्त्रों के पढ़ने सुनने में जाता है और मूर्खों का व्यसन, निद्रा और झगड़ों में।
इज्याध्ययनदानानि तपःसत्य धृतिः क्षमा ।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः
धर्म के आठ मार्ग हैं—यज्ञ करना, पढ़ना, दान देना, तप, सत्य, धैर्य, क्षमा, और निर्लोभ।
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडितः ।।
जो पराई स्त्रियों में माता को, पराये धन में मिट्टी का और सब जीवों में अपने आत्मा का भाव रखता है, वही पण्डित है।
ईर्ष्या घृणी त्वसन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशंकितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः ।।
डाही, घृणी, असन्तोषी, क्रोधी, सदा सन्देही, परभाग्य से जीने वाला, ये छः दुःखी रहते हैं।
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुत्तौ
प्रकतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
विपत्तिकाल में धैर्य, सम्पत्ति में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि, सुनने में शौक ये बातें महात्माओं में स्वभाव से ही होती हैं।
सम्पदियस्यन हर्षो विपदि विषादो रणेचधीरत्वम् ।
तंभुवनत्रयतिलकं जनयतिनजनी सुतंविंरलम् ।
जिसको सम्पत्ति में हर्ष और विपत्ति में दुख न हो, तथा रण में धीरता हो, ऐसे त्रिलोकी तिलक पुत्र को कोई विरली ही माता जनती है।
षडदोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भवं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
ये छः दोष कल्याण चाहने वाले मनुष्य को छोड़ देने चाहिए। निद्रा, तन्द्रा, भय क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता (देर में काम करना)।
मांसपुरीषामूत्रस्थिनिर्मितेऽस्मिन् कलेवरे ।
विनश्वरे विहायास्थां यशः पालय मित्र मे ।।
मांस विष्ठा मूत्र और हड्डी से बने हुए इस नाशमान शरीर का मोह छोड़कर हे मित्र! तू यश का पालन कर अर्थात् यश के लिये शरीर की पर्वा मत कर।
खादन्न गच्छेदध्वानै न च हास्येन भाषणम् ।
शोक न कुर्यान्नष्टस्य स्वकृतेरपि जल्पनम् ।।
खाते-खाते रास्ता चलना उचित नहीं, हस कर बात न करे, नष्ट वस्तु के लिए शोक न करे, तथा अपने कार्य का भी कीर्तन न करे।
स्वशंकिताना समीप्यं त्यजेतै नीचसेवनम् ।।
संलापं न व शृणु याद् गुप्तं कस्यापि सर्वदा ।।
अपने से शंकित व्यक्ति के पास जाना उचित नहीं, तथा नीच-व्यक्ति की सेवा भी न करनी चाहिए। किसी का गुप्त आलाप कभी न सुनो।