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Books - दृष्टिकोण में बसते हैं स्वर्ग नरक

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दृष्टिकोण में बसते हैं स्वर्ग नरक

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो योनः प्रचोदयात्

देवियो, भाइयो! ज्ञान की समस्यायें सुलझाने और ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए जिन दो कार्यों की आवश्यकता होती है, अपने शान्तिकुञ्ज शिविरों में मैं उनका विवेचन करता हुआ चला जा रहा हूँ। मेरी इच्छा थी कि आप लोग यहाँ आयें और यहाँ से जाने के साथ-साथ भगवान् के साथ अपना रिश्ता मजबूत बनाते हुए चले जायँ। भगवान् से रिश्ता बनाना कोई धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं है, केवल परलोक की तैयारियाँ भर नहीं हैं, मरने के बाद मुक्ति का मार्ग प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, बल्कि इसी जीवन में सुख और शान्ति से ओत-प्रोत होने का रास्ता है। मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा कि नहीं, हम नहीं जानते, लेकिन हम इसी जीवन में आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर चलते हुए सुख-शान्ति प्राप्त कर सकते हैं और स्वर्ग स्थापित कर सकते हैं।

अध्यात्म है नकद धर्म

मित्रो! आध्यात्मिक साधना नकद धर्म है। यह उधार धर्म नहीं है। कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनका कि परिणाम बहुत देर से मिलता है और कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनका परिणाम तुरन्त ही मिल जाता है। विद्या पढ़ने का परिणाम सम्भव है कि देर से मिले, लेकिन जहर खाने का परिणाम तुरन्त मिल जाता है। गलत काम करने का परिणाम देर में मिल सकता है, लेकिन अपने दोष-दुर्गुणों के परिणाम तुरन्त मिल जाते हैं। इस तरीके से आध्यात्मिकता ऐसी प्रक्रिया का नाम है, जो मनुष्यों को तुरन्त लाभ प्रदान करती है, जिसका परिणाम तुरन्त मिलता है। आज हमारे पास नकली अध्यात्म है और नकली अध्यात्म का परिणाम प्राप्त करने के लिए हमें लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। बहुत देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और यह उम्मीद लगाये रखनी पड़ती है कि हमारी मौत आयेगी और हम मरने के बाद भगवान् के यहाँ जायेंगे और भगवान् के यहाँ हमको इस तरह का फल मिलेगा, इस तरह का मोक्ष मिलेगा।

देखने का तरीका है बस

मित्रो! सही बात यह है कि स्वर्ग के बारे में आपका यह ख्याल है कि यह कोई स्थान विशेष है, जिला विशेष है। लेकिन जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, वह यह कि किसी स्थान या जिला का नाम स्वर्ग नहीं है, बल्कि स्वर्ग आँखों से देखने का एक तरीका है और नरक भी आँखों से देखने का एक तरीका है। फोटोग्राफर यह जानते हैं कि एक जगह खड़े होकर सामने से हम किसी आदमी का फोटोग्राफ लें, तो नाक दिखाई पड़ेगी, आँखें दिखाई पड़ेंगी, चेहरा दिखाई पड़ेगा, दाँत दिखाई पड़ेंगे, हँसता हुआ एक मनुष्य दिखाई पड़ेगा। अगर पीछे खड़े होकर उसी आदमी का फोटोग्राफ लें, तब? तब हमको केवल पीठ दिखाई पड़ेगी और पीछे वाले बाल दिखाई पड़ेंगे। न उसमें आँखें होंगी, न उसमें दाँत होंगे, न उसमें मुँह होगा और न कोई चेहरा होगा। देखने वाला कहेगा कि लिया गया फोटोग्राफ अमुक आदमी का, पिताजी का तो है ही नहीं। इसमें न तो मूँछें हैं, न नाक है, न कान हैं और न ही चेहरा है, न माथा है। हाँ साहब! उसका चेहरा भी नहीं है, माथा भी नहीं है, लेकिन उसका चेहरा, माथा न हो, ऐसी बात नहीं है। चेहरा, माथा तो है, पिताजी का ही है, लेकिन फर्क केवल इतना है कि उनका फोटोग्राफ सामने से नहीं लिया गया है, वरन् पीछे से लिया गया है।

बदला जाय दृष्टिकोण यदि

साथियो! दुनिया इसी प्रकार की है। जीवन इसी प्रकार का है। हमारी परिस्थितियाँ और समस्यायें ठीक इसी प्रकार की हैं। स्वयं को देखने का तौर-तरीका जब हम उलटा कर देते हैं, तब हमको बहुत कमी मालूम होती है और अपने जीवन में बड़े अभाव मालूम होते हैं। जैसे- एक आदमी था, वह यह कह रहा था कि यह अभागा गुलाब ऐसी परिस्थितियों में पैदा हुआ कि उसके भाग्य फूट गये। यह काँटों में पैदा हुआ। जाने यह अपने कर्म में क्या लिखाकर लाया था कि जहाँ भी इसका जन्म हुआ काँटे ही काँटे। जहाँ कहीं भी इसको डालो, काँटों में ही पैदा हुआ है। दूसरा आदमी कहने लगा-अरे भाई! यह काँटे भी कैसे भाग्यवान काँटे हैं कि गुलाब के साथ-साथ पैदा हुए हैं। काँटों के साथ उगे हैं। यह काँटे कितने सौभाग्यवान और भाग्यशाली है कि गुलाब के साथ में जुड़े हुए हैं। जीवन के बारे में भी यही देखने का ढंग और तरीका है। जब हम उलटे तरीके से अपने जीवन की समस्याओं को देखना शुरू करते हैं, तो हमको अपना सारा जीवन अभाव में डूबा हुआ, कठिनाइयों, संकटों, आशंकाओं से डूबा हुआ तथा भार से दबा हुआ मालूम होता है। लेकिन जब हम जीवन को एक सुलझे हुए एवं सही दृष्टिकोण से देखना शुरू करते हैं, तो मालूम पड़ता है कि हमारे बराबर सुखी, समृद्ध और समुन्नत और कौन है?

कहाँ है सुख?

मित्रो! जब हम अपने से पिछड़े एवं गुजरे हुए लोगों की ओर आँख उठाकर देखते हैं, तो मालूम होता है कि हम हजारों, लाखों, करोड़ों मनुष्यों की अपेक्षा ज्यादा सुखी हैं। नीचे की ओर जब हम देखेंगे, तो हमको मालूम पड़ेगा कि हमारे सुखों में अभाव नहीं, हमारी संपत्तियों में अभाव नहीं, हमारी शांति में अभाव नही है। लेकिन यदि हम आसमान की ओर आँख उठाकर देखते चले जायेंगे, तो हमको बहुत मुसीबत मालूम पड़ेगी। जब हम देखेंगे कि हमारा बड़ा वाला जो ऑफीसर है, वह दो हजार रुपया महीना पाता है और हमको साढ़े पाँच सौ रुपया मिलता है। फिर हमको बड़ा क्लेश, बड़ा द्वेष, बड़ी ईर्ष्या, बड़ी जलन होगी और हाहाकार होगा कि दो हजार पाने वाला बड़ी शान से रहता है। उसके पास इतना बढ़िया मकान है, इतने सारे नौकर-चाकर हैं। उसके पास मोटर है और हम साइकिल से गुजारा करते हैं। छोटी वाली कोठरी में रहते हैं, जिसके कारण हमारा जीवन दुःखों में डूबा हुआ है। यदि हम कभी यह देख पायें कि हमारी अपेक्षा कितने ज्यादा दुःखी मनुष्य इस संसार में भरे पड़े हैं, जो बेचारे लम्बे समय तक काम करते रहते हैं। खेती-बाड़ी में लगे रहते हैं और पसीना बहाते रहते हैं। किसी दिन रोटी मिल जाती है और किसी दिन नहीं मिल पाती। उनके साथ यदि हम अपना मुकाबला करने लगें, तो मालूम पड़ेगा कि हमारे सुखों का कोई ठिकाना नहीं है। हम बहुत सुखी हैं।

सुख की सही परिभाषा

मित्रो! सुख उन वस्तुओं में नहीं है। केवल देखने के भ्रम का ही नाम सुख है। लोगों का ख्याल है कि दुनिया के पास सामान होता है, सम्पत्तियाँ होती हैं, अर्थात् सम्पत्तिवाले ही सुखी होते हैं। पर वस्तुतः यह ख्यााल गलत है। मित्रो! मेरा सम्पत्तिवालों से मिलना जुलना रहा है। मैंने देखा कि सम्पत्तिवान व्यक्ति सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा कहीं ज्यादा दुःखी और संतापयुक्त पाये जाते हैं। हमको बाहर से मालूम पड़ता है कि ये लोग सुखी हैं और हम उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। यदि यह हमें सीधे मिल जाती, तो हम भी इन्हीं के तरीके से सुखी रहते। लेकिन यदि उनका जी खोलकर देखा जाय, मन को चीर कर देखा जाय, तो मालूम होगा कि सामान्य नागरिकों की अपेक्षा वे ज्यादा दुःखी हैं।

फोर्ड की अंतिम इच्छा

हेनरी फोर्ड मरने लगा, तो उसने अपनी डायरी में एक वृत्तांत लिखा कि मैं जब अपनी फैक्ट्री में, कल-कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को मोटी-मोटी रोटियाँ खाते हुए और रात को नाचते हुए देखता हूँ, तब मुझे डाह होता है, ईर्ष्या होती है कि मैं हेनरी फोर्ड संसार का सबसे बड़ा अमीर आदमी हूँ। हमारी फैक्ट्री के मजदूरों को बेखबर नींद आती है, जबकि मुझे मुद्दतों से कभी नींद नहीं आई और खाना हजम नहीं हुआ। उसने लिखा है कि हे भगवान्! जब मेरी मौत आये और मुझे दूसरा जन्म मिले, तब मैं चाहूँगा कि इसी फैक्ट्री के मजदूरों के साथ मुझे काम करने का मौका मिल जाय, ताकि मैं लोहा काटता रहूँ, खर्रा चलाता रहूँ, हथौड़ा चलाता रहूँ। जिससे मेरा पेट ठीक से काम करता रहे और ठीक से नींद आती रहे। मजदूर समझते थे कि हेनरी फोर्ड बड़ा अमीर और सुखी है, जबकि हेनरी फोर्ड समझता था कि फैक्ट्री में काम करने वाले ये मजदूर बहुत सुखी हैं। पता नहीं कौन सुखी है और कौन दुःखी है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ कि ये मनुष्य की सोच है, जो मनुष्यों को सुखी और दुःखी बनाती हैं।

एक उदाहरण

मित्रो! एक मल्लाह था। एक बार उसका बेटा खो गया। वह एक जहाज पर सवार थे और एक बड़ी भारी नाव को खेते हुए चले आ रहे थे। थोड़ी देर बाद एक तूफान आया और जहाज डगमगाने लगा। मल्लाह ने अपने बेटे से कहा कि ऊपर जा और अपने पॉल को ऊपर ठीक से बाँध आओ। पाल को और पतवार को ठीक से बाँध दिया जाय, तो हवा के रुख में कमी हो जायेगी और हमारी नाव डगमगाने से बच जायेगी। बेटा रस्सी के सहारे बाँस पर चढ़ता हुआ ऊपर गया और पाल को, पतवार को ठीक तरह से बाँध दिया। उसने देखा कि चारों ओर समुद्र की ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं। तूफान आ रहा था। उसने देखा कि जोर-जोर की हवा आ रही थी। चारों तरफ साँय-साँय हो रही थी और अँधेरा बढ़ता हुआ घिरता जा रहा था। मल्लाह का छोकरा ऊपर से चिल्लाया कि पिताजी! देखिये मेरी मौत आ गयी। देखिये, दुनिया में प्रलय आने वाली है। घटायें उमड़ती-घुमड़ती चली आ रही हैं। आँधियाँ बेग से उठती हुई चली आ रही हैं। देखिये, समुद्र में लहरें कितनी जोर से उठती हुई चली आ रही हैं। ये लहरें हमारे जहाज को निगल जायेंगी।

बूढ़ा बाप हुक्का पी रहा था। उसने कहा कि बेटे, नजर नीचे की और रख और चुपचाप नीचे की ओर उतरता हुआ चला आ। लड़के ने न आसमान की ओर देखा, न बादलों को देखा। न उसने नाँव को देखा और न आदमियों को देखा। उसने बस नीचे की ओर नजर रखी और चुपचाप सीढ़ियों पर पाँव रखता हुआ नीचे आ गया। बूढ़े मल्लाह ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहा कि अपने से ऊपर देखने की महत्त्वाकाँक्षा रखने वाले दिन-रात जलते रहते हैं। लोकेषणा वाले, वित्तेषणा वाले, पुत्रेषणा वाले दिन-रात जलते रहते हैं। कामनायें असीम और अपार हैं। ऐसे लोगों को क्या शान्ति मिलने वाली है? नहीं, वे निरंतर अशान्ति की आग में जलते रहते हैं और जलते रहेंगे। मनुष्य का जीवन प्रगतिशील एवं उन्नतिशील होना चाहिए, लेकिन अशान्त और विक्षुब्ध नहीं।

पाँच गुण साधिए तो सही

मित्रो! यह दोनों चीजें एक समान मालूम होती हैं, परन्तु इनमें जमीन-आसमान का फर्क है। इन दोनों में-जीवन की उन्नति करना एक बात है और प्रगति करना एक बात है। इसके लिए आदमी को धैर्य की जरूरत है, साहस की जरूरत है, परिश्रम की जरूरत है। संतुलन और मुस्कराहट की जरूरत है। इन पाँच चीजों के सहारे उन्नति के द्वार खुलते हुए चले जाते हैं। छोटे-छोटे आदमी, नाचीज आदमी इन्हीं के सहारे आगे बढ़े हैं। उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक उन्नतियाँ प्राप्त की है। लेकिन उनके सम्बन्ध और सहारे वे सद्गुण रहे हैं, जिन्हें हम संतोष कहते हैं, जिनको हम उत्साह कहते हैं। जिनको हम श्रम कहते हैं, जिनको हम परिश्रम कहते हैं। इन चीजों के सहारे मनुष्यों ने तरक्की की। जिन लोगों ने आकाँक्षा की और अपने आपको आग में जलाना शुरू किया और जिन्होंने इस बात में भी गिला नहीं किया कि हमको यह नहीं मिला, हम मर जायेंगे, यह करेंगे, वह करेंगे, वही आगे बढ़े हैं।

जीवन जीने की प्रणाली है अध्यात्म

मित्रो! जो आदमी घबराते रहे, उन्होंने उन्नति के लिए अपना सम्पूर्ण मानसिक संतुलन खो दिया। वस्तुयें भी प्राप्त न कर सके और अपनी गिरह की शान्ति भी खो बैठे। इसलिए अध्यात्म जीवन जीने की प्रणाली है, जीवन जीने की प्रक्रिया है। मरने के बाद स्वर्ग मिलता है कि नहीं, मैं नही जानता, लेकिन मैं जानता हूँ कि आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को, जब हम अपने जीवन में समाहित कर लेते हैं, तब हमारे चारों ओर स्वर्ग-सुख ही बिखरा हुआ पड़ा मिलेगा। तस्वीर खींचने का सही ढंग हमको मालूम हो तो हम दुनिया की बेहतरीन तस्वीर खींच सकते हैं और अपने आपकी भी तस्वीर खींच सकते हैं। हमारी भी तस्वीर बेहतरीन है, लेकिन यदि हमने दुनिया की खराब तस्वीर देखना शुरू किया और अपना कैमरा गलत जगह पर लगा दिया, तब हमको क्या चीज मिलने वाली है? गलत तस्वीर मिलने वाली है। आप उसी कैमरे से उसी मनुष्य की फोटो खींचिये, उसमें केवल उसका सिर आयेगा उसके पैर आयेंगे। मालूम पड़ेगा कि लोहे की कोई कील खड़ी हुई है। उसी आदमी को नीचे जमीन पर बैठा करके आप उसका फोटोग्राफ खीचिये, तो मालूम पड़ेगा कि कोई लम्बा-लम्बा भूत खड़ा है, अर्थात् कैमरे का लेन्स फेल। जो फोटो सामने खड़ा हो करके खींचा गया, वह खूबसूरत आया, अर्थात् कैमरे का लेन्स सही है। जो पीठ पीछे से खींचा गया-वह बेकार।

आपको लेना है दुनिया का फोटो

मित्रो! दुनिया के जीवन का आपको फोटोग्राफ लेना है और उसके आधार पर ही अपनी शान्ति, समृद्धि, सुख और सुविधा का मूल्यांकन करना है। आध्यात्मिकता एक दर्शन है, आध्यात्मिकता सोचने की एक प्रणाली है, विचार करने की एक पद्धति है कि हम किस तरीके से विचार करें। हम अपनी समस्याओं के बारे में, अपने जीवन के बारे में, अपने कुटुम्ब, अपने पुरुषार्थ के बारे में, अपनी व्यवस्था-तरक्की के बारे में और अपनी महत्वाकांक्षाओं के बारे में किस तरीके से विचार करें। यदि हमारा विचार करने का तरीका या क्रम सही हो जाय, तो? देखने के लिए जो हमारी आँखें हैं, इन आँखों का लेन्स यदि बदल दिया जाय और उस लेन्स से हम केवल वह चीजें देखना शुरू करें, जो देखने लायक हैं, तो हमको बहुत बढ़िया-बढ़िया चीजें दिखाई पड़ेंगी।
हमारे पड़ोस में बहुत बढ़िया ब्लाक बनाने वाला एक व्यक्ति रहता है। हम उससे ब्लाक और तस्वीरें बनवाते रहते हैं। उसके पास कई तरह के रंगीन कैमरे हैं। वह जो तस्वीर निकालता है, उसमें तीनों-चारों रंग मिले हुए होते हैं। गायत्री माता की जो तस्वीर हमारे यहाँ छपती और बिकती है, उसी के द्वारा बनायी गयी है। जब उससे ब्लाक बनवाये गये, तो उसने ऐसा बना दिया कि उस कैमरे में जो पीला रंग था, उसे अलग किया। पीले रंग की प्लेट उसने अलग बनायी। लाल रंग के जो धब्बे जहाँ कहीं थे, उसके ब्लाक अलग से निकाल दिये। नीले रंग की धारियाँ उस कैमरे से अलग निकाल लीं और उसका अलग ब्लाक बना दिया। तीन रंग थे, सो तीन रंग के ब्लाक उसने अलग-अलग बना दिये। अब तीनों ब्लाकों को जब हम सम्मिश्रित करके छपाई करते हैं, तो ऐसी रंगीन तस्वीर बन जाती है, जैसे कि आप गायत्री माता की खूबसूरत तस्वीर देखते हैं। पहले अलग-अलग प्लेटें थी और अलग-अलग तस्वीरें थीं।

सबमें सब कुछ है

मित्रो! मनुष्यों के भीतर बुराइयाँ भी भरी पड़ी हैं, दुष्टतायें भी भरी पड़ी हैं। कमियाँ और मूर्खतायें भी भरी पड़ी हैं। लेकिन दुनिया में कोई मनुष्य इस तरह का नहीं हुआ, जिसमें केवल कमियाँ ही कमियाँ, केवल दोष ही दोष, केवल दुर्गुण ही दुर्गुण हों। ऐसा इनसान आज तक देखा नहीं गया और ऐसा इनसान भी आज तक देखा नहीं गया, जिसमें दोष ही दोष हों और कोई अच्छाई न हो। हर मनुष्य के भीतर अच्छाई की मात्रा भी रहती है। कसाई के भीतर भी काफी मात्रा में अच्छाई होती है। वह भी अपने बाल-बच्चों को प्यार किया करता है। डाकू के भीतर भी एक विशेषता होती है और वह है उसका साहस। डकैती के कारण उसको इस लोक में दंड मिलता है, उसको जेल में जाना पड़ता है। लम्बी-लम्बी सजायें हो जाती हैं, लेकिन अपने साहस के आधार पर उसका नाम भी हो जाता है। यश भी हो जाता है। वह इसके बल पर पैसा भी कमा लाता है। रात को जंगलों में निकलते हुए जब हमको भय लगता है। भूत का भय, बिच्छू का भय, साँप का भय, शेर का भय, भेड़िये का भय लगता है, तब वह अपने कंधे पर बंदूक रखे हुए और जूता पहने हुए अकेला चरर-मरर-चरर-मरर करता हुआ बियावान और साँय-साँय करते हुए जंगल में चलता रहता है। यही उसकी विशेषता है।

दृष्टिकोण हमारा क्या है?

मित्रो! विशेषताओं से भरा हुआ हर मानव, बुराइयों से भरा हुआ हर मानव हमारे देखने के लेंस के ऊपर, हमारी आँखों की दृष्टि के ऊपर निर्भर है। अगर हमारे देखने की आँखें सही हों, तो हम उसका वह फोटो खींच सकते हैं, जैसे कि हमारे पड़ोस में रहने वाला फोटोग्राफर ब्लाक बनाते समय खींचता है। वह पीले रंग को अलग निकाल देता है, लाल रंग को अलग निकाल देता है, काले रंग को अलग निकाल देता है। कैमरे वाला यदि पीले रंग को अलग निकाल सकता है, तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि मनुष्यों के भीतर जो अच्छाइयाँ हैं, उन्हें हम देखना शुरू करें और अच्छाइयों का संवर्धन करने के लिए, अच्छाइयों को प्रोत्साहन देने के लिए और प्रशंसा करने के लिए अपना मुँह खोलें। दूसरे लोगों की अच्छाइयों को बढ़ाने के लिए प्रयत्न करें। आप कहेंगे कि तब बुराइयों का क्या होगा? क्या बुराइयों के साथ संघर्ष नहीं किया जायेगा? बुराइयों को मिटाया या उनसे लड़ा नहीं जायेगा? हाँ बेटे, बुराइयों से लड़ा जायेगा, लेकिन बुराइयों से लड़ने के भी बहुत से तरीके हैं। बुराइयों से लड़ने का एक तरीका यह है- जिसमें हम गाली-गलौज किया करते हैं, निन्दा किया करते हैं, मारपीट किया करते हैं। लाँछित किया करते हैं। अपमानित करने के बाद उसको झूठा बताते हुए चले जाते हैं। दुष्ट बनाते हुए चले जाते हैं। निर्लज्ज बनाते हुए चले जाते हैं। बुराइयों से लड़ने का एक तरीका यह है।

डॉक्टर कसाई थोड़े ही हैं

दूसरा एक तरीका और है, जिसके द्वारा हम बुराइयों से लड़ते हैं। इससे सुधारने के लिए बड़े से बड़े और कड़े से कड़े काम किये जा सकते हैं। डॉक्टर अपना तेज वाला चाकू ले आता है। यद्यपि वह मुहब्बत से भरा हुआ होता है, किंतु कभी वह पेट पर चाकू चलाता है, कभी कान पर चाकू चलाता है और कभी सिर पर चाकू चलाता है। जगह-जगह पर चाकू चलते रहते हैं और वह ऑपरेशन करता रहता है। इसलिए डॉक्टर के ऊपर मुकदमा नहीं चलाया जाता, डॉक्टर को सजा नहीं दी जाती। पेट में छुरा घोंप देने वाले, खून निकाल देने वाले मनुष्य को दस साल की सजा होती है, वहीं दूसरी ओर उसी पेट में छुरा घोंप देने वाले, खून निकाल लेने वाले डॉक्टर को तरक्की दी जाती है। उसे अच्छी जगह भेज दिया जाता है और प्रशंसा की जाती है। नीयत के आधार पर लोगों को बदनाम भी किया जा सकता है और अच्छी नीयत के आधार पर बदनाम लोगों को सुधारा भी जा सकता है। यह दृष्टिकोण ही जो है, तो बदल जाय, तो हमारे जीवन में तुरंत न जाने क्या से क्या हो जाय?

आगरा के सेठजी

आगरा में बेलनगंज नामक एक मोहल्ला है। वहाँ एक बहुत बड़े सम्पन्न व्यक्ति थे, जिन्हें पंद्रह दिन से नींद आनी बंद हो गयी। इतना ही नहीं, कुछ ऐसी भी शिकायत हो गयी कि दिमाग की नसें फटने लगीं और यह मालूम पड़ने लगा कि उनकी मौत हो जायेगी। आँखें बिलकुल लाल हो गयीं, बाहर को निकलने लगीं। पलकें सूज गयी थीं। पन्द्रह दिनों तक नींद न आने के बाद उनका बुरा हाल हो गया था। किसी ने उनसे कहा कि मथुरा में एक आचार्य जी रहते हैं, उनके पास जाने से कई आदमी अच्छे हो जाते हैं। एक महिला पिं्रसिपल थीं, जिनके पतिदेव तहसीलदार थे। उनका भी बुरा हाल था। जब देखो, जोर-जोर से रोया करती थीं। जैसे सियार हुड़की देकर रोता है, ऐसा रोया करती थीं। किसी ने उनसे कह दिया कि आचार्य जी के पास जाओ, वह इलाज कर देते हैं। जिस दिन वह महिला आयी थी, उसी दिन मैंने उसके सिर के ऊपर पट्टी बाँध दी। तखत पर बैठी थी, वहीं पर बैठे-बैठे सो गयी। ऐसे ही किसी ने उनको-जिनको नींद नहीं आती थी, किस्से-कहानी सुना दिये कि इसका इलाज आचार्य जी को आता है। उनको लेकर मेरे पास आये और कहा कि इनके सिरकी नसें फटी जा रही हैं, यदि कोई उपाय कर सकते हों, तो कीजिए।

मैंने कहा कि इनको अच्छा भी किया जा सकता है और उपाय भी किया जा सकता है। फिर मैंने उनसे पूछा कि आखिर आपको शिकायत क्या है? यह सब आपको कैसे हुआ? उनके साथ जो लोग आये थे, उन सबको दूसरी जगह भेज दिया। मैंने कहा कि अब बताइये क्या कारण था? उन्होंने कहा कि कारण तो बहुत छोटा-सा था और बड़ा भी था। मैंने कहा- आखिर हुआ क्या? उन्होंने कहा कि हुआ यह कि इन्कमटैक्स ऑफीसर ने छापा मारा। हमारे पास दो बही-खाते थे। मुनीम नाराज हो गया था, उसने ऑफीसरों को जाकर बता दिया कि इनके पास दो बही-खाते रहते हैं। कहाँ रखे हुए हैं यह भी बता दिया। अपने साथ इनकम टैक्ट ऑफीसर को ले आया। उन्होंने छापा मारा और हमारे दोनों बही खाते जब्त कर लिए। दोनों बही-खातों को पुलिस ले गयी। हमारे ऊपर अपराधी का केस चलाया गया। अभी हम जमानत पर छूटे हुए हैं। हमको भय है कि अब न जाने क्या होने वाला है और न जाने क्या हो जायेगा? मैंने गहरी साँस ली और कहा कि आप मेरे पास बैठ जाइये। अब हम थोड़ी देर विचार कर लें।

ऐसे हुआ उनका इलाज

मित्रो! मैंने उनसे कहा कि आपको दवाई तो मैं कल दूँगा, मगर मैं चाहता हूँ कि आपको इस मुकदमे की जड़ से ही बचा दूँ। तो वह हँसने लगा और पूछने लगा कि आप ऐसा कैसे कर सकते हैं? वास्तव में बड़ा लम्बा किस्सा है, पर मैंने उनसे कहा कि आप बैठिए तो सही। मैं उससे बात करने लगा और कहा कि आप यह बताइये कि उस असली बही खाते में और नकली बहीखाते में कितने रुपये का चक्कर है? मैंने कहा कि यदि आपको इन्कम टैक्स देना पड़े, पेनाल्टी देनी पड़े, सजा भुगतनी पड़े, तो आपको कितना नुकसान भुगतना पड़ेगा? उन्होंने कहा कि दस लाख रुपया, जो हमने तीन चार वर्षों से चुरा रखा था- एक तो वह और लगभग दूनी पेनॉल्टी लगायी जा सकती है। कुल मिलाकर बीस लाख रुपया देना पड़ सकता है। मैंने कहा कि यह तो बड़ी लम्बी रकम है। विचार कीजिए, बीस लाख रुपया किसे कहते हैं? बीस लाख देना पड़ा, तो आपको मुश्किल हो जायेगी, मैंने सहानुभूति प्रकट की।

फिर मैंने कहा कि अच्छा एक बात तो बताइये कि आपके पास क्या-क्या सामान है? आपकी कितनी सम्पत्ति और कितनी जायदाद है? मैं कागज-पेंसिल लेकर बैठ गया और पूछा कि आप अपनी फैक्ट्री के, मशीनों के और अपनी जायदाद के दाम बताइये। आप उसका भी दाम बताइये जो आपका रुपया बाहर और बैंक में जमा था। घर में जो जेवर थे, उनके भी दाम बताइये। करीब पचास लाख रुपये की उनकी सारी सम्पत्ति थी। फिर मैंने उनसे कहा कि अगर बीस लाख रुपये को पचास लाख रुपये में से निकाल दिया जाय, तो कितना बच सकता है। उन्होंने कहा कि तीस लाख। मैंने कहा मेरे पास तो तीस पैसे भी नहीं हैं। मान लीजिए गवर्नमेण्ट बीस लाख रुपये ले भी जाय, तो भी तीस लाख का सामान तो बच ही जायेगा न? बुड्ढा बहुत देर तक सोचता रहा कि तीस लाख किसे कहते हैं? तीस लाख रुपये की एक रुपये सैकड़े से तीस हजार रुपया महीना ब्याज आयेगा।

मैंने उनसे कहा कि आपको बीस लाख जुर्माना हो जाय और आप छूट जायँ, तब मुझे बुला लेना। आपका जो बचा हुआ सामान है उसे बिकवाकर मैं आपको पैसे दिलवा दूँगा और आप घर बैठे आराम किया कीजियेगा और तीस हजार रुपये महीने की ब्याज-भाड़े की आमदनी आपको आती रहेगी। उसकी समझ में आ गया कि तीस हजार रुपया महीना तो बहुत होता है। मैंने पूछा कि आपका महीने का खर्चा कितना है, तो बोला कि यही कोई पाँच-छः हजार रुपये महीने से हम अपना खर्च चला लेते हैं। मैंने कहा कि तीस लाख रुपये की जो तीस हजार रुपये महीने ब्याज आती है, उसमें से पाँच हजार रुपया महीना खर्च का निकाल लिया जाय, तो कितना बच जाया करेगा? उन्होंने कहा कि तब तो हमारा पच्चीस हजार रुपया बच जाया करेगा और साल भर में तीन लाख हो जाया करेगा। मैंने कहा कि अभी तो आपको दस-बीस साल और जीना है। तीन लाख रुपया जो गवर्नमेण्ट ले जायेगी, वह कितने वर्ष में पूरा हो जायेगा? उन्होंने कहा कि सात साल में। मैंने कहा कि सात साल में क्या बनता-बिगड़ता है, समझ लेना सात साल कमाया ही नहीं था।

बस बात समझ में आ गयी, जादू हो गया

वह हँसने लगा, मुस्कराने लगा और कहने लगा कि गुरुजी! बात तो आपने ठीक बताई। सारे का सारा जुर्माने में चला जाय, तो भी मेरा क्या बनता-बिगड़ता है। मैंने कहा कि हँसिये और चलिए खाना खाइये। फिर मैं उन्हें माताजी के पास ले गया और पूछा कि आप रोटी कैसी खाते हैं? पतली खाते हैं क्या? माताजी के हाथ की ऐसी-ऐसी मोटी रोटी खाया कीजिए, आप मोटे हो जायेंगे। वह गुरू आदमी था, हँसी की बात नहीं, मजाक की बात थी। शाम को वह आया था और रात भर सोया। सबेरा हो गया, तो मैंने कहा कि कुछ और इलाज कराना है क्या? कुछ और जप-तप कराना है क्या? उन्होंने कहा कि जो जप-तप कराना था, वह तो हो गया। मैंने कहा कि घर जाकर राम का नाम लीजिए। जाइये, अब आप अच्छे हो गये। उसके बाद में घर वालों की चिट्ठी आयी। उन्होंने लिखा कि गुरुजी! आपने जादू कर दिया। उसके बाद से लाला जी की तबियत बिलकुल अच्छी हो गयी। वे रात भर सोया करते हैं, मौज किया करते हैं।

आध्यात्मिकता का अंतिम परिणाम है स्वर्ग

मित्रो! यही है देखने का ढंग और तरीका। देखने का यही ढंग और तरीका यदि हमारा बदल दिया जाय और सुरक्षित कर दिया जाय, तो हमारा यह जीवनक्रम आनन्द और उल्लास से भरा हुआ होगा। लोग स्वर्ग के और मुक्ति के ख्वाब देखते रहते हैं और सोचते हैं कि मरने के बाद हमको स्वर्ग मिल जायेगा। मरने के बाद स्वर्ग देखने की आवश्यकता प्रायः सभी धर्मों में पायी जाती है। स्वर्ग के बारे में जैसा बताया गया है, यदि उसी तरह का स्वर्ग हो, तो कम से कम मेरे जैसा आदमी वहाँ जाना नापसंद करेगा। मुसलमानों के स्वर्ग के बारे में मैंने पढ़ा है और मुझे बताया गया है कि मुसलमान इस तरह के स्वर्ग में चले जाते हैं। उसमें हर मुसलमान को शराब पीने की नहर मिलती है। जब भी पीना हो, जब भी नहाना हो-शराब, जब भी कुल्ला करना हो-शराब। हर जगह शराब की नहरें बहती हैं, जितनी चाहो शराब पियो।

ऐसा स्वर्ग नहीं चाहिए

मुसलमानों की जन्नत में सत्तर हूर और बहत्तर गुलाम हर आदमी को मिल जाते हैं। यह हूर कौन सी आई, यह तो अभी आई थी। एक महीने बहुत हो गया, अब इसे हटा दो। दूसरी हूर आई। यह हूर हमारी सेवा करेगी। अगले महीने तक इस हूर से बोर हो जाएँगे, तब अगले महीने इस हूर को भगा देंगे, डिस्चार्ज कर देंगे, तो फिर दूसरी हूर आयेगी। बस, हर हूर के साथ आराम कीजिए। आपको सत्तर हूर और बहत्तर गुलाम मिलेंगे। एक गुलाम पैर दबाये, एक गुलाम कपड़ा धोकर लाये, एक गुलाम सिर में तेल डाले, एक गुलाम मालिश करे। इस तरह से जन्नत में मुझे भेज दिया जाय, तो मित्रो! मैं मर जाऊँगा। मेरी साँस घुट जायेगी। रेलगाड़ी या मोटर में सफर करने के दौरान यदि कोई बीड़ी-सिगरेट पीता है, तो मुझे सिर बाहर निकालना पड़ता है, नाक बंद करनी पड़ती है। फिर जहाँ सब लोग शराब पी रहे होंगे, मुँह से बदबू आ रही होगी, तो मैं क्या करूँगा उस जन्नत में जा करके? जब हूरें आयेंगी, तो मैं कहूँगा कि तुमने गायत्री का अनुष्ठान किया था या नहीं? वह कहेगी कि आचार्य जी! हम तो आपको गाना सुनाने, नाचने-गाने आई हूँ। तो मैं कहूँगा कि ऐ हूर! तुम मेरी बच्चियों-बेटियों के बराबर हो, जाओ स्कूल में पढ़ना शुरू करो और मजे करो। वह कहेगी कि हमको पढ़ना कहाँ आता है? हमको पढ़ना कहाँ सिखाया गया, हमको गायत्री का अनुष्ठान कहाँ सिखाया गया? हम तो नाचने-गाने वाली निकम्मी और बेकार औरतें हैं।

क्या इसी का नाम है स्वर्ग?

मित्रो! हिन्दुओं के स्वर्ग के बारे में जैसा कि मैंने पढ़ रखा है, उसके मुताबिक हिन्दुओं का स्वर्ग भी लगभग उसी तरह का है। उसमें इन्द्र देवता के यहाँ अखाड़ा लगा रहता है। बस सबेरे से संगीत शुरू होता है और ग्यारह बजे रात तक नाच होता रहता है। ऐसा स्वर्ग देखने की मुझे जरूरत है क्या? जहाँ खाने के लिए बढ़िया-बढ़िया चीजें मिलती हों, सवारियाँ मिलती हों, मोटरें मिलती हों, तो मुझे स्वर्ग जाने की

आवश्यकता है क्या?

मित्रो! फिर तो मैं अशोका होटल चला जाऊँगा, नटराज होटल चला जाऊँगा और वहाँ मौज किया करूँगा। दो सौ रुपये रोज का एक फ्लैट ले लूँगा, खूब खर्च किया करूँगा। कहीं से पैसे कमाकर, माल मारकर लाऊँगा और यह स्वर्ग तो मुझे इसी जिन्दगी में मिल सकता है, फिर मरने का इन्तजार क्यों किया जाये? यदि इसी का नाम स्वर्ग है-खाने-पीने की सुविधाओं का नाम-स्वर्ग, पहनने-ओढ़ने की सुविधाओं का नाम स्वर्ग, नाच-रंग देखने की सुविधाओं का नाम स्वर्ग है, तो कम से कम मेरे जैसा इन्सान, जिसने केवल परिश्रम को प्यार किया, जिसको पसीना बहाये बिना नींद नहीं आती, चैन नहीं आता। जो आदमी सेवा करने और धार्मिक रीति के बिना जीवित नहीं रह सकता, मैंने ऐसा मन पाया है। फिर मैं ऐसे स्वर्ग में जाकर क्या करूँगा? मुझे वहाँ से भागना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि कृपा करके मुझे यहाँ से रिहा कर दीजिए। आप स्वर्ग में क्यों नहीं रहना चाहते? मैं कहूँगा कि मैं स्वर्ग में नहीं रहना चाहता, मुझे तो उन गरीबों और पिछड़े हुए लोगों के साथ भेज दीजिए, जिनके साथ मुझे सेवा करनी है।


मानव मात्र का कल्याण ही लक्ष्य

मित्रो! भगवान् बुद्ध से एक बार पूछा गया कि आपको तो मरने के बाद स्वर्ग मिलने वाला है। उन्होंने कहा-नहीं, मुझे स्वर्ग मिलने वाला नहीं है। तो फिर आपको क्या मिलने वाला है? आप कब स्वर्ग जायेंगे? उन्होंने कहा कि स्वर्ग जाने वालों में मैं आखिरी इन्सान होऊँगा, जबकि सारे के सारे मनुष्यों में से प्रत्येक को स्वर्ग मिल जायेगा। हर आदमी स्वर्ग को चला जायेगा। हर आदमी शान्ति प्राप्त कर लेगा, तब मैं अन्तिम मनुष्य उस क्यू में लगा हुआ होऊँगा, जो मैं स्वर्ग की ख्वाहिश किया करूँगा। उससे पहले मैं हर आदमी को बढ़ाता हुआ, अपना नम्बर काटता हुआ, दूसरों को प्रोत्साहन देता हुआ औेर आगे बढ़ाता हुआ चला जाऊँगा, ताकि लोग स्वर्ग के अधिकारी हो जायँ।

मित्रो! बुद्ध की मनोभूमि ऋषियों की मनोभूमि थी, जिसमें उन्होंने कहा है-

न त्वहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनाम् आर्त्तनाशनम्॥

कुन्ती ने माँगा, यह वरदान

अर्थात् प्राणियों का आर्त्त और दुःख निवारण करने के लिए यदि हमको कुछ मौका मिल जाता है, तो हमारे लिए यही वरदान है और यही हमारा सौभाग्य है। कुन्ती से भगवान् कृष्ण ने पूछा कि मैं तो भगवान हूँ ही, अब मैं जा रहा हूँ, तू वरदान माँग ले। कुन्ती ने कहा कि मैं जानती हूँ कि आप भगवान् हैं। मुझे तो आप एक ही वरदान दीजिए कि मैं जहाँ-जहाँ जन्म लूँ, हमेशा कष्ट का जीवन जियूँ, गरीबी का, छोटा और असुविधाओं का जीवन जियूँ, ताकि मैं दूसरे लोगों की कठिनाइयों के बारे में समझ सकूँ और मुझे यह ज्ञान और भान बना रहे कि दुनिया में गरीबी कैसी होती है? कष्ट, दुःख और असुविधाएँ कैसी होती हैं? उन असुविधाओं को, उनकी पीड़ाओं को बँटाने के लिए मैं एक कदम आगे बढ़ा सकूँ।

कोई लोक नहीं है स्वर्ग

मित्रो! स्वर्ग मनुष्यों के देखने के ढंग और तरीकों में है। स्वर्ग किसी लोक का नाम नहीं है। स्वर्ग कोई जगह नहीं है, जहाँ मनुष्य रहते हों। कम से कम सौर मंडल का पता लगा लिया गया है। चन्द्रमा के बारे में जानकारी मिल गयी है। वह कभी-कभी बहुत गरम हो जाता है, दिन में इतना गरम हो जाता है कि वहाँ लोहे की धातु रख दी जाय, तो पिघल जायेगी और रात में इतना ठंडा हो जाता है कि यदि कोई चीज रख दी जाय तो वह बर्फ बन करके जम जायेगी। ऐसा है गरीब चन्द्रमा, जहाँ न हवा है, न पानी है। वहाँ चन्द्रलोक में यदि आपको भेज दिया जाय, तब? तब आप कहेंगे कि गुरुजी यहाँ से तो वापस बुला लीजिए। जो लोग वहाँ पता लगाकर आये हैं, उनकी यह हिम्मत नहीं पड़ी कि वहाँ जा करके देखें। यदि आपको चन्द्रलोक भेज दिया जाय, तो कहेंगे कि आपको रास्ता बताना पड़ेगा। इसी तरह बृहस्पति लोक भेज दिया जाय, शुक्र लोक भेज दिया जाय, जहाँ यह पता लगा लिया गया है कि उसमें कोयले की कार्बन गैस भरी हुई है। इसमें दम घुट सकता है। यदि आपको वहाँ भेज दिया जाय, तो आप वहाँ एक मिनट भी नहीं रहेंगे, कार्बन गैस आपको मार डालेगी।

नजरिया बदलिए

मित्रो! कहीं कोई ऐसा लोक है, जहाँ स्वर्ग रहता है, मैं नहीं जानता कि कहीं है या नहीं? लेकिन मित्रो! मैंने जिस स्वर्ग को देखा है, मैं चाहता हूँ कि आपको भी वह स्वर्ग दिखाऊँ। भगवान् के पास आदि काल से ही आदमी को दो चीजें मिलती हैं। उसमें से एक का नाम है-स्वर्ग और एक का नाम है-मुक्ति। स्वर्ग केवल देखने वाले तरीकों का नाम है। आपका स्वर्ग अपने छोटे से घर और घरौंदे में निवास करता है। आप इस स्वर्ग का प्रयोग कर सकते हैं। आप कृपा करके उन लोगों के एहसान देखना शुरू कीजिए, जिनके बोझ से आपका शरीर लदा हुआ है। कृपा करके आप बूढ़ी माँ को एक दूसरी आँख से देखिये और यह देखिए कि यह दया की देवी और करुणा की देवी, जिसने हमें नौ महीने तक पेट में रखा और नौ महीने तक अपनी हड्डियाँ, अपना माँस और रक्त निचोड़ती रही। सारे का सारा तन, मन निचोड़-निचोड़ कर हमारा एक पिंड बनाया और यह पिंड जब जमीन पर आने के बाद असहाय था, तभी वह अपना खून सफेद दूध के रूप में बदल-बदल कर पिलाती रही। कोई किसी को पचास सी.सी. खून का इंजेक्शन दे देता है, तो जीवन भर यह एहसान जताता है कि आप मरने के लिए बैठे थे और हमने अपना पचास सी.सी. खून आपको बचाने के लिए दिया।

एहसान का अनुभव करें

लेकिन मित्रो! जिसने हजारों सी.सी. खून दूध के रूप में पिला दिया, उस एहसान का क्या ठिकाना? कभी आपने उस माँ को उस एहसान की दृष्टि से देखा होता, तो देवता को ढूँढ़ने के लिए आपको कहीं और जाने की जरूरत नहीं पड़ती। देवता आपके घर में बैठा हुआ है। शारदा और सरस्वती को पाने के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं थी। सरस्वती आपके घर में बैठी हुई थी। लक्ष्मी देखने के लिए बम्बई जाने की जरूरत नहीं थी। घर में धर्मपत्नी के रूप में लक्ष्मी आती है, त्याग की देवी, तपस्या की देवी और भावनाओं की देवी बनी हुई। जहाँ हर आदमी मुआवजा चाहता है, हर आदमी कीमत चाहता है, वहीं आपकी धर्मपत्नी, जो अपने पिता के घर को छोड़कर आई, भाई को, माँ को छोड़कर आई, वह त्याग और बलिदान की देवी आपके घर में बैठी हुई है। त्याग और बलिदान का देवता आपके घर में बैठा हुआ है। त्याग और बलिदान के देवता का नाम भगतसिंह है। त्याग और बलिदान के देवता का नाम दधीचि है। राजा हरिश्चन्द्र हैं। होंगे हरिश्चन्द्र! मैंने न हरिश्चन्द्र को देखा, न दधीचि को देखा। लेकिन मैंने अपनी औरत को देखा है, जिसने दधीचि के रूप में अपने जीवन का उत्सर्ग मनुष्यों के ऊपर कर दिया।

हर जगह होगा नरक ही नरक

मित्रो! यदि आपकी आँखों में कृतज्ञता की यह भावना हो, तब आपको यह कहना न होगा कि आप गायत्री मंदिर में अनुष्ठान करने के लिए जायँ। जो व्यक्ति औरत को लातों से मारे और वह बेचारी शर्म के मारे चिल्लाना चाहती हो, लेकिन मुँह में कपड़ा देकर सिसक-सिसक कर रोये, ऐसे अनुष्ठान करने वालो तुम्हारे ऊपर धिक्कार है। अगर कृतज्ञता की भावना तुम्हारे भीतर नहीं आई, तो ऐसे अनुष्ठान करने वालों पर लानत है। गायत्री माता को प्रसन्न करने के लिए चले थे। गायत्री माता से वरदान माँगने के लिए चले थे। गायत्री माता से ऐसे ही नीच और दुष्ट मनुष्य वरदान प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं क्या? ऐसे पिशाच और आसक्त जहाँ कहीं भी जायेंगे, उनके लिए वहाँ नरक ही नरक का द्वार खुला हुआ है। घर में जायेंगे तो उनके लिए वहाँ नरक विद्यमान है। आकाश में जायेंगे तो उनके लिए नरक विद्यमान है। स्वर्ग जायेंगे तो नरक, बाहर जायेंगे तो उनके लिए नरक विद्यमान है। हर जगह उनके लिए नरक खुला हुआ पड़ा है।

कृतज्ञता सभी के प्रति

मित्रो! जिनकी आँखें रोज शैतान को देखती रहती हैं, दोष और दुर्गुणों को देखती रहती हैं। जिनके भीतर कभी ये भाव ही उत्पन्न नहीं होते कि जीवन में त्याग और सेवा की भावना कितनी महत्त्वपूर्ण और कितनी महान् है। कृतज्ञता के भाव जब तक मनुष्य के जीवन में न आयें, स्वर्ग प्राप्त नहीं हो सकता। स्वर्ग अर्थात् कृतज्ञता के भाव। कृतज्ञता के भाव जब हमारी आँखों में आ जाते हैं, तब हमको छोटी-छोटी चीजें देवता के रूप में दिखाई पड़ती हैं। दूसरे लोग हिन्दुओं पर हँसा करते हैं और कहते हैं कि ये हैं हिन्दू। हिन्दू क्या पूजते हैं-पीपल। और क्या पूजते हैं-पत्थर। क्या पूजते हैं-कुत्ता, गधा, कुआँ, घूरा, कूड़ा। और क्या पूजते हैं-चूल्हा, चक्की। तो क्या हम बेवकूफ हैं? नहीं, हम बेवकूफ नहीं हैं? हम बुद्धिमानों में सभी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। जिस जानदार और बिना जान की किसी चीज ने हमारे ऊपर अहसान किये, हमारा मस्तक उनके चरणों में झुका रहता है। चक्की बेजान है, तो हो बेजान, हमें क्या लेना-देना, लेकिन चक्की ने हमें आटा पीस-पीस कर खिलाया। अन्न को हम सीधे खा नहीं सकते थे, चबा नहीं सकते थे। उस न चबाने लायक चीज को चक्की हमें पीस करके इस लायक बनाती रही कि वह हमारा खाद्य पदार्थ बन जाय और हम स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर सकें। चक्की तू धन्य है। चक्की देवता नहीं है, तो फिर और कौन देवता है? जो हमारे काम आया। जिसने बिना मूल्य के, बिना पारिश्रमिक लिए, बिना परिश्रम कराये अपना क्रम जारी रखा, उसका एहसान न मानें, उसकी पूजा न करें, तो किसकी पूजा करें?

मित्रो! भले ही वह पत्थर हो, लेकिन उन इनसानों से यह पत्थर अच्छा है। उन देवताओं से यह पत्थर अच्छा है, जो निष्ठुर देवता बकरे खाने के बाद, भैंसे खाने के बाद भी इनसान की सहायता करने के लिए तैयार नहीं रहते। ऐसे दुष्ट, पिशाच और कसाई देवताओं की अपेक्षा वह देवता अच्छा है, जो हमारे चक्की पीसने के काम आ जाता है। घूरा-कूड़े का ढेर पड़ा हुआ है। किसी ने गन्दगी एक स्थान पर इकट्ठी कर ली। घूरे और कूड़े ने अपने आपको गला डाला। गला डालने के बाद अपने आपको खाद बना दिया और हमारे खेतों में जाने के बाद अन्न चावल, मक्का और सब्जी उगाता है। हम घूरे की पूजा नहीं करेंगे, तो किसकी करेंगे? घूरा बेजान है। बेजान है तो रहे, चक्की बेजान है, तो रहे, लेकिन हम तो बेजान नहीं हैं। हममें तो जान है। हर जानदार का केवल एक ही फर्ज है कि जिन लोगों के द्वारा उसने सहायता प्राप्त की, जिन लोगों की सेवायें प्राप्त कीं, जिन लोगों की भावनायें प्राप्त कीं और जिन लोगों का स्नेह प्राप्त किया, उन सबके प्रति कृतज्ञता के भाव रखें।

प्रतिध्वनि का सिद्धान्त है

मित्रो! कृतज्ञता का भाव रखना औपचारिक रूप से नहीं हो सकता। जिसके प्रति कृतज्ञता का भाव है, स्वभावतया उसकी प्रतिक्रिया होनी चाहिए और उसकी प्रतिध्वनि होनी ही चाहिए। ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है न? जिस तरह हम कुएँ में झाँककर देखते हैं और आवाज लगाते हैं, तो उसमें से आवाज आती है। ऐसी ही प्रतिध्वनि होनी चाहिए। कुआँ कहते हैं, तो वह चिल्लाता है-कुआँ। यहाँ (मथुरा में) एक पोतरा कुंड है, जहाँ पंडे यजमानों को ले जाते हैं और उनसे कहलवाते हैं-‘यशोदा तेरा लाला जागे कि सोवे।’ ‘सोवे’ वाला जो अंतिम शब्द है-उस बड़े कुंड-तालाब में से आवाज आती है-सोवे। एक सेकण्ड में फर्क पड़ जाता है। आप कह चुकेंगे कि ‘सोवे’ तो एक सेकण्ड बाद आवाज आयेगी-सोवे। यदि आप यूँ कह दें कि यशोदा तेरा लाला सोवे कि जागे, तो एक सेकण्ड बाद तालाब चिल्लायेगा-जागे। जागे-जागे की प्रतिध्वनि आती रहती है। गुंबदों में से, कुएँ में से, तालाब में से प्रतिध्वनि आती है।

सबको याद रखें

मित्रो! इस संसार में से भी प्रतिध्वनि आती है। कृतज्ञता के भाव जब हमारे अन्तरंग में जा करके इस गुंबद से टकराते हैं, तो प्रतिध्वनि आती है और एक भाव, एक कल्पना, एक आकांक्षा उत्पन्न होती है। जिन लोगों ने हमारे साथ सहकार किया, जिन लोगों ने हमें अनुदान दिया, जिन लोगों ने हमारी सेवा की, उन लोगों के लिए क्या हमारे कुछ कर्त्तव्य नहीं हैं? क्या कोई फर्ज नहीं हैं? क्या उनका बदला नहीं चुकाया जाना चाहिए? क्या उन फर्जों से मुक्ति प्राप्त नहीं की जानी चाहिए? मनुष्य के मन में जिस दिन ये भाव उत्पन्न होते हैं, उस दिन चारों ओर देवता दिखाई पड़ते हैं। वह अध्यापक हमको दिखाई पड़ता है, जिसने प्राइमरी स्कूल में हमको कमची से मार-मार करके पढ़ाया था, जो रोज मुर्गा बना देता था। यदि मुर्गा नहीं बनाया होता, कमची की मार पुट्ठों पर नहीं लगाई होती, तो आज हम बैल चरा रहे होते। भैंस चरा रहे होते। धन्यवाद उसको जिसने कमची मारी तो क्या, मुर्गा बनाया तो क्या, कान उखाड़ा तो क्या, पर पढ़ाया भी इस तरीके से कि सबक याद होते हुए चले गये। हम डिवीजन लाते हुए चले गये, कभी फेल नहीं हुए। धन्य है हमारा गुरु, जिन्होंने कमचियाँ लगायीं। कैसा प्यार भरा हमारा गुरु और कैसे प्यार भरे वे बालक, जिनके बीच हमारे जीवन का सबसे स्वर्णिम समय व्यतीत हो गया।

अब कहाँ है वैसा प्रेम

मित्रो! हमने और आपने लम्बी-लम्बी जिन्दगियाँ व्यतीत कीं, लेकिन वैसा निश्छल प्रेम और निर्मल प्रेम कहाँ देखा, जो छोटे-छोटे स्कूल में रहने वाले छोटे-छोटे बच्चों में होता है। हम आपके यहाँ कोका-कोला पीने गये और हमने आपको पान खिलाया। इस पान खिलाने के पीछे भी मेरी एक चाल थी और कोका-कोला पिलाने के पीछे भी आपकी एक चाल थी। जब मैं आपके यहाँ गया था, तो आपने कहा था कि आचार्य जी आपके बेटे का विवाह है, साड़ी खरीद ले जाइये। कितने दाम की साड़ी है? अजी साहब! दाम की क्या पूछते हैं? हमारे पिताजी और आपके पिताजी तो हमेशा के जान-पहचान वाले थे। दुकान आपकी है, ले जाइये। उस समय आपने सिर्फ कोका-कोला मँगाया था और मुझे पिलाया था और जब मैं साड़ी खरीदकर चला आया, तो बाद में पता चला कि आपने मेरी जेब काट ली थी। इसी तरह जब मैंने आपको पान खिलाया था, तो मेरे मन में जाने क्या-क्या विचार भरे हुए पड़े थे। जिंदगी भर हम मित्रताएँ करते रहे, लेकिन वह छल और दंभ से भरी हुई, कामनाओं से भरी हुई शतरंज की तरीके से हमारी मित्रतायें रहीं। जब हमारा काम पूरा हो गया, तो हमने इस तरह से आँखें फेर लीं, जैसे कि पिंजड़े में से निकलने के बाद तोता आँखें फेर लेता है।

हम ढूँढ़ते हैं स्वर्ग

मित्रो! हमारे जीवन में से मित्रता का रस चला गया। हमारा अंतःकरण सदा से तलाश करता रहा है कि कोई सच्चा मित्र मिल जाय, तो हम धन्य हो जायँ। पर ऐसा मित्र हमें कहाँ से मिले? और कहाँ से मिले? सखा, मित्र के बिना, साथी-सखा के बिना सूना जीवन एकाकी प्रेत और पिशाच की तरह से मरघट में बैठा रहता है। मरघट में बैठे रहने वाले भूत-प्रेत कैसे होते हैं, जंगलों में रहने वाले लोग ‘स्कट’ नामक एक जानवर को जानते हैं। जंगली सुअर जब घूमते-घूमते अपने समूह से अलग चला जाता है, अकेला रहने लगता है, तो ‘स्कट’ कहलाता है। वह बड़ा भयंकर होता है। जिन दिनों मैं अज्ञातवास में रहा, ‘स्कट’ जानवर को हमेशा तलाशता रहा। इसी तरह जब कभी हिरन झुंड से बाहर रहने लगता है, तो बड़ा खूँख्वार हो जाता है। जहाँ भी मौका मिलता है किसी भी जानवर में अपनी सींग घुसेड़ देता है। अकारण हमला कर देता है। लोग इनसे बचकर अपना काम करते हैं और दूसरों को बचाव के उपाय बताते रहते हैं। मित्रो! हम भी ‘स्कट’ के तरीके से हैं। हमारा कोई सखा नहीं, हमारा कोई मित्र नहीं, कोई सहोदर नहीं, कोई हमारा प्रेमी नहीं है। सभी शतरंज की मोहरों के तरीके से हैं, जिनको हम यहाँ से उठाकर वहाँ रख देते हैं। जिसकी गोटी लाल हो जाती है, वह बढ़िया और जिसकी गोटी लाल नहीं हुई, वह बेचारा सारे जीवन भर फँस गया।

आती है याद वह खूबसूरत दुनिया

मित्रो! जब हम याद करते हैं बचपन के उन लोगों को, जो ज्वार की रोटी ले करके आते थे और हम लोग गेहूँ की रोटियाँ ले करके आते थे। सब बैठ जाते थे। उनमें एक ब्राह्मण था, एक बनिया था, एक नाई था और एक कायस्थ था। सबके सब बैठे हुए एक दूसरे की रोटियाँ खा रहे होते थे। न उसको कायस्थ का ज्ञान था, न उसको ब्राह्मण का। जब बड़े हो गये, तो जाति-बिरादरियों के बंधनों में हमारा सामाजिक जीवन नष्ट-भ्रष्ट हो गया। बचपन में हमने नाई के लड़के के साथ ज्वार की रोटियाँ खाई थीं। याद आता है वह निश्छल प्रेम, कृतज्ञता भरा हुआ जीवन। मित्रो! आकांक्षा होती है, मन चाहता है कि वैसा ही प्रेम भरा हुआ जीवन फिर दुबारा मिल जाय। जब याद आती है कृतज्ञता भरी जिंदगी, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि यह खूबसूरत दुनिया न जाने हीरों से बनाई गयी है या जवाहरातों से? जब हमको अध्यापक याद आते हैं, छोटे बालक याद आते हैं, अपने भाई याद आते हैं, बुआ याद आती है, बड़ी बहन याद आती है, जो हमको गोदी में लिये-लिये फिरती रहती थी। मालूम पड़ता है कि यह दुनिया कितनी खूबसूरत, कितनी त्याग से भरी हुई, आनन्द और उल्लास से भरी हुई है। जब हमको समाज का ज्ञान आता है, तो मालूम पड़ता है कि कितने लोग अत्यधिक ज्ञान का दोहन करते चले गये और सारा ज्ञान छोड़ करके हमारे पास रख गये हैं।

यह है स्वर्ग, यही है अमृत

मित्रो! छः आने की गीता खरीदकर ले आते हैं और भगवान् कृष्ण का वह ज्ञान, जो अर्जुन को मिला था, हमको मिल जाता है। धन्य है वह गीता का रखवाला, धन्य है वह छापेखाने वाला, धन्य है वह कागज बनाने वाला, टाटा मिल को धन्यवाद, जो कागज की रिम बनाता हुआ चला जाता है और हमको गीता मिल गयी। इस तरह का भाव जब आता है, तो मालूम पड़ता है कि दुनिया में बहुत खूबसूरत लोग रहते हैं और बेहतरीन लोग रहते हैं। हम जहाँ कहीं भी निगाह फिरा कर देखते हैं, हमको इस दुनिया में एक ही चीज मालूम पड़ती है कि यह बेहतरीन है और अच्छे लोग हैं। दुनिया में प्रेम और सौभाग्य भरा हुआ पड़ा है। मित्रो! यही है वह अमृत, जिसकी लहरों में हम सरकते हुए चले जा सकते हैं। स्वर्ग आपके पास है। मक्का की रोटियों में स्वर्ग है, ज्वार-बाजरे की रोटियों में स्वर्ग है और फटे हुए कपड़ों में स्वर्ग है। रेशमी कपड़ों में आग जलती है। इसमें तेजाब भरा पड़ा है। मिठाइयों में पोटैशियम सायनाइड भरा पड़ा है, जो आपके पेट को फाड़ देगा। आपने अपने दृष्टिकोण के हिसाब से जो आकाँक्षायें पाल रखी हैं कि हमको अमुक सामान मिल जायेगा, अमुक चीजें मिल जायेंगी। अमुक चीज हमारे पास कम है, हमें और चाहिए। जो चीज हमको मिल जाती है, उनका उपयोग करना हमको कहाँ आता है? हम उनको जोड़ना, जमा करना शुरू करते हैं और जोड़ते हुए, जमा करते हुए हमारे ऊपर मुसीबत चढ़ती चली आती है।

संग्रह नहीं, वितरण

मित्रो! शहद की मक्खी को हमने देखा, वह शहद जोड़ती हुई, जमा करती हुई चली गयी। उसने कहा कि हमको खोने का डर नहीं। छोटे बच्चे-बच्चियाँ चिल्लायीं-क्या माताजी हमको शहद मिल जायेगा? नहीं, यह तो जमा करके रखा जायेगा और इससे बहुत मुनाफा कमाया जायेगा। एक दिन बन्दर आया और छत्ते को तोड़ डाला। सारा का सारा शहद जमीन के ऊपर टपक गया, बिखर गया, धूल और रेत में मिल गया। मक्खियाँ मर गयीं। यही हाल मनुष्य का है। धन का थोड़ा सा लाभ ही उसको मिल पाता है। क्या हमने उसका उपयोग करना जाना? उपयोग करने का ढंग आता है क्या? हमको शरीर मिला। क्या हम शरीर का उपयोग कर सके? जो स्वास्थ्य आपको मिला, क्या उसका इस्तेमाल ठीक प्रकार से आपने कर लिया? फिर आप कौन से मुँह से भगवान् से माँगने चले हैं कि हमारा स्वास्थ्य अच्छा बना दीजिए। आपको जो धन मिला हुआ है, आपको जो अकल और बुद्धि मिली हुई है, क्या आपने उसका सही इस्तेमाल कर लिया? यदि नहीं तो कौन-सा गुण है, जिसको लेकर आप वरदान माँगने के लिए चले थे कि ज्यादा बुद्धि दी जाये। ज्यादा शिक्षा दी जाये। जो आपको मिला हुआ था, उसका इस्तेमाल करने के लिए बहुत मौके पड़े थे और आप चाहते तो उसका प्रयोग कर सकते थे और दुनिया में शान्ति की धारायें बहा सकते थे। लेकिन आप तो हमेशा संग्रह की बात सोचते रहे, बढ़ाने की बात सोचते रहे, जमा करने की बात सोचते रहे, स्वामित्व की बात सोचते रहे। मालिक बनने की बात सोचते रहे। उपयोग की बात आपके जीवन में कहाँ आई?

दृष्टिकोण उदात्त हो तो स्वर्ग

मित्रो! उपयोग की बात यदि आपके जीवन में आ गयी होती, तो जो कुछ भी आपको मिला हुआ है, बहुत है। इससे आप दुनिया में, समाज में ऐसी धारायें बहा सकते हैं, जिससे प्रेम, आनन्द, उल्लास व संतोष आपके चारों ओर उमड़ता हुआ चला आ सकता है। मित्रो! मरने के बाद स्वर्ग देखने की कल्पना निरर्थक है। हमको और आपको स्वर्ग में यदि भेज भी दिया जाय, तो हम थोड़े ही दिनों में उसे नरक बना देंगे। ये कौन आ गये? ये वो हैं जो गायत्री मंदिर में अनुष्ठान कर रहे थे। ये स्वर्ग क्यों आ गये? इन्होंने स्वर्ग को भी नरक बना दिया। हम और आप जैसे मनुष्य यदि स्वर्ग लोक में भेजे जायँ, तो थोड़े दिनों में वहाँ के पेण्टर को बुलाना पड़ेगा और वहाँ के साइन बोर्ड के ऊपर चेन्ज कराना पड़ेगा और लिखा देना पड़ेगा कि ये है नरक। और अच्छे मनुष्य, जिनके दृष्टिकोण उदार और उदात्त हों, वे कहीं भी रहें, जंगलों में रहें, भूखे लोगों के बीच रहें, मक्का की रोटी खा करके रहें। किसी भी तरीके से रहें और गरीबी में जीवन जियें, वे लोग वहीं स्वर्ग पैदा कर सकते हैं।

मैं अपना स्वर्ग बना लूँगा

संत इमर्सन की अंग्रेजी में बहुत सी किताबें हैं। आध्यात्मिक जीवन के ऊपर उन्होंने बहुत सी किताबें लिखी हैं। हर किताब के पहले पन्ने पर उनका एक मंत्र है। उसमें उन्होंने लिखा है-‘‘मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वहीं स्वर्ग बना लूँगा।’’ हर पुस्तक के पहले पन्ने पर यह एक ही मंत्र मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है। किताबें अगले पन्ने से शुरू होती हैं और पहले पन्ने पर उनकी केवल एक ही आस्था है कि स्वर्ग कहीं है नहीं, वह तो बनाया जाता है। स्वर्ग तैयार किया जाता है, स्वर्ग अपने आप निर्मित किया जाता है। और वह स्वर्ग मनुष्य की आँखों में रहता है, स्वर्ग भावनाओं में रहता है, स्वर्ग अंतःकरण में रहता है। आध्यात्मिकता का अंतिम परिणाम है-स्वर्ग। और मित्रो! स्वर्ग का अर्थ है-सही विचार करना और सही चीज देखने की शैली। इसी का नाम है-फिलॉसफी और इसी का नाम है-दर्शन। यदि दुनिया को नये ढंग से, नये दृष्टिकोण से देखना शुरू करें, तो आपको क्या से क्या देखने को मिलेगा। स्वर्ग अपने ही चारों ओर बिखरा हुआ दिखाई पड़ेगा।

आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥

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दृष्टिकोण में बसते हैं स्वर्ग नरक
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