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Books - गायत्री साधना के दो स्तर

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


उच्चस्तरीय साधना और उसकी सिद्धि

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ज्वलन्त अंगार जब ठण्डा होने लगता है तो उसका ऊपरी पर्त भस्म बनकर आवरण जैसा चढ़ जाता है। जब इस आवरण को स्पर्श करते हैं तो अंगार न तो गरम मालूम पड़ता है और न प्रकाशवान। ऐसी स्थिति में यह पहचानना भी कठिन होता है कि इसके भीतर अभी अग्नि का अंश है भी या नहीं। पर जब उस भस्म आवरण को हटा दिया जाता है तो भीतर छिपी हुई अग्नि पुनः प्रकट हो जाती है और उसकी गर्मी तथा रोशनी पुनः पूर्ववत् दिखाई पड़ने लगती है। यही बात हमारी आत्मिक स्थिति पर लागू होती है। परमात्मा का अंश होने के कारण आत्मा में वे सब शक्तियाँ और विशेषतायें बीज रूप से मौजूद रहती हैं जो परमात्मा से भरी होती हैं। किन्तु मल- विक्षेपों के आवरण जब उस पर चढ़ जाते हैं तो उसकी स्थिति भी भस्म से ढँके हुए अंगार जैसी बन जाती है। माया बद्ध जीव की स्थिति बड़ी दीन- हीन और दयनीय दिखाई पड़ती है। दुःख- दारिद्र के रोग शोक के, अभाव अज्ञान के, व्यथा वेदना के, कष्ट- क्लेशों में ऐसा ग्रसित रहता है कि विश्वास करना कठिन हो जाता है कि ऐसी दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ मानव प्राणी भला सत- चित आनन्द स्वरूप परमात्मा का अंश भी हो सकता है? ठण्डी भस्म का आवरण छूकर और उसकी कालिमा देखकर यह मानना कठिन होता है कि इसके भीतर ज्वलन्त अग्नि- पुंज भी छिपा होगा।

आत्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति में हो, उसके आवरण हट जायें तो उसकी स्थिति इतनी उत्कृष्ट होती है कि हर क्षण अनन्त -आनन्द का रसास्वादन करने का सौभाग्य उसे उपलब्ध रहता है। इसी स्थिति को प्राप्त करना अध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है। इस मार्ग को अवरुद्ध करने वाले वे मल- विक्षेप और आवरण ही हैं जिनके कारण महान सम्भावनायें साथ लेकर आया हुआ आत्मा इन तुच्छ परिस्थितियों में पड़े रहने के लिए विवश होता है। मानव शरीर ही इन आवरणों की सफाई कर लेने का एकमात्र अवसर है। यदि यह ऐसे ही बर्बाद होता चला गया या कुविचारों और कुकर्मों में मस्त रहकर उन आवरणों को और भी बढ़ा लिया गया तो फिर चौरासी लाख योनियों की लम्बी अवधि तक उसी भार से दबा पड़ा रहना पड़ता है।

इन आवरणों की सफाई में दुहरा लाभ है जहाँ मलीनता हटने से आत्मा पर चढ़ा हुआ भार हल्का होते चलने से अन्तःकरण में शान्ति और प्रफुल्लता बढ़ती है वहाँ इन आवरण द्वारों के खुलने पर विभूतियों का एक विशिष्ट भाण्डागार उपलब्ध होता चलता है। पाँच आवरणों को ही पाँच कोश कहते हैं इन द्वारों के खोलने की वैज्ञानिक विधि का नाम पंचकोशी गायत्री साधना अथवा पंचमुखी गायत्री उपासना है। उच्च कक्षा में प्रवेश करने वाले साधकों के लिए इसी आराधना का प्रयोग करना पड़ता है। प्रथम स्तरीय साधना का अधिकांश कार्यक्रम स्थूल वस्तुओं, स्थूल विधि- विधानों पर निर्भर है। माला, आसन, पंचपात्र, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प अक्षत, चित्र, मूर्ति, हवन सामग्री, मन्त्रोच्चारण, व्रत- उपवास, पाठ कीर्तन, अनुष्ठान, ब्रह्मभोज, तर्पण मार्जन आदि यह सभी कुछ स्थूल आधार हैं। इसे साकार उपासना कह सकते हैं। प्रथम कक्षा के लिए यह सब कुछ आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इस आधार के बिना ऊपर की कक्षा में प्रवेश कर सकना उसी प्रकार सम्भव नहीं जिस प्रकार सीढ़ी या जीने की सहायता के बिना छलांग मार कर छत पर चढ़ जाना कठिन होता है। स्कूल की पढ़ाई की उपेक्षा करके सीधे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता, उसी प्रकार प्रथम स्तरीय स्थूल विधि व्यवस्था के आधार पर बनी हुई साकार उपासना के बिना उच्चस्तरीय निराकार साधना में सफलता प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता।

उच्च स्तरीय गायत्री उपासना में वस्तुओं, उपकरणों और विधानों का तारतम्य घटने लगता है और ध्यान भावना एवं निष्ठा में तीव्र गति से अभिवृद्धि होने लगती है। यह उपासना बिना किसी वस्तु के भी हो सकती है। एकान्त निर्जन वनों में रहकर घोर तपस्या करने वाले साधकों के लिए अन्न और वस्त्र उपलब्ध नहीं होता तो धूप दीप की, हवन ब्रह्मभोज की व्यवस्था कहाँ से बनेगी? सच बात यह है कि तब उन्हें इनमें से किसी भी उपकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती, वे आत्मा की अग्नि में प्राण को हवि बनाकर निरन्तर अखण्ड यज्ञ करते रहते हैं। गायत्री चालीसा में "हंसारूढ़ सितम्बर धारी" पद में जिस हंसवाहिनी और श्वेत वस्त्र धारिणी गायत्री माता का उल्लेख हुआ है उसका स्वरूप उच्चस्तरीय साधना में कुछ और ही हो जाता है।

श्वास, प्रश्वास क्रिया के साथ 'सोऽहम्' की ध्वनि होती है उसे ही हंसयोग कहते हैं। यह हंस अर्थात सोऽहम् तत्व ही गायत्री का वाहन बन जाता है। माला का स्थान यह श्वास प्रक्रिया ले लेती है। इडा, पिंगला, चन्द्र, सूर्य नाड़ियों का आरोहण, अवरोहण माला फेरने का काम करता है ५४ ग्रन्थियाँ आरोहण की और ५४ अवरोहण की मिलकर १०८ दाने की यह सूक्ष्म चक्र सारिणी घूमने लगती है। सुषुम्ना को सुमेरु कहते हैं। माला में एक मध्य बिन्दु बड़ा दाना रहता है, जिसे सुमेरु के नाम से सम्बोधित करते हैं। अध्यात्मिक माला में सुषुम्ना नाड़ी का वही स्वरूप और स्थान बन जाता है। यह सोऽहम् संस्थान उच्चस्तरीय साधना में गायत्री माता का हंस वाहन बन जाता है। इस माला पर वे विहार और विचरण करने लगती हैं। इसी वीणा में उनकी झंकार उठने लगती है और इसी स्थल से नीर- क्षीर विवेक का हंस- गुण साधक की अन्तरात्मा में उत्पन्न होने लगता है।
श्वेत वस्त्र धारिणी गायत्री माता का हम पूजन करते हैं। 'सूर्य मण्डल मध्यस्था' की छवि बनाकर उसे सूर्य प्रकाश के बीच बैठी हुई प्रतिमा मानकर उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। पर उच्चस्तरीय साधनों में माता का पूरा आवरण इस शुभ्र ज्योति के स्वरूप में ही परिलक्षित होता है। प्रकाश पुंज के रूप में ही गायत्री माता का दर्शन ध्यान और साक्षात्कार हो जाता है। जिस प्रकार प्रथम स्तर के साधकों को हंसारूढ़ गायत्री माता का नारी देह में दर्शन साक्षात्कार, जगृति, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में होता रहता है उसी प्रकार उच्च भूमिका के साधक को प्रकाश की छोटी- छोटी चिनगारियों के रूप में, किरणों के रूप में और तेजस्वी ज्योति पिण्ड के रूप में दर्शन एवं साक्षात्कार होता है। स्तर बदलने के साथ साधनों एवं उपकरणों की श्रृंखला भी बदल जाती है। स्कूल की प्रारम्भिक कक्षाओं में लकड़ी की तख्ती पर खड़िया और

मोटी कलम से बड़े- बड़े अक्षर लिखने का अभ्यास करना पड़ता है पर आगे अक्षर कापी और फाउन्टेन पेन के माध्यम से लिखने की क्रिया सम्पन्न होती है।
साधन क्षेत्र में भी ऐसे परिवर्तन का होना कोई आश्चर्य, विरोध या मतभेद की बात नहीं, वरन एक स्वाभाविक विकास क्रम है। भारतीय धर्म में साकार और निराकार की जो द्विधा परम्परायें चली आ रही हैं इनमें न तो कोई विरोध है और न विभ्रम। दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। अपने- अपने स्थान पर दोनों ही उपयुक्त हैं और आवश्यक भी। पंचकोशी गायत्री उपासना का विधान क्रम निराकार उपासना जैसा ही है। इसीलिए पंचमुखी गायत्री को अलंकारिक रूप से चित्रित तो करते हैं, पर पूजा के लिए मुखी गायत्री की तस्वीरें तथा मूर्तियाँ ही प्रयुक्त होती हैं। इस उद्देश्य के लिए पंचमुखी गायत्री का प्रयोग नहीं होता।

पंचमुखी और दश भुजी गायत्री की विवेचना करते हुए आगे विस्तारपूर्वक यह बताया गया है कि अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश यही पाँच गायत्री के पाँच मुख हैं। इन कोशों में छिपी हुई अन्यान्य महत्त्वपूर्ण शक्तियों को विकसित करना और उन आवरणों का परिमार्जन करके आत्म- शान्ति का रसास्वादन करना पंचकोशी आराधना का प्रधान उद्देश्य है। प्रथम स्तरीय उपासना में लौकिक लाभों का मार्ग प्रशस्त होता है। १- सद्ज्ञान, २- स्वास्थ्य सुधार, ३- उत्साह एवं स्फूर्ति, ४- सहयोग एवं मित्रता की अभिवृद्धि, ५- अभावों की पूर्ति, यह पाँच लाभ और भी उच्चकोटि के हो जाते हैं। (१) साहस एवं तृप्ति यह पाँच सिद्धियाँ पंचकोशी साधना की हैं। जैसे नर- नारी का जोड़ा होता है वैसे ही दो- दो सद्गुणों का यह जोड़ा दस की संख्या में हो जाता है। इन्हें पंचमुखी गायत्री की दस भुजायें अथवा दस सिद्धियाँ कह सकते हैं। इस विज्ञान का विशद शिक्षण युग गायत्री के अगले अंकों में क्रमशः किया जाता रहेगा।

गुणों की अभिवृद्धि पर सम्पदाओं और विभूतियों की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि निर्भर रहती है। जिस प्रकार बिना जड़ का पौधा देर तक खड़ा नहीं रह सकता, उसी प्रकार योग्यता और प्रतिभा न होने पर अनायास कोई सम्पदा मिल भी जाय तो देर तक ठहर नहीं पाती। जड़ मजबूत होने पर ऊपर की टहनी कट जाने पर भी उसकी शाखायें फूट आती हैं उसी प्रकार यदि सद्गुणों की जड़ मनोभूमि में मजबूती से जमी हुई हो तो किन्हीं आकस्मिक कारणों से दरिद्रता एवं विपत्ति सामने आ जाने पर भी वे ठहर नहीं पातीं और कोई नई सुविधा उत्पन्न होकर उस अभाव की पूर्ति कर देती है। गायत्री उपासना से प्रत्यक्षतः तो किसी को छप्पर फाड़कर सम्पदा नहीं मिलती, पर साधक के अन्दर वे तत्व विकसित हो जाते हैं जिनके साथ अनेक प्रकार की सुख संपदायें जुड़ी रहती हैं। वर्षा होते ही हरियाली उग आती है और कीट- पतंगों की अजस्र उत्पत्ति होने लगती है। मानवोचित सद्गुणों का विकास होने के साथ- साथ वे मंगलमयी सुख सुविधायें, समृद्धियाँ और विभूतियां सामने आ जाती हैं जिनके लिए आमतौर से लोग तरसते रहते हैं और जिनकी उपलब्धि को कोई दैवी वरदान चमत्कार माना जाता है।

मोटे तौर से चमत्कार उन बातों को माना जाता है जो मानव शरीर की सीमा और सामर्थ्य से बाहर की हैं। हवा में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य हो जाना, रूप बदल देना आदि क्रियाओं को किसी समय सिद्धियाँ कहा जाता था। पर अब विज्ञान की उन्नति के कारण वह बातें अमुक मशीनों की सहायता से सस्ती और सुलभ हो गई हैं। इसलिए इन क्षमताओं के प्राप्त कर लेने पर भी कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। बाजीगरी के अनेकों अचम्भे में डालने वाले खेल जादूगर लोग दिखाया करते हैं। मैस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म से भी बहुत मनोरंजक तमाशे होते देखे हैं। कौतूहल उत्पन्न करके अचम्भे में डालने वाली बातें, इस विज्ञान की उन्नति के युग में जबकि सौर मण्डल की यात्रा करने के लिए मानव संचालित यान उड़ रहे हैं, कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती।

एक ही हाइड्रोजन बम से करोड़ों मनुष्यों को पलक मारते नष्ट कर डालना सम्भव हो गया है तो मारण मोहन उच्चाटन आदि के अभिचार क्या महत्त्व रखते हैं। यह प्रयोजन तो नशीली चीजों से या मामूली हथियारों से भी पूरे हो सकते हैं। गायत्री उपासना के द्वारा इस प्रकार के चमत्कारों की आशा से श्रम करना बालबुद्धि वाले ओछे स्तर के लोगों के लिए ही सम्भव है। बेशक अनेकों अचम्भे में डालने वाले काम कर सकना तपस्वी साधकों के लिए सम्भव है, पर उनकी तुच्छता को समझते हुए उनकी उपेक्षा ही की जाती है।

गायत्री उपासना की उच्च भूमिका में प्रवेश करने का सबसे बड़ा लाभ आत्मबल की वृद्धि है। आत्मबल की महत्ता संसार के समस्त भौतिक बल सम्पन्न लोगों से कहीं अधिक होती है। आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों को ही महापुरुष कहते हैं, नर रत्नों में इन्हीं की गणना होती है। जमाने को बदल देने की, आत्म- कल्याण की दूसरों का सच्चा हित साधन कर सकने की अपार क्षमता उनमें होती है। इसी को सच्ची सिद्धि कहते हैं। उच्चस्तरीय गायत्री उपासना का उपासक दिन- दिन महानता की ओर तीव्र गति से अग्रसर होने लगता है। वह सिद्धियाँ और सामर्थ्य उपलब्ध होती हैं। जो न केवल आत्म- कल्याण वरन भौतिक प्रगति में अत्याधिक सहायक होती हैं।
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