
इस वर्ष का एक अति महत्वपूर्ण कदम
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युग परिवर्तन के प्रयासों को मानवकृत नहीं मानना चाहिए। अन्यथा उसमें ढेरों त्रुटियां रहतीं, ढेरों विरोध या असहयोग करते, ढेरों बीच-बीच ऐसे व्यवधान खड़े हो जाते, जिनका समाधान ही नहीं हो पाता। सफलता मिली भी, तो बहुत धीमी गति से, क्योंकि लोक रुचि में मनोरंजन और उद्धत आचरणों के प्रति ही रुझान है। वे अनायास ही बढ़ते और फलते-फूलते हैं। उनके लिए समय व धन लगाने वाले भी असंख्यों हो जाते हैं, साथ ही सत्प्रयोजनों का उपहास करने वाले एवं अड़ंगे अटकाने वालों की भी कमी नहीं रहती। ऐसा इस योजना में सर्वथा न हुआ हो, सो बात तो नहीं है, पर सफलताओं को देखते हुए अड़चनों का अनुपात नगण्य रहा है। ऐसी कल्पना नहीं की गई थी। मनुष्यकृत आन्दोलन अनेकों उठे और पानी के बबूले की तरह फूट गये, जबकि उनके पीछे प्रतिभा और सम्पदा की कमी नहीं थी, पर युग परिवर्तन में यह विचित्रता रही कि दो घण्टे समय और बीस पैसा नित्य जैसे अनुपम आधार को अपनाकर वह उमग उठा, बढ़ा और देखते-देखते अपनी शाखा-प्रशाखाओं से समूचे देश को एवं विश्व को आच्छादित करने लगा। दो दशाब्दियों पहले उसका श्रीगणेश हुआ और इतनी सी कम अवधि में उसने विशालकाय कल्प वृक्ष की तरह लाखों की संख्या में अपने पत्र-पल्लव विनिर्मित और सुविस्तृत कर लिए।
भूतकाल के कृत्यों के सम्बन्ध में मिशन के सघन परिचय में आने वालों को अब तक की गतिविधियों का परिचय है। जो जानबूझ कर अविज्ञात रखी गई हैं, उनका विवरण भी समय आने पर प्रकट और प्रतीत हो जायेगा। उदाहरण के लिए जहां समस्त विश्व में एक स्वर से विनाश की सम्भावनाओं को सुनिश्चित बताया जा रहा है, उसके कारण, प्रमाण, तर्क और तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं, वहां सिर्फ एक आवाज उठी है, कि ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होने दिया जायेगा। समस्त विश्व की चिन्ता एक ओर और दूसरी ओर एक आदमी का निश्चय और उद्घोष कि कोई डरे नहीं, सभी निश्चित रहें। इस विश्व वसुधा के ऊपर इतनी बड़ी ढाल तानी गई है कि उसे वेध सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। कठिनाईयां, न आयें, सो बात नहीं, पर वे समयानुसार निरस्त होती चलेंगी। सृजन की आवश्यकताएं बहुत बढ़ी हैं, इतनी बढ़ी कि उनका जुट सकना आज तो असम्भव जैसा दीखता है, पर यह पंक्तियां कह रही हैं कि हर साधन जुटता जायेगा। कौन जुटायेगा? कैसे जुटायेगा? इसका उल्लेख यहां आवश्यक नहीं, क्योंकि जब परोक्ष कर्तृत्व किसी महान् सत्ता का है, तो व्यक्ति विशेष को श्रेय देना व्यर्थ है, उसका अहंकार बढ़ाने के समान है। इस प्रकार की बढ़ोत्तरी से संसार में कोई उठा नहीं, वरन् गिरा ही है। इसलिए कहा इतना भर जा रहा है कि विनाश की विभीषिकाएं निरस्त होंगी और विकास उस तेजी से बढ़ेगा जिसकी घोषणा करना तो दूर, आज तो उसकी रूपरेखा तक समझना कठिन है, क्योंकि उस कथन को भी अतिरिक्त समझा जा सकता है।
कुछ दिन पूर्व मिशन की गतिविधियों के समाचार छपने का प्रबन्ध किया गया था पर अब तो वह किसी प्रकार सम्भव नहीं रहा। एक भरा पूरा दैनिक यदि 40 पृष्ठों का छपे तब कहीं लोगों की कृतियों का उल्लेख सार-संक्षेप बना कर छापा जा सकता है। जिन्हें अपना नाम छपाने की उतावली है, वे अपने अखबार अलग छाप भी रहे हैं पर उन में समस्त विश्व की विशालकाय गतिविधियों का उल्लेख एवं समावेश सम्भव नहीं। अच्छा हो लोग मिशन को ही अपना अध्यात्म स्वरूप मान लें और समझ लें कि वह मत्स्यावतार इतना छोटा नहीं है; जिसे चुल्लू से भरा जा सके।
पिछले दिनों जो हो चुका है उसका उल्लेख करना अनावश्यक है। उस संदर्भ में इतना ही समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक वसन्त पर्व एक नया तूफानी उभार साथ लाता है और वह आरम्भ में असाध्य या कष्ट साध्य दीखते हुए भी समय के साथ बढ़ता और फलता जाता है। तालाब में घनघोर वर्षा का पानी जितना बढ़ता है उसी हिसाब से कमल का डंठल भी रातों रात बढ़ जाता है और फूल पानी में डूबने नहीं पाता, वरन् ऊपर ही उठा हुआ दीखता है। इसी प्रकार भावी कार्यक्रमों की जो घनघोर वर्षा बरसती है वसन्त के उपरान्त प्रतीत होता है कि उसके साधन भी उसी अनुपात में बरसे और अभावों एवं संकटों का उतना सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि कल्पना की गयी थी। कोई शक्ति कठिन को सरल बनाती गई और समुद्र पर पुल बंधता चला गया।
जिन दिनों यह पंक्तियां पाठकों को पढ़ने के लिए मिलेंगी, तब तक सन् 86 के वसन्त-पर्व का माहौल होगा और वह जिज्ञासा पूरी हो जायेगी कि इस वसंत पर दैवी प्रेरणा ने अंतरिक्ष से स्वाति कणों की कैसी व कितनी घटाटोप वर्षा की है।
अगले वर्ष से वसंत-पर्व के तुरन्त उपरान्त ही वे कार्यक्रम चल पड़ेंगे, जिन्हें वर्गीकरण की दृष्टि से दो विभागों में भी बांटा जा सकता है। समय के सेकेण्ड—मिली सेकेण्ड जैसे अगणित भाग हो सकते हैं; पर उसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में भी बांटा जा सकता है—एक दिन, दूसरा रात। इसी प्रकार प्रस्तुत वसन्त के उपरान्त दो कार्यक्रम चलेंगे; पर उनकी शाखा-प्रशाखाएं इतनी होंगी जिनकी संख्या की गिनती एक शब्द ‘अगणित’ में ही करनी होगी।
एक कार्य है—देश के गांव-गांव में युग चेतना का संदेश सुनाना, जन-जन के मन-मन में अलख जगाना। दूसरा कार्य है—देश के उपेक्षित अर्धमृत तीर्थों में प्राण फूंकना; उनका पुनरुद्धार करना। कहने और सुनने में यह दोनों योजनाएं कुछ ही क्षणों में कही और सुनी जा सकती है; उनका विस्तार इतना बड़ा है, जिसे मानवी कर्तृत्व से बाहर की बात समझा जाए, तो भी अत्युक्ति न होगी।
भारत में बड़े सात लाख गांव हैं। नगले, छोटे कस्बे, मजरे जोड़ कर वे बीस लाख हो जाते हैं। इन सभी गांवों में युग चेतना की जानकारी पहुंचानी और उसके सिद्धान्त समझाने हैं। प्रज्ञा युग का अवतरण समीप है। उसमें दूरदर्शी विवेकशीलता का स्वरूप, उद्देश्य और व्यवहार जन-जन को समझाना है, साथ ही प्रस्तुत अवांछनीयता, अनैतिकता, मूढ़-मान्यता तथा कुरीतियों के कारण होने वाले भयंकर अनर्थों से भी अवगत कराया जाना है। इससे अगले दिनों जिस समता, एकता, सहकारिता, सज्जनता की नीति को अपनाना है, उसके महत्व को भी हृदयंगम कराना है। प्रज्ञा युग के चार आधार होंगे—समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी। इन सब बातों के लिए मनों में गुंजाइश पैदा करनी है और प्रचलन के नाम पर जो अविवेक और अनर्थ हर दिशा में छाया हुआ है, उसका उन्मूलन भी करना है। यह कृत्य ‘‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’’ की नीति के अनुरूप चलेगा और ‘‘नर और नारी एक समान; जाति देश सब एक समान’’ का आदर्श हृदयंगम कराने पर ही सम्भव होगा।
इन दिनों नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में अनेकों अनीतियां प्रचलित हैं। उनके विरुद्ध जनमत और आक्रोश भी जागृत करना है। विषमता का हर क्षेत्र में बाहुल्य है। उसके स्थान पर एकता और समता के सिद्धान्तों को मान्यता मिल सके, ऐसा वातावरण बनाना है।
इसके लिए जन सम्पर्क साधने की आवश्यकता होगी। हर भाषा में सस्ता प्रचार साहित्य छपना है और दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन का प्रचलन इस स्तर पर करना है, जिसे शिक्षित पढ़ सकें और अशिक्षित पढ़ों द्वारा सुन सकें। यह प्रचार कार्य परस्पर वार्तालाप द्वारा, छोटी गोष्ठियों द्वारा और बड़े सम्मेलनों द्वारा चल पड़ेगा तो एक व्यक्ति भी ऐसा न रहने पायेगा, जिसे युग परिवर्तन का आभास न मिले और आदर्शों को अपनाने का वातावरण न बने। इसके लिए जहां जैसा सुयोग बनेगा विचार विनिमय, प्रवचन एवं वक्ताओं द्वारा छोटे बड़े समूहों को इस प्रकार समझाने का प्रयत्न चलेगा जो लोगों के अन्तराल की गहराई तक प्रवेश करता चला जाए। अभीष्ट प्रयोजन के लिए लेखनी और वाणी द्वारा तो प्रचण्ड प्रचार कार्य चलाया ही जायगा, साथ ही बरसाती हरीतिमा की तरह दिन दूने रात चौगुने वेग से बढ़ने वाली प्रज्ञा परिजनों की हरीतिमा को इतना शौर्य पराक्रम प्रस्तुत करने के लिए भी कटिबद्ध किया जाएगा कि वे अपने निज के क्रियाकलापों के द्वारा असंख्यों के सामने अनुकरणीय आदर्श भी प्रस्तुत कर सकें। मनुष्य का स्वभाव अनुकरणशील है। इन दिनों दुष्प्रवृत्तियां और दुर्भावनाएं भी एक से दूसरे ने सीखी हैं। तब यह भी असम्भव नहीं कि अग्रगामी व्रतशील जब सत्प्रयोजनों के लिए अपना आदर्श प्रस्तुत करें तो उसका अनुकरण दूसरे लोग न करें। जब दुर्बुद्धि की छूट एक से दूसरे को लगी है तो कोई कारण नहीं कि शक्तिशाली सदाशयता का प्रभाव एक दूसरे पर न पड़े। जब कुछ ही दिनों में ईसाई धर्म और साम्यवादी सिद्धान्तों ने अधिकांश जनसमुदाय को अपने अंचल में समेट लिया तो यह नितांत असम्भव नहीं कि उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र और सौम्य व्यवहार का प्रभाव एक दूसरे पर न पड़े और आज की अवांछनीय परिस्थितियां बदली हुई मनःस्थिति के आधार पर उलट न सकें।
यह है जन सम्पर्क प्रक्रिया जिसे प्राचीन काल के धर्म परायण व्यक्ति ‘‘अलख जगाना’’ या आलोक वितरण कहते थे। कोई कारण नहीं कि एक समय जो सम्भव हो सका वह उन्हीं प्रयत्नों के आधार पर दूसरी बार सम्भव न हो सके। चिर काल तक सतयुगी वातावरण इसी धरती पर रहा है तो कोई कारण नहीं कि उसकी वापिसी न हो सके। सूर्य अस्त होने के बाद जब दूसरे दिन फिर अरुणोदय के रूप में प्रकट हो सकता है तो सतयुग के अभिनव प्रज्ञा युग के रूप में पुनरावर्तन हो सकने में शंका क्यों अभिव्यक्त की जाए?
ब्रह्म-पारायण वर्ग सदा से धर्म-धारणा और भाव-संवेदना का संरक्षक रहा है तो कोई कारण नहीं कि नव युग के सृजन शिल्पी उस परम्परा को पुनर्जीवित करके और स्वार्थ को ठुकरा कर विश्व मानव की हित साधना के लिए लोभ, मोह और अहंकार का परित्याग करके, राष्ट्र को जीवित और जागृत रख सकने वाले पुरोहितों के रूप में नये सिरे से प्रकट न हो सकें। दूब मरती नहीं। गर्मी में सूख जाती है किन्तु पहली वर्षा होते ही वह इतनी तेजी से उठती है कि धरातल पर मखमली फर्श बिछा देती है। क्षुद्र संकीर्णता से ऊंचे उठने वाली आत्माओं का बीज नाश नहीं हुआ है। युग चेतना की पावस आते ही वे लोक प्रचलन का काया कल्प कर सकेंगी। योजना ऐसी ही बनी है कि 80 करोड़ भारतवासी देवमानवों का लोक मानस बदल सकें और उनके पराक्रम से संसार भर का वातावरण बदल सके। प्राचीन काल में भारत के देव मानवों ने संसार भर को अजस्र अनुदान दिये हैं। अब वह परम्परा पुनर्जीवित न हो सके ऐसा कोई कारण नहीं। पिछले दिनों छोटे से प्रयत्नों से 74 देशों में युग परिवर्तन की हवा फैल सकी तो अगले दिनों उस दिशा में सशक्त प्रयत्न किये जाने पर समस्त संसार को उस लपेट में न लिया जा सके, इसका कोई कारण नहीं।
पिछले दिनों जन-जागरण के लिए, लोक मानस परिष्कार के लिए जो सामान्य प्रयत्न हुए हैं, उनने आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम उत्पन्न किये हैं तो कोई कारण नहीं कि अगले दिनों ऐसा न हो सके जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।
गत वर्षों की योजना यह रही है कि 30 जीप गाड़ियों के माध्यम से 2400 प्रज्ञापीठ और 24 हजार प्रज्ञा संस्थानों में प्रज्ञा आयोजन होते रहे हैं। जीपों में संगीत मण्डलियां जाती रही हैं और प्रज्ञा पुराण की कथाओं के संदर्भ देते हुए प्रवचन होते रहे हैं।
अब अगले दिनों योजना यह है कि गाड़ियों की संख्या 100 कर दी जायेगी। जहां पहले आयोजन हो चुके हैं वे बार-बार अपने यहां की जनता तक ही सीमित न रहें वरन् यह उत्तरदायित्व उठावें कि समीपवर्ती कम से कम दो गांवों में अपने जैसे प्रज्ञा योजनों की व्यवस्था करें। यह कार्य उनसे कह देने भर से न हो सकेगा वरन् स्वयं पूरे समय उन सम्मेलनों में साथ रह कर आदि से अन्त तक की व्यवस्था बनानी होगी। आयोजनों में अनेक प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ती है। दो रात्रियों में जन सभायें होती हैं। एक दिन स्थानीय लोगों के साथ सम्पर्क में लगता है। एक दिन आने जाने में लग जाता है। आगे से यह व्यवस्था भी चलेगी कि रास्ते में पड़ने वाले सभी गांवों में जीप मंडली के लोग आदर्श वाक्य भी दीवारों पर लिखते चलेंगे जिससे उधर से निकलने वालों को युग चेतना की विचारधारा से अवगत होने का अवसर मिले और यह प्रतीत हो कि इस क्षेत्र में युग परिवर्तन की हवा गुजरी है। यह प्रक्रिया लगभग गत वर्षों के कार्यक्रमों से मिलती जुलती है। अन्तर इतना ही है कि हर वर्ष एक ही गांव या क्षेत्र में कार्यक्रम होने की अपेक्षा उस प्रकाश को अब नये गांवों में पहुंचाना होगा।
गत वर्षों में मात्र संगीत गायन, लाउड-स्पीकर, टेप रिकॉर्डर आदि का ही प्रबन्ध था। कहीं-कहीं वीडियो कैसेट्स भी भेजे गये थे। अगले वर्षों में यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हमारे प्रकाशचित्र एवं विशेष संदेश प्रवचन भी जीपों के साथ रहें। कहीं-कहीं बिजली नहीं होती ऐसी दशा में गाड़ी के साथ अपना जनरेटर भी भेजा जायगा ताकि बिजली के अभाव में कार्यक्रम ही रद्द न करना पड़े।
पिछले कार्यक्रमों में यह विशेषता रही है कि प्रज्ञापीठों और प्रज्ञा संस्थानों ने हरिद्वार के भारी खर्च को देखते हुए जीप खर्च के अतिरिक्त भी कुछ आर्थिक सहायता दी है। अब की बार चूंकि अधिकांश नयी जगह होंगी, उन्हें मिशन का विशेष परिचय भी नहीं होगा। इसलिए असली खर्चे से भी कहीं कम 200 ही लिया जाएगा। कहीं से अधिक मिले तो बात दूसरी है।
जीपें अभी 30 हैं। नई योजना के हिसाब से यह 100 करनी पड़ेंगी। इसके लिए अर्थ प्रबन्ध की जरूरत पड़ेगी पर आशा की गयी है कि जिस भगवान ने राई को पर्वत बना दिया है वे किसी न किसी प्रकार इस व्यवस्था को भी पूरी करेंगे। इस लेख से तो उन सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए जिनके यहां गत वर्षों में कोई आयोजन हो चुका है। वे अपना दायित्व समझें कि दो नये स्थानों पर उन्हें आयोजन कराने हैं और अनजानों को जानकारी देने के लिए दोनों आयोजनों में आदि से अन्त तक साथ रहते हुए यह मानना है कि यह आयोजन किन्हीं अन्यों द्वारा आमन्त्रित किया हुआ नहीं है वरन् उन्हीं के द्वारा सम्पन्न किया जा रहा है। इसलिए उसकी सफलता-असफलता भी उन्हीं की मानी जायेगी।
अगले वर्ष के लिए दूसरा कार्यक्रम है तीर्थों का जीर्णोद्धार। भारत में तीर्थ यात्रा का सबसे अधिक पुण्य फल माना गया है। धर्म प्रचारक अपने-अपने क्षेत्रों में धर्म प्रचार की पद यात्रा करते थे। उस क्षेत्र में बने हुए देवालयों-धर्मशालाओं में प्रचार करते थे और स्थानीय जनता में धर्म प्रवचन भी करते थे। इसलिए अधिकांश गांवों में देवालय बने हुए थे चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों। वे भी क्षेत्रीय तीर्थ माने जा सकते हैं। आज तो जहां भव्य मन्दिर हैं, रेल या बस की सुविधा है वहीं तीर्थ रह गये हैं। लोग प्रतिमा झांकते, जलाशय में डुबकी लगाते और चिन्ह पूजा करके घुड़दौड़ की तरह यहां-वहां भागते रहते हैं। पर प्राचीन काल में ऐसा न था। हर गांव का मन्दिर तक, तीर्थ था। तीर्थाटन करने वाले छोटे प्रवासों की परिक्रमा करके वहां ठहरते, आयोजन करते और आगे बढ़ते थे। अब वह न तीर्थ यात्रा रही और न मन्दिरों का गौरवशाली स्वरूप। उद्देश्य भूलने और चिन्ह पूजा निबाहने से मन्दिर के ध्वंसावशेष तो ढेरों बन गए हैं, पर लगता है मानो इनमें से प्राण निकल गये हों। उद्देश्य पूर्ति के लिए कोई अर्थव्यवस्था होती नहीं। जो चढ़ावा आता है, वह पुजारी की जेब में चला जाता है। जिनके साथ कुछ स्थाई आजीविका लगी हुई है उनका तो दिया-बत्ती जल जाता है अथवा वर्षों बुहारी नहीं लगती। चमगादड़, अबाबील घोंसले बना लेती हैं। प्रतिमाओं पर कबूतर बीट करते रहते हैं। दीवारों में दरार पड़ती जाती हैं। फर्श उखड़ते टूटते-फूटते समाप्त हो जाते हैं।
गणना के आधार पर जाना गया है कि ऐसे दुर्दशाग्रस्त मन्दिरों की संख्या 1 लाख के लगभग है। इसमें आने-जाने वालों की संख्या भी नहीं के बराबर होती है। उन्हें कोई संभालते ही नहीं तो ऐसी स्थिति होना स्वाभाविक है। यह हिन्दू धर्म पर एक कलंक है। मन्दिर अपने नाम के लिए, देवता को प्रसन्न करके उसकी जेब काट लेने के लिए नये तो बनते जाते हैं पर यह नहीं देखते कि पुराने का जीर्णोद्धार तक न होने से समूचे समाज की विशेषतया देव भक्ति का कितना भारी उपहास या अपमान हो रहा है।
संसार में गिरजे, मस्जिद, गुरुद्वारे अनेकों हैं, पर जिनने उन्हें बनाया है वे तथा उन धर्मों के अनुयायी उनकी समुचित देखभाल करते हैं जिससे उस धर्म स्थान की उपेक्षा अवज्ञा न होने पावे। पर अपने देश में काने, कुबड़े, लंगड़े-लूले मन्दिर बनाने का तो शौक चर्राता है पर उनकी भावी देख-भाल का दायित्व संभालने का किसी को ज्ञान नहीं है।
नई योजना के अनुसार ऐसे देवालयों के जीर्णोद्धार की व्यवस्था करना है जो गांव के समीप हैं और जिनका कुछ सदुपयोग हो सकता है। समर्थ गुरु रामदास ने जितने ही 700 के करीब महावीर मन्दिर बनवाये थे, उन सबके साथ व्यायामशाला और पाठशाला, सत्संग क्रम का प्रबन्ध किया था। वे सभी सोद्देश्य थे। उनका निर्माण ऐसे स्थानों पर हुआ था जहां लोग आसानी से पहुंच सकें, कथा सुन सकें, बच्चों को पढ़ा सकें और व्यायामशाला चला सकें। फलतः वे कम लागत के होने के कारण दीर्घजीवी तो न हो सके; पर जब तक वे रहे तब तक उनकी उपयोगिता बराबर बनी रही।
महामना मानवीय जी का विनिर्मित एक श्लोक है—
‘‘ग्रामे-ग्रामे सभा कार्या, ग्रामे-ग्रामे कथा शुभा ।
पाठशाला, मल्लशाला, प्रतिपर्व महोत्सवा ।। ’’
इस श्लोक में उन्होंने रामदास की व्यायामशाला, पाठशाला, कथा प्रवचन की बात को यथावत् रखते हुए सभी संगठन एवं पर्वोत्सवों को जोड़ दिया है। अपनी योजना कुछ इसी प्रकार की है। हम चाहते हैं मालिकी एक की नहीं हो वरन् मन्दिरों के ट्रस्ट बनें। साथ ही हिन्दू धर्म में इतने पर्व और संस्कार होते हैं, उनके लिए भी वहां जाया जाए ताकि सबका अपनापन उनके साथ जुड़ा रहे और साथ ही श्रमदान और धनदान से उनकी मरम्मत-शोभा-सज्जा भी होती रहे; किन्तु अपना समाज भी विलक्षण है। शौक चर्रायेगा तो सभी अपना-अपना मन्दिर खड़ा कर देंगे और जब उपेक्षा होगी तो उनकी ओर कोई मुंह भी नहीं करेगा।
इस स्थिति को बदलने का मिशन का मन है। जो मन्दिर उपयोगी हैं, गांव के समीप है, जिनमें देवता की कालकोठरी के अतिरिक्त कोई सार्वजनिक कार्यक्रम चलाने की भी गुंजाइश है, उनकी मरम्मत कराने के लिए समस्त ग्रामवासियों को संगठित किया जाय। घरों में मुट्ठी फंड के घड़े रखवाये जायं अथवा जो सम्पन्न हैं उन्हें समझाया जाय कि नया मन्दिर बनाने की अपेक्षा शास्त्रकारों ने पुरानों का जीर्णोद्धार करने का पुण्य सौ गुना अधिक बताया है। अपने इतने मन्दिर हैं कि यदि इन्हें उपयोगी बनाने का क्रम चल पड़े तो अनेकों धर्म स्थान उसी उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं, जिनके लिए कि पूर्वजों ने उनका निर्माण किया था। इस प्रकार देवता, हिन्दू धर्म और उसके अनुयायियों को कलंक से बचने का अवसर मिलेगा। साथ ही उन्हें निरर्थक पड़े न रहने देकर ऐसा उपयोग भी होने लगेगा, जिससे नवजीवन के चिन्ह प्रकट हों, और उपहास के स्थान पर उपयोग का क्रम चल पड़े।
दूसरा कार्यक्रम इसी उद्देश्य के लिए है। सात लाख गांव और उनके 20 लाख नगले-मजरों में से अधिकांश को तीर्थ के रूप में परिणित किया जाय। जिस देश का कभी प्रत्येक देवालय तीर्थ था, उनकी परिक्रमाओं के अपने-अपने क्षेत्र थे। उन परिक्रमाओं के आधार पर एक स्थान के लोग दूसरे स्थानों से सम्पर्क साधते थे। धर्म-चर्चा करते थे और जहां जो त्रुटि दिखायी पड़ती थी वहां उसे दूर करने की व्यवस्था बनाते थे। अब फिर वही क्रम चलना चाहिए। भव्य नगरों में बड़ी-बड़ी इमारतों वाले तीर्थों को ही नहीं, छोटे-छोटे क्षेत्रों के देवालयों को भी तीर्थ माना जाए और उनके मार्ग में पड़ने वाले तथा ग्रामों को धर्म प्रचार का एक प्रभाव क्षेत्र माना जाय। उनमें से जो केन्द्रीय स्थान हो, जहां जलाशय की अच्छी व्यवस्था हो, वहां धार्मिक मेले भरने, सभा-समारोह होने के भी ऐसे दिन निर्धारित किये जाएं जो एक दूसरे से टकरायें नहीं। अलग-अलग महीनों या तिथियों में अलग-अलग मेले हों और उनका उद्देश्य मात्र मनोरंजन न होकर धर्म-सम्मेलन हो तो उस क्षेत्र से अन्ध परम्पराओं और रूढ़ियों का उन्मूलन हो सकता है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए उत्साह जग सकता है। सामूहिक विवाह शादियों के संस्कारों के आयोजन भी हो सकते हैं। पर्वों को मनाने की प्रथा जो सिमट कर घर में देवता के नाम पर पकवान बनाने-खाने तक सीमित रह गयी है। उसके पीछे छिपे हुए उद्देश्यों को जानने एवं क्रियान्वित करने का अवसर मिल सकता है।
कभी इस देश में दस हजार तीर्थ और एक हजार सरिताएं थीं, जिनके अपने-अपने महात्म्य थे। जिन सरिताओं को पवित्र माना जाता था, उन्हें लोग शुद्ध करते थे, गहरा करते थे और उनसे प्रभावित क्षेत्र में कृषि, शाक उत्पादन आदि की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाते थे; बांध बांधते और नहरें निकालते थे; पर अब तो वे नदियां- नाला मात्र रह गई हैं। न उनके प्रति देव भावना की श्रद्धा रही, और न उनके किनारे मेलों का, धर्म-सम्मेलनों का जो प्रचलन था, वह अब शेष रहा।
देवसंस्कृति के पुनर्जागरण की योजना को कार्यान्वित करने के लिए समीपवर्ती क्षेत्रों के प्रतिभाशाली लोगों को आमन्त्रित करके ऐसी योजनाएं बन सकती हैं। क्षेत्रीय जलाशयों को गहरा एवं शुद्ध बनाने की बात सोची जा सकती है। इसके लिए अपने प्रज्ञा आयोजनों का अवसर समीपवर्ती लोगों को बुलाकर उपयोगी विचार-विनिमय करने की दृष्टि से बड़ा कारगर सिद्ध हो सकता है।
‘‘तीर्थ यात्रा’’ शब्द के साथ अभी भी बड़ी श्रद्धा जुड़ी हुई है; पर वे देश भर में फैले हुए न रहकर बड़े-बड़े शहरों तक सीमित रह गये हैं। वहां कोई सत्प्रवृत्तियां नहीं चलती, न लोकोपयोगी कार्य होते हैं। यहां तक की कहीं एक स्थान पर जन-जीवन तथा सामाजिक विकृतियों के सम्बन्ध में विचार नहीं होते। देवपूजा के नाम पर कुछ लोग धन्धा भर चला लेते हैं; पर तीर्थों में कोई साधना सत्र, धार्मिक समारोह, सामयिक समस्याओं के समाधानों के सम्बन्ध में कोई निर्धारण नहीं होते। बसों और रेलगाड़ियों को पर्यटकों की सवारियां भरने जैसी आर्थिक सुविधा भले ही मिल जाती हो। इसके स्थान पर भार-वाहन का स्थान साइकिल से लेकर समीपवर्ती क्षेत्रों की प्रायः एक-एक सप्ताह की धर्म-यात्राएं बनायी जाएं तो उनकी लपेट में देश का हर कोना आ सकता है और अपने देहात में बसे अशिक्षित तथा पिछड़े हुए देश में एक सामाजिक क्रान्ति हो सकती है।
इसका सूत्र संचालन अन्य किसी को असम्भव या कठिन प्रतीत हो सकता है; पर प्रज्ञा-परिवार के लिए यह सब तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए, क्योंकि परिजनों में धार्मिक विचारधारा एवं समाज-सुधार की भावना पहले से ही मनों में कूट-कूट कर भरी गयी है।
तीर्थ यात्रा की शास्त्रकारों और आप्तजनों ने जो महिमा गायी है वह मिथ्या नहीं है। अन्तर केवल इतना भर है कि जिस आधार पर उसकी उपयोगिता और गरिमा थी, वह एक प्रकार से समाप्त हो गयी। लोकोपयोगी जिन क्रियाकृत्यों के साथ उनके अविच्छिन्न सम्बन्ध थे वे समाप्त हो गए और उनके स्थान पर भीड़ की धकापेल ने जेबकतरों की कारगुजारी को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने का अवसर दिया। अब वे पर्यटन केन्द्र मात्र रह गए हैं और उस प्रयोजन को सफाचट कर रहे हैं, जिसमें साधना, श्रद्धा, आत्मशोधन, लोकहित आदि का समावेश था।
जिस मार्ग पर तीर्थों की दिशाधारा चल रही है यदि वही चलती रही तो लोग पिकनिक उपयुक्त स्थानों में ही पसंद करेंगे। जहां तीर्थों की गरिमा और पिकनिक की सुविधा दोनों न हो वहां जा कर लोग करेंगे क्या? यही कारण है कि तीर्थों में जिन धार्मिक मेलों में भारी भीड़ रहती थी अब वहां आधी चौथाई मात्रा में अंधविश्वासी भर पहुंचते हैं।
यह स्थिति दयनीय है। हमें इसे उबारना चाहिए और संस्कृति पुनर्जीवन की इस बेला में वह सुधार करना चाहिए जो आवश्यक है। इस दिशा में प्रज्ञा अभियान ने कदम उठाए। जीप टोलियां इस दृष्टि से सही कदम कहा जा सकता है। प्राचीन काल में भी तीर्थ यात्री टोली बना कर जाते थे, और अपने साथ ले जाने के लिए बैलगाड़ी रखते थे ताकि सामान के अतिरिक्त किसी अस्वस्थ साथी को भी बिठाया जा सके। आज की परिस्थितियों में पुरानी जीपगाड़ी बैलगाड़ी से सस्ती पड़ती है। दो बैल दिन भर में जितना चारा खाते हैं प्रायः उतना ही जीप में तेल जलता है। फिर इन दिनों जो सामान ले जाया जा रहा है उसमें संगीत साधन, लाउडस्पीकर, बिस्तर, जनरेटर, स्टेज आदि वस्तुएं उससे कहीं अधिक भारी हो जाती हैं जितनी कि बैलगाड़ी वहन करती है। फिर उसमें कार्यकर्ताओं के बैठ जाने की सुविधा भी होती है और ज्यादा दूरी तक भी द्रुतगामी गति से जाया जा सकता है। ऐसे अनेक कारणों का पर्यवेक्षण करने के उपरांत पुरानी मोटरें ही मरम्मत कराने के उपरांत काम में लाए जाने की बात अधिक सुविधाजनक पाई गई है। अस्तु समग्र योजना को पूरी करने के लिए जीपों एवं कारों की संख्या बढ़ा देने का ही निश्चय किया गया है।
उनमें जाने वाले यात्री मात्र धर्म प्रचारक होंगे। उन्हें दुहरा पुण्य मिलेगा। एक तो वक्ता, गायक, बनने का अवसर मिलेगा एवं मोटरों के सम्बन्ध में इतना ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे कि थोड़े और अभ्यास कर लेने के उपरान्त वे ड्राइवर बन सकें। दूसरे वे सच्ची तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त करेंगे जो अनेकों अनुष्ठानों से बढ़कर है।
इन तीर्थ यात्रियों को तीन महीने के लिए बाहर भेजा जायगा। एक महीना ट्रेनिंग दी जायेगी। इस प्रकार घर से बाहर चार महीने ही रहना पड़ेगा। इस अवधि में वे प्रायः 100 सभाओं में उद्बोधन कर सकेंगे। रास्ते में पड़ने वाली प्रायः 100 सरिताओं का स्नान एवं मार्जन कर सकेंगे। टूटे-फूटे मन्दिरों की सफाई करने के अतिरिक्त उनके जीर्णोद्धार की योजना का श्रमदान भी कर सकेंगे।
जिन स्थानों पर प्रज्ञा आयोजन होंगे वहां ‘प्रज्ञा प्रशिक्षण’ पाठशाला की स्थापना का उद्घाटन भी करना होगा। एक सम्मेलन पीछे एक समय का यज्ञ भी होगा। इस प्रकार उन्हें 100 यज्ञों के संचालन का अवसर भी मिलेगा।
जीपें जिस रास्ते से जायेंगी वहां दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने का भी अवसर मिलेगा। नये क्षेत्रों की स्थिति और संस्कृति को देखने समझने का अवसर मिलने से इसे ‘देश-दर्शन’ के रूप में भी समझा जायेगा। जिसे हम मातृभूमि ‘‘स्वर्गादपि गरियसी’’ कहते हैं उसका वास्तविक स्वरूप देखने का अवसर मिले तो इसे क्या कम महत्व का काम समझा जा सकता है। कविन्द्र रविन्द्र ने बैलगाड़ी में देश की यात्रा की थी। गान्धी जी ने आन्दोलन शुरू करने से पूर्व मातृभूमि का प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक समझा था। यह प्रयास प्रतिमा दर्शन की अपेक्षा कहीं अधिक सार्थक है।
इसके लिए प्रतिभावान प्रज्ञा परिजनों को ही चुना जायेगा। बूढ़े, बीमार, अशक्त अशिक्षित उपरोक्त कामों में से एक भी नहीं कर सकेंगे। इसलिए उन अर्धमृतकों को गाड़ी में लाद ले जाने जैसा कोई इरादा नहीं है। उपरोक्त कार्यों के स्वरूप और श्रम का लेखा-जोखा लिया जाय तो वह इतना भारी हो जाता है, कि एक हट्टा कट्टा मजदूर ही उन सब कामों को करने में समर्थ हो सकता है। फिर संगीत, प्रवचन और मशीनों की टूट-फूट को संभालते चलने लायक गिरह की अक्ल भी तो चाहिए।
इसलिए इन पंक्तियों द्वारा इस भ्रम को निकाल दिया है कि सैर सपाटा करने हेतु बूढ़े-दुर्बल अशक्त इस तीर्थ यात्रा में नहीं जायेंगे। तीर्थ-यात्रियों को प्रायः 12 घण्टे कड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। इस अवधि में भोजन व्यय को जेब से तो नहीं खर्च करना पड़ेगा पर प्रतिभा में दस गुनी वृद्धि हो जाने के अतिरिक्त परोक्ष लाभ वास्तविक तीर्थ यात्रा का ही मिल सकेगा। इसे एक योगाभ्यास, तप-साधना एवं पुण्य-परमार्थ स्तर का ही समझा जा सकता है। जिन्हें अपने समय के बदले इतना ही पर्याप्त लगता हो, उन्हीं के लिए यह आमंत्रण लिखा जा रहा है। गाड़ी में जगह भी उतनी है कि उसमें 4-5 कार्यकर्ता मुश्किल से बैठ सकेंगे। शेष में तो आवश्यक सामान ही भरा रहेगा। इसलिए किसी को भी यह नहीं सोचना चाहिए कि तीर्थ यात्रा का नाम सुन कर अपनी दादी-नानी को भी साथ चलने के लिए कह दें। उन्हें तत्काल बैरंग वापिस लौटना पड़ेगा। यह तीर्थ यात्रा बलिष्ठ, शिक्षित, कर्मठ, और गीत आदि में थोड़ी गति रखने वालों के काम की है।
रास्ते भर तो दीवार लिखने टूटे-फूटे मन्दिरों को साफ करने का काम तो है ही, रात को भी संगीत, प्रवचन आदि के काम में जुटे रहने के कारण रात को भी देर से ही सोने को मिलेगा। जहां-तहां जैसा तैसा भोजन मिलने पर भी जो संतोष कर सकें और पचा सकें, ऐसे ही लोगों को इस उपक्रम में लिया गया है।
जन-जन को जो संदेश सुनाना है उसमें नैतिक, क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति का कार्य शेष पड़ा है। स्वराज्य मिल जाने से अभी केवल राजनैतिक स्वतन्त्रता उपलब्ध हुई है। हमारे दैनिक जीवन में जो नैतिकता की दृष्टि होनी चाहिए, मान्यताओं को विवेचन की कसौटी पर जिस तरह कसा जाना चाहिए, समाज में जैसा न्यायपूर्ण प्रचलन होना चाहिए, वह अभी नहीं बन पाया है। जब तक यह सब सम्भव न हो तब तक समझना चाहिए कि अपूर्णता का एक बड़ा भाग बाकी है। संघर्ष की लड़ाई पिछली पीढ़ी लड़ी है। सृजन के लिए प्राणपण से संघर्ष हमें करना है। सरकारी उत्तरदायित्व यों गरीबी भगाने का है पर वह कार्य भी जन सहयोग के बिना सम्भव नहीं। कठोर श्रम और अपव्यय की रोकथाम के बिना न आर्थिक समस्याएं हल हो सकती हैं और न गरीबी भगाओ का उद्देश्य पूरा हो सकेगा। एक क्रान्ति और भी बाकी है वह है स्वच्छता क्रान्ति। शरीर, वस्त्र, घर, गांव और अन्ततोगत्वा मन की सफाई का आन्दोलन भी ऐसा है जिसके बिना हम न अपने को सभ्य कह सकते हैं, न सुसंस्कृत।
गांव-गांव प्रज्ञा अभियान के जो छोटे बड़े आन्दोलन चल रहे होंगे वे और भी द्रुतगति से चलेंगे। उनके साथ उपरोक्त पांचों क्रान्तियों की पृष्ठभूमि भी बनानी है। विशेषतया कुछ स्थापनाएं ऐसी हैं जिन्हें भले ही छोटे रूप में किया जाय पर प्रारम्भ इन्हीं दिनों करना है।
सरकारी शिक्षा तन्त्र अधूरा है। उनके द्वारा बच्चों को शिक्षा का क्रम पूरा नहीं हो पा रहा है फिर 70 प्रतिशत अशिक्षितों को साक्षर किस प्रकार बना पावेंगे? बच्चे तो बड़े होने पर अपने दायित्व सम्भालेंगे किन्तु आज की समस्याएं तो प्रौढ़ों को ही सुलझानी हैं। स्पष्ट है कि गरीबी तब तक दूर नहीं हो सकती जब तक कि सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन न होने लगे। यह कार्य शिक्षा का है कि हम लोगों को समझाएं कि ‘‘खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं।’’ नशेबाजी, मुकदमेबाजी जैसे दुर्व्यसनों के रहते हम प्रगति पथ पर दूर तक नहीं चल सकते। व्यक्तिगत गरीबी मिटाने का प्रश्न होता तब तो वह बेईमानी, बदमाशी से भी हल किया जा सकता था। यदि समूचे समाज को समुन्नत बनाना हो तो उसके लिए सहकारिता को ही प्रश्रय देना होगा। सब हाथों को काम मिलने की पृष्ठ भूमि सहकारी कुटीरोद्योगों से ही सम्भव है। यह हमारे समाज की ज्वलन्त समस्याएं हैं इन्हें मात्र समझाने-बुझाने भर से ही हल नहीं किया जा सकता। ये रचनात्मक कार्यों द्वारा ही हल हो सकती हैं और उसके लिए नए सिरे से ‘‘सर्वोदय’’ स्तर के आन्दोलन को खड़ा ही नहीं सफल भी करना पड़ेगा। इन सभी कार्यों को लेकर प्रज्ञा अभियान का जन आन्दोलन चलेगा और उसे संकल्प पूर्वक पूरा करके रहेगा। इसके लिए ऐसे प्रचारक चाहिए जो वक्ता गायक ही नहीं उपरोक्त रचनात्मक कार्यक्रम की भी गांव-गांव स्थापना करें। साथ ही उस स्थापना में खाद, पानी, निराई गुड़ाई, रख-रखाव का दायित्व भी अपने कंधों पर संभालें। जनता के साथ प्राण पण की एकता स्थापित करें और कदम से कदम, कंधे से कंधा मिला कर चलने का सुयोग्य बना कर पीछे रहें। अपने प्रचार अभियान के साथ संस्थापन और सृजन भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।
बुद्ध की धर्म चक्र प्रवर्तन महाक्रांति ने समूचे देश, महाद्वीप को ही नहीं, संसार भर को हिला दिया था। प्रज्ञा अभियान का लक्ष्य भी लगभग ऐसा ही है। मात्र हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक सीमित न रहकर उसे देश की 17 मान्यता प्राप्त भाषाओं में और विश्व की अन्य भाषाओं में भी अपना प्रचार कार्य-क्रम व्यापक करना होगा। इसके लिए बड़ी संख्या में प्रचारक और सृजन शिल्पी चाहिए।
नालन्दा विश्व विद्यालय में 30 हजार छात्र पढ़ते थे। तक्षशिला के छात्रों समेत वे एक लाख हो गये थे। अपना लक्ष्य भी वैसा ही है। काम तो अधिकांश को अपने-अपने क्षेत्र में ही करना पड़ेगा। पर बाहर जाने और अछूते स्थानों को झकझोरने का कार्य भी प्रज्ञापुत्रों को ही करना है। उनकी संख्या एक लाख तक पहुंचा देने का निश्चय किया गया है। इन्हें एक महीने ट्रेनिंग और तीन महीने जीप प्रचार में भेजने के बाद ही यह समझा जा सकेगा कि उन्हें क्रियात्मक अनुभव उपलब्ध हो गया और समीपवर्ती क्षेत्र में आलोक वितरण का कार्य भविष्य में भी वे अपने निकटवर्ती क्षेत्र में करते रह सकेंगे। जो इनमें से विशेष प्रतिभावान होंगे उन्हें अधिक समय बाहर रहने के लिए भी आग्रह किया जा सकता है।
इन पंक्तियों द्वारा प्रज्ञा परिजनों में से प्राणवानों का आह्वान किया गया है। उन्हें न्यूनतम एक वर्ष के लिए शान्तिकुंज आने और ब्राह्मणोचित औसत नागरिक वृत्ति से निर्वाह करने के लिए तैयार रहना चाहिए। गांधी जी के स्वतंत्रता आन्दोलन में लाखों ने वर्षों की जेल काटी, बुद्ध के आन्दोलन में लाखों ने धर्मचक्र प्रवर्तन के कार्य में आजीवन लगे रहने का व्रत लिया व निभाया था। बिनोवा के सर्वोदय आन्दोलन में बड़ी संख्या में लोक सेवी लगे और खप गये। ईसाई पादरी जो आजीवन अपने व्रत का निर्वाह करते हैं, लाखों की संख्या में हैं। फिर कोई कारण नहीं कि धर्म प्राण कहे जाने वाले अपने देश में से मात्र एक लाख ऐसे न मिल सकें जो एक वर्ष शान्तिकुंज के प्रशिक्षण एवं तीर्थ यात्रा प्रवास हेतु न निकल सकें। इनके निर्वाह की, भोजन वस्त्र की व्यवस्था मिशन की ओर से की जायगी। उन्हें घर से कुछ मंगाना न पड़ेगा। इस श्रम साधना में वे जहां देश की सामयिक महती आवश्यकता को पूर्ण करेंगे वहां अपनी योग्यता और प्रतिभा को भी कई गुनी निखार लेंगे। जिन अनुशासनों के अंतर्गत उन्हें सेवा कार्यों में निरत रहना पड़ेगा उन्हें ध्यान-धारणा और जप-तप से किसी भी प्रकार कम नहीं माना जाना चाहिए। वे जैसा व्यक्तित्व लेकर यहां आवेंगे उससे कहीं अधिक उज्ज्वल और प्रखर प्रतिभा लेकर लौटेंगे।
तीर्थ यात्रा प्रचार प्रवास के समतुल्य ही दूसरा काम है प्रज्ञा पाठ शालाओं का संचालन। जहां कहीं भी प्रज्ञापीठ हैं, प्रज्ञा संस्थान हैं, समर्थ शाखाएं हैं, वहां सभी जगह तीन-तीन महीने की प्रज्ञा पाठशालाएं खोली जा रही हैं। उनमें प्रशिक्षण करने के लिए भी बहुत बड़ी संख्या में अध्यापकों की आवश्यकता होगी। उस कार्य का महत्व प्रज्ञा प्रवास से किसी प्रकार कम नहीं, वरन् बढ़कर ही है। प्रज्ञा प्रवास में तो एक दिन और दो रातों ही एक स्थान पर ही ठहरने को मिलेगा किन्तु प्रशिक्षण शालाओं में तो तीन महीने एक ही स्थान पर रहना पड़ेगा।
इन पाठशालाओं में बड़े महत्वपूर्ण काम होंगे।:-
(1) बाल संस्कार शाला स्कूली छात्रों को उनके बचे हुए समय में शिष्टता, स्वाध्याय, अनुशासन एवं नैतिक नागरिकता की शिक्षा देना।(2) पुरुषों की रात्रि पाठशालाएं चलाना।(3) युवकों की व्यायाम शालाएं चलाना।(4) प्रज्ञा पुराण की कथाओं से पूरे तीन महीने का एक कथा अनुष्ठान पूरा करना।(5) सुगम संगीत की शिक्षा देना।(6) गायत्री यज्ञ प्रक्रिया प्रशिक्षण। यह हर कार्य ऐसे हैं, जिन्हें सृजन शिल्पी स्वयं भी करेंगे और साथ ही स्थानीय लोगों में से जो प्रतिभावान दिखेंगे
उन्हें सहयोगी के रूप में लेकर विद्यालय को इस योग्य बनावेंगे कि उसकी प्रक्रिया आगे भी चलती रहे।
तीन महीने के शिक्षार्थियों में से अधिकांश को इस योग्य बनाना है जिनमें से अधिकांश शान्तिकुंज आकर रहने वालों की तरह इस योग्य हो जायं कि छोटे शान्तिकुंज की तरह अपने गांव में नव-निर्माण का वातावरण बना सकें। साथ ही अपने सम्पर्क क्षेत्र में आलोक वितरण का कार्य इस प्रकार चलाते रहें कि लाल मशाल बुझने न पाए।
पूर्व घोषणा के अनुसार सभी प्रज्ञा संस्थानों में एक वर्ष के लिए प्रज्ञा प्रशिक्षण चलाने का अनुरोध प्रकाशित किया गया था कि पाठशालाएं न्यूनतम एक वर्ष चलें और उनमें पढ़ने वालों की एक वर्ष बाद परीक्षा हो एवं उत्तीर्णों को प्रमाण-पत्र दिए जायं, किन्तु अब स्थिति बदलने के कारण परिवर्तन करना पड़ा है। आवेदन पत्र इतने अधिक आए हैं कि उन सबके लिए न तो शान्तिकुंज में स्थान है, न गाड़ियां, न शिक्षण व्यवस्था। इसलिए कोई और उपाय न देखकर वह एक वर्ष का समय घटाकर तीन महीने कर दिया गया है, ताकि जहां कहीं भी पाठशालाएं चलें, वहां एक वर्ष की अवधि में तीन-तीन महीने के चार सत्र चल सकें और दस-दस छात्र एक बार में पढ़ें तो उनकी संख्या बढ़ कर 40 हो सके। अब स्थानीय पाठशालाएं तीन महीने ही चला करेंगी। 52 पुस्तकें छापी जा रही थीं। वह भी घटा कर 26 कर दी गई हैं। यह 26 पुस्तकें छात्रों को 20 रु. में ही मिलेंगी। हर महीने शुल्क लेने की अपेक्षा यह एक बार में ही ले लिया जायगा और 30 पुस्तकें एक साथ ही दे दी जायेंगी। इसी प्रकार संगीत पाठ्यक्रम भी तीन महीने का ही होगा। उतने समय में पूरे मन से, पूरे समय तक अभ्यास किया जाय तो सभी आवश्यक शिक्षण पूरा किया जा सकता है।
शाखाएं अपने यहां से जो युग शिल्पी एक-एक महीने के लिए भेजती थीं और उनका भोजन व्यय स्वयं उठाती थीं वह कार्य तो पूर्ववत् ज्यों का त्यों चलेगा। एक महीने मो काम चलाऊ इतनी योग्यता हो जाती है कि अपने यहां की स्थानीय पाठशाला को यथावत् चला सकें। किंतु कम समय और कम अनुभव होने के कारण उनकी योग्यता सामान्य स्तर की ही हो पाती है। आठ घण्टा पढ़ने और पढ़ाने पर भी उपरोक्त सात विषयों की योग्यता सीमित ही हो पाती है। इसलिए उस शिक्षण को ‘‘काम चलाऊ’’ ही कहा जाता है। पर जिन्हें अपने को सचमुच प्रवीण बनाना हो, उन्हें एक वर्ष के लिए आना चाहिए ताकि यहां तीन महीने प्रशिक्षण देकर तीन-तीन महीने के लिए अन्यत्र उन्हें प्रज्ञा प्रशिक्षण पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए भेजा जा सके।
जीप गाड़ियों के प्रवास में हर किसी को नहीं भेजा जायगा। जिनकी शारीरिक क्षमता, सूझ बूझ और प्रतिभा बढ़ी चढ़ी होगी, वे ही उस प्रवास तप के लिए छांटे जायेंगे। शेष को देश व्यापी प्रशिक्षण पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए भेज दिया जायगा।
पिछले दिनों ऐसा भी होता रहा है कि अध पगले, अल्पशिक्षित और अनुशासन हीन अपनी स्थिति का पूर्ण विवरण दिए बिना अचानक चले आते रहे हैं और वे किसी काम के न होने के कारण वापिस लौटाने पड़ते थे। इसलिए सभी से कहा गया है कि दोनों ओर के किराये का प्रबन्ध करके ही घर से चलें। ताकि उनका स्तर यहां के कामों के लिए ‘फिट’ न बैठता हो तो उन्हें वापिस जाने में कठिनाई न हो।
कम्बोडिया कुछ दिनों तक बौद्ध देश था। वहां हर सुयोग्य व्यक्ति को एक वर्ष तक बौद्ध विहारों में रहकर शिक्षा, साधना, तथा सेवा करनी पड़ती थी। वही प्रचलन इस देश में भी चलना चाहिए। उपरोक्त प्रयत्नों के लिए उन्हें एक वर्ष का समय लगाना चाहिए, ताकि वे यह सन्तोष भी कर सकें कि हमने एक वर्ष की युग साधना में संलग्न रह कर अपनी प्रतिभा भी निखारी और देश सेवा के भी काम आ गए। इस एक वर्ष को ऐसा ही मानना चाहिए जैसा कि सत्याग्रह आन्दोलन में अनेकों भावनाशील जेल गए थे। इसे एक वर्ष का संन्यास भी माना जा सकता है, जिसे सच्चे मन और परिपूर्ण निष्ठा के साथ समर्पण पूर्वक किया जाना चाहिए और पूरी तरह अनुशासन पालन करना चाहिए। इस स्तर से जो रह सकेंगे उन्हीं को व्रतधारी सृजन शिल्पी माना जा सकेगा। अन्यथा अयोग्यता, अक्षमता और अनुशासन हीनता की दशा में तो उनका घर छोड़ना सर्वथा निरर्थक ओर समाज के लिए भारभूत होगा।
पाठकों को स्मरण होगा पांच वर्ष पूर्व शान्तिकुंज से ‘‘महिला जागृति’’ पत्रिका निकलती थी। उस समय महिला जागृति के उद्देश्य को लेकर शिक्षित और उत्साही महिलाओं ने अपने-अपने यहां महिला शाखाएं बनायी थीं। वे तीसरे प्रहर चलती थीं। उनसे परिवार निर्माण की शिक्षा के लिए कहा गया था। वे 500 के करीब थीं। पर अब मालूम नहीं कि कहां कितना कुछ काम हो रहा होगा। अब नए सिरे से उस कार्य को आरम्भ किया जा रहा है। उत्साही और शिक्षित महिलाओं से कहा जा रहा है कि वे अपना समय निकालें। तीसरे प्रहर दो घण्टे नित्य की पाठशालाएं चलाएं। वे तीन महीने तक अपना शिक्षण अपने स्थान पर चला सकती हैं और जो उत्तीर्ण हो जायें उसके लिए प्रमाणपत्र मंगा सकती हैं।
युग परिवर्तन के इस पूर्व काल में यों किसी न किसी रूप में 24 लाख व्यक्ति देश विदेश में काम कर रहे हैं। उनका कुछ न कुछ कार्य किसी न किसी रूप में चलता ही रहता है। पर इस बार जो समय दान की मांग की गई है, उसमें एक वर्ष का समय देने की बात इसलिए कही गई है कि निज की योग्यता बढ़ाने और सेवा कार्य में संलग्न रहने की तप साधना कठोर अनुशासन के अन्तर्गत करते रहने का अवसर मिले।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में जेल गए सत्याग्रहियों में से अधिकांश को एक वर्ष जेल में रहना पड़ा था। कठोर अनुशासन भी पालना पड़ा था। किन्तु निज की योग्यता बढ़ाने और देश सेवा की तपश्चर्या जैसे उपयोगी कार्य करने का अवसर नहीं मिल पाया था, जो हुक्म होता था वही करना पड़ता था। इस अनुरोध में एक वर्ष का समय तो इसी प्रकार का मांगा गया है किन्तु विशेषता यह है कि समय का एक-एक क्षण इस प्रकार का आनन्द देगा जिससे यह अनुभव होता रहे कि ‘‘सार्थक तप’’ करते हुए आत्मसन्तोष से भरा पूरा यह समय लगाया और ऐसा कुछ पाया जिसकी जीवन भर उत्साह भरे शब्दों में चर्चा अगली पीढ़ियों के सम्मुख की जाती रहे।
प्रज्ञा परिवार के सदस्यों की संख्या अब बहुत बड़ी है। इनमें से अनेकों ऐसे निष्ठा वाले हैं जिनकी आदर्शवादिता के सम्बन्ध में दो राये नहीं हो सकतीं। पर इस बार तो एक विशेष परीक्षा का समय सामने आया है। महाकाल ने एक वर्ष के लिए घर छोड़कर शान्तिकुंज की युग परिवर्तन योजना के लिए बुलाया है। इसे एक प्रकार का आपत्ति काल समझ कर इतना समय निकालने का साहस करना चाहिए। बीमारी, घरेलू उलझन, परीक्षा में फेल होने जैसे कारणों में अनेकों बार एक वर्ष का समय ऐसे ही निरर्थक चला जाता है। समझना चाहिए कि एक महान कार्य के लिए यह एक वर्ष का समय विशेष रूप से दिया गया है।
प्रज्ञा पुत्रों को इस संदर्भ में अपने मन्तव्य इसी मास लिख भेजने चाहिए ताकि उनके लिए कार्यक्रमों का विभाजन किया जा सके और सोचा जा सके कि किन्हें प्रज्ञा प्रशिक्षण के लिए और किन्हें प्रज्ञा प्रवास के लिए तैयारी में कब से जुटाया जाना है।
*समाप्त*