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Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

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जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

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सर्पगंधा औषधि का उदाहरण उपरोक्त तथ्य को और अधिक स्पष्ट करता है । 'शवोल्फिया सर्पेण्टीना' नामक यह औषधि आर्युवेद में चिरपुरातन काल से मानसिक रोगों व रक्त भाराधिक्य में प्रचलित है । इसके 20 एल्केलाइड्स (क्षारभ) रासायनिक प्रक्रिया द्वारा अलग किए जा चुके हैं व उन्हें कृत्रिम निर्माण विधि द्वारा संशोशित भी किया जा चुका है । यदि इसके एक ही एल्केलालाइड 'रिसर्पीन' को रोगी को दिया जाए तो वह रक्तचाप में कमी लाता है व आज रक्तचाप की बहुप्रचलित औषधि भी है । पर इसके दुष्प्रभाव इतने हैं कि कोई गिनती नहीं । मानसिक बेचैनी, तनाव, आत्महत्या की प्रवृत्ति नाक में तीव्र खराश, खून बहना जैसे कई दुष्प्रभाव 80 प्रतिशत से अधिक रोगियों में होते हैं।

यदि वही सर्पगंधा पौधे के रूप में दिया जाए तो उल्टे मानस रोग की अचूक औषधि बन जाता है । उन्माद में विशेष लाभदायक सिद्ध होता है । सर्पगंधा की जड़ जो बहुत कड़वी होती है, यदि बिना वमन किए खाई जा सके तो उसमें रिसर्पीन की मात्रा इतनी अधिक कम पर इतनी सूक्ष्म होगी कि उसके रक्तचाप पर वांछित परिणाम ही मिलेंगे । धीरे-धरी बढ़ा हुआ रक्त भार नियंत्रण में आ जाएगा । वह मात्रा की दृष्टि से रक्त में इतनी नहीं पहुँचेगी कि रोगी अवसाद ग्रस्त हो जाए या आत्महत्या कर ले, जैसा कि रिसर्पीन या सर्पीना दवा को लेने पर होता है ।

प्राकृतिक रूप में प्राप्त पौधों में प्रभावी रसायनों की मात्रा गोली इंजेक्शन आदि की तुलना में कम, पर सूक्ष्म होती है । वह कभी दुष्परिणाम उत्पन्न कर ही नहीं सकती । वह मात्रा सुई की तरह काँटे को दुष्परिणाम उत्पन्न कर ही नहीं सकती । वह मात्रा सुई की तरह काँटे को निकालती है, अन्य ऊतकों को क्षुब्ध नहीं करती । यही कारण है कि अब धीरे-धीरे औषधि रूप में प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जड़ी बूटियों का महत्त्व जन साधारण की समझ में आने लगा है । जीवनी शक्ति संवर्धन एवं रोगों के मूल कारण का निवारण, यह द्विविध प्रक्रिया प्राकृतिक औषधि उपचार से भली भाँति सम्पन्न होती देखी जाती है । ये प्रयोग किस सीमा तक वैज्ञानिक हैं, इसका एक और विलक्षण उदाहरण एक छोटी सी दैनिक प्रयोग में आने वाली प्राकृतिक औषधि हरिद्रा (हल्दी) है ।

जब शरीर में कहीं भी चोट लगती है तो अनेकानेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं । चोट के स्थान पर सूजन के अतिरिक्त पूरे संस्थान में एक 'स्ट्रेस इफेक्ट' के कारण रक्त में 'कैटेकालअमीन' नामक हारमोन्स का स्तर बढ़ जाता है । इसके प्रभाव से जहाँ रक्त नलिकाएँ सिकुड़ती हैं वहाँ दूसरी ओर रक्त शर्करा का स्तर भी बढ़ जाता है । मन बेचैन और उत्तेजित हो जाता है । उसका कारण भी ये हारमोन्स ही हैं । यह बेचैनी रक्त में शक्कर को और बढ़ा देती है, जो घाव के भरने में बाधक है साथ ही जीवाणुओं की फसल लहलाने के लिए उर्वर भूमि भी । जहाँ त्वचा भंग हुई, वहाँ जीवाणु का संक्रमण हुआ । ये सारी व्यवस्थाएँ शरीर संस्थान की प्रतिक्रिया के कारण हुई । अब यदि इस चोट, सूजन, संक्रमण, बेचैनी का उपचार खोजना हो तो दो मार्ग सामने हैं । एक प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जड़ी बूटियाँ, दूसरे आधुनिक संशोषित औषधियाँ । पहले प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त औषधि हल्दी पर विचार किया जाए ।

हल्दी को चोट के स्थान पर लगाने का चिरपुरातन घरेलू स्वरूप सुपरिचित है एवं मुँह से खिलने का भी । वैज्ञानिक खोजें यह सिद्ध करती हैं कि हल्दी में जो रसायन पाए जाते हैं वे सूजन को उतारते हैं । इसका यह प्रभाव उतना ही समर्थ-बलशाली है, जितना कि एलोपैथी की गत दशक में खोजी गई 'हाईड्रोकार्टिसोन' नामक औषधि का । हल्दी के प्रायोगिक परीक्षण यह सिद्ध करते हैं कि यह रक्त में ग्लूकोज का स्तर कम करती है ताकि प्रवेश पाए रोगाणुओं को फलने-फूलने का मौका न मिले । ग्लूकोस टॉलरेन्स के उड़ने से जीवनी शक्ति भी बढ़ती है एवं श्वेतकणों तथा सुरक्षा के लिए उत्तरदायी जीवकोषों को चोट के स्थान पर पहुँचने में कोई परेशानी नहीं होती । यही नहीं अन्य द्रव्य गुणपरक प्रभाव भी यही बताते हैं कि यह औषधि समग्र रूप से रक्त शोधक भी है ।

'करक्यूमा लांबा' नाम से वैज्ञानिक जगत में प्रख्यात हल्दी में 10-12 प्रतिशत जल, 4 से 12 प्रतिशत फैटी ऑइल, 4.2 से 14 प्रतिशत इसेन्सियल ऑयल, 5 से 13 प्रतिशत मिनरल्स होते हैं । इसे इसका पीला रंग करकुमिन नामक पदार्थ के कारण मिलता है । इसमें 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन 'ए' भी होता है । हल्दी से निकलने वाले तेल को 'टरमेरिक ऑइल' कहते हैं । जिसमें अरजबाबायोजन तथा टरमेरिक जैसे सक्रिय पदार्थ होते हैं, जो सारी क्रियाओं के लिए उत्तरदायी होते हैं ।

इन रसायनों के माध्यम से हल्दी में एण्टी हिस्टेमिनिक प्रभाव (एलर्जी प्रतिक्रिया का शमन) तथा पिटुचरी एड्रोजन एक्सिस को प्रभावित करने वाले गुण आते हैं । हल्दी मानसिक उत्तेजना को घटाती है । उत्तेजना का कारण होता है-स्ट्रेम इफैक्ट के कारण काटिमलि नामक रस का स्राव । गुर्दे के ऊपर स्थित एड्रीनल ग्रंथि से उत्सर्जित इस रस को हल्दी तुरंत रक्त में कम कर देती है । चोट के स्थान पर लगाई गई हरिद्रा अपने जीवाणु नाशक गुणों के कारण ग्राम पॉजिटिव एवं ग्राम निगेटिव रागाणुओं से मोर्चा लेकर उन्हें समाप्त कर देती है । सूजन भी उतारती है तथा संक्रमण भी नहीं पनप पाता । संस्थानिक प्रभाव (मुँह से ली गई औषधि के कारण) शेष कार्य पूरा कर देता है । बलवर्धक होने के कारण (तेल तथा कार्बोहाइड्रेट होने के फलीभूत) यह क्षति पूर्ति में भी सहायक होती है । आर्युवेद ग्रंथ लिखते हैं-

हरिद्रा काञ्जनी पीता निशाख्या वरणवर्णिनी । कृमिघ्ना हल्दीयोषित्पि्रया हट्टविलासिनी॥ (भाव प्रकाश) एवं हरिद्रा तु रसे तिक्ता रुक्षौप्णा विषकुष्ठनत् । भेदहैकण्डूत्रणान् हन्ति देहवर्ण विघायिनी॥ (धन्वन्तरि निघण्टु)

इसी कारण इसे हरिद्रा (हरि वर्ण द्राति संवोधयति-जो काया के वर्ण को ठीक करे) काञ्जनी, वरवणनी, गौरी, कृमिघ्ना, योषित प्रिया, रुद्राविलासिनी जैसे काव्यात्मक नाम दिए गए हैं । स्थानीय लेप तथा मुँह से लेने के अतिरिक्त इसे धूम्र के रूप में मूच्छर् श्वांस एवं हितका रोगों में भी सफलता के साथ प्रयुक्त करते हैं । कुष्ठ एवं अन्य व्रण रोगों में तो यह दी ही जाती है ।

अब इसके समानान्तर वे औषधियाँ देखी जाएँ, जो संशोषित रसायनों के रूप में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में प्रयुक्त होती हैं । एलोपैथी में सूजन-चोट की सर्व प्रचलित दवा एस्पिरीन या एसिटिल सेलिसिलिक एसिड । यह दर्द दूर करने में प्रभावशाली भूमिका निभाती है, पर इसके अलावा उनका कोई और योग नहीं है । सेलिसिलेट्स ग्लूकोस को घटने के स्थान पर बढ़ाते हैं, मानसिक उत्तेजना में वृद्धि करते हैं तथा पेट की शेष्मा में सूजन लाते हैं । व्रण तक उत्पन्न कर आमाशय से रक्तस्राव भी बढ़ा सकते हैं । ये रसायन न तो बलवर्धक हैं, न जीवाणुनाशक । यह बात और है कि यह कृत्रिम संशेषित रसायन, स्पायरिया वृक्ष के फूलों के रस से प्राप्त सेलसिन नामक रसायन के न्यूक्लियस की रचना से मिलता हुआ बनाया गया था । कारण था सेलिसिन में उन सब गुणों का होना जो सूजन उतारने के लिए आवश्यक है । पर चूँकि उसे विशुद्ध रसायन के रूप में दिया जाने लगा तो वे प्रभाव जाते रहे जो समग्र औषधि में थे ।

अन्य सूजन उतारने वाले औषधियाँ (एण्टी इन्फ्लेमेटरी) हैं-फिनाइल ब्यूटाजोन, ऑक्सीफेन ब्युटाजोन, इण्डोमेथेसीन, स्टेराइड्स इत्यादि । रसायन मात्र को ही लक्ष्य मानकर दी जाने वाली ये औषधियाँ किसी भी रूप में वनौषधियों की तुलना में नहीं ठहर पातीं । उलटे इनके तेज प्रभाव से ऐसे-ऐसे दुष्परिणाम देखे जाते हैं कि कोई भी व्यक्ति एक बार उन्हें प्रत्यक्ष किसी के शरीर में घटते देख इन्हें लेने का विचार भी मन में नहीं ला सकता । वनौषधि चिकित्सा समग्र इसलिए ठहरती है कि वह एक पूरे जैविक संस्थान की चिकित्सा को अपना उद्देश्य मानकर चलती है ।

रोगों का होना एक अस्वाभाविक स्थिति है । ऐसे में उस प्रक्रिया को कृत्रिम रसायन और विकृत कर देते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि क्षतिपूर्ति अपने सहज प्राकृतिक रूप में की जाए एवं वह अपने आप में समग्र हो । आधुनिक दवाओं की तुलना में इसीलिए जड़ी-बूटियों की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है । वे सर्वसुलभ हैं, समर्थ हैं, हर कोई उन्हें उपयोग कर सकता है, हानिरहित हैं ।

थोड़ी-थोड़ी मात्रा में होते रहने वाले इन वनौषधियों के प्रभाव एक-दूसरे का समर्थन ही करते हैं (पोटेऍशन), काट नहीं । यह दोष एलोपैथिक औषधियों में देखने को मिलता है । इसे 'ड्रग इन्टरएक्शन' कहा जाता है । यह प्रतिक्रिया जड़ी-बूटियों में न होने का एक अन्य कारण यह भी है कि कोई भी सक्रिय प्रमुख तत्व (क्टिवपिरसीपल) उनमें रासायनिक रूप से उन्मुक्त या फ्री नहीं होता, वरन् वह अन्य हानिरहित पदार्थों में गुँथा रहता है । धीरे-धीरे इस गुंथन से मुक्त होता हुआ वह अपने रासायनिक प्रभाव दिखाता रहता है ।

पूरे प्रकृति जगत में प्रायः 4 लाख से भी अधिक पौधे हैं । इसमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चिकित्सा की दृष्टि से किसी न किसी प्रकार उपयोगी न हो । इस संबंध में एक अख्यान बहुप्रचलित है । एक बार ब्रह्माजी ने जीवक ऋषि को आदेश दिया कि पृथ्वी पर जो भी पत्ता-पौधा, वृक्ष-वनस्पति व्यर्थ दिखें, तोड़ लाओ ।
11 वर्ष तक पृथ्वी पर घूमते रहने के बाद ऋषिवर लौटे और ब्रह्माजी के समक्ष नतमस्तक हो बोले-'प्रभो! इन ग्यारह वर्षों में पूरी पृथ्वी पर भटका हूँ, प्रत्येक पौधे के गुण-दोष को परखा है, पर पृथ्वी पर एक भी ऐसा वृक्ष न मिला जो किसी न किसी व्याधि के उन्मूलन में सहायक न हो ।' इस आख्यान से वृक्ष-वनस्पतियों की औषधीय गुणवत्ता का भावन होता है ।

अभी तक सारे संसार की 4 लाख प्रकार की वनस्पतियों में मानव मात्र 8 हजार के गुण जान पाया है । वह भी आप्तवचनों के उद्धृत औषधि संदर्भों के कारण । जितनी भी औषधियाँ आज प्रचलित हैं, उनमें से अधिकसंख्य की जानकारी विश्व मानव को भारत वर्ष ने दी है । यही एक प्रमुख कारण है कि इन पौधों की गरिमा को जीवंत बनाए रखने का उत्तरदायित्व हम सबके लिए और भी बढ़ जाता है । विशेषकर इसलिए भी कि बढ़ती रुग्णता, संक्रामक रोगों, कुपोषण की समस्याओं से ग्रस्त भारत जैसे निर्धन कहे जाने वाले राष्ट्र के लिए इन वनौषधियों का प्रचलन ही एकमेव सर्वोपयोगी मार्ग है ।

चीन में यही हुआ है । सर्वाधिक जन संख्या वाले इस राष्ट्र ने अपनी सारी चिकित्सा पद्धति का आधार जड़ी-बूटियों को बनाया है । वहाँ की जन संख्या है-1 अरब 10 करोड़ जो विश्व की जनसंख्या की एक चौथाई है । यदि वहाँ प्रति 5000 व्यक्ति के पीछे भी एक चिकित्सक की बात सोची जाती एवं इस व्यवस्था पर यदि प्रतिमाह दस हजार रुपये कम से कम खर्च माना जाता तो पूरी जनसंख्या के लिए ढाई लाख चिकित्सक, इतने से दुगुने स्वास्थ्य सहायक, चौगुन अन्य कर्मचारी एवं करीब 2 अरब 20 करोड़ रुपए का नियमित मासिक बजट आवश्यक माना जाता । परंतु दूरदर्शिता पूर्ण चिंतनकर उन्होंने रोग निवारण हेतु पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति को दो प्रमुख कारणों से नहीं अपनाया । इनके हानिकारक दुष्प्रभाव एवं इनका इतना महंगा होना कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का ही असंतुलित हो जाना । चीन की स्वास्थ्य व्यवस्था में नंगे पैर डॉक्टर (बेयर फूटेड डॉक्टर) को प्रमुखता दी गई है ।

ऐसे प्रायः 18 लाख व्यक्ति स्वयं सेवक के नाते निर्धारित सूदुर ग्रामीण क्षेत्रों में सतत घूमते रहते हैं । अपने 3 माह के प्रशिक्षण एवं प्राकृतिक रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वनौषधियों के माध्यम से स्वच्छ-स्वस्थ बने रहने की शिक्षा एवं छोटे-छोटे शारीरिक असंतुलनों में वनौषधि उपचार के रूप में स्वास्थ्य परामर्श बराबर देते रहते हैं । अधिकांश रोग इतने मात्र से ही ठीक हो जाते हैं । अपने साथ वे कुछ सामान्य ऐसी जड़ी-बूटियाँ एवं खरल आदि रखते हैं जिनकी अधिकतर जरूरत पड़ती रहती है । प्राकृतिक औषधि संपदा की पहचान एवं उनके उपयोग के विषय में भी ये निष्णात होते हैं ।

कुछ रोग ऐसे हो सकते हैं, जिनमें व्याधि नियंत्रण इस वनौषधियों से संभव न हो अथवा रोग की पहचान ठीक प्रकार से न हो पाए तो ये अपने से वरिष्ठ स्वास्थ्य सहायकों तक रोगी को पहुँचा देते हैं । इस सिस्टम द्वारा चीन ने न केवल अपनी जनता का स्वास्थ्य सुधारा है, उनकी अपेक्षित आयु में वृद्धि की है, अपितु कई ऐसी नई-नई औषधियाँ विश्व को दी हैं जो गुणों में सभी आधुनिक औषधियों से कहीं अधिक सामर्थ्यवान बैठती हैं ।

आयुर्वेद का इतिहास खोजें तो ज्ञात होता है कि इसका उद्भव ईसा से 400 वर्ष पूर्व हुआ, जबकि भारत से इस संदर्भ के ग्रंथ तिब्बत होते हुए चीन पहुँचे । एक तिब्बती पाण्डुलिपी जो ल्हासा संग्रहालय में पायी गयी है, में इसका वर्णन मिलता है । इसमें उद्धृत दस हजार से भी अधिक औषधियों में जगह-जगह चरक एवं सुश्रूत के संदर्भ हैं । इसका नाम है-''रि्युदब्झी'' । इसमें ऋक् और उद्भिज दो शब्दों की सम्मिलित ध्वनियाँ हैं । यह ग्रंथ सन् 820 ईसवी का खि माना जाता है ।

इसी चिरपुरातन आयुर्वेद को चीन ने जिन्दा बनाए रखा और परिणाम सामने है । अधिकांश रोगों में ऑपरेशन आवश्यक नहीं माना जाता । केवल वनौषधि उपचार से ही आंत्र-अवरोध जैसी अपातकालीन व्याधि को मिटाने में चीनी चिकित्सक सफल हुए हैं । (चिंग हाओ सू बर्म बुड), मूचिंग (वायटेक्स निगुण्डो अर्थात् र्निगुन्दी), सल्विया मिल्टीओराइजा (हृदय आघात में), सिफेलोटॉक्सस हेनानेन्सिस ली (रक्त कैन्सर में), निगसैंग (एलोपैथी) जैसी जड़ी-बूटियाँ चीन में बहुत प्रचलित हैं
। इनका संदर्भ इण्डियन फर्मेकोपिया में भी विशद रूप में मिलता है । रियम टांगुर्टक, मैग्नोलिया ऑफसिनेलिया जैसी औषधियों से बिना चीर-फाड़ के पेट की व्याधियों (आंत्र अवरोध आदि) का उपचार कर लिया जाता है । यह सारा वनस्पति संबंधी ज्ञान जिस प्रकार आधुनिक संदर्भ में चीन द्वारा प्रयुक्त हो रहा है, उसके प्रत्यक्ष सत्परिणाम सारे विज्ञान जगत के समक्ष है ।

इस प्रकार निष्कर्ष यही निकलता है कि चिकित्सा के उन्हीं आधारों को जीवित किया जाना एवं जीवन्त बनाए रखना चाहिए जो मानव की जीवनी शक्ति बढ़ाने सहायक हों । उसके लिए मानव को प्रकृति की शरण में जाना होगा । हरीतिमा संवर्धन सभी दृष्टि से मनुष्य के लिए लाभकारी है । इस हरीतिमा में रोग निवारक औषधियाँ भी हैं और शरीर की कमियाँ दूर करने वाले पौष्टिक तत्व भी । सोवियत रूस व पूर्व जर्मनी, हंगरी जैसे राष्ट्रों ने भी वनौषधियों को पूरा महत्त्व दिया है एवं खेल जगत में एथलीटो धावकों की, अंतरिक्ष यात्रियों व सेना के जवानों की कार्य क्षमता, वायटेलिटी को काष्ठ औषधियों के प्रयोग द्वारा काफी सीमा तक बढ़ाया है ।

'एल्यूकेरोकोकस सेण्टीकोसस' नामक वानस्पतिक नाम से प्रसिद्ध आकार में गिनसैंग से मिलती-जुलती औषधि के प्रयोग द्वारा वे खेल जगत में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुके हैं । इन औषधियों का वर्णन कहीं पाश्चात्य फर्मेकोपिया में तो नहीं आता पर इसकी विशेषताएँ सौम से काफी मिलती-जुलती है । लंबी खोखला कर देने वाली व्याधियाँ जैसे क्षय, एनीमिया कैंसर आदि में प्रयोग कर रूसी वैज्ञानिकों ने निवारण में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है । यह मात्र प्रकृति की चिकित्सा का अवसर देने की चमत्कारी फलश्रुति है ।

भारत की स्थिति को देखते हुए वह चिकित्सा पद्धति ही उपयुक्त जान पड़ती है जो जन सुलभ हो । एक अनुमान के अनुसार देश में 6 करोड़ से भी अधिक क्षय रोग ग्रस्त व्यक्ति हैं, कुपोषण से ग्रस्त तथा उनकी संख्या भी करोड़ों में ही है जो किसी न किसी व्याधि से पीड़ित होने के कारण माह में एक सप्ताह काम योग्य नहीं रहते । यदि इन्हें मात्र प्रारंभिक उपचार की सुविधा उपलब्ध हो जाए तो वे नीम हकीमों के हाथ पड़कर अपना स्वास्थ्य और भी बिगाड़ने से स्वयं को बचा सकें व करोड़ों रुपए की आर्थिक हानि को भी बचाया जा सके ।

उच्च शिक्षा प्राप्त चिकित्सक तो विदेश बसना या शहरों में निजी प्रैक्टिस करना अधिक पसंद करते हैं । सम्मिश्रण व मिलावट के कारण आयुर्वेद पर से लोगों की श्रद्धा घटती जा रही है । ऐसे में मूलतः देहातों व कस्बों तक स्वास्थ्य संरक्षण का सही शिक्षण कैसे पहुँचे, यही सोचकर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने इस घरेलू उपचार पद्धति को प्रतिपादित व प्रचारित किया है । इस चिकित्सा पद्धति के वैज्ञानिक आधारित इतने सशक्त हैं कि बिना किसी ऊहापोह के इसे बहुसंख्यक व्यक्तियों (ज्ञातव्य है कि लगभग 60 करोड़ व्यक्ति देहातों या कस्बों में बसते हैं) तक पहुँचाया जा सकता है एवं एक समानान्तर चिकित्सा-व्यवस्था खड़ी की जा सकती है ।

एण्टीबायोटिक्स का अर्थ है वे औषधियाँ जो जीवन के लिए घातक हैं । एण्टी अर्थात् विरुद्ध बायोटिक्स अर्थात् जीवन इसलिए 'हीलिंग एण्ड कान्क्वेस्ट ऑफ पेन' के विद्वान लेखक डॉ. जे. फील्ड का यह कथन सही जान पड़ता है कि वर्तमान चिकित्सा पद्धति तुरंत लाभकारी तो है पर वह एक प्रयोग एवं वैज्ञानिक अंधविश्वास मात्र है । खण्डनात्मक विवेचन न भी किया जाए तो भी तर्क, तथ्य और वैज्ञानिक प्रमाण यही सिद्ध करते हैं कि एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की समय के अनुसार खोज अत्यंत अनिवार्य है ।

शरीर का धर्म है अपनी रक्षा के लिए व्यवस्था बनाना । जीवनी शक्ति के रूप में उसे एक सुरक्षा संस्थान मिला हुआ है । रक्त के श्वेत कण एवं इम्यून संस्थान सुरक्षा सेना, सीमा आरक्षी बल का कार्य करते हैं । बाह्य आक्रमणकारी जीवाणु-विषाणु पहले मानव शरीर में सुरक्षा पंक्ति की कमजोरी का जायजा लेते हैं । उनकी घातक सामर्थ्य में वृद्धि शरीर की कमजोरी के साथ बढ़ती जाती है एवं शरीर रोगी होता जाता है । रोग से निवृत्ति भी इसी निर्भर करती है कि कितना शीघ्र विकृत द्रव्यों का निष्कासन संभव हो पाता है । शरीर के निष्कासन संस्थानों का सूक्ष्म होना व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य पर निर्भर करता है ।

आंतरिक अंगों में से एक का भी व्याधिग्रस्त होना कमजोर जीवनी शक्ति, अपाहिज शारीरिक स्थिति एवं नए-नए रोगों के आक्रमण में निकलता है । गुर्दे छन्नी की तरह रक्त में विजातीय द्रव्यों को निकालकर मूत्र रूप में बाहर निकाल फेंकते हैं । यही गुर्दे जब रोगग्रस्त हो जाते हैं तक सारा विजातीय द्रव्य शरीर में एकत्र होता चला जाता है । ऐसे व्यक्ति जीवित लाश की तरह अपनी यात्रा खींचते हैं । न वे श्वांस ही ढंग से ले पाते हैं न खाना ठीक से खा पाते हैं । बाह्य जीवाणु विषाणुओं का घातक प्रभाव उन्हें शीघ्र मृत्यु के मुख में ले जाता है । चयापचय के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकार द्रव्य जब एकत्र होते चले जाते हैं, आहार-विहार में व्यतिक्रम आ जाता है, प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या का निर्धारण नहीं हो पाता है तो रोगों की बाढ़-सी आ जाती है ।

इस मूल आधार को समझने के बाद चिकित्सा व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित कर सकना संभव है । किसी भी लक्षण को दबाने के बजाय उसे जन्म देने वाले कारण को जड़ से मिटाना ही श्रेयस्कर है । तुरंत लाभ की दृष्टि से तो यही उचित लगा है कि सामयकि दृष्टिगत होते ही लक्षण को मिटा दिया जाए । गंदगी पर मिट्टी को डालने पर वह उस समय तो आँखों से ओझल हो सकती है, पर वह नष्ट नहीं होती । दर्द को, वेदना को औषधियों से उस समय तो मिटाया जा सकता है, परन्तु मूल रूप में बैठे रोग को यदि समूल नष्ट नहीं किया गया तो वह नए रूप में अधिक तीव्रता से उभर कर आ सकता है । अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि इस चिकित्सा पद्धति के अंतराल में छिपे अंधविश्वास को जड़ से निकाल फेंककर अब जनमानस को अपनी दृष्टि का परिमार्जन करना ही चाहिए । जितना भी श्रेष्ठ है, वह तो ग्राह्य हे पर सामयिक लाभ का दर्शन किसी मूल्य पर जीवन में नहीं उतारा जा सकता ।

जहाँ तक सिद्धांतों, रोग निदान परीक्षण का सवाल है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को धन्यवाद दिया जाना चाहिए और उसकी उपलब्धियों की प्रशंसा भी की जानी चाहिए । उपचार पक्ष से असहमत होते हुए अब आवश्यकता आ पड़ी है है कि जड़ी बूटियों के द्वारा उपचार पद्धति का पुनर्जीवन किया जाए । उनके उपयोग का विज्ञान सम्मत ढंग जन मानस को समझाया व हृदयंगम कराया जाए । वनस्पतियों का विशाल जगत हमें प्राकृतिक जीवन क्रम को अपनाने हेतु सतत प्रेरित आमंत्रित करता है । आवश्यकता उनका महत्त्व समझने भर की है ।

वनस्पति जगत के कई भेद हैं । एक वे जो जलावन, खाद या उपकरण बनाने के काम आती हैं । दूसरी वे जिन्हें खाकर प्राणी अपना गुजारा करते हैं । मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी वर्ग के जीवधारी इसी श्रेणी में आते हैं । किसे पत्ती, किसे कन्दमूल, किसे बीज अनुकूल पड़ते हैं, यह रुचि विशेष की बात है । यह सभी वर्ग वनस्पतियों के ही हैं । तीसरा वर्ग औषधियों का है । वे घास पात जैसी दिखती तो हें पर अपने विशेष गुणों के कारण रोग निवारण, आरोग्यवर्धन एवं परिशोधन के काम आती हैं । चिकित्सा जगत में इन्हीं की प्रमुखता है । यों उसमें खनिज एवं विषों का रुपांतरण भी सम्मिलित हो गयाहै, किंतु बाहुल्य चिकित्सा क्षेत्र में वनस्पतियों का ही है । उन्हीं को चूर्ण सत्व, गोली, अवलेह, अर्क, आसव आदि के रूप में एकाकी अथवा सम्मिश्रणों के साथ प्रयोग किया जाता है ।

आयुर्वेद से लेकर एलोपैथी तक की अनेकों चिकित्सा पद्धति के उपचार प्रयोजन में वनौषधियों के ही विभिन्न रूपांतरण प्रयुक्त होते हैं । यह वनस्पति का औषधि पक्ष है । इनके अनुसंधान एवं प्रयोग परीक्षण में चिरकाल से मानवी प्रयतन संलग्न रहे हैं । अभी भी वह उपक्रम चल ही रहा है । विधाता द्वारा मनुष्यों को दिए गए अनेकानेक उपहारों में वनौषधियों को भी एक ऐसा वरदान कहा जा सकता है, जिनसे शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों के निवारण में देवताओं जैसे अनुग्रह प्रस्तुत किए हैं ।
इसी मान्यता के कारण अध्यात्म ग्रंथों में पौधों को देव समान मानकर उनकी पूजा अभ्यर्थना करने का स्वरूप बनाया गया है । पौधों को मध्य योनि प्राप्त देवपुरुष कहा गया है । उपनिषद्कार लिखता है-

यो देवो अग्नो यो अप्सु यो विश्व भुवनमाविवेश ।
य ओषधीशु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः॥ श्वताश्वेतरोपनिषद् २/१७

अर्थात्-जो परमात्मा अग्नि में हे, जल में है, समस्त लोकों में समाविष्ट हैं, जो औषधियों में है, सभी वनस्पतियों में है, उस परमात्मा को नमस्कार है ।

आहार एवं औषधि प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली वनस्पतियाँ अपने आप में पूर्ण हैं, उनमें से प्रत्येक की संरचना अनेक योगिकों, क्षारों, रसायनों, खनिजों के सम्मिश्रण से हुई है । इसलिए उनमें से प्रत्येक को परिपूर्ण कह सकते हैं । मनुष्य अपने में पूर्ण है । उसके लिए आवश्यक सभी तत्व एक ही काय कलेवर में विद्यमान हें । रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, वसा, त्वचा, तंतु पाचक द्रव्य आदि को एक ही गुलदस्ते में इस प्रकार संजोया सजाया गया है कि उसे अपनी समस्त गतिविधियाँ उतने से ही पूर्ण कर लेने में सुविधा रहे । यह बात वनस्पतियों के संबंध में भी है । पत्तियों, फूलों, फलों, कन्दों के रूप में उनका उपयोग होता है । खोजने पर प्रतीत होता है कि उनमें से प्रत्येक में अनेकानेक रासायनिक घटकों का समावेश है । फलतः वे जिस शरीर में प्रवेश करती हें, वहाँ की सभी आवश्यकताओं को भली प्रकार पूरा कर देती हैं ।
ऐसा नहीं होता कि आहार में अनेकानेक वनस्पतियों का सम्मिश्रण करने के उपरांत एक पूर्ण आहार बने । प्राणियों की आदतों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि वे जिस वनस्पति वर्ग पर निर्भर हैं, उतने से ही अपना काम चला लेते हैं । अनेक सम्मिश्रणों की फिराक में नहीं फिरते गाय, घोड़ा वर्ग के प्राणी घास पसंद करते हैं तो ऊँट, बकरी जैसे पत्तों के सहारे निर्वाह करते हैं । बंदर को फल पंसद है तो चिडि़यों को बीच अच्छे लगते हैं । इनमें हर एक को कई वनस्पतियों की तो छूट है कि एक वे न मिलने पर दूसरे के सहारे काम चल सकें, पर ऐसा नहीं होता कि कोई जब भी कुछ खाए तो कई-कई को खोजकर इन की चटनी बनाए, तब कहीं उन्हें गले उतारे ।

इन दिनों आहार से लेकर चिकित्सा क्षेत्र तक में यह भ्रान्ति बुरी तरह घुस पड़ी है कि आहार या औषधियों में अनेक पदार्थों का सम्मिश्रण करने पर ही वे उपयोगी बनती हैं । वास्तविकता यह है कि इससे पाचन तंत्र को असाधारण कठिनाई उठानी पड़ती है और बहुत परिश्रम करने के उपंरात भी उपलब्धि न्यून मात्रा में हाथ लगती । इस मान्यता के पीछे या भ्रम जंजाल जुड़ा प्रतीत होता है कि जो खाया जाता है वह उसी रूप में शरीर में घुस पड़ता है ।

इस संदर्भ में न जाने यह पथ्य क्यों भुला लिया गया है कि मुँह से लेकर पेट में भ्रमण करने के उपरांत बाहर निकलने तक की प्रक्रिया इतनी आश्चर्यजनक तथा महत्त्वपूर्ण है कि खाए पदार्थ की प्रकृति और क्षमता जमीन आसमान जितना अंतर उत्पन्न हो जाता है । अनाज से रक्त उत्पन्न करके कोई नहीं दिखा सकता । यह जादुई का पेट के पाचक रसों का है । वे समान वनस्पतियों से भी जिसकी जरूरत है । उसे अपने ढाँचे में ढाल कर सहज ही अपना काम चला सकते हैं । आहार और चिकित्सा क्षेत्रों की यह भ्रांति ही है कि वे जो खाएँगे उसी प्रकार के तत्व शरीर को उसी रूप में मिल जाएँगे । यदि ऐसा होता तो जिगर, र्गुदे, फेफड़े, आँख आदि के कमजोर पड़ने पर उन्हीं अवयवों को खिलाकर दुर्बलों, रोगियों की आवश्यकता पूरी कर ली जाया करती ।

एक निशाने पर एक साथ अनेक व्यक्ति तीर चलाएँ, तो यह पता नहीं चलता कि किसका निशाना ठीक रहा, किसका गलत? कौन योग्य है, कौन अयोग्य? जांच पड़ताल के लिए भी सभी को अलग-अलग अवसर देना चाहिए । आहार उपचार के संबंध में यही नीति अधिक उपयुक्त है कि सम्मिश्रणों की अवहेलना की जाए और उनको प्राकृतिक रूप में अनिवार्य होने पर ही न्यूनतम उपयोग किया जाए । औषधियों में अनेक वस्तुएँ मिला देने पर यह पता नहीं चलता कि उनमें से किसने क्या गुण दिखाए ।

सर्व विदित है कि सम्मिश्रण के उपरांत मूल पदार्थ के गुण यथावत् नहीं बने रहेंगे और अपने गुणों के अनुसार उस-उस तरह के अलग-अलग लाभ देते रहें । वरन् यह सोचना चाहिए कि इस सम्मिश्रण का एक अतिरिक्त प्रकार का प्रभाव उत्पन्न होगा जो इन पदार्थों में से किसी से मिलता-जुलता न हो और अपनी प्रतिक्रिया सर्वथा भिन्न प्रकार की करता रहे । यदि ऐसी योजना बनानी हो तो यह भुला दिया जाना चाहिए कि जिनका सम्मिश्रण किया जा रहा है वे अपने मौलिक गुण बनाए रहेंगे । वरन् यह सोचना चाहिए कि उस मिश्रण के फलस्वरूप एक नए प्रकार का नया प्रभाव उत्पन्न होगा । यदि इस आधार पर कोई निष्कर्ष निकाला जाए निर्धारण किया जाए तो ही उसकी कुछ उपयोगिता समझी जा सकती है । पर ऐसा होता नहीं सम्मिश्रण के उपरांत पदार्थ के भी अपने-अपने गुण बने रहते हैं । इस भ्रांति ने आहर तथा औषधि क्षेत्र का आधार ही गड़बड़ा दिया है ।

इस संदर्भ में नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है । यदि सम्मिश्रण सिद्धांत अपनाना हो तो फिर मूल तत्वों पर ध्यान न देकर सम्मिश्रण की प्रतिक्रिया भर को महत्त्व देना होगा यदि मूल पदार्थ की गरिमा को प्रमुखता दी जाए तो फिर उसे अकेले को ही अपना काम करने, परिणाम उत्पन्न करने का अवसर देना चाहिए । आधा मोर आधा बंदर मिला देने से तो कोई विचित्र प्राणी बन जाएगा । उसमें न मोर के गुण रहेंगे न बंदर के । गुड़-गोबर होने की उक्ति प्रख्यात है । गोबर अपनी जगह उपयोगी है और गुड़ का अपना महत्त्व है । मिला देने पर तीसरा पदार्थ न खाने लायक रहेगा, न लीपने-उपले बनाने लायक ।

यही है एकौषधि से सभी रोगों की चिकित्सा का तत्वदर्शन । उस औषधि के अन्यान्य गुण लाभकारी नहीं हैं ऐसी बात नहीं । पर यदि वह एक संस्थान विशेष पर उपयोगी है तो उसे अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही क्यों न दिया जाए । क्यों उसका सम्मिश्रण कार शरीर के लिए असमंजस की स्थिति उत्पन्न की जाए । आयुर्वेद में तो धातुओं, खनिजों, रसायनों के प्रयोगों की भी चर्चा है, उन्हें न दिया जाए वे हानिकारक हैं, यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है । वरन् काष्ठ औषधियों की, प्रकृति से जिस स्थिति में प्राप्त होती हैं, उसी रूप में प्रयुक्त करने की आवश्यकता, महत्ता बतायी जा रही है ।

यों तो शल्य, शालाक्य, काय चिकित्सा, भूत विद्या, कौमार भृत्य, अंगद, रसायन और वाजीकरण आयुर्वेद इन आठ तंत्रों में विभक्त है । परन्तु यह स्वयं जिस मूलवेद, अथर्ववेद का उपांग है, उनमें वर्णन है कि किस प्रकार मात्र वनौषधियों से मनुष्य व पशु वर्ग की चिकित्सा आर्षकालीन वैज्ञानिक कर लेते थे । कण्व ऋषि को अंधत्व से, निषध पुत्र को बधिरता से विमुक्त करने, अति वृद्ध कंकालसार च्यवन ऋषि को कायाकल्प द्वारा नवजीवन देने में इन औषधियों को किस प्रकार प्रयुक्त किया जाता था, इसका वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है । आर्ष चिकित्सा विद्या की यह विशेषता है कि उसने स्वतंत्र रूप से काष्ठादिक और धातुज औषधियों की उन्नति की है । हमारा उद्देश्य यहाँ काष्ठ औषधियों के एक-औषधि अनुपान सहित प्रयोग द्वारा रोग निवारण है । यह पद्धति पूर्णतः शास्रोक्त है एवं सफल सिद्ध चिर पुरातन चिकित्सा प्रणाली है जो समय के साथ दुर्भाज्ञवश लोप हो गई ।

शास्रोक्त एकौषधि पद्धति को अब नए सिरे से पुनर्जीवन देना होगा । आयुर्वेद के कर्णधारों ने आरंभ में एक रोग में, एक समय में, एक ही जड़ीबूटी देने का निर्धारण किया था । सम्मिश्रणों की बात तो बहुत बाद में सूझी और बुद्धिमत्ता की ख्याति पाने के लिए लालायित लोगों द्वारा बाद में चलाई गई । संभव है उसमें संपन्न लोगों को अनोखेपन से प्रभावित करके चतुर कहलाने एवं धन को कमाने की बात सोची गई हो । यह भी हो सकता है कि भ्रांतिग्रस्त ईमानदारी भी इस निर्धारण में सहायक रही हो । जो हो हमें भ्रम-जंजाल का इतिहास और कारण खोजने की अपेक्षा तथ्यों को खोज निकालने पर अपना ध्यान केन्द्रिरत करना चाहिए । समय आ गया है कि चिकित्सा क्षेत्र में एकौषधि प्रयोग को नव जीवन प्रदान किया जाए । उसकी प्रामाणिकता एवं उपयोगिता सिद्ध करने में कुछ उठा न रखा जाए ।

जड़ी-बूटियों की संख्या अगणित है । इतने पर भी गुण-धर्म के हिसाब से उनके वर्ग अत्यधिक नहीं है । शुभारंभ की दृष्टि से यही सुविधाजनक पड़ेगा कि जो औषधियाँ सर्वत्र उगती हैं, सुविधापूर्वक कहीं भी मिलती हैं उनमें से एक सीमित संख्या में इस प्रकार चुनाव किया जाए कि उसमें रोग निवारण के लिए आवश्यक सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व हो सके ।

इस दिशा में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान द्वारा इन्हीं दिनों ऐसा कदम उठाया गया है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे । यज्ञोपैथी के आविष्कार प्रयोजन के लिए शांतिकुंज, गायत्रीकुञ्ज में दुर्लभ जड़ी-बूटियों का उद्यान लगाया गया है । शोध के लिए सही तौर पर ताजी औषधियों से ही काम चलता है । पंसारियों की दुकानों में वर्षों पुरानी सड़ी-गली गुणहीन वस्तुओं से वह प्रतिफल उत्पन्न नहीं हो सकता, जिसकी महिमा बताई और आशा लगाई जाती है । अपने यहाँ से ही जीवंत औषधियाँ लेकर उन्हें यज्ञ शोध में प्रयुक्त करने की दृष्टि से अपना उद्यान लगाना आवश्यक था वह लगाया भी गया है और पनप तथा बढ़ भी रहा है ।

अब नया कदम यह उठ रहा है कि सामान्य औषधि उपचार में उपयोगी विभिन्न गुण धर्म वाले वर्गों क प्रतिनिधित्व करनेवाली जड़ी-बूटियाँ चुनी जाएँ । उनके संबंध में शास्रकार एवं पाश्चात्य शोधकर्त्ता क्या अभिमत विवेचन प्रस्तुत करते रहे हें, इसका संग्रह किया गया है । साथ ही निजी प्रयोग-अनुसंधान को उसमें सम्मिलित करके ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयतन किया गया है कि औषधियों के इस छोटे से समुदाय से ही कठिन रोगों की सरल चिकित्सा संभव हो सके ।

तुलसी के संबंध में पुरातन मान्यता यह है कि उस अकेली को ही अनुपान भेद से प्रयुक्त करते रहने पर समस्त रोगों की चिकित्सा हो सकती है, इस संदर्भ में एक पुस्तक भी छपी हुई है । उसका प्रयोग भी होता रहा है और उत्साहवर्धक प्रतिफल भी मिलता रहा है । इसी प्रकार गिलोय, असंगंध जैसी औषधियों के संबंध में भी बहुत रोगों में प्रयुक्त होने वाली बात बहुचर्चित है । मसालों में से अधिकांश ऐसे हैं, जिन्हें औषधि रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है । हल्दी, जीरा, धनिया, लौंग, सोंठ आदि के गुण इसी प्रकार हैं ।

होम्योपैथी में एक औषधि एक मूल द्रव्य से बनती है । बायोकैमिक नमक भी इसी आधार पर बनते हैं । डीशेन की दवाएँ घोंटी तो बहुत जाती हैं, पर बनती एक-एक औषधि से ही हैं । यही नीति वनौषधियों के संबंध में अपनाई जानी चाहिए । इसके लिए प्राथमिक चुनाव कर भी लिया गया है । रोग निवारण व स्वास्थ्य संवर्धन हेतु बीस एवं परिशिष्ट में पाँच जो औषधियाँ चुनी गई हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-
मुलैठी, आँवला, हरड़, बिल्व, अर्जुन, पुनर्नवा, अडूसा, भारंगी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, र्निगुणी, सौंठ, नीम, सारिवा, अशोक, गोक्षुर, चिरायता, गिलोय, शतावर, असंगध ।
नके अतिरिक्त 'तुलसी' को अपवाद रूप में अलग से एक ही औषधि से अनेक रोगों की चिकित्सा के रूप में लिया गया है । परिशिष्ट में मात्र स्थानीय उपयोग के लिए हरिद्रा, घृत कुमारी, अपामार्ग, लहसुन, नीम को स्थान दिया गया है ।
इन्हें किस रोग में किस प्रकार दिया जाए, इसका स्वरूप निर्धारण यहाँ प्रस्तुत है । इस निर्धारण में शास्रीय अभिमत, अन्वेषणकर्त्ताओं के वैज्ञानिक निष्कर्ष एवं अपने निजी प्रयोगों में भूल पड़ने पर लाभ में कमी तो पड़ सकती है, पर उसमें कोई तत्व ऐसा नहीं है जो विपरीत प्रतिक्रिया उत्पन्न करे, हानि पहुँचाए ।

इस प्रयोग को व्यापक बनाने, लोक प्रचलन में सम्मिलित करने की दृष्टि से यह निश्चय किया गया है कि जहाँ भी प्रज्ञा संस्थान बने हैं, वहाँ उनको उगाने का प्रबंध किया जाए । सभी से कहा जाए कि वे आसपास थोड़ी जमीन का प्रबंध करें और उन्हें अपने क्षेत्र में उगाने के लिए पौधा नर्सरी की तरह एक छोटा उद्यान उसी प्रकार लगाएँ जैसा कि बड़े रूप में शांतिकुंज गायत्री नगर में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान द्वारा लगाया, बढ़ाया गया है ।
ईसाई चर्चों में डिस्पेंसरी होती है । उसका दुहरा उपयोग होता है । पीड़ितों की सेवा के अतिरिक्त लो सहानुभूति अर्जित करने और उस आधार पर धर्म प्रचार के लिए क्षेत्र बनाने की दुहरी सफलता मिलती है । प्राचीनकाल के बौद्ध बिहारों में भी ऐसी ही व्यवस्था थी ।

जिन दिनों देवालय जन जागृति के केन्द्र थे, उन दिनों वहाँ शिक्षा के अतिरिक्त चिकित्सा के लिए भी प्रावधान था । पुरोहितों को कर्मकाण्डी ही नहीं, शिक्षक एवं चिकित्सक की योग्यता भी प्राप्त करनी पड़ती थी । प्रज्ञा संस्थाना में यही नीति अपनाई जानी चाहिए । अस्पतालों का, औषधालयों का व्यय भार उठा सकना तो हर जगह संभव नहीं हो सकता, किन्तु जड़ी-बूटी उगाने और उनके द्वारा निःशुल्क चिकित्सा का पुण्य लाभ सफलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है ।

उपरोक्त औषधियों के गुण, धर्म, रोगों के लक्षण व उनका प्रारंभिक उपचार किस प्रकार किया जाए, इस संबंध में इस पुस्तक में संक्षिप्त विवेचन है । आवश्यकता पड़ने पर आगे इसे और विस्तार से प्रकाशित किया जा सके, यह प्रावधान भी रखा गया है । साथ ही यह प्रबंध भी किया गया है कि इन औषधियों को अपने प्राकृतिक या सूखे रूप में शांतिकुंज से उतने ही मूल्य पर प्राप्त किया जा सके, जितनी कि यहाँ पर लागत आती है । इस प्रकार हर प्रज्ञा संस्थान में दस-बीस रुपए मासिक से या और भी कम बजट में ऐसा औषधालय चल सकता है, जिसमें बीसों मरीज प्रतिदिन लाभ प्राप्त करते रह सकें ।

इसमें सेवा धर्म का पुण्य लाभ प्राप्त करने के लिए सहानुभूति अर्जित करने और प्रज्ञा अभियान के लिए वातावरण बनाने का दुहरा लाभ है । इन्हें कैसे दिया जाए, कौन इसके लिए सूचित अधिकारी है, इसके लिए एक-एक माह के सृजन शिल्पी सत्रों में इस चिकित्सा प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है । प्राकृतिक स्वरूप में व चित्रों के माध्यम से प्रशिक्षार्थी इन औषधियों को पहचान भी सकें उसका पूरा प्रबंध गायत्री तीर्थ में किया गया है ।

वनौषधियों की उपादयेता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में

किसी भी औषधि का लाभ पहुँचाना या हानिकारक होना इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उसकी पहुँच कितनी गहरी है । रसायन नाभिक प्रधान पाश्चात्य औषधियों व प्रकृति से प्राप्त वनस्पतियों की जब तुलना की जाती है तो इसी तथ्य को ध्यान में रखना पड़ता है । यदि किसी काँटे को शरीर के अंग से बाहर निकालना हो तो सुई जैसा छोटा, नुकीला, औचार अधिक कारगर सिद्ध होता है । यदि तलवार, बल्लम, बरमे या सुई की मदद ली गई होती तो यह प्रयास हानिकारक ही सिद्ध होता । आसपास के अंग भी क्षतिग्रस्त होते, भले ही काँटे को निकाल पाने में सफलता मिलती है ।

पाश्चात्य औषधियाँ संशेषण के आधार पर बनी होती हैं । शरीर की व्याधियों के उपचार हेतु जब उन्हें प्रयुक्त किया जाता है तो यह मानकर चलना चाहिए कि सूक्ष्म विकारों के उन्मूलन कार्य में तलवार की ही भूमिका निभाएँगे । सूक्ष्म औषधियाँ जहाँ बिना आस-पास के ऊतकों को हानि पहुँचाए ही व्याधिकारक प्रक्रिया से सीधे मोर्चा लेती हैं, वहीं स्थूल औषधियाँ स्वस्थ ऊतकों को भी बड़े परिमाण में हानि पहुँचाए बिना नहीं रहती ।रोग के कारण व उपचार के विवेचन में ही इस मूलभूत अंतर को समझ लेना अत्यंत आवश्यक है । मात्र लक्षणों के ही आधार पर शमन की प्रक्रिया न अपनाकर मूल विकार जो जड़ से उखाड़ फेंक दिया जाए, यह पवित्र उद्देश्य लेकर चला जाए तो वह प्रयोजन पूरा होता है, जिसके लिए चिकित्सा विज्ञान की उत्पत्ति व वनौषधि का विधान प्रकृति जगत में विधाता द्वारा किया गया है । एकौषधि चिकित्सा में जड़ी बूटी के सूक्ष्मी करण स्वरूप के शरीर में प्रवष्टि होने पर यह मानकर चला जाता है कि एक निरापद उपचार प्रक्रिया पूरी की जा रही है ।

स्वस्थ एवं व्याधिग्रस्त जीवकोष परस्पर गुथे होते हैं । सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखने पर ज्ञात होता है कि इन्हें किसी स्थूल प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता । एण्टीबायोटिक दवाएँ फफूँद उत्सर्जित तीव्र रसायन हैं । ये जब शरीर में पहुँचती हैं तो बड़ी तेजी से प्रतिक्रिया करती हैं । जहाँ ये रोग के जीवाणुओं को मारती हैं, वहीं लाभकारी सहजीवी जीवाणुओं का भी कत्लेआम करती हैं । रसायन यह अंतर थोड़े ही कर पाता है कि मुझे स्वस्थ को चोट पहुँचानी है या अस्वस्थ को । जीवाणु जिस स्थान में बैठे होते हैं वह तथा आसपास का सारा क्षेत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है । इसी प्रकार मिर्गी दौरों को दबाने वाली संशोषित बार्जिचुरेट्स दवाएँ जब भी दी जाती हैं, वे विद्युत्सक्रिय स्नायु कोषों को ही नहीं, सारे मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों पर अवसादक प्रभाव डालती हैं । रोगी 'डल' सुस्त-सा अपनी क्षमताएँ समाप्त होते अनुभव करता है ।

यह तो हुई स्थूल दृष्टि से मुँह से या इन्जेक्शन द्वारा दी गई स्थूल औषधियों की चर्चा । सूक्ष्मीकृत औषधियाँ मात्र रोग से लड़ती हैं, रोगी से नहीं । जड़ी बूटियाँ इसी प्रकार उचित मात्रा में उचित विधि से अनुपान भेद द्वारा सेवन करायी जाती हैं । इनके अवांछनीय परिणाम नहीं होते । इस तथ्य की वैज्ञानिकता असंदिग्ध है । यदि जड़ी बूटी की तुलना संशोषित रसायन औषधि से की जाए तो ज्ञात होता है कि रासायनिक दृष्टि से जहाँ प्राकृतिक औषधि में सक्रिय औषधि की मात्रा एक दसवें भाग से भी कम है वहाँ रसायन औषधियाँ अंदर से बाहर तक ऐसे सक्रिय तत्वों से निर्मित हैं जिनका जर्रा-जर्रा घातक तेज क्रिया हेतु कृत संकल्प है ।

प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जड़ी बूटियों में जल फाईबर स्टार्च आदि उनके 99 प्रतिशत से भी अधिक भाग का निर्माण करते हैं । जो भी सक्रिय तत्व इस वनौषधि में है उनके संभावित दुष्परिणामों को रोकने वाले घटक भी रेजिन्स पेप्टाइड एवं रेशे के रूप में उसी में विद्यमान होते हैं । पर यदि दूरदर्शिता को एक ओर रखा एक्टिव इन ग्रेडीएण्ट उस वनौषधि के सक्रिय रसायन तत्व मात्र को अलग कर उसकी रचना जानकर उसे संशोषित कर रोगी को दिया जाए तो वह बाधित कम, तीव्र, घातक, दुष्परिणाम अधिक उत्पन्न करेगा । यह स्थिति अनुपान भेद द्वारा ताजी तोड़कर रोगी को दी गई अथवा सूखी पिसी औषधियों में नहीं उत्पन्न होती ।

सर्पगंधा औषधि का उदाहरण उपरोक्त तथ्य को और अधिक स्पष्ट करता है । 'शवोल्फिया सर्पेण्टीना' नामक यह औषधि आर्युवेद में चिरपुरातन काल से मानसिक रोगों व रक्त भाराधिक्य में प्रचलित है । इसके 20 एल्केलाइड्स (क्षारभ) रासायनिक प्रक्रिया द्वारा अलग किए जा चुके हैं व उन्हें कृत्रिम निर्माण विधि द्वारा संशोशित भी किया जा चुका है । यदि इसके एक ही एल्केलालाइड 'रिसर्पीन' को रोगी को दिया जाए तो वह रक्तचाप में कमी लाता है व आज रक्तचाप की बहुप्रचलित औषधि भी है । पर इसके दुष्प्रभाव इतने हैं कि कोई गिनती नहीं । मानसिक बेचैनी, तनाव, आत्महत्या की प्रवृत्ति नाक में तीव्र खराश, खून बहना जैसे कई दुष्प्रभाव 80 प्रतिशत से अधिक रोगियों में होते हैं ।

यदि वही सर्पगंधा पौधे के रूप में दिया जाए तो उल्टे मानस रोग की अचूक औषधि बन जाता है । उन्माद में विशेष लाभदायक सिद्ध होता है । सर्पगंधा की जड़ जो बहुत कड़वी होती है, यदि बिना वमन किए खाई जा सके तो उसमें रिसर्पीन की मात्रा इतनी अधिक कम पर इतनी सूक्ष्म होगी कि उसके रक्तचाप पर वांछित परिणाम ही मिलेंगे । धीरे-धरी बढ़ा हुआ रक्त भार नियंत्रण में आ जाएगा । वह मात्रा की दृष्टि से रक्त में इतनी नहीं पहुँचेगी कि रोगी अवसाद ग्रस्त हो जाए या आत्महत्या कर ले, जैसा कि रिसर्पीन या सर्पीना दवा को लेने पर होता है ।

प्राकृतिक रूप में प्राप्त पौधों में प्रभावी रसायनों की मात्रा गोली इंजेक्शन आदि की तुलना में कम, पर सूक्ष्म होती है । वह कभी दुष्परिणाम उत्पन्न कर ही नहीं सकती । वह मात्रा सुई की तरह काँटे को दुष्परिणाम उत्पन्न कर ही नहीं सकती । वह मात्रा सुई की तरह काँटे को निकालती है, अन्य ऊतकों को क्षुब्ध नहीं करती । यही कारण है कि अब धीरे-धीरे औषधि रूप में प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जड़ी बूटियों का महत्त्व जन साधारण की समझ में आने लगा है । जीवनी शक्ति संवर्धन एवं रोगों के मूल कारण का निवारण, यह द्विविध प्रक्रिया प्राकृतिक औषधि उपचार से भली भाँति सम्पन्न होती देखी जाती है । ये प्रयोग किस सीमा तक वैज्ञानिक हैं, इसका एक और विलक्षण उदाहरण एक छोटी सी दैनिक प्रयोग में आने वाली प्राकृतिक औषधि हरिद्रा (हल्दी) है ।

जब शरीर में कहीं भी चोट लगती है तो अनेकानेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं । चोट के स्थान पर सूजन के अतिरिक्त पूरे संस्थान में एक 'स्ट्रेस इफेक्ट' के कारण रक्त में 'कैटेकालअमीन' नामक हारमोन्स का स्तर बढ़ जाता है । इसके प्रभाव से जहाँ रक्त नलिकाएँ सिकुड़ती हैं वहाँ दूसरी ओर रक्त शर्करा का स्तर भी बढ़ जाता है । मन बेचैन और उत्तेजित हो जाता है । उसका कारण भी ये हारमोन्स ही हैं । यह बेचैनी रक्त में शक्कर को और बढ़ा देती है, जो घाव के भरने में बाधक है साथ ही जीवाणुओं की फसल लहलाने के लिए उर्वर भूमि भी । जहाँ त्वचा भंग हुई, वहाँ जीवाणु का संक्रमण हुआ । ये सारी व्यवस्थाएँ शरीर संस्थान की प्रतिक्रिया के कारण हुई । अब यदि इस चोट, सूजन, संक्रमण, बेचैनी का उपचार खोजना हो तो दो मार्ग सामने हैं । एक प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जड़ी बूटियाँ, दूसरे आधुनिक संशोषित औषधियाँ । पहले प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त औषधि हल्दी पर विचार किया जाए ।

हल्दी को चोट के स्थान पर लगाने का चिरपुरातन घरेलू स्वरूप सुपरिचित है एवं मुँह से खिलने का भी । वैज्ञानिक खोजें यह सिद्ध करती हैं कि हल्दी में जो रसायन पाए जाते हैं वे सूजन को उतारते हैं । इसका यह प्रभाव उतना ही समर्थ-बलशाली है, जितना कि एलोपैथी की गत दशक में खोजी गई 'हाईड्रोकार्टिसोन' नामक औषधि का । हल्दी के प्रायोगिक परीक्षण यह सिद्ध करते हैं कि यह रक्त में ग्लूकोज का स्तर कम करती है ताकि प्रवेश पाए रोगाणुओं को फलने-फूलने का मौका न मिले । ग्लूकोस टॉलरेन्स के उड़ने से जीवनी शक्ति भी बढ़ती है एवं श्वेतकणों तथा सुरक्षा के लिए उत्तरदायी जीवकोषों को चोट के स्थान पर पहुँचने में कोई परेशानी नहीं होती । यही नहीं अन्य द्रव्य गुणपरक प्रभाव भी यही बताते हैं कि यह औषधि समग्र रूप से रक्त शोधक भी है ।

'करक्यूमा लांबा' नाम से वैज्ञानिक जगत में प्रख्यात हल्दी में 10-12 प्रतिशत जल, 4 से 12 प्रतिशत फैटी ऑइल, 4.2 से 14 प्रतिशत इसेन्सियल ऑयल, 5 से 13 प्रतिशत मिनरल्स होते हैं । इसे इसका पीला रंग करकुमिन नामक पदार्थ के कारण मिलता है । इसमें 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन 'ए' भी होता है । हल्दी से निकलने वाले तेल को 'टरमेरिक ऑइल' कहते हैं । जिसमें अरजबाबायोजन तथा टरमेरिक जैसे सक्रिय पदार्थ होते हैं, जो सारी क्रियाओं के लिए उत्तरदायी होते हैं ।

इन रसायनों के माध्यम से हल्दी में एण्टी हिस्टेमिनिक प्रभाव (एलर्जी प्रतिक्रिया का शमन) तथा पिटुचरी एड्रोजन एक्सिस को प्रभावित करने वाले गुण आते हैं । हल्दी मानसिक उत्तेजना को घटाती है । उत्तेजना का कारण होता है-स्ट्रेम इफैक्ट के कारण काटिमलि नामक रस का स्राव । गुर्दे के ऊपर स्थित एड्रीनल ग्रंथि से उत्सर्जित इस रस को हल्दी तुरंत रक्त में कम कर देती है । चोट के स्थान पर लगाई गई हरिद्रा अपने जीवाणु नाशक गुणों के कारण ग्राम पॉजिटिव एवं ग्राम निगेटिव रागाणुओं से मोर्चा लेकर उन्हें समाप्त कर देती है । सूजन भी उतारती है तथा संक्रमण भी नहीं पनप पाता । संस्थानिक प्रभाव (मुँह से ली गई औषधि के कारण) शेष कार्य पूरा कर देता है । बलवर्धक होने के कारण (तेल तथा कार्बोहाइड्रेट होने के फलीभूत) यह क्षति पूर्ति में भी सहायक होती है । आर्युवेद ग्रंथ लिखते हैं-

हरिद्रा काञ्जनी पीता निशाख्या वरणवर्णिनी । कृमिघ्ना हल्दीयोषित्पि्रया हट्टविलासिनी॥ (भाव प्रकाश) एवं हरिद्रा तु रसे तिक्ता रुक्षौप्णा विषकुष्ठनत् । भेदहैकण्डूत्रणान् हन्ति देहवर्ण विघायिनी॥ (धन्वन्तरि निघण्टु)

इसी कारण इसे हरिद्रा (हरि वर्ण द्राति संवोधयति-जो काया के वर्ण को ठीक करे) काञ्जनी, वरवणनी, गौरी, कृमिघ्ना, योषित प्रिया, रुद्राविलासिनी जैसे काव्यात्मक नाम दिए गए हैं । स्थानीय लेप तथा मुँह से लेने के अतिरिक्त इसे धूम्र के रूप में मूच्छर् श्वांस एवं हितका रोगों में भी सफलता के साथ प्रयुक्त करते हैं । कुष्ठ एवं अन्य व्रण रोगों में तो यह दी ही जाती है ।

अब इसके समानान्तर वे औषधियाँ देखी जाएँ, जो संशोषित रसायनों के रूप में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में प्रयुक्त होती हैं । एलोपैथी में सूजन-चोट की सर्व प्रचलित दवा एस्पिरीन या एसिटिल सेलिसिलिक एसिड । यह दर्द दूर करने में प्रभावशाली भूमिका निभाती है, पर इसके अलावा उनका कोई और योग नहीं है । सेलिसिलेट्स ग्लूकोस को घटने के स्थान पर बढ़ाते हैं, मानसिक उत्तेजना में वृद्धि करते हैं तथा पेट की शेष्मा में सूजन लाते हैं । व्रण तक उत्पन्न कर आमाशय से रक्तस्राव भी बढ़ा सकते हैं । ये रसायन न तो बलवर्धक हैं, न जीवाणुनाशक । यह बात और है कि यह कृत्रिम संशेषित रसायन, स्पायरिया वृक्ष के फूलों के रस से प्राप्त सेलसिन नामक रसायन के न्यूक्लियस की रचना से मिलता हुआ बनाया गया था । कारण था सेलिसिन में उन सब गुणों का होना जो सूजन उतारने के लिए आवश्यक है । पर चूँकि उसे विशुद्ध रसायन के रूप में दिया जाने लगा तो वे प्रभाव जाते रहे जो समग्र औषधि में थे ।
अन्य सूजन उतारने वाले औषधियाँ (एण्टी इन्फ्लेमेटरी) हैं-फिनाइल ब्यूटाजोन, ऑक्सीफेन ब्युटाजोन, इण्डोमेथेसीन, स्टेराइड्स इत्यादि । रसायन मात्र को ही लक्ष्य मानकर दी जाने वाली ये औषधियाँ किसी भी रूप में वनौषधियों की तुलना में नहीं ठहर पातीं । उलटे इनके तेज प्रभाव से ऐसे-ऐसे दुष्परिणाम देखे जाते हैं कि कोई भी व्यक्ति एक बार उन्हें प्रत्यक्ष किसी के शरीर में घटते देख इन्हें लेने का विचार भी मन में नहीं ला सकता । वनौषधि चिकित्सा समग्र इसलिए ठहरती है कि वह एक पूरे जैविक संस्थान की चिकित्सा को अपना उद्देश्य मानकर चलती है ।

रोगों का होना एक अस्वाभाविक स्थिति है । ऐसे में उस प्रक्रिया को कृत्रिम रसायन और विकृत कर देते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि क्षतिपूर्ति अपने सहज प्राकृतिक रूप में की जाए एवं वह अपने आप में समग्र हो । आधुनिक दवाओं की तुलना में इसीलिए जड़ी-बूटियों की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है । वे सर्वसुलभ हैं, समर्थ हैं, हर कोई उन्हें उपयोग कर सकता है, हानिरहित हैं ।

थोड़ी-थोड़ी मात्रा में होते रहने वाले इन वनौषधियों के प्रभाव एक-दूसरे का समर्थन ही करते हैं (पोटेऍशन), काट नहीं । यह दोष एलोपैथिक औषधियों में देखने को मिलता है । इसे 'ड्रग इन्टरएक्शन' कहा जाता है । यह प्रतिक्रिया जड़ी-बूटियों में न होने का एक अन्य कारण यह भी है कि कोई भी सक्रिय प्रमुख तत्व (क्टिवपिरसीपल) उनमें रासायनिक रूप से उन्मुक्त या फ्री नहीं होता, वरन् वह अन्य हानिरहित पदार्थों में गुँथा रहता है । धीरे-धीरे इस गुंथन से मुक्त होता हुआ वह अपने रासायनिक प्रभाव दिखाता रहता है ।

पूरे प्रकृति जगत में प्रायः 4 लाख से भी अधिक पौधे हैं । इसमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चिकित्सा की दृष्टि से किसी न किसी प्रकार उपयोगी न हो । इस संबंध में एक अख्यान बहुप्रचलित है । एक बार ब्रह्माजी ने जीवक ऋषि को आदेश दिया कि पृथ्वी पर जो भी पत्ता-पौधा, वृक्ष-वनस्पति व्यर्थ दिखें, तोड़ लाओ ।
11 वर्ष तक पृथ्वी पर घूमते रहने के बाद ऋषिवर लौटे और ब्रह्माजी के समक्ष नतमस्तक हो बोले-'प्रभो! इन ग्यारह वर्षों में पूरी पृथ्वी पर भटका हूँ, प्रत्येक पौधे के गुण-दोष को परखा है, पर पृथ्वी पर एक भी ऐसा वृक्ष न मिला जो किसी न किसी व्याधि के उन्मूलन में सहायक न हो ।' इस आख्यान से वृक्ष-वनस्पतियों की औषधीय गुणवत्ता का भावन होता है ।

अभी तक सारे संसार की 4 लाख प्रकार की वनस्पतियों में मानव मात्र 8 हजार के गुण जान पाया है । वह भी आप्तवचनों के उद्धृत औषधि संदर्भों के कारण । जितनी भी औषधियाँ आज प्रचलित हैं, उनमें से अधिकसंख्य की जानकारी विश्व मानव को भारत वर्ष ने दी है । यही एक प्रमुख कारण है कि इन पौधों की गरिमा को जीवंत बनाए रखने का उत्तरदायित्व हम सबके लिए और भी बढ़ जाता है । विशेषकर इसलिए भी कि बढ़ती रुग्णता, संक्रामक रोगों, कुपोषण की समस्याओं से ग्रस्त भारत जैसे निर्धन कहे जाने वाले राष्ट्र के लिए इन वनौषधियों का प्रचलन ही एकमेव सर्वोपयोगी मार्ग है ।

चीन में यही हुआ है । सर्वाधिक जन संख्या वाले इस राष्ट्र ने अपनी सारी चिकित्सा पद्धति का आधार जड़ी-बूटियों को बनाया है । वहाँ की जन संख्या है-1 अरब 10 करोड़ जो विश्व की जनसंख्या की एक चौथाई है । यदि वहाँ प्रति 5000 व्यक्ति के पीछे भी एक चिकित्सक की बात सोची जाती एवं इस व्यवस्था पर यदि प्रतिमाह दस हजार रुपये कम से कम खर्च माना जाता तो पूरी जनसंख्या के लिए ढाई लाख चिकित्सक, इतने से दुगुने स्वास्थ्य सहायक, चौगुन अन्य कर्मचारी एवं करीब 2 अरब 20 करोड़ रुपए का नियमित मासिक बजट आवश्यक माना जाता । परंतु दूरदर्शिता पूर्ण चिंतनकर उन्होंने रोग निवारण हेतु पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति को दो प्रमुख कारणों से नहीं अपनाया । इनके हानिकारक दुष्प्रभाव एवं इनका इतना महंगा होना कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का ही असंतुलित हो जाना । चीन की स्वास्थ्य व्यवस्था में नंगे पैर डॉक्टर (बेयर फूटेड डॉक्टर) को प्रमुखता दी गई है ।

ऐसे प्रायः 18 लाख व्यक्ति स्वयं सेवक के नाते निर्धारित सूदुर ग्रामीण क्षेत्रों में सतत घूमते रहते हैं । अपने 3 माह के प्रशिक्षण एवं प्राकृतिक रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वनौषधियों के माध्यम से स्वच्छ-स्वस्थ बने रहने की शिक्षा एवं छोटे-छोटे शारीरिक असंतुलनों में वनौषधि उपचार के रूप में स्वास्थ्य परामर्श बराबर देते रहते हैं । अधिकांश रोग इतने मात्र से ही ठीक हो जाते हैं । अपने साथ वे कुछ सामान्य ऐसी जड़ी-बूटियाँ एवं खरल आदि रखते हैं जिनकी अधिकतर जरूरत पड़ती रहती है । प्राकृतिक औषधि संपदा की पहचान एवं उनके उपयोग के विषय में भी ये निष्णात होते हैं ।

कुछ रोग ऐसे हो सकते हैं, जिनमें व्याधि नियंत्रण इस वनौषधियों से संभव न हो अथवा रोग की पहचान ठीक प्रकार से न हो पाए तो ये अपने से वरिष्ठ स्वास्थ्य सहायकों तक रोगी को पहुँचा देते हैं । इस सिस्टम द्वारा चीन ने न केवल अपनी जनता का स्वास्थ्य सुधारा है, उनकी अपेक्षित आयु में वृद्धि की है, अपितु कई ऐसी नई-नई औषधियाँ विश्व को दी हैं जो गुणों में सभी आधुनिक औषधियों से कहीं अधिक सामर्थ्यवान बैठती हैं ।

आयुर्वेद का इतिहास खोजें तो ज्ञात होता है कि इसका उद्भव ईसा से 400 वर्ष पूर्व हुआ, जबकि भारत से इस संदर्भ के ग्रंथ तिब्बत होते हुए चीन पहुँचे । एक तिब्बती पाण्डुलिपी जो ल्हासा संग्रहालय में पायी गयी है, में इसका वर्णन मिलता है । इसमें उद्धृत दस हजार से भी अधिक औषधियों में जगह-जगह चरक एवं सुश्रूत के संदर्भ हैं । इसका नाम है-''रि्युदब्झी'' । इसमें ऋक् और उद्भिज दो शब्दों की सम्मिलित ध्वनियाँ हैं । यह ग्रंथ सन् 820 ईसवी का खि माना जाता है ।

इसी चिरपुरातन आयुर्वेद को चीन ने जिन्दा बनाए रखा और परिणाम सामने है । अधिकांश रोगों में ऑपरेशन आवश्यक नहीं माना जाता । केवल वनौषधि उपचार से ही आंत्र-अवरोध जैसी अपातकालीन व्याधि को मिटाने में चीनी चिकित्सक सफल हुए हैं । (चिंग हाओ सू बर्म बुड), मूचिंग (वायटेक्स निगुण्डो अर्थात् र्निगुन्दी), सल्विया मिल्टीओराइजा (हृदय आघात में), सिफेलोटॉक्सस हेनानेन्सिस ली (रक्त कैन्सर में), निगसैंग (एलोपैथी) जैसी जड़ी-बूटियाँ चीन में बहुत प्रचलित हैं। इनका संदर्भ इण्डियन फर्मेकोपिया में भी विशद रूप में मिलता है । रियम टांगुर्टक, मैग्नोलिया ऑफसिनेलिया जैसी औषधियों से बिना चीर-फाड़ के पेट की व्याधियों (आंत्र अवरोध आदि) का उपचार कर लिया जाता है। यह सारा वनस्पति संबंधी ज्ञान जिस प्रकार आधुनिक संदर्भ में चीन द्वारा प्रयुक्त हो रहा है, उसके प्रत्यक्ष सत्परिणाम सारे विज्ञान जगत के समक्ष है ।

इस प्रकार निष्कर्ष यही निकलता है कि चिकित्सा के उन्हीं आधारों को जीवित किया जाना एवं जीवन्त बनाए रखना चाहिए जो मानव की जीवनी शक्ति बढ़ाने सहायक हों । उसके लिए मानव को प्रकृति की शरण में जाना होगा । हरीतिमा संवर्धन सभी दृष्टि से मनुष्य के लिए लाभकारी है । इस हरीतिमा में रोग निवारक औषधियाँ भी हैं और शरीर की कमियाँ दूर करने वाले पौष्टिक तत्व भी । सोवियत रूस व पूर्व जर्मनी, हंगरी जैसे राष्ट्रों ने भी वनौषधियों को पूरा महत्त्व दिया है एवं खेल जगत में एथलीटो धावकों की, अंतरिक्ष यात्रियों व सेना के जवानों की कार्य क्षमता, वायटेलिटी को काष्ठ औषधियों के प्रयोग द्वारा काफी सीमा तक बढ़ाया है ।

'एल्यूकेरोकोकस सेण्टीकोसस' नामक वानस्पतिक नाम से प्रसिद्ध आकार में गिनसैंग से मिलती-जुलती औषधि के प्रयोग द्वारा वे खेल जगत में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुके हैं । इन औषधियों का वर्णन कहीं पाश्चात्य फर्मेकोपिया में तो नहीं आता पर इसकी विशेषताएँ सौम से काफी मिलती-जुलती है । लंबी खोखला कर देने वाली व्याधियाँ जैसे क्षय, एनीमिया कैंसर आदि में प्रयोग कर रूसी वैज्ञानिकों ने निवारण में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है । यह मात्र प्रकृति की चिकित्सा का अवसर देने की चमत्कारी फलश्रुति है ।

भारत की स्थिति को देखते हुए वह चिकित्सा पद्धति ही उपयुक्त जान पड़ती है जो जन सुलभ हो । एक अनुमान के अनुसार देश में 6 करोड़ से भी अधिक क्षय रोग ग्रस्त व्यक्ति हैं, कुपोषण से ग्रस्त तथा उनकी संख्या भी करोड़ों में ही है जो किसी न किसी व्याधि से पीड़ित होने के कारण माह में एक सप्ताह काम योग्य नहीं रहते । यदि इन्हें मात्र प्रारंभिक उपचार की सुविधा उपलब्ध हो जाए तो वे नीम हकीमों के हाथ पड़कर अपना स्वास्थ्य और भी बिगाड़ने से स्वयं को बचा सकें व करोड़ों रुपए की आर्थिक हानि को भी बचाया जा सके ।

उच्च शिक्षा प्राप्त चिकित्सक तो विदेश बसना या शहरों में निजी प्रैक्टिस करना अधिक पसंद करते हैं । सम्मिश्रण व मिलावट के कारण आयुर्वेद पर से लोगों की श्रद्धा घटती जा रही है । ऐसे में मूलतः देहातों व कस्बों तक स्वास्थ्य संरक्षण का सही शिक्षण कैसे पहुँचे, यही सोचकर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने इस घरेलू उपचार पद्धति को प्रतिपादित व प्रचारित किया है । इस चिकित्सा पद्धति के वैज्ञानिक आधारित इतने सशक्त हैं कि बिना किसी ऊहापोह के इसे बहुसंख्यक व्यक्तियों (ज्ञातव्य है कि लगभग 60 करोड़ व्यक्ति देहातों या कस्बों में बसते हैं) तक पहुँचाया जा सकता है एवं एक समानान्तर चिकित्सा-व्यवस्था खड़ी की जा सकती है ।

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