
चार पीठों की स्थापना
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मंडल मिश्र ने, जिनका नाम अब सर्वेस्वराचार्य हो गया था, अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा- ‘‘गुरूदेव! उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम को एक धागे में बाँधने के लिए चार धर्म- पिठों की स्थापना करनी चाहिए। समस्त भारतीय जनता को इस बात के लिए प्रेरित किया जाए कि वे धर्म और आत्म-कल्याण की भावना से इनका तीर्थाटन किया करें। इस तरह ये लोग प्रांतीयता के भेद- भाव से ऊपर उठकर परस्पर मिलेंगे- जुलेंगे और इन तीर्थ-स्थानों के मिलने वाली साधना ज्ञान और धर्मनिष्ठ की प्रेरणा उनके व्यक्तिगत जीवनों का भी सुधार करेगी, आत्म- कल्याण का उद्देश्य भी पूरा होगा। इस प्रकार देश संगठित बना रहेगा और लोगों में भातृ-भाव मजबूत होता रहेगा।’’
शंकराचार्य इस विचार से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने इसी उद्देश्य से घोषणा की कि, जो लोग बद्रिकाश्रम से जल लेकर रामेश्वरम् में चढ़ाया करेंगे, वे मुक्ति के अधिकारी हुआ करेंगे। इस भावना के पीछे सांस्कृतिक एकता के प्रयत्न और संकल्प- पूर्ति की भावना का विस्तार छुपा था, जो आज तक यथावत् चला आ रहा है और उत्तर-दक्षिण में एक धार्मिक मेखला का काम कर रहा है। पूर्व में जगन्ननथपुरी और पश्चिम में द्वारका के समीप भी शंकर मठ है। यह चारों धाम आज भी धार्मिक जनता के लिए श्रद्धा केंद्र और राष्ट्रीय संगठन की आधारशीला बने हुए हैं।
बड़े कार्यो के लिए बड़े प्रयत्न-
कंश की दुष्प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए भगवान् कृष्ण अकू्रर का सहयोग लिया था। धर्म के नाम पर फैले अनाचार को रोकने के लिए बौद्ध धर्म खड़ा हुआ, तो उसके पाँव महाराज अशोक ने मजबूत किए। यवन आक्रमणकाारियों से भारतीय संस्कृति की रक्षा की समस्या आइ र्तब समर्थ गुरू रामदास को छत्रपति शिवाजी ने साथ दिया। महाराणा प्रताप देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करके भी जब स्वतंत्रता की रक्षा न कर सके तब भामा शाह ने उन्हें धन, जन और आजादी की प्रेरणा दी। महान् कार्यो के लिए महान् प्रयत्नों और सहयोगों की सदैव आवश्यकता हुई है।
जगद्गुरू शंकराचार्य द्वारा चार मठों की स्थापना और वैदिक धर्म के प्रसार के लिए ब्रह्मविद्यालय, गुरूकुल, ज्ञान- दीक्षा के पुस्तकालय, साहित्य-सृजन और ज्योति पीठों की स्थापना यह ऐसे बड़े काम थे, जो स्वयं उनकी आध्यात्मिक शक्ति से भी परे थे। उधर प्रतिक्रियावादियों के आघात् भी हो रहें थे, वैदिक धर्म को गिराने का भी पूरा प्रयत्न किया जा रहा था। ऐसे समय में एक बार तो शंकराचार्य भी निराष हो उठे कि, यह आवश्यकताएँ कैसे संपन्न होंगी?देश के सांस्कृतिक पुनरूत्थान की यह योजनाएँ कैसे पूरी होंगी?
भगवान् शंकराचार्य का महान् कार्य फिर भला अधूरा कैसे रहता? उन महा पुरूषों के संकल्पों की पूर्ति के लिए दक्षिण के महाराज ‘‘माधाता’ भामाशाह की तरह आगे आए। उन्होंने जगद्गुरू यांकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कियाऔर धर्म के लिए अपना राज्यकोष, जनबल और अपना निजी व्यक्तित्व सब कुछ उनके चरणों में सौंप दिया। फिर क्या था, रूके हुए काम चल पड़े। जगद्गुरू के आध्यात्मिक तथा रचनात्मक कार्यक्रम सभी योजनाबद्ध रूप से बड़ी सफलता पूर्वक चलने लगे। शंकराचार्य के प्रचार अभियान में मांधाता की सेवा बहुत सहायक सिद्ध हुई। सुरक्षा के लिए सेना, यात्रा के लिए धन,रचनात्मक कार्यो के लिए कुशल विशेषज्ञ मिल जाने से सारी व्यवस्था सरल बन गई। जो कार्य वर्षों की तपस्या के बाद संपन्न हो सकता था, वह इन साधनों के जूट जाने से बहुत सरल हो गया। राजा मांधाता के इस उदारता ने जगद्गुरू के महान् कार्य में चार चाँद लगा दिए ओर वह पूण्य सहयोगी अपनी इस उदारता के कारण् वशः शरीर से अमर हो गया। भारतीय संस्कृति शंकराचार्य की तरह ही उदारमना मांधाता की भी चिर कृतज्ञ रहेगी।