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Books - काम तत्व का ज्ञान विज्ञान

Media: TEXT
Language: HINDI
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कामुक उच्छृंखलता के दूरगामी दुष्परिणाम

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पिछले दिनों अग्नि तत्व को बहुत महत्व मिला और सोम एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहा। फलतः सृष्टि का—समाज का—सारा सन्तुलन गड़बड़ा गया। हवन कुण्ड के चारों ओर एक पानी की नाली भरी रखी जाती है। कर्मकाण्ड के ज्ञाता जानते हैं कि यज्ञ कुण्ड में अग्नि कितनी ही प्रदीप्त क्यों न रहे उसके चारों ओर घेरा सोम का जल का ही रहना चाहिए। अग्नि को उतने समारोह पूर्वक यज्ञ आयोजनों में स्थापित नहीं किया जाता जितनी धूमधाम के साथ कि जल यात्रा की जाती है और जल देवता को स्थापित किया जाता है। अग्नि का—ग्रीष्म ऋतु का उत्ताप तीव्र होते ही वर्षा ऋतु दौड़ आती है और उस तपन का समाधान प्रस्तुत करती है।

नर की अग्नि ऊष्मा और नारी की सोम, जल कहा गया है। नर की प्राण शक्ति का पुरुषार्थ क्षमता और कठोरता का बौद्धिक प्रखरता का अपना स्थान है और उसका उपयोग किया जाना चाहिए पर यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया गया—नारी का नियन्त्रण उस पर न हुआ तो सृष्टि में क्रूरता और दुष्टता का उत्ताप ही बढ़ता चला जायगा। परम्परा यह रही है कि नर के श्रम साहस का उपयोग क्रम चलता रहा है, पर नारी ने अपनी मृदुल भावनाओं से उसे मर्यादाओं में रहने के लिए नियन्त्रित और बाध्य किया है। उसकी मृदुल और स्नेह सिक्त भावनाओं ने क्रूरता को कोमलता में बदलने की अद्भुत सफलता पाई है। यह क्रम ठीक तरह चलता रहता पुरुष का शौर्य, ओजस् अपनी प्रखरता से सम्पदायें उपार्जित करता और नारी अपने मृदुलता से उसे सौम्य सहृदय बनाती रहती तो दोनों सही पहियों की गाड़ी से प्रगति की दिशा में सृष्टि व्यवस्था की यात्रा ठीक प्रकार सम्पन्न होती रहती। चिरकाल तक वही क्रम चला। उपार्जन नर ने किया और उसका उपयोग नारी ने। अब वह क्रम नहीं रहा। अब उच्छृंखल नर हर क्षेत्र में सर्व सत्ता सम्पन्न हुआ दैत्य, दानव की तरह निरंकुश सत्ता का उद्धत उपयोग कर रहा है। नारी तो मात्र भोग्या, रमणी, कामिनी बन कर विषय विकारों की तृप्ति के लिए साधन सामग्री मात्र रह गई है। उसके हाथ से वे सब अधिकार छीन लिए गये जो अनादिकाल से उसे सृष्टिकर्ता ने सौंपे थे।

वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में दिशा निर्धारण के सूत्र नारी के हाथ में रहने चाहिये। तभी उपलब्ध सम्पदाओं का सौम्य सदुपयोग सम्भव हो सकेगा। आज हर क्षेत्र में विकृतियों की विभीषिकायें नग्न, नृत्य कर रही हैं इसके स्थूल कारण कुछ भी हों सूक्ष्म कारण यह है कि नारी का वर्चस्व नेतृत्व कहीं भी नहीं रहा, सर्वत्र नर की ही मनमानी, वरजानी चल रही है। उसकी प्रकृति में जो कठोरता का भला या बुरा तत्व अधिक है उसी के द्वारा सब कुछ संचालित हो रहा है फलस्वरूप हर क्षेत्र में उद्धतता का बोलबाला दीख पड़ता है। जल के अभाव में अग्नि-सर्वनाशी दावानल का विकराल रूप धारण कर लेती है इन दिनों नारी को उपेक्षित, तिरस्कृत करने के उपरान्त जो विद्रूप अपनाया है उसका परिणाम व्यापक हाहाकार के रूप में सामने प्रस्तुत है।

स्थिति को बदलने और सुधारने के लिए भूल को फिर सुधारना होगा और वस्तुस्थिति उपलब्ध करने के लिए पीछे लौटना होगा। नारी का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जाय और उसके हाथ में नेतृत्व सौंपा जाय, यह समय की पुकार और परिस्थितियों की मांग है, उसे पूरा करना ही होगा। नवयुग-निर्माण के लिए जन मानस में जिन कोमल भावनाओं का परिष्कार किया जाना है वह नारी सूत्रों से ही उद्भूत होगा। युद्ध, संघर्ष, कठोरता, चातुर्य, बुद्धि कौशल के चमत्कार देख लिये गये। उनने सम्पदायें तो कमाई पर उसकी एकांगी उद्धत प्रकृति उसका सदुपयोग न कर सकी। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव सफलता की प्रतीक तो नारी है। उसी का वर्चस्व मृदुलता का संचार कर सकने में समर्थ है। उसे उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय तो उपार्जन कितना भी—किसी देश में क्यों न होता रहे—सदुपयोग के अभाव में वह विश्व घातक ही सिद्ध होता रहेगा। संतुलन तभी रहेगा जब नारी को पुनः उसके पद पर प्रतिष्ठापित किया जाय और शक्ति के उन्मत्त हाथी पर स्नेह का अंकुश नियोजित किया जाय। भावनात्मक नवनिर्माण का यह अति महत्वपूर्ण सूत्र है। नारी का पिछड़ापन दूर किये बिना—उसे आगे लाये बिना—कोई गति नहीं—इस कदम को उठाये बिना हमारी धरती पर स्वर्ग अवतरण करने और मनुष्य में देवत्व का उद्भव करने के हमारे स्वप्न साकार न हो सकेंगे।

प्रतिबन्धित नारी को स्वतन्त्रता के स्वाभाविक वातावरण में सांस ले सकने की स्थिति तक ले चलने में प्रधान बाधा उस रूढ़िवादी मान्यता की है जिसके अनुसार उसे या तो अछूत, बन्दी, अविश्वस्त घोषित कर दिया गया है या फिर उसे कामिनी को लांछना से कलंकित कर दिया है इन मूढ़ मान्यताओं पर प्रहार किये बिना उनका उन्मूलन किये बिना यह सम्भव न हो सकेगा कि अन्ध परम्परा के खूनी शिकंजे ढीले किये जा सकें और नारी को कुछ कर सकने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग कर सकना सम्भव हो सके। यह लेख माला इसी प्रयोजन के लिए लिखी जा रही है और यह प्रतिपादित किया जा रहा है कि नारी न तो कामिनी है—न अविश्वस्त न नरक में धकेलने वाली, न बन्दी बना कर रखी जाने योग्य, भूखी अथवा दासी। वह मनुष्य जाति की आधी इकाई है—और उसका व्यक्तित्व वर्चस्व नर के समान ही नहीं वरन् अधिक उपयोगी भी है। उसे सरल स्वाभाविक स्थिति में जीवन यापन करने की छूट दी जा सके तो विश्व की वर्तमान विषम परिस्थितियों में आश्चर्यजनक मोड़ लाया जा सकता है और अन्धकार से घिरा दीखने वाला मानव जाति का भविष्य आशा के आलोक में प्रकाशवान होता हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है।

सर्व साधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरुष-पुरुष मिल कर कुछ काम करें या स्त्रियां-स्त्रियां मिलकर सहयोग सान्निध्य जगावें तो व्यभिचार अनाचार की आशंका नहीं की जा सकती। उसी प्रकार नर और नारी मिलजुल कर रहें तो उसमें प्रकृतितः कोई जोखिम या कुकल्पना की ऐसी आशंका नहीं है जिससे भयभीत होकर आधे मनुष्य समाज पर-नारी पर अवांछनीय प्रतिबन्ध आरोपित किये जाये। नर-नारी का प्राकृतिक मिलना कितना उपयोगी आवश्यक एवं उल्लासपूर्ण है इसका परिचय हम भरे-पूरे परिवार में- जिसमें सभी वर्ग के नर-नारी अति पवित्रता के साथ रहते हैं- आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। घर परिवार में पति-पत्नी के जोड़ों के अतिरिक्त कौन किसे कुदृष्टि से देखता है या कुचेष्टा करता है। यह स्थिति विश्व परिवार में भी लाई जा सकती है और सर्वत्र नर-नारी समान रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्नेह सद्भाव का सम्वर्धन करते हुए आत्मिक और भौतिक विकास में परस्पर अति महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यह स्थिति लाई ही जानी चाहिए—बुलाई ही जानी चाहिए। अवरोध केवल गर्हित दृष्टिकोण ने प्रस्तुत किया है। इसके लिए अधिक दोषी कलाकार वर्ग है जिसने समाज के सोचने की दिशा ही अति भ्रमित करके रख दी, नारी को रमणी, कामिनी और वेश्या के रूप में प्रस्तुत करने की कुचेष्टा में जब कला के सारे साधन झोंक दिये गये तो जन मानस विकृत क्यों न होता? चित्रकार जब उसके मर्म-स्थलों को निर्लज्ज निर्वासना बनाने के लिए दुशासन की तरह अड़े बैठे हैं, कवि जब वासना भड़काने वाले ही छन्द लिखें, गायक जब नख शिख का उत्तेजक उभार और लम्पटता के हाव-भावों भरे क्रिया-कलापों को अलापें-साहित्यकार कुत्सा ही कुत्सा सृजन करते चले जायें-और प्रेस तथा फिल्म जैसे वैज्ञानिक माध्यमों से उन दुष्प्रवृत्तियों को उभारने में पूरा-पूरा योगदान मिले तो जनमानस को विकृत और भ्रमित कर देना क्या कुछ कठिन हो सकता है? हमें इस विकृति के मूल स्रोत कला के अनाचार को रोकना बदलना होगा। स्नेह और सद्भाव की-देवी सरस्वती के साथ किया जाने वाला यह बर्बर व्यवहार यदि उल्टा जा सकता हो तो लोक मानस में नारी के प्रति स्वाभाविक सौजन्य फिर पुनः जीवित किया जा सकता है।

रूढ़िवादियों से कहा जाय कि वे दिन में आंखें मलकर न बैठे रहें। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। औचित्य की प्रतिष्ठा करने के लिये बुद्धिवाद की प्रखरता प्रातःकालीन ऊषा की तरह उदय होती चली आ रही है। उसे रोका न जा सकेगा। कथा पुराणों की दुहाई देकर—प्रथा परम्परा का पल्ला पकड़ कर-अब देर तक वे प्रतिबन्ध जीवित न रखे जा सकेंगे जो नारी को व्यभिचारिणी और अविश्वस्त समझ कर उसे अगणित बन्धनों में जकड़े हुए हैं। विवेक और न्याय की आत्मा तड़प रही है, वह इस बात के लिये मचल पड़ी है कि नारी के साथ बरती जाने वाली बर्बरता का अन्त किया जाय। सो वह सब होकर रहेगा। उसे कोई भी अवरोध देर तक रोक न सकेगा। अगले दिनों निश्चित रूप से नर और नारी परस्पर सहयोगी बनकर स्नेह सद्भाव के साथ स्वाभाविक जीवन जियेंगे और एक दूसरे को आशंका या यौन आकर्षण की दृष्टि से न देखकर पुण्य सौजन्य के आधार पर निर्माण और निर्वाह के क्षेत्रों में प्रगतिशील कदम बढ़ाते चलेंगे। रूढ़िवाद के लिये उचित यही है कि समय रहते बदलें अन्यथा समय उनकी अवज्ञा ही नहीं दुर्गति भी करेगा। उदीयमान सूर्य रुकेगा नहीं, उल्लू, चमगादड़ और वनबिलाव ही चाहे तो मुंह छिपाकर किसी कोने में विश्राम लेने के लिए अवकाश प्राप्त कर सकते हैं।

इसी प्रकार तथाकथित सन्त महात्माओं को कहा जाना चाहिये कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता, और कलुषिता से डरें उसे ही भवबन्धन मानें। नरक की खान वही है। नारी को उस लांछना से लांछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करे जिसके पेट से वे स्वयं पैदा हुए हैं और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए हैं। अच्छा हो कोई हमारी पुत्री को न कोसे-भगिनी को लांछित न करे-नारी नरक की खान हो सकती है यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धान्त से तालमेल नहीं खाती। यदि बात वैसी ही होती तो अपने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाएं न रहती। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता। निरर्थक की डींगे न हांके तो ही अच्छा है। अन्तरात्मा प्रज्ञा, भक्ति, साधना, मुक्ति, सिद्धि यह सभी स्त्रीलिंग हैं। यदि नारी नरक की खान है और स्त्री लिंग, इस शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा है अध्यात्मवाद के नाम पर भौंड़ा भ्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रान्त करने की अपेक्षा उसे समेट कर अजायब घर की कोठरी में बन्द कर दिया जाय।

सर्वसाधारण को इस तथ्य से परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी को सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाय तो उससे किसी को कुछ भी हानि पहुंचने वाली नहीं है वरन् सबका सब प्रकार से लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाय। उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है मनुष्य को मनुष्य के अधिकार मिलने ही चाहिए। विश्व में राजनैतिक स्वतन्त्रता की मांग पिछले दिनों बहुत प्रबल होती चली आई है और उसने परम्परागत ताज, तख्तों को जड़ मूल से उखाड़ कर फेंक दिया। यह प्रवाह परिवर्तन राजनीति तक ही सीमित न रहेगा। मनुष्य के समान स्वाधीनता दिला कर ही वह गति रुकेगी। गुलाम प्रथा का अन्त हो गया अब दास-दासी खरीदे व बेचे नहीं जाते। वर्ग भेद और रंग भेद के नाम पर बरती जाने वाली असमानता के विरुद्ध आरम्भ हुआ विद्रोह प्रबल से प्रबलतर होता चला जा रहा है और दिन दूर नहीं जबकि मानवीय सम्मान और अधिकार से वंचित कोई व्यक्ति कहीं न रहेगा। जन्म-जाति, वंश, वर्ण, रंग आदि के नाम पर बरती जाने वाली असमानता अब देर तक जिन्दा रहने वाली नहीं है। वह अपनी मौत के दिन गिन रही है। इसी सन्दर्भ में यह भी गिरह बांध लेनी चाहिए कि नर और नारी के बीच बरता जाने वाला भेद भाव भी उसी अन्याय की परिधि में आता है। नारी को पराधीनता मनुष्य के आधे भाग की—आधी जनसंख्या की पराधीनता है। यह कैसे सम्भव है वह आगे भी आज की ही तरह बनी रहे। स्वतन्त्रता का प्रवाह नारी को भी इन अनीत मूलक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर रहेगा। दिन दूर नहीं कि गाड़ी के दो पहियों की तरह-शरीर को दो भुजाओं की तरह नर-नारी सौम्य सहयोग करते दिखाई पड़ेंगे। समय का प्रवाह आज नहीं तो कल इस स्थिति को उत्पन्न करके रहेगा। अच्छा हो वक्त रहते हम बदल जायें तो अमिट भावनाओं से लड़ मरने की अपेक्षा उसके लिये रास्ता खुला छोड़ दें—अच्छा तो यह है कि न्याय और विवेक की दिव्य किरणों के साथ उदय होने वाली इस ऊषा की अभ्यर्थना-करके अपनी सद्भाव सम्पन्नता का परिचय देने के लिए आगे बढ़ चलें।

नव निर्माण की प्रक्रिया इस दिशा में अधिक उत्सुक इसलिए है कि भावी विश्व का समग्र नेतृत्व नारी को ही सौंपा जाने वाला है। राज सत्ता का उपयोग पिछले दिनों आक्रमण, आतंक, शोषण और युद्ध लिप्सा के लिए होता रहा है पुरुष के नेतृत्व के दुष्परिणाम इतिहास का पन्ना-पन्ना बता रहा है। अब राज सत्ता नारी के हाथ सौंपी जायेगी ताकि वह अपनी करुणा और मृदुलता के अनुरूप राज सत्ता के अंचल में कराहती हुई मानवता के आंसू पोंछ सके। शिक्षा से लेकर न्याय तक—वाणिज्य से लेकर धर्म धारणा तक हर क्षेत्र का नेतृत्व जब नारी करेगी तब सचमुच दुनिया तेजी से बदलती चली जायेगी। कला के सारे सूत्र जब नारी के हाथ सौंप दिये जायेंगे तब उस देव मंच से केवल शालीनता की दिव्य धाराएं ही प्रवाहित होंगी और उस पुण्य जाह्नवी में स्नान करके जन मानस अपने समस्त कषाय कल्मष धोकर निर्मल निष्पाप होता दिखाई देगा।

नर का नेतृत्व मुद्दतों से चला आ रहा है उसकी करतूत करामात भली प्रकार देखी परखी जा चुकी। अच्छा है वह ससम्मान पीछे हट जाय और पेन्शन लेकर कम से कम नेतृत्व की लालसा से विदा हो ही जाय। करने के लिये बहुत काम पड़े हैं। पुरुष को उनसे रोकता कौन है? बात केवल नेतृत्व की है। बदलाव का तकाजा है कि ग्रीष्म का आतप बहुत दिन तप लिया अब वर्षा की शान्ति और शीतलता की फुहारें झरनी चाहिए। सर्वनाश की किस विषम विभीषिका में मनुष्य जाति फंसी पड़ी है उससे परित्राण नेतृत्व बदले बिना सम्भव नहीं। नारी की करुणा से ही नर की निरन्तर क्रूरता का परिमार्जन हो सकेगा। उसे सशक्त और समर्थ बनाने के लिए वह सब बौद्धिक प्रक्रिया सजीव करनी पड़ेगी जो इस लेख माला के अन्तर्गत प्रस्तुत की जा रही है।

नर-नारी के सम्मिलन से खतरा केवल एक ही है कि यह वर्तमान विकृत वासना का ताण्डव रोका नहीं गया तो पाश्चात्य देशों की तरह स्वच्छन्दता के वातावरण में बढ़ चला यौन अनाचार बिखर पड़ेगा और वह भी कम विघातक न होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नारी स्वातन्त्र्य के लिए हमें प्रयत्न करना है वहां यह चेष्टा भी करनी है कि कामुकता की ओर बहती हुई मनोवृत्तियों को परिष्कृत करने में कुछ उठा न रखा जाय। नारी का सौम्य और स्वाभाविक चित्रण इस सन्दर्भ में अति महान है। कला के विद्रूप को कोसने से काम न चलेगा, उसे गन्दे हाथों से छीन लेना शासन सत्ता के लिए तो सम्भव है पर हम लोग जन स्तर पर इस प्रजातन्त्र पद्धति के रहते कुछ बहुत बड़ा प्रतिरोध नहीं कर सकते हम यही कर सकते हैं कि दूसरा कला मंच खड़ा करें और उसके माध्यम से नारी की पवित्रता प्रतिपादित करते हुए लोक मानस की यह मान्यता बनायें कि नारी वासना के लिए नहीं पवित्रता का पुण्य स्फुरण करने के लिए है। कला मंच यह सब आसानी से कर सकता है। साहित्य का सृजन इसी दिशा में हो, कविताएं ऐसी ही लिखी जायें, चित्र इसी प्रयोजन के लिए बनें, गायक यही गायें, प्रेस यही छापें, फिल्म यही बनायें तो कोई कारण नहीं कि नारी का स्वाभाविक एवं सरल सौम्य स्वरूप पुनः जन मानस में प्रतिष्ठापित न किया जा सके ऐसी दशा में वह जोखिम न रहेगा जिसे पाश्चात्य लोग भुगत रहे हैं। उनने नारी स्वतन्त्रता तो प्रस्तुत की पर विकारोन्मूलन के लिए कुछ करना तो दूर उलटे उसे भड़काने में लग गये और दुष्परिणाम भुगतते रहे हैं। हमें यह भूल नहीं करनी चाहिए। हम दृष्टिकोण के परिष्कार के प्रयत्नों को भी नारी स्वातन्त्र्य आन्दोलन के साथ मोड़कर रखें तो निश्चय ही वैसी आशंका न रहेगी जिससे विकृतियों के भड़क पड़ने का विद्रूप उठकर खड़ा हो जाये। साथ ही हमें आध्यात्मिक काम विज्ञान के उन तथ्यों को सामने लाना होगा जिनके आधार पर यौन सम्बन्ध की—काम क्रीड़ा की उपयोगिता और विभीषिका को समझा जा सके और उसके दुरुपयोग के खतरे से बचने एवं सदुपयोग से लाभान्वित होने के बारे में समुचित ज्ञान सर्वसाधारण को मिल सके।

मरणं विन्दु पातेन जीवनं धारणात्

इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक द्वितीय विश्वयुद्ध भी है, जिसमें देखते-देखते विश्व की जानी-मानी महाशक्तियों ने नवोदित शक्ति जर्मन-सत्ता के समक्ष घुटने टेक दिए। विश्व युद्ध पोलैण्ड में भेजे गये जर्मन सैनिकों द्वारा छल से आरम्भ किए गए एक छोटे से छापामार हमले से शुरू हुआ। लेकिन सारे विश्व ने कुछ ही दिनों में सुना कि ‘ग्रेट ब्रिटेन’ के बाद विश्व की सबसे बड़ी शक्ति माना जाने वाला राष्ट्र फ्रांस बिना किसी प्रतिरोध के आत्म समर्पण कर रहा है। यूनाइटेड किंगडम के बाद फ्रांस ही था जिसके उपनिवेश सुदूर पूर्व में दक्षिण एशिया से उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तक फैले हुए थे। नेपोलियन जिस राष्ट्र में पैदा हुआ—जहां की राज्य क्रान्ति ने विश्व की राजनीति को नया मोड़ दे दिया, उसका ऐसा पराभव देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था।

मनीषियों को यह निष्कर्ष निकालने में अधिक समय नहीं लगा कि इसका कारण क्या है? उन्होंने पाया कि असंयम ने तो जनशक्ति को खोखला बनाया। भोग प्रधान उच्छृंखल जीवन क्रम ने उस राष्ट्र को छूंछ बनाकर रख दिया था। गर्भ धारण के भय से मुक्त विलासी फ्रांसीसियों को परिवार नियोजन के साधन मानों वरदान रूप में मिले थे। शराब की कोई कमी नहीं थी। जो राष्ट्र सारे विश्व को तीन चौथाई महंगी शराब की पूर्ति करता हो, वह स्वयं कैसे अछूता रहता। नैतिक मर्यादायें भंग हो जाने से जर्मनी को पराजित करने में कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। वस्तुतः भोग विलास की ज्वाला में जल रहे फ्रांस का पतन नहीं किया गया—उसने स्वयं को निर्बल बना बनाकर आक्रान्ताओं को निमन्त्रण दे दिया था।

भारतीय अध्यात्म का युगों-युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि अदूरदर्शी क्षरण को रोक सके तो उस बचत से इतना बड़ा भण्डार जमा हो सकता है जिसके बलबूते विपुल विभूतियों का अधिपति बन सके। संयम ही यह है। तपाये जाने पर ही लोहा, सोना आदि धातुएं परिशोधित होतीं और बहुमूल्य बनती हैं। असंयम की परिणति वहां होती है जैसे दुधारू गाय को पालने व टूटे बर्तन में उसका दूध दुहने पर होती है। इससे मनुष्य अपने पूर्व संचित तथा अबकी उपार्जित क्षमताओं को भी गंवा नहीं बैठता, इस दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भोगता है। रीतिकाल के रूप में हमारे देश ने भी मध्यकाल का वह विकृतियों भरा अन्धकार देखा व गुलामी भरा जीवन जिया है जैसा कि फ्रांस के विषय में ऊपर वर्णित किया गया। हर राष्ट्र की समर्थता—नागरिकों की प्रखरता इस व्यावहारिक अध्यात्म सिद्धान्त पर निर्भर है जिसे तप, संयम, चरित्र, निष्ठा, काम का सृजनात्मक स्वरूप जैसे पर्याय दिये गये हैं।

मेघनाद स्वयं ब्रह्मचारी था। उसे मारने में मात्र वही समर्थ था जो स्वयं चौदह वर्ष ब्रह्मचारी रहा हो। लक्ष्मण जी ने उसी प्रधान अस्त्र को उपलब्ध किया और लम्बी अवधि तक ब्रह्मचर्य निभाया। दशरथ जी का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कराने में उन दिनों के परम संयमी श्रृंगी ऋषि ही समर्थ हुए जबकि असंयम अन्य ऋषि उस स्तर का मन्त्रोच्चारण करने में सफल नहीं हो सके। अर्जुन को गाण्डीव पुरस्कार उर्वशी प्रकरण में परीक्षा द्वारा ही मिला था। भवानी ने शिवाजी को कभी न चूकने वाली तलवार प्रदान की थी, पर इससे पूर्व उसकी पात्रता एक सुन्दरी को सम्मुख करके जानी गयी थी। खरा सिद्ध न होने पर तो ऐसे वरदानों से सदा वंचित रहना पड़ता है। सत्पात्र की परख करने में देवताओं की प्रधान कसौटी संयमशीलता ही रहती है।

दो सांडों के टकराव को रोकने के लिए ब्रह्मचारी दयानन्द ने उन दोनों के सींग एक हाथ में पकड़ कर मरोड़े और धकेल कर दूर पटक दिये थे। अपनी संयम शक्ति के बल पर ही उन्होंने एक राजा की बग्घी रोककर दिखाई थी। प्रसिद्ध पर्वतारोही हिलैरी ने जब गंगा में उसकी दिशा के विपरीत नाव द्वारा गंगा सागर से देव प्रयाग तक यात्रा का दुस्साहस किया तो एक भारतीय योगी ने वाराणसी के समीप उनकी डेढ़ सौ हार्स पावर की नौका को एक पतली रस्सी से बांधकर रोक दिखाया था। सारा जोर लगाया गया लेकिन नाव अपनी ही जगह धड़धड़ाती रही, आगे नहीं बढ़ सकी। आंखों से पट्टी बांधकर कुदृष्टि का प्रतिरोध करने वाली गान्धारी ने जब आंख खोल कर अपने पुत्र को देखा तो उसका शरीर लौह बल से युक्त हो गया। वह संयम की ही शक्ति थी कि इन्हीं आंखों से बरसती हुई आक्रोश भरी चिनगारियों ने भगवान कृष्ण के पैरों पर प्रभाव डाला था। भीष्म, हनुमान, शंकराचार्य आदि की विशिष्ट प्रतिमाओं के पीछे उन लोगों का ब्रह्मचर्य संयम ही प्रधान कारण रहा है। ये सारे दृष्टान्त इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं कि अधोगामी प्रवृत्तियां रोक कर शक्ति संचय किया जाय तभी ऊर्ध्वगमन—प्रगति पथ पर चल सकना सम्भव है।

इस मार्ग से पथ भ्रष्ट होने पर समर्थों को भी नीचा देखना पड़ा है। अभिमन्यु—उत्तरा संवाद पढ़ने से प्रतीत होता है कि चक्रव्यूह भेदन से एक दिन पूर्व अभिमन्यु अपना ब्रह्मचर्य गंवा बैठा और सन्तानोत्पादन को महत्व दे बैठा। परिणाम स्पष्ट है कि चक्रव्यूह तोड़ने में वह सफल न हो सका। यदि वैसा न हुआ होता तो जैसा उसका अनुमान था, वह विजयी होकर ही लौटता, नहुष की तप साधना ने उसे स्वर्गलोक तो दिया, पर अप्सराओं के प्रलोभन को देख उस सम्पदा को देखते-देखते गंवा बैठा और सर्प बनकर दुर्गतिग्रस्त हुआ। ययाति जैसे पुण्यात्मा इसी प्रसंग में अपयश और भर्त्सना के भागी बने। पाण्डु की रुग्णता को देखते हुए चिकित्सकों ने उन्हें ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने को कहा था। वह मर्यादा उन्होंने पाली नहीं। फलतः अकाल ही काल के ग्रास बने।

कालजयी महाप्रतापी रावण की दुर्गति का कारण उसका असंयम ही था। अन्यान्य महाबली असुरों की दुर्गति भी इसी आधार पर हुई। भस्मासुर का पार्वती पर आशक्त हो जाना ही उसके भस्म होने का कारण बना। सुन्द-उपसुन्द एक ही सुन्दरी पर आसक्त होने के कारण लड़ मरे। मनोनिग्रह-लोभ निग्रह-ब्रह्मचर्य निर्वाह न हो पाना ही असुरों की कठोर तपश्चर्या को दुर्गतिग्रस्त बनाता रहा है। वे लोग यदि संयमी रहे होते, सदाशयता के मार्ग पर चलते तो साहस कष्ट सहन की दृष्टि से भारी पड़ने के कारण देवताओं से भी वरिष्ठ रहे होते। मर्यादाओं का व्यतिरेक और उपभोग का असंयम ही समर्थों की समर्थता को दुर्गतिग्रस्त बना देता है।

ये सारे उदाहरण आज की परिस्थितियों में पूरी तरह लागू होते हैं। शक्ति ह्रास से सामर्थ्य-बौद्धिक प्रखरता में कमी को भौतिकता की अन्धी दौड़ में द्रुतगति से भाग रहे जापान, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क जैसे राष्ट्रों ने अब समझा है और धीरे-धीरे पूरे समाज परिकर का वातावरण बदलने का प्रयास किया है। इन्हीं राष्ट्रों में 1-2 वर्ष पूर्व तक यौन-स्वेच्छाचार, कामवाद पूरी तरह संव्याप्त था। सिंगमण्ड फ्रायड के सिद्धान्तों ने तो मात्र नींव ही डाली थी पर नियोफ्राइडिज्म के सिद्धान्तवादियों ने असंयम का उद्घोष करने—उसी को जीवन-मूल्यों का आधार बनाने का कार्य जोर-शोरों से चालू किया। परिणति आज सबके समकक्ष है। कामुकता का रुझान जो कभी फ्रांस को अपने ग्रास में लिए था—सारे विश्व में हुआ है। न्यूड कॉलोनी बसाई जा रही है, नैतिक मूल्यों को एक ताक पर रख कर उपभोग को ही सब कुछ बताया जा रहा है। यह किसी भी समाज को जर्जर कर देने भर के लिए पर्याप्त है।

दुर्भाग्य की बात तो यह है कि संयम का गुणगान करने वाले-तप साधना के दर्शन को जन्म देने वाले भारत में यही प्रचलन आधुनिकता के नाम पर शनैः-शनैः फैल रहा है। अमेरिका में पिछले दिनों एक पुस्तक की काफी चर्चा हुई। ‘‘द न्यू सेलीबेसी’’ अर्थात् नया ब्रह्मचर्य। वहां इस किताब का काफी हंगामा है। इस पुस्तक में ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों की आवश्यकता और उन्हें जीवन में उतारने पर तनाव, रोगों से मुक्ति तथा प्रसन्नता की प्राप्ति जैसे प्रकरणों पर चर्चा की गई है। पश्चिम के एक ऐसे राष्ट्र में जहां पिछले दो दशकों में सैक्स के ‘सुखों’ का वर्णन करने वाली पुस्तकों का ही प्रचलन रहा हो, इस पुस्तक की बढ़ती लोकप्रियता ने मनो वैज्ञानिकों को यह सोचने पर विवश किया है कि मनुष्य स्वभाव की दृष्टि से पाशविक वृत्ति प्रधान नहीं, अपितु देवत्व प्रधान है। यदि उसे वातावरण ऊपर उठने का मिले, वह स्वयं प्रकाश करे तो बहुमुखी प्रतिभा का धनी हो सकता है।

काम का यही स्वरूप अभिनन्दनीय है। आत्मिक एवं सर्वांगीण प्रगति के लिये मनोनिग्रह के इस तितीक्षा युक्त पुरुषार्थ को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग मानकर उसे व्यवहार में उतारा ही जाना चाहिये।

प्रकृति की प्रेरणा भी मात्र आत्मीयता संवर्धन हेतु

मनुष्य को अपवाद रूप छोड़ दिया जाय तो जीव जगत के अन्यान्य प्राणियों में कामवासना का ऐसा विकृत रूप देखने को नहीं मिलता। वे काम भाव का उपयोग मात्र वंश वृद्धि के लिए करते हैं।

डा. लार्ड ने स्टिकल बैक नामक एक समुद्री मछली की विभिन्न आदतों व क्रियाओं का बहुत सूक्ष्मता से अध्ययन किया बैकोंवर आयरलैण्ड में महीनों रह-रहकर आपने इस मछली की जीवन पद्धति का अध्ययन किया और बताया कि मनुष्य चाहे तो इससे अपने पारिवारिक जीवन को सुखी और सुदृढ़ बनाने की महत्वपूर्ण शिक्षायें ले सकता है। नर स्टिकल बैक अपना घर बसाने के लिए बहुत पहले तैयारी प्रारम्भ कर देता है। सबसे पहले सारे समुद्र में घूम-घूमकर वह कोई ऐसा स्थान ढूंढ़ निकालता है जहां पर पानी न बहुत तेजी से बह रहा हो न बहुत धीरे। जगह शान्त एकान्त हो और वहां हर किसी का पहुंचना भी सम्भव न हो।

प्राचीनकाल की जीवन-प्रणाली और शिक्षा पद्धति पर दृष्टि दौड़ाकर देखते हैं तो पता चलता है कि तत्कालीन ऋषियों-मुनियों एवं सामाजिक मार्ग-दर्शक आचार्यों ने भी यह भलीभांति अनुभव किया था कि दाम्पत्य और गृहस्थ-जीवन एक महत्वपूर्ण योग साधना है, उसके लिये आवश्यक तैयारियां न की जायें तो लोगों के वैयक्तिक जीवन ही नहीं पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थायें भी लड़खड़ा सकती हैं। जीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर विद्याध्ययन करने और पाठ्यक्रम में धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक विषयों के समावेश के पीछे एक मात्र उद्देश्य और रहस्य यही था कि आने वाले जीवन और जिम्मेदारियों को वहन करने के लिए शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक त्रुटि न रह जाये। पूर्ण तैयारी कर लेने के फलस्वरूप ही उन दिनों के दाम्पत्य जीवन, पारिवारिक और सामाजिक संगठन, प्रेम-मैत्री, करुणा, दया, उदारता आदि सुख-सन्तोष और स्वर्गीय परिस्थितियों से भरे-पूरे रहते थे। आनन्द छलकता था उन दिनों, पर आज जब कि शिक्षा के ढंग ढांचे में, हमारी रीति-नीति और जीवन पद्धति में उस तैयारी के लिए कोई स्थान नहीं रहा, तब हमारे पारिवारिक जीवन में कोई उल्लास नहीं रह गया। दाम्पत्य जीवन असन्तोष और अस्त-व्यस्तता के पर्याय बन गये हैं।

मनुष्य भूल कर सकता है पर सृष्टि के सैकड़ों जीव-जन्तुओं की तरह स्टिकल बैक मछली यह भूल कभी नहीं करती। जैसे उसे प्रकृति से यह प्रेरणा मिली हो कि वह अपनी जीव पद्धति द्वारा मनुष्य को सिखाये और समझाये कि जो आनन्द पहले से तैयारी किए हुए दाम्पत्य जीवन में है, वह चाहे जैसे गृहस्थ बना लेने में नहीं है। यह सारा उत्तरदायित्व पति का है कि वह समुचित व्यवस्थायें स्वयं जुटाये। अपनी तैयारी में कोई त्रुटि न हो तो पत्नियों की ओर से पूर्ण सहयोग और समर्थन मिले ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। इस मछली की तरह तैयार किए हुए नर दाम्पत्य जीवन का ऐसा आनन्द पाते हैं कि उन्हें न तो स्वर्ग की कल्पना होती है और न मुक्ति की ही। वे इसी जीवन में स्वर्ग-भोग का सौभाग्य प्राप्त करते हैं।

तत्परतापूर्वक ढूंढ़-खोज के बाद जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है तब स्टिकल बैक पत्नी के लिए सुन्दर घर बनाने की तैयारी करता है। इसके लिए उस बेचारे को कितना परिश्रम करना पड़ता है, यह बात अपने माता-पिता की पीठ पर चढ़े, विवाह की कामना करने वाले युवक भला क्या समझेंगे? स्टिकल बैक पानी में तैरती हुई छोटे-छोटे पौधों की नरम-नरम लकड़ियां, तैरते हुए पौधों की जड़ें इकट्ठी करता है और उन्हें चुने हुए स्थान पर ले जाता है। विवाह के शौकीन स्टिकल को पहले खूब परिश्रम और मजदूरी करनी पड़ती है। अपने शरीर से वह एक लसलसा पदार्थ निकालता है और एकत्रित सारी वस्तुओं को उसी में चिपका लेता है ताकि उसका इतना परिश्रम व्यर्थ न चला जाये। उसने जो लकड़ियां एकत्र की हैं, वह अपने स्थान तक पहुंच जायें।

स्टिकल बैक पूरे आत्म-विश्वास के साथ काम करता है। सारा एकत्रित सामान मजबूती से चिपक गया है, इसका विश्वास करने के लिये वह अपने शरीर को फड़फड़ाता हुआ नाचता है, जैसे उसे परिश्रम में आनन्द लेने की आदत हो। जब एक बार विश्वास हो गया कि सामान गिरेगा नहीं, तब आगे बढ़ता है और पूर्व निर्धारित स्थान पर इस सामान से मकान बनाता है। शरीर का लसलसा पदार्थ यहां सीमेन्ट का काम करता है और लाई हुई लकड़ियां ईंट-पत्थरों का। आगन्तुक वधू के लिये महल बना कर एक बार वह उसे घूम-घूमकर देखता है। लगता है अभी वैभव में कुछ कमी रह गई। फिर वह रेत के बारीक टुकड़े मुख में भर कर लाता है और मकान के फर्श पर बिछाता है। कोठरी में कहीं टूट-फूट की गुंजाइश हो तो उसे ठीक करता है। सारा मकान वार्निस किया हुआ—सा हो जाने के बाद ही उसे सन्तोष होता है। जब यह तैयारियां पूर्ण हुई, तब वह स्वयं मादा की खोज में निकलता है। उसे दहेज और लेन-देन की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह जानता है, नारी-नर की अपनी आवश्यकता भी है, इसलिये प्रिय वस्तु को भरपूर स्वागत और सम्मान अपनी ओर से ही क्यों न दिया जाये। वह मनुष्यों की तरह का दम्भ और पाखण्ड प्रदर्शित नहीं करता।

उपयुक्त पत्नी मिल जाने पर वह उसे घर लाता है। पत्नी कुछ दिन में गर्भावस्था में आती है तब यह उसे घूमने को भेजता रहता है, घर और अण्डों की देख-भाल तब वह स्वयं ही करता है। यह उनके भोजन आदि का ही प्रबन्ध नहीं करता वरन् सुरक्षा के लिये दरवाजे पर कड़ा पहरा भी रखता है। मि. फ्रैंक बकलैंड ने इसकी कर्मठता का वर्णन करते हुये, लिखा है कि मकान में थोड़ी-सी भी गड़बड़ी हो तो यह उसे तुरन्त ठीक करता है।

स्टिकल बैक अपने बच्चों और पत्नी के पालन का उत्तरदायित्व पूरी सूझ समझ के साथ निबाहता है। वह उन्हें पर्दे में नहीं रखता। पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे, इसके लिये वह अपने मकान में दो दरवाजे रखता है। इससे वहां के पानी में बहाव बना रहता है और ताजी ऑक्सीजन मिलती रहती है, यदि बहाव रुक जाये तो वह तुरन्त शरीर फड़-फड़ाकर बहाव पैदा कर देता है, जिससे रुके हुये पानी की गन्दगी प्रभावित न कर पाये।

स्टिकल बैक का जीवन कितना कलात्मक और सुरुचिपूर्ण है। इधर बच्चे निकलने लगे, उधर उसने मकान के ऊपरी भाग छत को अलग करके एक बढ़िया झूला तैयार किया। मनुष्यों की तरह गुमसुम का जीवन उसे पसन्द नहीं। झूला बनाकर उसमें बच्चों को भी झुलाता है और पत्नी को भी। स्वयं उस क्षेत्र में परेड करता रहता है जिससे उसके आनन्द और खुशहाली की अभिव्यक्ति होती है पर दूसरे दुश्मन और बुरे तत्व डरकर भाग जाते हैं, जैसे कला प्रिय और सुरुचि पूर्ण सद्गृहस्थ से अवगुण दूर रहने से अशांति पास नहीं आती। बच्चे झूला छोड़ कर इधर-उधर भागते हैं तो यह उन्हें बार-बार झूले में डाल देता है, जब तक बच्चे स्वयं समर्थ न हो जायें यह उन्हें आवारागर्दी और कुसंगति में नहीं बैठने देता। अपनी रक्षा करने में जब वे समर्थ हो जाते हैं, तभी उन्हें जाने और नया संसार बनाने की अनुमति देता है।

स्टिकल बैक की तरह मनुष्य का पारिवारिक जीवन भी तैयारी उद्देश्य और सुरुचि पूर्ण होता, पतिव्रत ही नहीं पत्नीव्रत का भी ध्यान रखा गया होता तो सामाजिक जीवन हंसता खिलखिलाता हुआ होता।

शेरनी 108 दिन में प्रसव करती है। इसके बाद वह प्रायः 2 वर्ष तक, जब तक कि बच्चे बड़े न हो जायें और समर्थ न बन जायें उन्हीं के पोषण व प्रशिक्षण में व्यस्त रहती है। सहवास की इच्छा होने पर भी वह उसे टालती रहती है और बच्चों के बड़े हो जाने पर ही पुनः गर्भ धारण करती है। इस तरह के उदाहरण से भावनाओं की गम्भीरता का पता चलता है। इसके विपरीत आचरण स्वभाव का हल्कापन है, भावनाओं का अर्थ केवल मात्र झुकना नहीं अपितु अपनी समीक्षा बुद्धि को जागृत रखते हुए, जो पवित्र रसमय और मर्यादा जन्य है उसे पूरा करने में अपनी संपूर्ण निष्ठा का परिचय देना है।

कीवी, कैसोवरी, रही, मौआ, एमू, शुतुर्मुर्ग और पेन्गुइन आदि पक्षियों के जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद चार्ल्स डारविन ने लिखा है—इन पक्षियों का गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बड़ा सन्तुलित, समर्पित और चुस्त होता है। नर-मादा आपस में ही नहीं बच्चों के लालन-पालन में भी बड़ी सतर्कता, स्नेह और बुद्धि कौशल से काम लेते हैं। मनुष्य-जाति की तरह इनमें भी परिवार के पालन-पोषण का अधिकांश उत्तरदायित्व नर पर रहता है। मादा से शरीर में छोटा होने पर भी वह घोंसला बनाना, अण्डे सेहना और जिन दिनों मादा अण्डे सेह रही हो उन दिनों उसके आहार की व्यवस्था करना, सद्यः प्रसूत बच्चों को संभालने से लेकर उन्हें उड़ना सिखा कर एक स्वतन्त्र कुटुम्ब बसा कर रहने की प्रेरणा देने तक का अधिकांश कार्य नर ही करता है। वह इनकी दुश्मनों से रक्षा भी करता है।

गृहस्थी बसाने में सम्भवतः मनुष्य को इतनी आपा-धापी नहीं करनी पड़ती होगी जितनी बेचारे पेन्गुइन पक्षी को। उसके लिये पेन्गुइन दो महीने सितम्बर और फरवरी में दक्षिणी ध्रुव की यात्रा करता है। पेन्गुइन जानते हैं अपने अभिभावक अपने मार्गदर्शक के अनुशासन में रहना कितना लाभदायक होता है। उसके अनुभवों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिये पेन्गुइन अपने मुखिया के चरण-चिन्हों पर ही चलता है।

ध्रुवों पर पहुंचने के बाद पुराने पेन्गुइन तो अपने पहले वर्षों के छोड़े हुए घरों में आकर रहने लगते हैं किन्तु नव-युवक पेन्गुइन अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर नया परिवार बसाने के लिये चल देता है। उसकी सबसे पहली आवश्यकता एक योग्य पत्नी की होती है। वह ऐसी किसी मादा को ढूंढ़ता है जिसका विवाह न हुआ हो। अपनी विचित्र भाव-भंगिमा और भाषा में वह मादा से सम्बन्ध मांगता है। मनुष्य ही है जो जीवन साथी का चुनाव करते समय गुणों पर ध्यान न देकर केवल धन और रूप-लावण्य को अधिक महत्व देता है। पर पेन्गुइन यह देखता है कि उसका जीवन साथी क्या उसे सुदृढ़ साहचर्य प्रदान कर सकता है।

सम्बन्ध की याचना वह स्वयं करता है, ऐसे ही नहीं, उसे मालूम है जीवन में धर्मपत्नी का क्या महत्व है, इसलिये पत्नी को खुश करके। पत्नी की प्रसन्नता भी सुन्दर चिकने पत्थर होते हैं। नर चोंच में दबा कर एक सुन्दर-सा कंकड़ लेकर मादा के पास जाता है। मादा कंकड़ देखकर उसके गुणी, पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी होने का पता लगाती है। यदि उसे नर पसन्द आ गया तो वह अपनी स्वीकृति दे देगी अन्यथा चोंच मारकर उसे भगा देगी। चोट खाया हुआ नर एक बार पुनः प्रयत्न करता है। थोड़ी दूर पर उदास सा बैठकर इस बात की प्रतीक्षा करता है कि मादा सम्भव है तरस खाये और स्वीकृति दे दे। यदि मादा ने ठीक न समझा तो नर बेचारा कहीं और जाकर सम्बन्ध ढूंढ़ने लगता है। मादा की स्वीकृति मिल जाये तो पेन्गुइन की प्रसन्नता देखते ही बनती है। नाच-नाच कर आसमान सिर पर उठा लेता है। पर मादा को पता होता है कि गृहस्थ परिश्रम से चलते हैं इसलिये वह नर को संकेत देकर घर बनाने में जुट जाती है। नर तब दूर-दूर तक जाकर कंकड़ ढूंढ़कर लाता है। मादा महल बनाती है। इस समय बेचारा नर डांट-फटकार भी पाता है पर उसे यह पता है कि पत्नी के स्नेह और सद्भाव के सुख के आगे मीठी फटकार का कोई मूल्य नहीं। दोनों मकान बना लेते हैं तब फिर स्नान के लिये निकलते हैं और जल की निर्मल लहरों में देर तक स्नान करते हैं। स्नान करके लौटने पर कई बार उनके बने-बनाये मकान पर कोई अन्य पेन्गुइन अधिकार जमा लेता है। दोनों पक्षों में युद्ध होता है जो विजयी होता है वही उस मकान में रहता है। पर युद्ध के बाद भी स्नान करने जाना आवश्यक है इस बार वे पहले जैसी भूल नहीं करते। बारी-बारी से स्नान करने जाते हैं और लौट कर फिर गृहस्थ कार्य संलग्न होते हैं। मादा अण्डे देती है पर बच्चों की पालन प्रक्रिया नर ही पूर्ण करते हैं। पेन्गुइन की इस तरह की घटनायें देख कर मनुष्य की उससे तुलना करने को जी करता है। मनुष्य भी उनकी तरह लूट-पाट और स्वार्थ पूर्ण प्रवंचना में कितना अशान्त और संघर्ष रत रहता है। पर वह सुखी गृहस्थ के सब लक्षण भी इन पक्षियों से नहीं सीख सकता और परस्पर घर में ही लड़ता झगड़ता रहता है। पेन्गुइन सी सहिष्णुता भी उसमें नहीं है।

कछुये को नृत्य करते देखने की बात तो दूर की है, किसी ने उसे तेज चाल से चलते हुये भी नहीं देखा होगा पर दाम्पत्य जीवन में आबद्ध होते समय उसकी प्रसन्नता और थिरकन देखते ही बनती है। कछुआ जल में तेजी से नृत्य भी करता है और तरह-तरह के ऐसे हाव-भाव भी जिन्हें देख कर मादा भी भाव विभोर हो उठती है। यही स्थिति हैं मगरमच्छ की। मगर भी प्रणय बेला में विलक्षण नृत्य करता है।

मछलियों में सील मछली की दुनिया और भी विचित्र है। नर अच्छा महल बनाकर रहता है। और उसमें कई-मादाओं को रखता है। नर अन्य नरों की मादाओं को हड़पने का भी प्रयत्न करते रहते हैं। और इसी कारण उन्हें कई बार तेज संघर्ष भी करना पड़ता है। कामुकता और बहु विवाह की यह दुष्प्रवृत्ति मछलियों में ही नहीं शुतुरमुर्ग और रही नामक पक्षियों में भी होती है। यह 7-8 मादायें तक रखते हैं फिर भी नर इतना धैर्यवान् और परिश्रमी होता है कि एक-एक मादा आठ-आठ दस-दस अण्डे देती है और नर उन सबको भली प्रकार संभाल लेता है। लगता है इनकी दुनिया ही पत्नी जुटाने और बच्चे पैदा करने के लिये होती है इस दृष्टि से मनुष्य की कामुकता और दोष दृष्टि को तोला जा सकता है। यदि मनुष्य भी इन दो प्रवृत्तियों तक ही अपने जीवन क्रम को सीमित रखता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह रही और सील मछलियों की ही जाति का कोई जीव है।

कई बार तो अश्लीलता में मनुष्य सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर जाता है किन्तु इन पक्षियों और प्राणियों ने अपने लिये जो विधान बना लिया होता है उससे जरा भी विचलित नहीं होते। चींटी राजवंशी जन्तु है। उसमें रानी सर्व प्रभुता सम्पन्न होती है वही अण्डे देती है और बच्चे पैदा करती है। अपने लिये मधुमक्खी की तरह वह एक ही नर का चुनाव करती है शेष चींटियां मजदूरी, चौकीदारी और मेहतर आदि का काम करती हैं। अपनी-जिम्मेदारी प्रत्येक चींटी इस ईमानदारी से पूरी करती है कि किसी दूसरी को रत्ती भर भी शिकायत करने का अवसर न मिले जब कि उन बेचारियों को अपने हिस्से से एक कण भी अधिक नहीं मिलता। लगता है सामाजिक व्यवस्था में ईमानदारी श्रम और निष्ठा का यह आदर्श मनुष्य ने चींटी से सीख लिया होता तो वह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और सन्तुष्ट रहा होता, पर यहां तो अपने स्वार्थ, अपनी गरज के लिये मनुष्य अपने भाई-भतीजों को भी नहीं छोड़ता। कम तौलकर, मिलावट करके कम परिश्रम में अधिक सुख की इच्छा करने वाला मनुष्य इन चींटियों से भी गया गुजरा लगता है।

एक बार अफ्रीका में वन्य पशु खोजियों का एक दल हाथियों की सामाजिकता का अध्ययन करने आया। संयोग से उन्हें एक ऐसा सुरक्षित स्थान मिल गया जहां से वे बड़ी आसानी से हाथियों के करतब देख सकते थे। एक दिन उन्होंने देखा हाथियों का एक झुण्ड सवेरे से ही विलक्षण व्यूह रचना कर रहा है। कई मस्त हाथियों ने घेरा डाल रखा है। झुण्ड में जो सबसे मोटा और बलवान् हाथी था वही चारों तरफ आ जा सकता था शेष सब अपने-अपने पहरे पर तैनात थे। लगता था वह बड़ा हाथी उन सबका पितामह या मुखिया था उसी के इशारे पर सब व्यवस्था चल रही थी और एक मनुष्य है जो थोड़ा ज्ञान पा जाने या प्रभुता सम्पन्न हो जाने पर भाई-भतीजों की कौन कहे परिवार के अत्यन्त संवेदनशील और उपयोगी अंग बाबा, माता-पिता को भी अकेला या दीन-हीन स्थिति में छोड़कर चल देता है।

मुखिया के आदेश से 5-6 हथिनियां उस घेरे में दाखिल हुईं बीच में गर्भवती हथिनी लेटी थी। सम्भवतः उसकी प्रसव पीड़ा देखकर ही हमलावरों से रक्षा के लिये हाथियों ने यह व्यूह रचना की थी। परस्पर प्रेम, आत्मीयता और निष्ठा का यह दृश्य सचमुच मनुष्य को लाभदायक प्रेरणायें दे सकता है यदि मनुष्य स्वयं भी उनका परिपालन कर सकता होता।

बच्चा हुआ, हथनियों ने जच्चा को संभाला कुछ ने बच्चे को। ढाई-तीन घण्टे तक जब तक प्रसव होने के बाद से बच्चा धीरे-धीरे चलने न लगा हाथी उसी सुरक्षा स्थिति में खड़े रहे। हथनियां दाई का काम करती रहीं। बच्चे और मादा के शरीर की सफाई से लेकर उन्हें खाना खिलाने तक का सारा काम कितने सहयोग और समुचित ढंग से हाथी करते हैं यह मनुष्य को देखने, सोचने, समझने और अपने जीवन में धारण करने के लिए अनुकरणीय है।

पेन्गुइन पक्षी बच्चों पर कठोर नियन्त्रण रखते हैं। बड़े-बूढ़ों के नियन्त्रण के कारण बच्चे थोड़ा भी इधर-उधर नहीं जा सकते। जब शरीर और दुनिया दारी में वे चुस्त और योग्य हो जाते हैं तो फिर स्वच्छन्द विचरण की आज्ञा भी मिल जाती है जब कि मनुष्य ने बच्चे पैदा करना तो सीखा पर उनमें से आधे भी ऐसे नहीं होते जो सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह इतनी कड़ाई से करते हों। अधिकांश तो यह समझना भी नहीं चाहते कि बच्चों को किस तरह योग्य नागरिक बनाया जाता है।

थोड़ी भी परेशानी आये तो मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों से कतराने लगता है किन्तु अन्य जीव अपने गृहस्थ कर्त्तव्यों का पालन कितनी निष्ठा के साथ करते हैं यह देखना हो तो अफ्रीका चलना चाहिये। यहां कीवी नाम का एक पक्षी पाया जाता है। कामाचार को वह अत्यन्त सावधानी से बर्तता है ताकि उसे कोई देख न ले। काम सम्बन्धी मर्यादाओं को ढीला छोड़ने का ही प्रतिफल है कि आज सामाजिक जीवन में अश्लीलता और फूहड़पन का सर्वत्र जोर है। कीवी को यह बात ज्ञात है और वह अपने वंश को सदैव सदाचारी देखना चाहता है इसीलिये सहवास भी वह बिलकुल एकान्त में और उस विश्वास के साथ करता है कि वहां उसे कोई देखेगा नहीं। मादा जब अण्डे देने लगती है तो नर उनकी रक्षा करता है और सेता भी है। उसे लगातार 80 दिन तक अण्डे की देखभाल करनी होती है। बच्चा पैदा होने के साथ वह जहां पुत्रवान् होने पर गर्व अनुभव करता है वहां यह प्रसन्नता भी कि अब उसे विश्राम मिलेगा पर होता यह है कि इसी बीच मादा ने दूसरा अण्डा रख दिया जाता है। इस तरह वह कई-कई पुरश्चरण एक ही क्रम में पूरे करके अपनी निष्ठा का परिचय देता है। मनुष्य क्या उतना नैतिक हो सकता है? इस पर विचार करें तो उत्तर निराशाजनक ही होगा।

वासना के दुष्परिणाम

प्राणि जगत में जहां एक ओर यौन सदाचार अधिकाधिक ब्रह्मचर्य और पारिवारिक जीवन में स्नेह भरी घनिष्ठता के दर्शन होते हैं वहीं काम का वह विद्रूप भी स्पष्ट दिखाई दे जाता है जो नारी को कामिनी और रमणी रूप में देखने के कारण मनुष्य जाति को भुगतना पड़ता है। संयम और दाम्पत्य जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले जीवों का जीवन काल इतना त्रास दायक पाया गया है कि उसे देखकर रोयें खड़े हो जाते हैं कम से कम मनुष्य जैसे विचारशील प्राणी को तो वैसी स्थिति नहीं आने देनी चाहिये। प्रजनन-ऋतु आने पर नर-सील मादाओं के लिए लड़ने लगते हैं। एक सशक्त नर-सील 40.50 तक मादाओं का मालिक होता है। पर उसकी विक्षुब्ध वासना अपरिमित होती है। नई मादाएं देखकर वह मचल उठता है तथा पड़ौसी सील-समूह पर आक्रमण कर बैठता है। उस समूह के नर दो उस प्रचण्ड संघर्ष करना पड़ता है। मान लें, कि वह इस संघर्ष में विजयी ही हो जाता है और अपनी पसन्द की मादा को लेकर थका, आहत, गर्वोन्नत अपने समूह में लौटता है, तो उसे प्रायः यही दृश्य दीखेगा कि उसके समूह की एक याकि दो-चार मादाओं को, कोई दूसरा नर-सील खींचे लिए जा रहा है। अब या तो मन मारकर, अपहरण का यह आघात झेले अथवा उसी थकी मंदी दशा में द्वन्द-युद्ध के लिए ललकारे और तब परिणाम पता नहीं क्या हो?

इस प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप अधिकांश नर-सील तीन माह की यह प्रजनन ऋतु बीतने तक श्लथ क्षणवीक्षित हो चुकते हैं और आहार जुटा पाने योग्य शक्ति भी उनमें शेष नहीं रहती। इसका कारण मादा के प्रति नर-पशु की निरन्तर यौन-जागरूकता की प्रवृत्ति है। इससे विपरीत सामूहिक सह-जीवन की प्रवृत्ति वाले पशुओं में तो मादा के प्रति कोई अनावश्यक आकर्षण नर रखते ही नहीं। मात्र प्रजनन-ऋतु में ही मादा विशेष के प्रति आकर्षित होते हैं। शेष समय वे मानो लिंगातीत साहचर्य की स्थिति में रहते हैं। हाथी की शक्ति एवं बुद्धिमता सुविदित है। किन्तु इस विषम-तावादी प्रवृत्ति से हाथियों के मुखिया को भी अपनी शक्ति व समय का अधिकांश भाग अनावश्यक संघर्षों में खर्च करना होता है।

हाथी समूह में रहते हैं। समूह-नायक ही अपने समूह की सभी हथनियों का स्वामी होता है। समूह के अन्य किसी सदस्य द्वारा किसी भी हथिनी से तनिक-सी भी काम चेष्टा या प्रेम-प्रदर्शन करने पर, मुखिया यह देखते ही उस पर आक्रमण कर या तो भगा देता है या परास्त कर प्रताड़ित अपमानित करता है।

कोई युवा, शक्तिशाली हाथी कभी भी ऐसी उद्धत चेष्टा कर मुखिया को उत्तेजित कर देता है और युद्ध में उसे यदि परास्त कर देता है, तो फिर वही टोली की सभी हथनियों का स्वामी तथा टोली नायक बनता है। पराजित नायक बहुधा विक्षिप्त हो जाता है और खतरनाक भी हो उठता हैं।

‘‘मरण बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणम्’’ सूत्र में कामुकता के अमर्यादित चरणों को मरण का प्रतीक माना गया है। उसमें सर्व नाश ही सन्निहित है। यह विचार सर्वथा असत्य है कि अति कामुकता बरतने वालों से उनकी सहधर्मिणी प्रभावित होती है, वरन् सच तो यह है कि वह उलटी घृणा करने लगती है। ऐसी घृणा जहां पनपेगी वहां सद्भाव कहां रहेगा? जब मादा देखती है कि नर अपनी तृप्ति के लिए उसके शरीर का अनावश्यक दुरुपयोग किये जा रहा है तो वह पति-भक्ति अपनाने के स्थान पर उलटे आक्रमण कर बैठती है। ऐसे आक्रमणों से नर की दुर्गति ही होती है और मरण, बिन्दुपातेन सूत्र के अनुसार उद्धत काम विकार मृत्यु का दूत बनकर सामने आ खड़ा होता है। नर-बिच्छू अपनी प्रेयसी के साथ-साथ नृत्य करता है—घण्टों। कभी तेजी से दोनों आगे बढ़ते हैं, कभी पीछे हटते हैं। थककर शिथिल होने पर दोनों साथ-साथ ही विश्राम करते हैं। लेकिन मादा बिच्छू कई बार उत्तेजना में नर को खा भी जाती है।

‘फ्राग-फिश’ का यौनाचरण भी ऐसा ही प्राणान्तक है। मादा फ्राग-फिश घूमती रहती है, श्रीमान नर अधिकांश पुरुषों की ही तरह लम्पट और अधीर होते हैं। मादा के पास पहुंचते ही वे उत्तेजित हो उठते हैं, जब कि मादा को ऐसा कुछ भी नहीं होता। उत्तेजित नर मादा के मादक दिख रहे शरीर-मांस में तेजी से दांत गढ़ाता है। बस, फिर यह दांत गढ़ा ही रह जाता है। क्योंकि उस मांस से यह दांत कभी निकल नहीं पाता। किसी तरह केलि करते हैं। नशा उतर जाने के बाद दांत छुड़ाने की पूरी कोशिश करते हैं—बार-बार। पर विफल मनोरथ ही रहते हैं। खाना-पीना बन्द। कितने दिन जीयेंगे? अन्त में दम टूट जाता है।

बिल्लियों का गम्भीर रुदन उनकी शारीरिक पीड़ा का नहीं वरन् उत्तेजित मनोव्यथा का परिचालक होता है। बन्दरों की कर्ण कटु किलकारियों में भी यह आभास होता है कि उनके भीतर कुछ असाधारण हलचल हो रही है।

साही का प्रणयकाल उसके उछलने कूदने की व्यस्तता से जाना जा सकता है। उन दिनों वह खाना, पीना, सोना, तक भूल जाती है और बावली सी होकर लकड़ी के टुकड़ों को मुंह में देकर उन्हें उछालती हुई ऐसी दौड़ती है मानो उसे फुटबाल मैच में व्यस्त रहना पड़ रहा हो।

सर्प की प्रणयकेलि उनकी आलिंगन आबद्धता के रूप में दीख जाती है उन क्षणों वे अत्यन्त भावुक और आवेशग्रस्त होता है। सर्प नहीं चाहता कि इस एकान्त सेवन में कोई भागीदार हस्तक्षेप करे। यदि उसे पता चल जाय कि कोई लुक-छिप कर उसे देख रहा है तो सर्प क्रोधोन्मत्त होकर प्राणघातक आक्रमण कर बैठता है।

कितने ही नर-पशु इस आवेग में ग्रसित होकर एक दूसरे के प्राणघातक बन जाते हैं। उस आवेश में वे अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं।

हिरनों में ऋतुकाल स्वयंवर के लिए मल्लयुद्ध का रूप धारण करता है। इससे उनके सींग टूटते हैं, घाव लगते हैं और कई बार तो वे प्राण तक गंवाते हैं। हिरनियां इस मल्ल युद्ध को निरपेक्ष भाव से देखती रहती हैं और पराजित से सम्बन्ध तोड़ने और विजयी की अनुचरी बनने के लिए बिना किसी खेद के सहज स्वभाव प्रस्तुत रहती हैं। यही दुर्गति अगणित पशुओं की होती है। उनमें से आधे तो प्रायः इसी कुचक्र में क्षत-विक्षत होकर मरते हैं।

केवल नर ही इस स्वयंवर युद्ध में लड़-मरकर, कष्ट उठाते हों सो बात नहीं। कई बार तो मादाएं भी नरों की अविवेकशीलता के लिए उन्हें भरपूर दण्ड देतीं और नाच नचाती हैं।

नर गरुड़ को प्रणयकेलि की तभी स्वीकृति मिलती है जब वह मल्लयुद्ध में अपनी प्रेयसी को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। ऋतुमती गरुड़ मादा नर को आमन्त्रण तो देती है पर साथ ही यह चुनौती भी प्रस्तुत करती है कि यदि वह पिता बनने योग्य है तो ही उस पद की लालसा करें। समर्थता को परखने के लिए मादा मल्ल युद्ध करती है और इस भयानक संघर्ष में नर के पंख नुच जाते हैं, घायल होने पर खून से लथपथ हो जाता है इतने पर भी यदि वह मैदान छोड़कर भाग खड़ा न हो तो ही उसके गले में स्वयम्वर की माला पहनाई जाती है। तब न केवल विवाह होता है वरन् नर को घर परिवार के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को सम्भलने में मादा की भरपूर मदद करने के लिए भी तत्पर होना पड़ता है।

सन् 1950 की बात है, कुछ वैज्ञानिकों ने एन्जिलर मछली के बारे में विस्तृत खोज प्रारम्भ की। भूमध्य-सागर में रहने वाली इस एन्जिलर के बारे में अब तक लोगों को वैसे ही स्वल्प-सी जानकारी थी जैसे शरीरस्थ अनेक चक्रों, ग्रन्थियों, गुच्छकों, एवं उपत्यिकाओं के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त है।

अध्ययन के लिये जितनी भी एन्जिलर पकड़ी गईं, नर उनमें से एक भी न निकला। एक दिन एक मछली विशेषज्ञ ने निश्चय किया कि इस मछली के अंग-प्रत्यंगों की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। विशेष और महत्वपूर्ण जानकारी तब मिली जब इन विशेषज्ञ महोदय ने देखा एन्जिलर मादा के सिर के ऊपर सीधी आंख पर एक बहुत ही छोटा-सा मछली जैसा जीव चिपका हुआ है। इस जीव का अध्ययन करने से पता चला यही वह सज्जन हैं, जिनकी वैज्ञानिकों को तलाश थी। नर एन्जिलर, यही था बेचारी मादा के सिर पर चिपका उसी के रक्त को चूसने वाला।

मादा का आकार 40 इन्च भगवान् ने अच्छा किया कि पति-देव को कुल चार इन्च का बनाकर यह दिखाया कि नारी को मात्र प्रजनन और शोषण की सामग्री बनाने वालों का बौना होना ही ठीक है। मनुष्य के इतिहास में भी यही पाया जाता है संसार के जो भी देश आज प्रगति के शिखर पर पहुंचे हैं, उन सबमें नारी के उत्थान के लिये बड़े कदम उठाये गये हैं। हम भारतवासी ही हैं, जिन्होंने नारी को दासी, पर्दे में रहने वाली, शिक्षा-शून्य बनाया, उसका रमणी के रूप में उपभोग किया। तभी तो प्रगति में एन्जिलर नर की तरह बौने के बौने रह गये।

हम में यह दोष कहां से आया इसका उत्तर भी एन्जिलर मछली के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दिया। उन्होंने नर के स्वभाव का अध्ययन करके बताया कि उसकी यह शोषण प्रियता उसकी आलसी और वासनापूर्ण प्रकृति के कारण है। जीवन में मधुरता के लिये कोई स्थान न होने के कारण वह अपनी ही पत्नी का खून पिया करता है। देखने में एन्जिलर नर पापी और अपराधी कहा जा सकता है पर जिन लोगों ने नारी का मूल्यांकन वासना के रूप में दासी और सम्पत्ति के रूप में किया, उन्हें क्या माना और क्या कहा जाय इसका निर्णय तो हमें अपने भीतर मुख डालकर करना पड़ेगा?

कामुकता का बाह्य स्वरूप कितना ही आकर्षक क्यों न हो उसके कलेवर में विष और विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं। अफ्रीका में एक बहुत सुन्दर फूल पाया जाता है पक्षी इन फूलों पर आसक्त होकर उन पर जा बैठते हैं, बैठते ही फूल धीरे-धीरे सिकुड़ना प्रारम्भ कर देता है और फिर उसे इस तरह जकड़ कर उसे अपने पैने कांटे चुभो देता है कि लगातार प्रयत्न करने पर भी वह निकल नहीं पाता, खून पूरी तरह चूस लेने के बाद ही पौधा उसे छोड़ता है कामुक उच्छृंखलता ऐसी ही विनाशकारी प्रवृत्ति है।

बढ़ती कामुकता—घटता पौरुष

प्रजनन विशेषज्ञ जॉन मैक्लाइड की गणना के अनुसार स्वस्थ मनुष्य के एक मिलीलीटर वीर्य में 1 करोड़ 70 लाख शुक्राणु होने चाहिए, पर इन दिनों औसत अमेरिकी में वे घट कर साठ-सत्तर लाख से अधिक नहीं पाये जाते हैं। किसी-किसी वर्ग या क्षेत्र में तो उनकी संख्या और भी कम होकर 40 लाख से भी कम रह गई। इसका प्रभाव ने केवल प्रजनन पर पड़ता है, वरन् रति कर्म में शारीरिक अक्षमता के रूप में भी देखा जाता है। मानसिक कामुक चिन्तन एक बात है, उसे तो वृद्धजन भी करते रहते हैं, किन्तु शारीरिक क्षमता विशुद्ध रूप से उस क्षेत्र के स्नायविक, रक्त-प्रवाह एवं ऊर्जा प्रदान करने वाले उन तत्वों पर निर्भर है, जो शुक्राणुओं में पाये जाते हैं।

इन दिनों कामुकता निस्सन्देह बढ़ रही है। उसे अश्लील साहित्य तथा फिल्म-चित्रों ने विशेष रूप से भटकाया है। ऐसे क्लब और चकले भी आग में घी का काम करते हैं और मानसिक प्रवाह को घसीट कर कहीं से कहीं ले जाते हैं, इतने पर भी यह देखने योग्य है कि क्या इस चिन्तन में निरन्तर निरत रहने वाले शारीरिक दृष्टि से भी रति कर्म के लिए उपयुक्त क्षमता बनाये हुए हैं? उसकी जांच-पड़ताल से स्थिति क्रमशः निराशाजनक बनती जा रही है, क्रमशः मनुष्य नपुंसकता की ओर बढ़ रहे हैं। यह तथ्य न केवल पुरुषों पर लागू होता है, वरन् नारियों पर भी यही छाया घिरी हुई है। इसी कमी के कारण प्रजनन की उपलब्धियां भी शिथिल स्तर की होती हैं सन्तानें दुर्बल, निस्तेज और आलसी होती जाती हैं। जवानी में बुढ़ापा घिर जाने का यह स्वाभाविक परिणाम है।

अब तब बढ़ती हुई नपुंसकता का कारण मनोवैज्ञानिक समझा जाता था और अनुमान लगाया जाता था कि यह लज्जा, भय, संकोच एवं आत्महीनताजन्य है। काम प्रसंगों में असफल रहने वालों की मान्यता बन जाती है कि वे अपना पौरुष गंवा बैठे। बस इतने भर से वैसा मन बन जाता है और सचमुच ही नपुंसकता आ घेरती है। ऐसे लोगों का उपचार मनोबल बढ़ाने, उत्साह प्रदान करने एवं सफलता की अनुभूति कराने वाले उपायों के द्वारा किया जा सकता है, किन्तु जब चूल्हे में ईंधन कम पड़े, भण्डार चुकने लगे, तो उन उपचारों से भी क्या बनेगा। वृद्धता आने पर, शारीरिक शिथिलता बढ़ जाने पर उत्तेजना देने वाले अवसर प्रस्तुत रहने पर भी कुछ प्रत्यक्ष पुरुषार्थ बन नहीं पड़ता। साधारणतया एक बार का खाली किया गया वीर्य भण्डार भरने में प्रायः 48 घण्टे लगते हैं। जो भण्डार भरे रहने की आवश्यकता नहीं समझते और उत्पादन की तुलना में खर्च अधिक बढ़ा देते हैं, ब्रह्मचर्य का अनुबंध नहीं पालते, उन्हें भी अपनी भूल का जल्दी ही पता चल जाता है और वे क्रमशः क्षमता गंवाते चले जाते हैं।

शुक्राणुओं की संख्या ही नहीं, उनकी सजीवता, संरचना, स्फूर्ति भी पौरुष को अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक होती है। संख्या घटना ही नहीं, उससे प्रखरता घटना भी पौरुष घटने का एक बड़ा कारण है। यह कमी क्यों पड़ती है? इसका कारण क्षेत्रीय नहीं, समूचे शरीर की समर्थता पर निर्भर है। शरीर बलिष्ठ परिपुष्ट हो तो उनके शुक्राणुओं समेत अन्यान्य घटक समर्थ पाये जायेंगे। रोगी और दुर्बल काया का हर घटक इसी स्थिति में देखा जाता है, उसकी दक्षता में उसी अनुपात से कमी पड़ती है। इस दृष्टि से मात्र शुक्राणुओं की शिथिलता, न्यूनता दूर करने का स्थानीय उपचार कारगर नहीं हो सकता। इसलिए पौरुष बढ़ाने वाली दवाओं की ढूंढ़-खोज करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि स्वास्थ्य सम्वर्धन की समूची समस्या पर विचार किया जाय और उसमें जिन कारणों से भी व्यवधान पड़ता हो, उन सभी का निराकरण किया जाय।

परिस्थितियों का मनुष्य के स्वभाव पर प्रभाव पड़ता है—यह बात आंशिक रूप से ही सत्य है। कितने ही विलक्षण व्यक्ति संसार में ऐसे हुए हैं जो परिवार या सम्पर्क क्षेत्र के प्रचलनों का उल्लंघन करके अपनी परिस्थितियों में पलते हुए सामान्य स्तर के ही बने रहे।

कहा जाता है कि व्यक्तित्व का निर्माण कच्ची उम्र में होता है। स्वभाव का बहुत बड़ा भाग बचपन में ही बन चुका होता है। जो कमी रहती है वह किशोरावस्था में पूरी हो जाती है। इसके बाद पच्चीस की आयु तक पहुंचते-पहुंचते ऐसी मनःस्थिति बन जाती है, जिसमें किसी बड़े परिवर्तन की आशा बहुत ही कम रह जाती है यह मान्यता अधिकांश लोगों पर तो लागू होती है पर उन प्रसंगों को भी झुठलाया नहीं जा सकता जिसमें अनेकों ने परिपक्व आयु में भी ऐसा पलटा खाया जिसकी पिछली लम्बी अवधि से चले आ रहे ढर्रे के साथ कोई संगति नहीं बैठती। यदि उपदेश परामर्श मिलने की बात को इसका कारण बताया जाय सो भी वह गले नहीं उतरती, क्योंकि इस प्रकार के उपदेश उसने पहले भी अनेकों बार सुने होते हैं। ऐसे अप्रत्याशित परिवर्तनों में किसी देवता या सिद्ध-पुरुष का कोई बड़ा हाथ नहीं रहा होता, वरन् तथ्यतः वे उभार भीतर से ही उमंगे होते हैं। भले ही श्रेय देने के लिए उन्हें किसी व्यक्ति विशेष का अनुदान परामर्श कहकर मन समझा लिया जाय।

एक ही माता-पिता से जन्मे, एक ही वातावरण में पले, एक जैसे घटनाक्रमों से होकर गुजरे बच्चों के स्वभाव में क्यों अन्तर पाया जाता है? उसमें से किसी का व्यक्तित्व प्रखर और किसी का मन्दमति कुसंस्कारियों जैसा पिछड़ा क्यों होता है? इसका उत्तर सामान्य बुद्धि के लिए दे सकना कठिन है। अटकलें लगाने पर भी समाधान कारक नहीं होती। फिर इसे भाग्य विधान, विधाता के लेख, ग्रह दशा आदि कहकर मन समझाया जाय? बात इससे भी नहीं बनती, क्योंकि दूसरे ही क्षण यह प्रश्न उठता है कि विधाता ऐसा पक्षपात क्यों करता है? किसी का भाग्य औंधा, किसी का सीधा लिखने में उसे क्या मजा आता है? ग्रह-नक्षत्र अकारण किसी पर प्रसन्न और किसी पर अप्रसन्न ही क्यों होते हैं? किसी को उठाने किसी को गिराने में उन्हें क्यों अपना समय लगाने और झंझट उठाने का शौक चर्राता है।

वर्कले युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी जैक लॉक ने सैकड़ों व्यक्तियों के बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के उतार-चढ़ावों का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन किया है। वे कहते हैं कि परिस्थितियों के साथ-साथ मनुष्य का दृष्टिकोण और व्यवहार तो बदलता है, पर मूल प्रकृति में नगण्य सा ही अन्तर हो पाता है। बचपन के हंसोड़ जीवन के अन्त तक प्रायः वैसे ही बने रहे। इसी प्रकार एकान्त प्रिय झेंपू, शर्मीले लोगों की वह आदत गयी ही नहीं। झगड़ालू आदत भी ऐसी ही है, जो व्यक्तित्व के साथ इस प्रकार गुंथी रहती है, मानो वह जन्म के समय से ही साथ आयी हो।

स्वभाव के परिवर्तन में कोई बड़े आघात तो कभी-कभी अपना प्रभाव दिखाते भी हैं, पर सामान्यतया उसमें कोई बड़ा अन्तर नहीं आता। किसी घनिष्ठ की मृत्यु—भारी हानि—लाभ, मानापमान, भयंकर रोग, दुर्घटना स्थान या व्यवसाय में भारी हेर-फेर जैसे बड़े कारणों में कई बार जीवन की दिशा बदलती देखी गई है और साथ ही प्रकृति में भी परिवर्तन होते पाया गया है। किन्तु वैसी घटनाओं को अपवाद ही कहा जा सकता है। साधारणतया तो स्थिति ऐसी ही रहती है मानो व्यक्ति जन्म से ही किसी ढांचे में ढला हुआ आया हो। धातुएं खदान से अपनी विशेषताएं साथ लाती हैं। बाद में तो उन्हें गलाने, पीटने में आकृतियां ही बदलती रहती हैं। प्रकृति में अन्तर नहीं हो पाता। फ्रान्सिस गल्टन से सन् 1886 में अपनी विश्व विख्यात् पुस्तक ‘हेरीडिटी जीनियस’ प्रकाशित कराई थी। उनका दावा था कि बुद्धिमान और व्यक्तित्व सम्पन्न माता-पिता ही अपने जैसी विशेषताओं वाली सन्तान को जन्म दे सकते हैं। ग्रन्थ प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ही प्रतिपादन को संदिग्ध बताने वाले अन्य वैज्ञानिक सामने आये और उनने ऐसे अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये जिनसे मूर्धन्य लोगों की सन्तानें गई-गुजरी निकलीं और पिछड़े लोगों के घरों में प्रतिभावान जन्मे।

वंश विज्ञान के अनुसंधानी एक. ए. बुड्स ने बीज की महत्ता बताते हुए कहा है कि ‘‘प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति प्रायः राज घरानों में ही जन्मे हैं और वैज्ञानिकों का उद्भव व्यवसायी परिवारों में हुआ है।’’ कार्लपियर्सन ने वातावरण का महत्व तो माना है पर साथ ही यह भी कहा है कि वातावरण की तुलना में वंश बीज का प्रभाव प्रायः सात गुना अधिक होता है।

सन्तान को श्रेष्ठता का जो उपहार सामान्य दम्पत्ति दे सकते हैं, वह यह है कि वे अपने व्यक्तित्व को निरन्तर इस महान प्रयोजन का उत्तरदायित्व वहन कर सकने की साधना में लगाये रहें। प्रकारान्तर से यह मनःक्षेत्र में सुसंस्कारिता परिपक्व करने की प्रक्रिया है। इससे कामुकता अश्लील चिन्तन एवं अवांछनीय क्षरण से बचाव करने का ध्यान तो रखना ही होगा। साधना, उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों का सान्निध्य, तीर्थ सेवन, वातावरण सम्पर्क इसी निमित्त किये जाते रहे हैं। स्वाध्याय की महत्ता भी इसीलिए मानी गयी है। गर्भाधान की अवधि में माता को श्रेष्ठता का ही वातावरण मिले, उसके लिये आवश्यक है कि अमर्यादित प्रजनन तो रुके ही साथ ही ऐसा वातावरण भी बने जिससे कामुकता को प्रश्रय न मिलकर सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन श्रेष्ठता को महत्व मिले। यह दायित्व न केवल व्यक्ति एवं परिवार का है वरन् सारे समाज का है।
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