
जैसा अन्न वैसा मन—
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अध्यात्म-विद्या के वैज्ञानिक ऋषियों ने आहार के सूक्ष्म गुणों का अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था और यह पाया था कि प्रत्येक खाद्य पदार्थ अपने में सात्विक, राजसिक और तामसिक गुण धारण किये हुए है और उनके खाने से मनोभूमि का निर्माण भी वैसा ही होता है। साथ ही यह भी शोध की गई थी कि आहार में निकटवर्ती स्थिति का प्रभाव ग्रहण करने का भी एक विशेष गुण है। दुष्ट, दुराचारी, दुर्भावनायुक्त या हीन मनोवृत्ति के लोग यदि भोजन पकावें या परसें तो उनके वे दुर्गुण आहार के साथ सम्मिश्रित होकर खाने वाले पर अपना प्रभाव अवश्य डालेंगे। न्याय और अन्याय से, पाप और पुण्य से कमाये हुए पैसे से जो आहार खरीदा गया है उससे भी वह प्रभावित रहेगा। अनीति की कमाई से जो आहार बनेगा वह भी अवश्य ही उसके उपभोक्ता को अपनी बुरी प्रकृति से प्रभावित करेगा।
इन बातों पर भली प्रकार विचार करके उपनिषदों के ऋषियों ने साधक को सतोगुणी आहार ही अपनाने पर बहुत जोर दिया है। मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ,.बासी, बुसे, तमोगुणी, प्रकृति के पदार्थ त्याग देने ही योग्य हैं। इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के लोगों द्वारा बनाया हुआ अथवा अनीति से कमाया हुआ आहार भी सर्वथा त्याज्य है। इन बातों का ध्यान रखते हुए स्वाद के लिये या जीवन रक्षा के लिये जो अन्न औषधि रूप समझकर, भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जायगा वह शरीर और मन में सतोगुणी स्थिति पैदा करेगा और उसी के आधार पर जीवन में प्रसन्नता व शान्ति मिलनी सम्भव होगी।
उपनिषदों में इस सम्बन्ध में अनेकों आदेश भरे पड़े हैं जैसे—
‘‘खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मल बनता है, जो मध्यम भाग है वह मांस बनता है और जो सूक्ष्म भाग है वह मन बन जाता है। पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मूत्र बन जाता है, जो मध्यम भाग है वह रक्त हो जाता है जो सूक्ष्म भाग है वह प्राण हो जाता है ......हे सौम्य, मन अन्नमय है। प्राण जलमय है। वाक् तेजोमय है।’’
—छान्दोग्य, अध्याय 6 खण्ड 5
‘‘अन्न ही बल से बढ़कर है। इसी से यदि दस दिन भोजन न मिले तो प्राणी की समस्त शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और वे फिर तभी लौटती हैं जब वह पुनः भोजन करने लगे। तुम अन्न की उपासना करो। यह अन्न ही ब्रह्म है।’’
छान्दोग्य अध्याय 6 खंड 9
‘‘आहार में अभक्ष्य त्याग देने से चित्त शुद्ध हो जाता है। आहार शुद्धि से चित्त की शुद्धि स्वयमेव हो जाती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है तो क्रम से ज्ञान होता जाता है और अज्ञान की ग्रन्थियां टूटती जाती हैं।’’
—पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्
‘‘आहार शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण शुद्ध होने से भावना दृढ़ हो जाती है और भावना की स्थिरता से हृदय की समस्त गांठें खुल जाती हैं।’’
—छान्दोग्य
तैत्तरीय उपनिषद् में इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डाला गया है और आत्म-कल्याण के इच्छुकों को आहार-शुद्धि का विशेष रूप से ध्यान रखने का निर्देश किया गया है।
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवी श्रिताः ।
अथो अन्ने नैव जीवन्ति । अथैनदपियन्त्यन्ततः ।
अन्न हि भूतानां जेष्ठम् । तस्मात्सर्वोषधयमुच्यते । सर्व वै तेऽन्नमाप्तुवन्ति येऽन्नं ब्रह्मोपासते ।
‘‘इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। फिर अन्न से ही जीते हैं। अन्त में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिये वह औषधि रूप कहा जाता है। जो साधक अन्न की ब्रह्म रूप में उपासना करते हैं वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।’’
तस्माद्वा एतस्मादन्नरस मयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः । सवा एष पुरुष विव एव ।
-तैत्तरीय 2/2
‘‘इस अन्न-रसमय शरीर के भीतर जो प्राणमय पुरुष है वह अन्न से व्याप्त है। यह प्राणमय पुरुष ही आत्मा है।’’
अन्नं न निन्द्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् ।
शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् ।
शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्टितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्टितं वेद प्रतितिष्ठिति । अन्नवानन्नादो भवति ।
महान भवति । प्रजया पशुभिब्रह्मवर्चसेन ।
महान कीर्त्या ।
—तैत्तरीय 3/7
‘‘अन्न की निन्दा न करे, यह व्रत है। प्राण ही अन्न है। शरीर प्राण पर आधारित है। इसलिये वह अन्न में ही स्थित है। जो मनुष्य यह जान लेता है कि मैं अन्न में ही प्रतिष्ठित हूं वह प्रतिष्ठावान हो जाता है। अन्नवान् हो जाता है। प्रजावान् हो जाता है, पशुवान् भी। वह ब्रह्मतेज से सम्पन्न होकर महान् बनता है। कीर्ति से सम्पन्न होकर भी महान् बनता है।’’
आगे चलकर अष्टम अनुवाक में और भी निर्देश है—
अन्नं न परिचक्षीत । तद व्रतम् ।......अन्नं बहु कुर्वीत तद् व्रतम् ।
‘‘अन्न की अवहेलना न करे। यह व्रत है। अन्न को बहुत बढ़ावे। यह व्रत है।’’
हा३वु, हा३वु, हा३वु । अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् । अहमन्नादो ३ऽहमन्नादो इऽहमन्नादः ।
तैत्तरीय 3/10
‘‘आश्चर्य! आश्चर्य!! आश्चर्य!!! मैं अन्न हूं! मैं अन्न हूं! मैं अन्न हूं। मैं ही अन्न का भोक्ता हूं! मैं ही अन्न का भोक्ता हूं! मैं ही अन्न का भोक्ता हूं।’’
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ घ्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलभ्ये सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्ष स्तस्यै मृदित कपायाय तमसस्पादर्शयति भगवान् सनत्कुमारः ।
‘‘जब आहार शुद्ध होता है तब सत्व यानी अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर विवेक बुद्धि ठीक काम करती है। उस विवेक से अज्ञानजन्य बन्धन-ग्रन्थियां खुलती हैं। फिर परम-तत्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह ज्ञान नारद को भगवान् सनत्कुमार ने दिया।’’
अथर्ववेद में अनुपयुक्त अन्न को त्याज्य ठहराया गया है। प्राचीन काल में हर व्यक्ति आहार ग्रहण करने से पूर्व यह देखता था कि यह अन्न किस प्रकार के व्यक्ति द्वारा उपार्जित एवं निर्मित है। उसमें थोड़ा भी दोष होने पर उसे त्याग दिया जाता था। केवल पुण्यात्माओं का अन्न ही लोग स्वीकार करते थे। किसी के पुण्यात्मा होने की एक कसौटी यह भी थी कि लोग उसका अन्न ग्रहण करते हैं या नहीं।
अथर्ववेद 6/6/25 में कहा गया है—
सर्वो वा एष जग्ध पाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ।
अर्थात्—वही व्यक्ति पुण्यात्मा है जिसका अन्न दूसरे खाते हैं।
आज भी वह पुरानी प्रथा देहाती क्षेत्रों में किसी रूप में प्रचलित है कि जिसके आचरण अनुचित समझे जायें उसके यहां का अन्न जल ग्रहण न किया जाय। जातिच्युत होने में यही दण्ड मुख्य होता है।
वाल्मीकि रामायण में अन्तःकरण को देवता के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसी प्रकार का प्रतिफल बताया गया है, लिखा है—
‘‘यदन्न पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।’’
‘‘अर्थात्—मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसके देवता खाते हैं।’’
कुधान्य खाकर साधना करने से साधक का इष्ट भी भ्रष्ट हो जाता है और उससे जिस प्रतिफल की आशा की गई थी वह प्रायः नहीं ही प्राप्त होता।
इन बातों पर भली प्रकार विचार करके उपनिषदों के ऋषियों ने साधक को सतोगुणी आहार ही अपनाने पर बहुत जोर दिया है। मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ,.बासी, बुसे, तमोगुणी, प्रकृति के पदार्थ त्याग देने ही योग्य हैं। इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के लोगों द्वारा बनाया हुआ अथवा अनीति से कमाया हुआ आहार भी सर्वथा त्याज्य है। इन बातों का ध्यान रखते हुए स्वाद के लिये या जीवन रक्षा के लिये जो अन्न औषधि रूप समझकर, भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जायगा वह शरीर और मन में सतोगुणी स्थिति पैदा करेगा और उसी के आधार पर जीवन में प्रसन्नता व शान्ति मिलनी सम्भव होगी।
उपनिषदों में इस सम्बन्ध में अनेकों आदेश भरे पड़े हैं जैसे—
‘‘खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मल बनता है, जो मध्यम भाग है वह मांस बनता है और जो सूक्ष्म भाग है वह मन बन जाता है। पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मूत्र बन जाता है, जो मध्यम भाग है वह रक्त हो जाता है जो सूक्ष्म भाग है वह प्राण हो जाता है ......हे सौम्य, मन अन्नमय है। प्राण जलमय है। वाक् तेजोमय है।’’
—छान्दोग्य, अध्याय 6 खण्ड 5
‘‘अन्न ही बल से बढ़कर है। इसी से यदि दस दिन भोजन न मिले तो प्राणी की समस्त शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और वे फिर तभी लौटती हैं जब वह पुनः भोजन करने लगे। तुम अन्न की उपासना करो। यह अन्न ही ब्रह्म है।’’
छान्दोग्य अध्याय 6 खंड 9
‘‘आहार में अभक्ष्य त्याग देने से चित्त शुद्ध हो जाता है। आहार शुद्धि से चित्त की शुद्धि स्वयमेव हो जाती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है तो क्रम से ज्ञान होता जाता है और अज्ञान की ग्रन्थियां टूटती जाती हैं।’’
—पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्
‘‘आहार शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण शुद्ध होने से भावना दृढ़ हो जाती है और भावना की स्थिरता से हृदय की समस्त गांठें खुल जाती हैं।’’
—छान्दोग्य
तैत्तरीय उपनिषद् में इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डाला गया है और आत्म-कल्याण के इच्छुकों को आहार-शुद्धि का विशेष रूप से ध्यान रखने का निर्देश किया गया है।
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवी श्रिताः ।
अथो अन्ने नैव जीवन्ति । अथैनदपियन्त्यन्ततः ।
अन्न हि भूतानां जेष्ठम् । तस्मात्सर्वोषधयमुच्यते । सर्व वै तेऽन्नमाप्तुवन्ति येऽन्नं ब्रह्मोपासते ।
‘‘इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। फिर अन्न से ही जीते हैं। अन्त में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिये वह औषधि रूप कहा जाता है। जो साधक अन्न की ब्रह्म रूप में उपासना करते हैं वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।’’
तस्माद्वा एतस्मादन्नरस मयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः । सवा एष पुरुष विव एव ।
-तैत्तरीय 2/2
‘‘इस अन्न-रसमय शरीर के भीतर जो प्राणमय पुरुष है वह अन्न से व्याप्त है। यह प्राणमय पुरुष ही आत्मा है।’’
अन्नं न निन्द्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् ।
शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् ।
शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्टितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्टितं वेद प्रतितिष्ठिति । अन्नवानन्नादो भवति ।
महान भवति । प्रजया पशुभिब्रह्मवर्चसेन ।
महान कीर्त्या ।
—तैत्तरीय 3/7
‘‘अन्न की निन्दा न करे, यह व्रत है। प्राण ही अन्न है। शरीर प्राण पर आधारित है। इसलिये वह अन्न में ही स्थित है। जो मनुष्य यह जान लेता है कि मैं अन्न में ही प्रतिष्ठित हूं वह प्रतिष्ठावान हो जाता है। अन्नवान् हो जाता है। प्रजावान् हो जाता है, पशुवान् भी। वह ब्रह्मतेज से सम्पन्न होकर महान् बनता है। कीर्ति से सम्पन्न होकर भी महान् बनता है।’’
आगे चलकर अष्टम अनुवाक में और भी निर्देश है—
अन्नं न परिचक्षीत । तद व्रतम् ।......अन्नं बहु कुर्वीत तद् व्रतम् ।
‘‘अन्न की अवहेलना न करे। यह व्रत है। अन्न को बहुत बढ़ावे। यह व्रत है।’’
हा३वु, हा३वु, हा३वु । अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् । अहमन्नादो ३ऽहमन्नादो इऽहमन्नादः ।
तैत्तरीय 3/10
‘‘आश्चर्य! आश्चर्य!! आश्चर्य!!! मैं अन्न हूं! मैं अन्न हूं! मैं अन्न हूं। मैं ही अन्न का भोक्ता हूं! मैं ही अन्न का भोक्ता हूं! मैं ही अन्न का भोक्ता हूं।’’
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ घ्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलभ्ये सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्ष स्तस्यै मृदित कपायाय तमसस्पादर्शयति भगवान् सनत्कुमारः ।
‘‘जब आहार शुद्ध होता है तब सत्व यानी अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर विवेक बुद्धि ठीक काम करती है। उस विवेक से अज्ञानजन्य बन्धन-ग्रन्थियां खुलती हैं। फिर परम-तत्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह ज्ञान नारद को भगवान् सनत्कुमार ने दिया।’’
अथर्ववेद में अनुपयुक्त अन्न को त्याज्य ठहराया गया है। प्राचीन काल में हर व्यक्ति आहार ग्रहण करने से पूर्व यह देखता था कि यह अन्न किस प्रकार के व्यक्ति द्वारा उपार्जित एवं निर्मित है। उसमें थोड़ा भी दोष होने पर उसे त्याग दिया जाता था। केवल पुण्यात्माओं का अन्न ही लोग स्वीकार करते थे। किसी के पुण्यात्मा होने की एक कसौटी यह भी थी कि लोग उसका अन्न ग्रहण करते हैं या नहीं।
अथर्ववेद 6/6/25 में कहा गया है—
सर्वो वा एष जग्ध पाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ।
अर्थात्—वही व्यक्ति पुण्यात्मा है जिसका अन्न दूसरे खाते हैं।
आज भी वह पुरानी प्रथा देहाती क्षेत्रों में किसी रूप में प्रचलित है कि जिसके आचरण अनुचित समझे जायें उसके यहां का अन्न जल ग्रहण न किया जाय। जातिच्युत होने में यही दण्ड मुख्य होता है।
वाल्मीकि रामायण में अन्तःकरण को देवता के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसी प्रकार का प्रतिफल बताया गया है, लिखा है—
‘‘यदन्न पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।’’
‘‘अर्थात्—मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसके देवता खाते हैं।’’
कुधान्य खाकर साधना करने से साधक का इष्ट भी भ्रष्ट हो जाता है और उससे जिस प्रतिफल की आशा की गई थी वह प्रायः नहीं ही प्राप्त होता।