• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • जो चाहें सो सहज ही पायें
    • ​​​विस्मय विमुग्धकारी मस्तिष्क संस्थान
    • ​​​अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना
    • ​​​रूग्ण रहे या सुखी मनमर्जी की बात है
    • ​​​क्या हम सभी मनोव्याधि ग्रस्त हैं?
    • ​​​संतुलन साधें—सुखी निश्चिंत रहें
    • ​​​पुलकित प्रफुल्लित जीवन जियें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • जो चाहें सो सहज ही पायें
    • ​​​विस्मय विमुग्धकारी मस्तिष्क संस्थान
    • ​​​अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना
    • ​​​रूग्ण रहे या सुखी मनमर्जी की बात है
    • ​​​क्या हम सभी मनोव्याधि ग्रस्त हैं?
    • ​​​संतुलन साधें—सुखी निश्चिंत रहें
    • ​​​पुलकित प्रफुल्लित जीवन जियें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


​​​रूग्ण रहे या सुखी मनमर्जी की बात है

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 3 5 Last
मस्तिष्क निस्संदेह अद्भुत और विलक्षण क्षमताओं का भंडार है। परमात्मा की ओर से मनुष्य को दिये हुए इस कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर भी कोई रोता घिघियाता ही रहे तो उसके लिए किसी अन्तु को दोषी नहीं ठहराना चाहिए। कल्पवृक्ष की यह विशेषता है कि उसके नीचे बैठकर कोई भी जो कुछ कामना करता है उसकी वह मनोकामना पूरी हो जाती है। पता नहीं ऐसा कोई कल्पवृक्ष है भी अथवा नहीं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में यह विशेषता अक्षरशः सत्य सही सिद्ध बैठती है। अपने मस्तिष्क को मनचाही दिशा में भेजकर उससे कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है—सुख भी दुख भी, समस्यायें भी समाधान भी रोग भी और स्वास्थ्य भी। कहने का अर्थ यह है कि मानसिक संतुलन साधकर अथवा गंवा कर हम बुरी परिस्थितियां स्वयं आमंत्रित करते हैं। वे किन्हीं बाहरी कारण में से उत्पन्न नहीं होती।

उदाहरण के लिए स्वास्थ्य को ही लिया जाय। कभी रक्त शुद्धि की बात स्वास्थ्य रक्षा का आधार मानी जाती थी; पर अब विज्ञान उस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि शरीर पर जितना आधिपत्य मस्तिष्क का है उतना अन्य किसी पदार्थ या अवयव का नहीं। मस्तिष्क विक्षुब्ध हो तो उसका प्रभाव समूचे नाड़ी संस्थान को अस्त-व्यस्त करने के रूप में पड़ता है। फलतः अवयव अपने-अपने निर्धारित क्रिया-कलापों को सही रूप में पूरा नहीं करते। ऐसी दशा में उन्हें रुग्णता घेरती चली जाती है।

विक्षुब्ध मस्तिष्क अपनी चिन्तन प्रणाली का सन्तुलन खो बैठता है और दैनिक कार्य पद्धति के निर्धारण संचालन में चूक पर चूक होने लगती है। अपनी स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना भी संभव नहीं रहता। गिरे ढंग से सोचने पर निराशा छा जाती है और भविष्य डरावना तथा अन्धकारमय दीखने लगता है। ऐसे लोग उदासी, अकर्मण्यता एवं अस्त-व्यस्तता के शिकार हो जाते हैं। यदि आवेश-उत्तेजना का अतिवाद छाया तो फिर दुष्टता, दुस्साहस, आक्रोश एवं विग्रह की घटनाएं घटित होने लगती हैं। सम्पर्क में आने वालों के साथ व्यवहार अटपटे हो जाते हैं। फलतः वे लोग भी प्रत्युत्तर कटुता पूर्ण देते हैं और असहयोग, मनोमालिन्य, विद्वेष एवं झंझट भरे आदान-प्रदान चल पड़ते हैं। खीज बढ़ती है और आक्रमण-प्रत्याक्रमण का सिलसिला बन जाता है। प्रत्यक्ष आक्रोश न फूटा तो छिपी हुई दुर्भावना दल, निन्दा एवं दुरभिसंधियों के रूप में अगल-बगल से फूटती हैं। इस जाल-जंजाल में उलझे हुए व्यक्ति की मनःस्थिति अधिकाधिक विपन्न होती जाती है और आन्तरिक अशान्ति की प्रतिक्रिया जीवन के हर क्षेत्र की असफल एवं विक्षुब्ध बनाती चली है।

मानसिक असन्तुलन का प्रतिफल आधि-व्याधि से समूचे जीवन क्षेत्र को ग्रस लेता है। शरीर रोगों का घर बन जाता है और मस्तिष्क को सनकें, घुटने और अवास्तविक मान्यताएं जर्जरित बना देती हैं। ऐसे लोगों को विवेक रहित, अवास्तविक और अवांछनीय कल्पना लोक में विचरण करते और दीवारों से टकरा कर सिर फोड़ते देखा जा सकता है। व्यक्तित्व क्रमशः अधिक डरावना और घिनौना होता जाता है। आश्रितों को विवशता वश सहानुभूति रखनी पड़े—सेवा करनी पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा सम्पर्क क्षेत्र के लोग विरोध या घृणा न करें तो कम से कम दूर रहने और उपेक्षा करने की नीति तो अपनाते ही हैं।

चिकित्सा विज्ञान ने इन दिनों पुराने रोगों में से कितनों के ही कारगर इलाज ढूंढ़ निकाले हैं और बीमारियों से मरने वालों को अनुपात काफी घट गया है। इतने पर भी कुछ नये रोग ऐसे हैं जो द्रुतगति में बढ़ रहे हैं और पूर्ण मृत्यु न सही मनुष्य जाति को अर्धमृतक स्थिति में रहने के लिए विवश कर रहे हैं। हृदय-रोग मधुमेह, कैन्सर, क्षय आदि की अभिवृद्धि से सभी को चिन्ता है। अस्पतालों की रिपोर्ट इन रोगों का विवरण देती है और चिकित्सा अनुसंधान का द्वार खोलती है। किन्तु कुछ रोग ऐसे हैं जो बिस्तर पकड़ने के लिए, रोने चिल्लाने के लिए विवश नहीं करते। उनके रहते लोग अपना काम-धन्धा किसी प्रकार करते रहते हैं। अस्तु उनका लेखा-जोखा भी नहीं मिलता और चिकित्सा अनुसंधान के लिए भी विशेष प्रयत्न नहीं होता। इतने पर भी वे होते इतने भयंकर हैं कि मनुष्य तेजी से जीवन रस समाप्त करता चला जाता है और अपने ढंग की विलक्षण व्यथा सहते सहते अकाल मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह पिस जाता है। ऐसे रोगों में सर्वप्रथम है—मस्तिष्कीय तनाव और तज्जनित अनिद्रा अभिशाप।

यों ज्वर, अतिश्रम, दुर्घटना, आकस्मिक विपत्ति, जैसे कारणों से भी यदा-कदा मस्तिष्कीय आवेश आ चढ़ते हैं और सिर भीतर ही भीतर गरम, उत्तेजित अशांत दीखता है। उस बेचैनी में विचित्र उद्वेग उच्चाटन होता है। क्या करें कहां जायं? न बैठे चैन पड़ता है न चलते, न अपना सुहाता है न पराया। न बात करने को जी करता और न चुप रहा जाता है। सोचने का तन्त्र इतना अस्त-व्यस्त हो जाता है कि नवागत कठिनाई से छुटकारा पाने का सही उपाय सोच सकना भी बन ही नहीं पड़ता, दैनिक जीवन के सामान्य कार्य और अनिवार्य उत्तरदायित्व निभाने तक कठिन हो जाते हैं। मानसिक तनाव जिस स्तर का होता है उसी अनुपात में विक्षिप्तता छाती है। हलकी बेचैनी से लेकर सिर फोड़ लेने या सिर फोड़ देने की उद्विग्नता तक के छोटे-बड़े दौर आते हैं और उस उन्माद में जो बन पड़ता है वह परिस्थितियों को सुलझाता नहीं वरन् अधिकाधिक उलझाता ही जाता है।

सामयिक विपत्तियों के कारण उत्पन्न हुए मानसिक तनाव फसली बुखार की तरह समय गुजरने के साथ-साथ हलके होते चले जाते हैं। आवेश चिरस्थायी नहीं होते, वे ज्वार की तरह आते तो हैं पर भाटे की तरह उतर भी जाते हैं। जख्मों को भर देने की विशेषता हमारे रक्त में मौजूद है। विपत्तियों के आघातों की भी भरपाई कर देने की क्षमता कालचक्र में विद्यमान है। बाहरी कठिनाइयों से उत्पन्न हुए मानसिक तनाव बरसाती नाले की तरह उफन-उछलकर ठंडे हो जाते हैं। समय के साथ स्मृति-विस्मृति में बदलती जाती हैं। जिन स्वजनों के विछोह में जीवन सम्भव नहीं दीखता था, समयानुसार वे विस्तृत होते चले जाते हैं और उनके बिना भी निर्वाह सरलतापूर्वक होता रहता है। इसी प्रकार अमुक सुविधा छिन जाने पर भी नई असुविधाएं सहन हो जाती हैं और फिर विपन्नता भी स्वभाव में सम्मिलित होकर चिर सहचरी की तरह साथ-साथ रहने और गुजर करने लगती है।

शारीरिक और मानसिक रोगों की श्रृंखला में इन दिनों जिस भयंकर व्यथा की अभिवृद्धि हुई है वह है—तनाव। हममें से अधिकांश व्यक्ति मानसिक तनाव से पीड़ित रहते हैं, और उसी दबाव से अशान्त एवं विक्षुब्ध मनःस्थिति में समय गुजारते हैं। यह एक प्रकार का मानसिक ज्वर है। ज्वर-पीड़ितों को कितनी शक्ति उस व्यथा को सहन करने तथा निपटने में खर्च करनी पड़ती है, यह किसी से छिपा नहीं है। मानसिक तनाव से भी प्रायः उसी स्तर की क्षति होती है।

तनाव के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। लेकिन व्यक्ति-मन पर उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, वह जीव-रासायनिक दृष्टि से एक-सी ही होती है; फिर वह ठंड, भूख या अत्यधिक थकाऊ शारीरिक श्रम जैसे शारीरिक दबावों से उपजा तनाव हो, किसी बीमारी के कारण हो अथवा मनोवैज्ञानिक तनाव हो।

कनाडा के प्रख्यात शरीर वैज्ञानिक हैं, एक श्री हंससेल्ये। इन्होंने कई वर्षों तक तनावों और उससे सम्बन्धित समस्याओं का गम्भीर अध्ययन किया है। उनका कहना है कि एक व्यापारी जब व्यापार सम्बन्धी विचार तथा कार्य करता है और योजनाएं बनाता है, अथवा एक खिलाड़ी खेल में भाग लेता है और खेल के प्रति सतर्क रहता है अथवा एक वैज्ञानिक समस्या से जूझता है, परिकल्पना और प्रयोग करता है, तब इन सभी की बाह्य परिस्थितियां यद्यपि भिन्न-भिन्न होती हैं, किन्तु इन क्रियाओं के कारण इन लोगों को जो अतिरिक्त मानसिक और शारीरिक प्रयास करना होता है, उससे भीतर जो प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं, उनका शरीर वैज्ञानिक रूप से एक-सा होता है। इन सभी लोगों की अधिवृक्क ग्रन्थि कार्टेक्स अधिक सक्रिय हो जाती है, रक्त से हारमोन अधिक स्रवित होने लगते हैं और छाती की इन्डोक्रीन ग्रन्थि, जिसे ‘थाइमस’ कहते हैं, सिकुड़ जाती है।

इन क्रियाओं में फर्क इस बात से नहीं पड़ता कि तनाव किस कारण पड़ रहा है—वैज्ञानिक क्रिया-कलाप से या कि व्यापारिक गतिविधि से या क्रीड़ा-स्पर्धा से या कि किसी अन्य कारण से।

तब क्या सदा बिलकुल एक-सी ही प्रतिक्रिया होती है? प्रतिक्रियाएं तो एक तरह की ही होती हैं, पर तनाव की तीव्रता के अनुसार उनमें भिन्नताएं होती हैं। यानी यदि तनाव अधिक तीव्र हुआ तो यही क्रियाएं—कार्टेक्स की सक्रियता, हारमोनों का स्रवण और थाइमस का सिकुड़ना-अधिक तेज हो जायेंगी, कम तनाव हुआ तो कम हो जायेंगी।

अनुकूलन के रोग

आज के उत्तेजक वातावरण में हमें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है और इसलिए अनुकूलन-ईंधन की हमारी आन्तरिक मांग अत्यधिक बढ़ गई है। अत्यधिक तनाव की स्थिति में शरीर की ‘अनुकूलन प्रणाली’ संकट का संकेत पाकर तेजी से क्रियाशील हो उठती है और पूरी शक्ति से संकट ग्रस्त मोर्चे पर डट जाती है सेल्ये का कहना है कि यही कारण है कि विशेष संकट के समय कई व्यक्ति असाधारण काम कर डालते हैं। जैसे प्राण संकट में पड़ने पर भागने की जरूरत होने पर, लम्बी कूद का कभी भी अभ्यास न करने वाला कोई व्यक्ति काफी चौड़ी खाई पार कर जाये, अथवा कोई वैज्ञानिक किसी असाध्य सी समस्या का समाधान पा जाये।

लेकिन ऐसी स्थिति में, जब कि सम्पूर्ण अनुकूलन-ऊर्जा मुख्य मोर्चे पर डटी हो, तो शेष हिस्से में अनुकूलनक्रियाएं शिथिल पड़ जाती हैं, इससे भीतरी अंगों की सामान्य कार्य क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। इसी का नाम थकान है। अधिक तनाव से थकान आने की यही प्रक्रिया है। थकान से शरीर की विभिन्न मांस-पेशियों की कार्य क्षमता घट जाती है, क्योंकि उन्हें पर्याप्त अनुकूलन-ऊर्जा नहीं मिल पाती। इसका शरीर पर अवश्यम्भावी परिणाम होता है।

जैसे कि तेज मानसिक थकान से हृदय के पेशियों वाले भाग ‘मायोकार्डियम’ में स्नायविक सन्तुलन बिगड़ जाता है; इससे जैव-रासायनिक परिवर्तन होते हैं और रक्त के आवागमन नियन्त्रण में बाधा पहुंचती है।

कई बार आग से व्यक्ति की चमड़ी बहुत जल जाती है। ऐसे कई लोगों की डाक्टरी जांच किए जाने पर उनके पेट में तथा आंतों में छाले पाये गये। इसका कारण भी यही है कि उनकी कुल अनुकूलन ऊर्जा जले हुए स्थानों की मरम्मत में लग जाती है। तब पाचनक्रिया की ‘होमोस्टेटिक’ नियन्त्रण प्रणाली को जितनी अनुकूलन-ऊर्जा चाहिए, वह नहीं मिल पाती। लम्बे समय तक इस कमी से पेट और आंतों में छाले पड़ जाते हैं।

हंससेल्ये ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य गिनाया है। यदि दिनों-दिन जीवन में तनाव अधिकाधिक बढ़ता जाये, तो हमारी अनुकूलन ऊर्जा भी अधिकाधिक खर्च होती है। प्रकृति बनिया है और उसने एक निश्चित मात्रा में ही हर व्यक्ति को अनुकूलन-ऊर्जा का भण्डार सौंपा है। यदि हमने उस भण्डार को तेज गति से लुटाया तो उतनी ही तेजी से हमारा सन्तुलन डिगता जाएगा और हम भयानक बीमारियों की चपेट में आते जाएंगे। आधुनिक समाज-जीवन में ये भयानक—गति से बढ़ रहे हैं—ये हैं हृदयरोग, कैंसर, मादक द्रव्यों का व्यसन, आतंककारी गतिविधियां-मारपीट, आत्महत्याएं, और तरह-तरह की रहस्यमयी बीमारियां। ये रोग औद्योगिक रूप से विकसित देशों में बेतहाशा बढ़ रहे हैं। हंससेल्ये इन्हें ‘‘अनुकूलन के रोग’’ कहते हैं।

मानसिक थकान की समस्याओं पर वर्षों अनुसंधान करने वाले रूसी चिकित्सक इवान सेम्योनीविक खोरोल ने आधुनिक सभ्य समाज के लोगों को एक नौका-दौड़ में जुटे नाविकों की संज्ञा दी है, जो पूरी ताकत के साथ आव खे रहे हैं—तेज और तेज। नाव निश्चित ही आगे बढ़ रही है, पर नाविकों की भीतरी ऊर्जा निचुड़ती जा रही है, निचुड़ चुकी है।

मानसिक उत्तेजना भी शरीर की जीवनी शक्ति को भयावह रीति से नष्ट करती है, इस ओर शरीर शास्त्री और मनःशास्त्री अब गम्भीरतापूर्वक ध्यान दे रहे हैं, क्योंकि यह दिन-दिन अधिक स्पष्ट होता जाता है कि अस्वस्थता की समस्या का समाधान मात्र औषधियों की सहायता से अथवा पौष्टिक भोजन का व्यवस्था जुटाने से हल नहीं हो सकता। यदि ऐसा सम्भव रहा होता तो सभी सम्पन्न लोग आरोग्य लाभ करते और अभावग्रस्त रुग्णता एवं दुर्बलता का कष्ट क्यों भोगते।

विषाणुओं से रक्षा के लिए विविध टीके लगाना और हर वस्तु उनसे प्रभावित मानकर अन्धाधुन्ध छूत बरतना भी अब केवल वहम ही सिद्ध हो रहा है। बड़े आदमी फैशन की दृष्टि से स्वच्छता के चोचले इतने ज्यादा करते हैं कि उस स्थिति में उन तक विषाणुओं के पहुंचने की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। ऐसी दशा में उन्हें तो निरोग रहना ही चाहिए किन्तु देखा यह जाता है कि स्वच्छताभिमानी ही अधिक बीमार पड़ते हैं और गन्दगी से ही दिन भर खिलवाड़ करते रहने वाले महतर जैसे स्वच्छता कर्मचारी स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी स्वच्छता सम्वेदी से पीछे नहीं रहते।

इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सका अस्तु विचारशीलता का तकाजा यही सामने आया कि आरोग्य और रुग्णता की गुत्थी सुलझाने के लिए गहराई तक उतरा जाय और उन कारणों को ढूंढ़ा जाय जो स्वास्थ्य समस्या को उलझाने के लिए वस्तुतः उत्तरदायी है। इस दिशा में प्रयास करने पर यह तथ्य सामने आये हैं कि मानसिक उत्तेजना एवं उद्विग्नता ही आरोग्य की जड़ खोखली कर डालने वाली सर्वोपरि विपत्ति है।

अमेरिका मेडीकल ऐसोसियेशन की मानसिक स्वास्थ्य समिति के सदस्य डा. फ्रांसिस का कथन है कि उत्तेजनाग्रस्त मनःस्थिति का दबाव रक्त संचार प्रणाली को बेहतर गड़बड़ा कर रख देता है और फिर उस विकृति के फलस्वरूप नाना प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं।

इसी प्रकार मनःशास्त्री जे. वेस्लेण्ड का वृद्धावस्था मृत्यु का वारंट नहीं है। मरण को समीप लाने वाले संकट का नाम है—मानसिक क्षय। मानसिक क्षय का अर्थ है निराशा अनुत्साह और निष्क्रियता। उमंगों का अन्त हो जाने से जो मानसिक रिक्तता उत्पन्न होती है। उस खीज से मनोबल चटता चला जाता है। इसका प्रभाव समस्त शरीर पर व्यापक शिथिलता के रूप में प्रस्तुत होता है, यह क्रम मृत्यु के समय को निकटतम घसीट कर ले आता है।

हार्टफोर्ट कनैटिकट स्थित इन्स्टीट्यूट आफ लिविंग ने अपने शोध निष्कर्षों के आधार पर घोषणा की है कि असमय में ही वृद्धावस्था का आ धमकना, दुर्बलता और रुग्णता का शिकार होना आहार पर उतना निर्भर नहीं है जितना मानसिक असन्तुलन पर। स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों की उपेक्षा से भी शरीर जल्दी बीमार पड़ता है और असमय बुढ़ापे का कष्ट सहना होता है कि सबसे अधिक प्रभाव मानसिक असन्तुलन का पड़ता है यदि मनुष्य उदास, खिन्न, क्रुद्ध, चिन्तित रहेगा तो फिर लाख प्रयत्न करने पर भी आरोग्य की रक्षा नहीं की जा सकेगी। तब पौष्टिक आहार और बहुमूल्य औषधि उपचार से भी कुछ काम न चलेगा। स्वास्थ्य रक्षा और दीर्घजीवन का प्रथम आधार मानसिक शान्ति स्थिरता और उत्साह भरी आशावादिता को ही माना जाना चाहिए।

इन दिनों अनिद्रा व्याधि की बाढ़ आई हुई है। गहरी और पूरी नींद किन्हीं भाग्यवानों को ही आती है। मस्तिष्क को समुचित विश्रान्ति न मिलने के कारण वह सांस संस्थान उत्तेजित हो उठता है और वह तनाव फिर शरीरगत सभी संचारण प्रक्रियाओं को अस्त-व्यस्त करके नित नये रोगों का सृजन करता है।

अनिद्रा अपने आप से कोई रोग नहीं है। मस्तिष्क को अत्यधिक और अव्यवस्थित श्रम का भार पड़ना ही उसका वास्तविक कारण है। यह कभी-कभी अधिक पढ़ने लिखने, सोचने, बोलने जैसे मानसिक श्रम की मात्रा अधिक बढ़ जाने से भी हो सकता है पर प्रधान कारण यह नहीं है। भावनात्मक उद्विग्नता ही मस्तिष्कीय संतुलन को सबसे अधिक नष्ट करती है। दस घण्टे पढ़ने लिखने का श्रम मस्तिष्क को जितना थकता है, उसकी तुलना में आधा घण्टा क्रोध या दुःख के विचारों में डूबे रहने पर कहीं अधिक शक्ति नष्ट हो जाती है। बीच-बीच में विश्राम करते रहने और कामों का स्वरूप बदलते रहने से हर दिन देर तक पढ़ने, लिखने जैसे साधारण मानसिक श्रम घण्टों किये जा सकते हैं और उनसे कोई क्षति नहीं होती। कितने ही विद्वान व्यक्ति वृद्धावस्था में भी आठ दस घण्टे जम कर मानसिक परिश्रम करते हैं और शान्तिपूर्ण निद्रा लाभ का आनन्द लेते हुए जीवनयापन करते हैं, इसके विपरीत जिन पर आवेग छाये रहते हैं, वे खिन्न, उद्विग्न, क्रुद्ध, सन्तप्त और विक्षुब्ध मनुष्य प्रत्यक्षतः कुछ भी मानसिक श्रम के न रहते हुए भी इतने थक जाते हैं कि उन्हें मस्तिष्कीय उत्तेजना का शिकार रहना पड़ता है। न दिन को चैन पड़ता है न रात को नींद आती है।

दिमाग पर अधिक बोझ पड़ा रहे और गहरी नींद न आये तो चक्कर आना, सिर दर्द, रक्त चाप, स्मरण शक्ति की कमी, चिड़चिड़ापन, आंखों में जलन, मृगी, पागलपन, नपुंसकता जैसी बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं और शरीर को आवश्यक विश्राम न मिलने के कारण वह दिनों दिन दुबला और कान्तिहीन होता चला जाता है। अनिद्रा के कारण होने वाली क्षति से सभी परिचित हैं, अस्तु उसके निवारण के उपाय भी सोचे गये हैं। इसके लिए कई रासायनिक पदार्थ खोज निकाले गये हैं।

नींद न आने का कष्ट निवारण करने के लिए सामयिक उपचार के रूप मे फेर्नोवार्वी टोन, सरपिरुटिन सी., यूरब्राय, मैडोसिन, सोप्रालीन सोनेरील, अब्लीवान, न्यूसीन एच. पाइरा मिड्रोन, एनैलजिन प्रभृति औषधियां देते हैं। इन्हीं दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत अन्तर करके अनेक फैक्टरियां, अनेक नामों और लेबलों के साथ अन्यान्य औषधियां बनाती बेचती हैं। विभिन्न देशों में उनके विभिन्न नाम हैं उन सबकी सूची बनाई जाय तो वे दवाएं हजारों की संख्या में पहुंच जायगी।

सन्डे एक्सप्रेस इंग्लैण्ड के एक लेख में ब्रिटेन में नींद की गोलियों के बढ़ते हुए प्रचलन पर चिन्ता व्यक्त करते हुए बताया गया था कि उस देश में एक लाख से अधिक व्यक्ति ऐसे हैं, जिनकी निद्रा इन नशीली गोलियों की दया पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार की औषधियां वहां प्रति वर्ष प्रायः 2 लाख पौंड खर्च होती हैं। इन दवाओं की विषाक्तता सेवनकर्त्ताओं के स्वास्थ्य और जीवन के लिए संकट बनकर सामने आती हैं।

इन औषधियों में वारटिट्ररिक ऐसिड, अफीम का सत, कोनिक जैसे मस्तिष्कीय गतिविधियों को कुंठित करने वाली नशीली चीजें होती हैं। जो आगे चलकर मानसिक स्वस्थता पर बुरा असर डालती हैं। उनके कारण नये-नये रोग उत्पन्न होते हैं।

अब तक एक भी ऐसी नींद लाने वाली दवा नहीं बनी जो पूर्णतया विष रहित हो। इनका सेवन लगातार करने से शरीर में जो नये संकट उत्पन्न होते हैं वे अनिद्रा अथवा उस पीड़ा से कम घातक नहीं होते, जिनका समाधान करने के लिए इन दवाओं का प्रयोग किया गया था। आपरेशन के समय प्रयोग की जाने वाली मूर्छा औषधियां भी आगे चलकर नये स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करती हैं।

रासायनिक उपचार से सम्वेदन शून्यता, तन्द्रा मूर्छा लाने की दूरगामी हानियों को देखते हुए, विज्ञान वेत्ताओं का ध्यान अब इस दिशा में गया है कि वे विद्युत उपचार द्वारा कृत्रिम निद्रा लाई जाय। सोचा गया है कि प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक निर्दोष सिद्ध होगा। इस सन्दर्भ में रूसी वैज्ञानिकों में से ए. फिलोमाफित्स्की, आइ. सेचनोव बी. वेरिगो, एन. वेदेन्स्की ने विद्युत उपचार से निद्रा लाने के सम्बन्ध में गहरा अध्ययन किया है। फ्रान्स में भी ऐसे प्रयोग हुए हैं, एच. लेछूच और मालगेर्व ने विद्युत निद्रा की सम्भावना को प्रत्यक्ष किया है। प्रो. रूसो ने भविष्यवाणी की है कि निकट भविष्य में रासायनिक उपचारों को हटाकर कृत्रिम निद्रा की आवश्यकता विद्युतधाराओं के प्रयोग द्वारा की जाया करेगी।

लेनिन ग्राड के मनःशास्त्री कालेन्दारोव ने मानवी स्नायु संस्थान में हलका सा विद्युत प्रवाह संचालित करके स्वाभाविक निद्रा अभीष्ट समय तक ला देने में सफलता प्राप्त की है। इस उपचार से थकान, बेचैनी, सिर दर्द जैसे अविश्रान्ति जन्य व्यथा से तत्काल छुटकारा प्राप्त कर सकना सम्भव हो गया है। सोवियत चिकित्सा विज्ञान के तत्वावधान में गिल्यारो वस्की, लिवेन्तसेव, वाचिस्कोव के एक पैनल ने इस उपचार के गुण दोषों का दूरगामी पर्यवेक्षण करने के लिए विधिवत् प्रयोग प्रक्रिया संचालित किये हुए हैं। उनके निष्कर्ष में शिजोफ्रेनिया (मस्तिष्क शून्यता) न्यूरेस्थेनिया (स्मृति हरण) जैसे मस्तिष्कीय रोग और अल्सर, अन्त्रशोध जैसे उदर रोगों में इस पद्धति द्वारा आशाजनक ही नहीं आश्चर्यजनक लाभ भी हुआ है। स्टेनोक्रार्डिया, व्राकियल ऐस्थमा ब्लडप्रेशर जैसे रोगों का भी उस उपचार द्वारा गमन हुआ है।

विद्युत निद्रा का मूल लाभ है अभीष्ट समय तक अभीष्ट गहराई वाली निद्रा सम्भव करके रुग्ण अवयवों को इतना विश्रान्ति देना कि इस अवधि में प्रकृति के लिए बीमारी से जूझना और विकृति का निराकरण सम्भव हो सके। जीवित उत्तेजना में जो श्रम पड़ता है। उसी की क्षति पूर्ति करना शरीर की जीवनी शक्ति के लिए कठिन पड़ता है। फिर वह रुग्णता से कैसे जूझें? इसी झंझट में रोगी दिन-दिन गलता जाता है यदि उसे समुचित निद्रा लाभ मिल जाय तो एक और विश्रान्ति का चैन मिले दूसरी ओर प्रकृति टूट-फूट की मरम्मत में जुट पड़े। यह दोनों ही आवश्यकताएं निद्रा से पूरी होती हैं। रासायनिक उपचार से निद्रा लाने में विषैली, मादक औषधियों से नये संकट उत्पन्न होने की सम्भावना स्पष्ट थी, ऐसी दशा में विद्युत उपचार से निद्रा लाना अपेक्षाकृत अधिक निर्दोष समझा जा रहा है, यों तो बाहर से थोपा हुआ कोई भी उपचार किसी न किसी रूप में स्वभाविक स्वस्थता पर आघात करता ही है। सच्ची और सही निर्दोष चिकित्सा तो वही है जो हमारी जीवनी शक्ति अपने ढंग से आप ही बिना किसी को सूचना दिये स्वयमेव करती रहती है।

अनिद्रा जन्य संकट का सामयिक उपचार नशीली औषधियों से किया जाय अथवा विद्युत संचार से? इस विवाद में विद्युत उपचारकों का पलड़ा भारी पड़ता है, क्योंकि उससे नशीली वस्तुओं के विष प्रभाव का खतरा नहीं है। साथ ही मस्तिष्क को जकड़ने की अपेक्षा संज्ञा शून्य करने में विश्राम भी अधिक गहरा मिलता है। विद्युत उपचार से होने वाले लाभों का एक मात्र आधार यही है कि देर तक मानसिक विश्रान्ति की व्यवस्था जुटायी जाय तो अनुत्तेजित अवयव अपनी टूट-फूट की मरम्मत करने में स्वयं जुट सकते हैं और रोग निवृत्ति का प्रकृति प्रदत्त सुअवसर सहज ही मिल सकता है।

इतने पर भी मूल प्रश्न जहां का तहां है। मानसिक उत्तेजना के कारण का निवारण किया जाना चाहिए। उससे उत्पन्न प्रतिक्रिया भर को रोकने के लिए नींद लाने वाली गोलियां अथवा विद्युत संचार की कुछ उपयोगिता हो सकती है। मूल कारण का निवारण तो मानसिक सन्तुलन स्थिर कर सकने वाले आध्यात्मिक दृष्टि का परिष्कार करने से ही होगा। जीवन को हंसते-खेलते खिलाड़ी की भावना से जीने और सफलता-असफलताओं को अधिक महत्व देते हुए अपनी प्रसन्नता के केन्द्रबिन्दु कर्तव्य पालन करने तक सीमित बनाकर कोई भी व्यक्ति विक्षोभों से बच सकता है और मानसिक सन्तुलन स्थिर रख सकता है।

शवासन, शिथिलीकरण मुद्रा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की योगाभ्यास से सम्बन्धित क्रिया प्रक्रिया ऐसी है जो मानसिक थकान और तनाव को सहज ही दूर कर सकती है और वह उपचार नींद की दवा अथवा विद्युत संचार की तुलना में कहीं अधिक निरापद एवं लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

निराशा और थकान

मनोविज्ञानी सी.जी. युंग ने अपनी पुस्तक ‘मार्डन मैन इन सर्च आफ सोल’ में रोग ग्रस्तों की चर्चा करते हुए लिखा है—उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जिनने अपने उज्ज्वल भविष्य पर से भरोसा खो दिया है। इन्हें किसी भी चिकित्सा द्वारा स्थायी रूप से अच्छा कर सकना कठिन है, एक के बाद दूसरे मर्ज उन पर हावी होते ही रहते हैं। रोग मुक्त केवल उन्हें ही किया जा सकता है जिन्होंने अपने खोये विश्वास को पुनः वापिस लौटाने में सफलता प्राप्त कर ली।

शारीरिक और मानसिक थकान का, परिश्रम की अधिकता या पौष्टिक भोजन का अभाव उतना बड़ा कारण नहीं जितना कि मानसिक असन्तुलन। मनःशास्त्र के विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उतावली, आवेश, हड़बड़ाहट, चिन्ता एवं भावुकता ये उतार-चढ़ाव मनुष्य को अत्यधिक थका देते हैं। निराशा जन्य खीज-अधूरी आशायें सामर्थ्य से अधिक ऊंची महत्वाकांक्षायें, परस्पर विरोधी विचारों के अंतर्द्वंद्व, अनिश्चित एवं अनिर्णीत विचार, आत्महीनता, सामने प्रस्तुत काम में अरुचि, असफलता की आशंका, अविश्वास और भयग्रस्तता जैसे कारणों में उलझा हुआ मस्तिष्क इतना अधिक थक जाता है जितना कि पूरे दिन कठोर परिश्रम करने में भी नहीं थकता। ऐसे उलझे हुए मनुष्य कुछ काम न होने पर भी सदा थके-थके, खिन्न और खीजें हुए दिखाई पड़ते हैं।

शिकागो विश्वविद्यालय के परीक्षणों में बताया है कि अप्रिय मनुष्यों से मिलने, अप्रिय काम करने और अप्रिय परिस्थितियों में रहने से मनुष्य सबसे अधिक थकान अनुभव करता है। प्रियजनों के सम्पर्क में अनुकूल परिस्थितियों में और अनुकूल कार्यों में संलग्न रहकर मनुष्य जितना काम कर सकता है प्रतिकूलताओं के बीच रहकर वह अपेक्षाकृत चौगुनी थकान अनुभव करता है।

थकान और तनाव भरा जीवन भार है। यह एक ऐसा भार है जिसे हम स्वयं ही अपनी मानसिक दुर्बलता एवं अस्त-व्यस्तता के आधार पर बनाते और अपने कन्धों पर लादते हैं। जीवन का—संसार का—और अपनी सीमा का यदि सही संतुलन रखा जा सके तो न केवल तनाव रहित जीवन—हलका फुलका जीवन जिया जा सकता है वरन् इतना प्रसन्न संतुष्ट रहा जा सकता है जिसकी शीतल सुरभि का लाभ अन्य समीपवर्ती सम्बन्धित लोग भी उठा सकें।

अंग्रेज लेखक वेकन वृद्धावस्था में बहुत निर्धन हो गये थे। इसका एक कारण उनका चिन्तन में अधिक उलझा रहना और कमाई पर कम ध्यान देना भी था। एक दिन उनकी पत्नी ने कहा—बुढ़ापे में निर्धन होना कितना कष्टकर है—क्या आपको यह स्थिति अखरती नहीं?

वेकन ने शान्त चित्त से कहा—धन कमाना आसान है। जुट पड़ेंगे तो कमा ही लेंगे, पर मैं देखता हूं जीवन जीना कितना कठिन है। मैं उसी कला को सीखना आरम्भ कर रहा हूं। उसके अनुसन्धान और प्रयोग मात्र में जब इतना रस मिलता है तो सोचता हूं उसकी अधिक उपलब्धि में न जाने कितना आनन्द होगा। प्रिये, धन उतना आनन्द दायक नहीं जितना जीवन का सही मूल्यांकन और उपयोग कर सकने वाले दृष्टिकोण का विकास।

एल्बर्ट स्व्ट्जिर एक दिन बड़े तड़के घुटने टेक कर भाव भरी प्रार्थना कर रहे थे, ऐ मेरी दुनिया के स्वामी, आपने जीवन को जानने की जिज्ञासा के साथ मुझे जोड़ ही दिया तो अब जीवन को क्षीण मत होने देता। जीवन रस का प्याला इतना मधुर है कि वह मुझसे छोड़ा न जा सकेगा। यह हट गया तो फिर मेरे लिए जीवित रह सकना असह्य हो जायगा।

स्वास्थ्य की स्थिरता का आधार हमें मानसिक संतुलन को ही मानना होगा और जिस प्रकार पेट या रक्त के खराब न होने देने की सावधानी बरतते हैं वैसे ही यह ध्यान भी रखना होगा कि भावनात्मक संक्षोभ हमारे मस्तिष्क पर हावी होकर पूरे स्वास्थ्य संस्थान को ही चौपट करके न रख दे।

शरीर के बाह्य भीतरी अवयवों पर मस्तिष्क का—मानसिक स्थिति का प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता है इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। वह प्रभाव शुभ भी हो सकता है, अशुभ भी, यह अपनी मनमर्जी की बात है। तनाव और थकान आवेश और उत्तेजना भरा क्लेशपूर्ण जीवन जियें अथवा सुस्त संतोष को अपनाकर पुष्प की तरह खिलते रहें यह अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है, परिस्थितियों पर आधारित नहीं जैसा कि आमतौर से समझा जाता है।
First 3 5 Last


Other Version of this book



मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष
Type: TEXT
Language: HINDI
...

मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • जो चाहें सो सहज ही पायें
  • ​​​विस्मय विमुग्धकारी मस्तिष्क संस्थान
  • ​​​अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना
  • ​​​रूग्ण रहे या सुखी मनमर्जी की बात है
  • ​​​क्या हम सभी मनोव्याधि ग्रस्त हैं?
  • ​​​संतुलन साधें—सुखी निश्चिंत रहें
  • ​​​पुलकित प्रफुल्लित जीवन जियें
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj