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Books - नेत्र रोगों की चिकित्सा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


नेत्र-रोगों की प्राकृतिक-चिकित्सा

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नेत्र-रोगों के प्रधान कारण—जिन कारणों से शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं, प्रायः उन्हीं कारणों से नेत्रों में नाना प्रकार की बीमारियां उत्पन्न होतीं तथा दृष्टि को खराब कर देती हैं। मानव शरीर का नेत्रों से इतना गहरा सम्बन्ध है कि अक्षिनिदान नामक विज्ञान के अनुसार नेत्रों का रोग, स्वास्थ्य, निक्षेप इत्यादि परख कर शरीर के अन्य अंगों के अनेक रोगों का ज्ञान होता है। डाक्टर वेट्स के मतानुसार नेत्र रोगों का प्रधान कारण मस्तिष्क पर अनावश्यक तनाव या जोर पड़ना है। चिड़चिड़ापन, चिन्ता, अत्यधिक दिमागी परिश्रम, पढ़ना लिखना, सिनेमा देखना, अग्नि से या धूप से तपे हुए जल में प्रवेश करना, आंखें गढ़ा गढ़ा कर दूर की वस्तुओं को निरखना, सोने के समय रात्रि में जाग्रत रहने से नेत्रों पर तनाव पड़ता है। मांस पेशियां तथा स्नायु मंडल थक जाते हैं तथा कुछ व्यक्तियों को दूर की वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती तो कुछ को समीप की वस्तुएं नहीं दीख पड़तीं।नेत्र अनावश्यक जोर पड़ने से तो दोषयुक्त बनते ही हैं, किन्तु उनका एक कारण शरीर में विषैले रक्त, विजातीय पदार्थों का एकत्रित हो जाना, फेफड़ों, दांतों या गुर्दे में वात पित्त कफ के कुपित होने से खानपान में असंयम, सोने उठने में व्यवधान, मल मूत्र अधोवायु के वेग को रोकने से अत्यधिक नेत्र-परिश्रम से, गुड़ चीनी, मैदा, मिर्च के अधिक प्रयोग से, शरीर की सफाई उचित रीति से न होने से क्षीण जीवनी शक्ति से, अधिक शोक तथा रोने से, मदिरा के प्रयोग से, बसन्त आदि ऋतुओं के विपरीत पदार्थों के खाने पीने से, अति मैथुन से, आंसुओं के वेग को रोकने से, अति छोटी वस्तुओं को आंख गढ़ा गढ़ा कर देखने से भी कितने ही व्यक्तियों के नेत्र खराब हो जाते हैं। कुपित वात पित्त कफ नेत्रों की नसों में प्रवेश कर नेत्रों में कमजोरी उत्पन्न करते हैं। निर्बल स्वास्थ्य, जीवनी शक्ति की क्षीणता समस्त रोगों की जननी है।दूषित रक्त से नेत्र की दृष्टि निर्बल होती है। पोषक तत्वों से शून्य भोजन से रक्त दूषित बनता है। रक्त में यदि जीवाणुओं की संख्या न्यून हो अथवा यदि वे निर्बल हों या नेत्र में रक्त कम पहुंचे और स्नायु निज कार्य उचित रीति से सम्पन्न न कर सकें तो आंखों में तनाव अधिक प्रतीत होगा, नेत्रों के विविध भाग मांस पेशियां, नसें, स्नायु मण्डल सख्त हो जायेंगे फलतः कृत्रिम साधनों (चश्मा) की आवश्यकता पड़ेगी।दूषित रक्त के कारणों पर एक दृष्टि डालिये। जो आहार हम ग्रहण करते हैं, उसी के गुणों से युक्त रक्त तथा प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म अणु उत्पन्न होते हैं। शरीर और मन तक पर भोजन का प्रभाव पड़ता है। शास्त्रकारों का मत है कि तमोगुणी भोजन के व्यवहार से तमोगुण उत्पन्न होता है और यही रक्त को दूषित कर अनेक बीमारियां उत्पन्न करता है। तमोगुण प्रधान भोजन में मांस मदिरा तथा अन्य मादक पदार्थ गांजा, भांग, तम्बाकू, चाय, काफी आदि उत्तेजक चीजें, अति तीखे खट्टे, अति उष्ण, तेज, दाहकारी, अचार, मसाले, चटनी आदि पदार्थ सम्मिलित हैं। बासी, रसहीन, दुर्गन्ध युक्त, जूठे और उत्तेजक आहार रक्त में विकार उत्पन्न करते हैं। डॉक्टर हेग ने प्रकट किया है कि विषयुक्त रक्त में मिलकर छोटी-छोटी रक्तवाहिनियों नलिकाओं में रक्त-संचार का कार्य मन्द कर देता है। रक्त में विकार उत्पन्न होते ही बीमारी प्रारम्भ हो जाती है।रक्त-विकारों को निकालने वाले अवयव मूत्राशय, त्वचा, एवं अंतड़ियां हैं। रक्त तथा औषधियों के विष जो शरीर में हैं, उनको वहिर्गत करने वाले मुख्यतः मूत्राशय व त्वचा हैं। विजातीय तत्वों, विकारों का निकालना इन्हीं अवयवों की कार्यशक्ति पर निर्भर है। रक्त में विकार तभी होगा जब यकृत, प्लीहा या आन्तरिक अंग पाचनक्रिया उचित रीति से सम्पन्न न करते हों। जब इन अवयवों में से किसी का कार्य नियमित रूप से नहीं होता तो रक्त में दूषित पदार्थ मिलने लगते हैं और कुछ न कुछ बीमारी प्रारम्भ हो जाती है।मनुष्य के शरीर में अशुद्ध और रोगी रुधिर उसके मन में अशुद्ध, विकारपूर्ण, घृणित विकारों के कारण भी बहता है। शुद्ध हृदय से शुद्ध रुधिर आता है, शुद्ध निर्विकार शरीर बनता है। विचार व कार्य जीवन विकास के स्रोत हैं। चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, वासना से उत्तेजित मन में शुद्ध रक्त किस प्रकार हो सकता है? उस आदि स्रोत को शुद्ध करने से भी रक्त शुद्ध होता है। मानसिक दुर्बलता से भी अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं।कितने आश्चर्य की बात है कि ज्यों-ज्यों हम अधिक सभ्य होते जाते हैं त्यों-त्यों अधिक रोगग्रस्तों की संख्या बढ़ती जाती है। हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। यदि हम नैसर्गिक जीवन में हस्तक्षेप न करें तो पूर्ण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ और प्रफुल्ल नेत्र रह सकते हैं।अन्य रोगों का नेत्रों पर प्रभाव—बहुधा देखा गया है कि मधुमेह व गुर्दे के रोगों का बड़ा प्रभाव आंखों पर पड़ता है, अर्थात ऐसे रोगियों के नेत्र बहुधा खराब होते हैं जो पेशाब के निंद्य रोगों जैसे गर्मी, सूजाक, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि से पीड़ित रहते हैं। व्यभिचार संसर्ग दोष से गर्मी आंखों तक पहुंच जाती है। सुजाक का विष शरीर में से बड़ी कठिनाई से जाता है। लोग सोचते नहीं कि इन घृणित रोगों का प्रभाव उन्हीं पर नहीं, किन्तु स्त्री तथा संतान पर भी पड़ता है। ऐसे माता पिता के बच्चों की आंखें आरम्भ से ही खराब हो जाती हैं और जन्म से शरीर विषैला रहता है। एक बार रक्त दूषित हुआ कि सम्पूर्ण स्नायु जाल बिगड़ जाता है और आंखें खराब हो जाती हैं।आधुनिक युग में अपचन सम्बन्धी रोग वृद्धि पर है और 75 प्रतिशत रोगी पाचन क्रिया के रोग मन्दाग्नि और मलबद्धता से पीड़ित हैं। कुपच से बहुधा समस्त अवयवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पाचनक्रिया के बिगड़ते ही जीवन पदार्थ, वीर्य, शुद्ध रक्त नहीं मिलते और शरीर रोगों का घर बन जाता है। चाट, पकौड़ी, मांस, चाय ये सभी कब्ज उत्पन्न करती हैं। अयुक्त आहार तथा मल-विसर्जन की क्रिया का ठीक से न होने से स्वास्थ्य नाश होता है। जठराग्नि सम्बन्धी सभी बीमारियां प्रायः जिगर से सम्बन्ध रखती हैं। बार बार जुलाब लेने से, अचार, मसाला राई, कोको, मिठाइयां अधिक मात्रा में सेवन करने से मल-विसर्जन क्रिया ठीक प्रकार नहीं हो पाती। दूसरे अतिरिक्त यूरिक ऐसिड तथा बाहर से शरीर में ली हुई उत्तेजक दवाइयां, मद्य, भांग, चरस से कब्ज और बढ़ती है। कब्ज का सीधा प्रभाव रक्त प्रभाव, रक्त भ्रमण और स्नायविक शक्ति पर पड़ता है फलतः नेत्र रोगों की उत्पत्ति प्रारम्भ होती है। गर्दन के पीछे रीढ़ की जो मांस पेशियां ढके हुए हैं, उनमें खराबी आने से आंख की नलियों में रक्त कम जाता है और उनकी स्नायविक शक्ति निर्बल पड़ जाती है। इसके अतिरिक्त नजले, जुकाम तथा खांसी का भी बुरा प्रभाव पड़ता है।मेरा अपना अनुभव है कि दांतों का नेत्रों से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जहां दांत कमजोर होने प्रारम्भ हुए कि नेत्र ज्योति भी मन्द पड़ने लगती है। पायरिया, मसूड़े फूलना, दांत से रक्त जाना, मुंह खारा लगना, मुंह से बदबू आना, पीव निकलना ये सभी नेत्रों के लिए हानिकारक हैं। दांत के रोग आज की सभ्यता की देन हैं। ज्यों-ज्यों हमारा आकर्षण डिब्बों में बन्द खाद्य, सफेद चीनी, मैदा, पालिश वाले चावलों की ओर बढ़ता जा रहा है त्यों त्यों इन रोगों से आक्रान्त रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही हैं। हमारे भोजन में कैल्शियम की कमी है, चीनी के अधिक प्रयोग से दांत बिगड़ रहे हैं। गन्ने के रस अथवा गुड़ से जब चीनी बनती है तो उसमें कैल्शियम का अंश नहीं रह जाता तथा चीनी कैल्शियम के बिना पचती नहीं। अतः चीनी के पाचन के लिए कैल्शियम हड्डियों से खिंचकर आता है तथा हड्डियों को कमजोर बना देता है। इसका दूषित प्रभाव नेत्रों पर पड़ता है।आयुर्वेद के मत से नेत्र रोगों के कारण—कविराज श्री महेन्द्रनाथ जी पांडेय ने आयुर्वेद के अन्तर्गत नेत्र रोगों के बीस कारणों का इस प्रकार उल्लेख किया है—[1] नेत्र में धूल के कण या धुआं जाने से [2] बादी की वस्तुओं को खाने से [3] खट्टे रसों, फलों, अचार, चटनी, मुरब्बों के अत्यधिक प्रयोग से [4] दूर के पदार्थों को एक टक देखने से [5] अधिक अग्नि ताप से [6] उचित समय पर न सोने से [7] नेत्रों के अनावश्यक तनाव से [8] गर्मी या धूप से सन्तप्त होने पर तुरन्त शीतल जल में प्रवेश करने पर [9] आती हुई कै को रोकने से [10] सिर में आकस्मिक चोट लग जाने पर [11] बहुत दिन तक रात-दिन रोते रहने, बार बार नेत्र पोंछने, आंख में मिर्च आदि तेज वस्तु लग जाने पर आंसू आने से [12] मलमूत्र तथा अधोवायु के वेगों को रोकने से [13] शोक के संताप से [14] ऋतुचर्या में बताई विधि के विपरीत आचरण करने से [15] खूब तेज चलने वाली सवारी पर बैठ जाने से [16] अश्रुओं के वेग को रोकने से [17] अत्यन्त क्रोध से [18] अत्यन्त सूक्ष्म, छोटी बारीक चीजों, पुस्तकों की छपाई पर नेत्र एकाग्र करने से [19] लगातार कई घण्टे देखने से। आजकल सिनेमा देखने, मिट्टी के तेल की बत्ती से पढ़ने, और बिजली की तेज रोशनी में पढ़ने से लोगों के नेत्र बहुधा खराब हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त दूषित भोजन, व्यसन, वनस्पति घी, चाय, नशा, सिगरेट के अत्यधिक प्रयोग से आंखें खराब हो जाती हैं। गिरता हुआ स्वास्थ्य नेत्रों की खराबी का प्रमुख कारण है।अन्य पाश्चात्य नेत्र-चिकित्सकों के मत—[1] पढ़ते समय नेत्रों की पलकें ऊपर ताने रहना आंख की पुतली पर तनाव डालना है। प्रायः पढ़ते लिखते समय हम गलत रीति से आंख पर दबाव डालते हैं। लेटकर पढ़ने से पलक को ऊपर ताने रहना पड़ता है। केवल नसों पर दबाव पड़ता है। जब हम पलक झपकाते हैं तो नेत्रों से एक लाल पदार्थ निकल कर पुतली को धो डालता है और दृष्टि पुनः स्पष्ट हो जाती है। पलक झपकाकर हम प्रत्येक बार पुतली को धोया करते हैं। लेट कर पलक को ऊपर तानना पड़ता है और इससे पलक कम बार झपकी जाती है। पलक धोने की क्रिया भी कम बार होती है। फलतः नेत्र विकार उत्पन्न होते हैं। गैस, सिनेमा, बिजली की रोशनी, धुआं और गर्द में नेत्र खोले रखने से दृष्टि में कमजोरी आती है।2—अपने नेत्र रोगी को चश्मा देकर डॉक्टर लोग समझते हैं कि हमने यथाशक्ति रोगी की सहायता की है और यही इस रोग का इलाज है। रोगी चश्मे के शौक में खुशी से फूल जाता है। हर समय चश्मा लगाने से जब नेत्र थक जाते हैं और आंखें आराम चाहती हैं, तब भी वह चश्मा लगाये रहता है। स्नायु मण्डल पर अनावश्यक जोर पड़ता है और रही सही बीनाई भी जाती रहती है। चश्मे से लगातार दृष्टि कमजोर होती रहती है। अतः समझदार व्यक्ति को चश्मा भी ऊंचे नम्बरों का बदलवाना पड़ता है। अनेक मूर्ख नम्बर न बदलवाकर चश्मे के द्वारा नेत्र खराब कर डालते हैं। चश्मे से दूर तथा पास की वस्तुओं को देखने में एक-सा जोर पड़ता है तथा पहले दूर व निकट की वस्तुओं को देखने में जैसे दृष्टि का आकार बदलता था, वैसे अब नहीं बदल सकता। चश्मे से बेचारे नेत्र एक प्रकार के बन्धन में जकड़ कर खराब हो जाते हैं। चश्मे से रोग का कारण दूर नहीं होता प्रत्युत उनमें एक और कारण सम्मिलित हो जाता है। नसों के तनाव व खिंचाव को दूर करने की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। अतः नेत्र विकार युक्त बने रहते हैं। शौकिया चश्मा लगाना नेत्र को विकार युक्त बनाना है।3—अनेक वस्तुओं को एक साथ ही देखने का प्रयत्न करने से नेत्रों की कोमल शिराओं पर जोर पड़ता है। एक ही वस्तु को गढ़ा-गढ़ा कर समूची देखने की कोशिश से भी काफी जोर रहता है। अनजानी वस्तु को देखने और अरुचिकर तथा कठिन विषयों को पढ़ने से आंख पर जोर पड़ता है।4—आंख दुःख आने पर उसका उचित इलाज न हो, उसमें ‘ऐरे गैरे नत्थू खैरे' सभी की दवाई डालने से, स्याही काजल, मिर्च इत्यादि लग जाने से या, तेज कास्टिक द्वारा, शफाखानों में लापरवाही करने से अनेकों ने आंखें बेकार कर ली हैं। इसी प्रकार नेत्र में कोई विजातीय पदार्थ घुस कर, जैसे मच्छर, चींटी, रेल का कोयला, धूल के कण, फांस या कोई अन्य वस्तु नेत्र को बेकार कर देती हैं।5—जिस ओर सिर हो उसके विपरीत नेत्र घुमाने से नेत्रों पर जोर पड़ता है। जैसे सिर बायीं ओर झुका है और आप दाहिनी ओर देखने की कोशिश कर रहे हैं अथवा सिर झुकाए ही ऊपर की वस्तुओं को देखने की कोशिश करना दृष्टि विकार का कारण बनना है। धुंधले प्रकाश में, जब आंखे अच्छी तरह न खुलती हों, पढ़ने-लिखने से, आंखों के बहुत निकट कागज रखने से नेत्र बिगड़ते हैं। कसीदा या बहुत बारीक सिलाई हानिकर है।6—दौड़ती गाड़ी, मोटर, ट्राम, या रेल में पढ़ना-लिखना नेत्र पर तनाव डालता है। सभ्यता के इस युग में अनेक व्यक्तियों ने बिस्तर पर लेट कर पढ़ने की आदत से नेत्र ज्योति मन्द की है। बिजली की चकाचौंध करने वाली तेज रोशनी हानिकारक सिद्ध हुई है।अपुष्टि कर भोजन, घी, दूध की कमी, शाक-तरकारियों को भून-भून कर खाना, विटामिन की न्यूनता, भय, चिन्ता एवं शारीरिक कष्ट, ब्रह्मचर्य का अभाव, अधिक स्त्री प्रसंग से नेत्र बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं।आंख और मस्तिष्क का सम्बन्ध :—मनुष्य के नेत्र तथा मस्तिष्क दोनों की स्वाभाविक कार्यप्रणाली, नाक और कान की भांति, स्वयं अपने आप होती है। किन्तु देखने की कलात्मक क्रिया में मस्तिष्क का महत्वपूर्ण भाग रहता है। फोटोग्राफी के कैमरे की भांति नेत्र नाना वस्तुओं के आकार अंकित करते हैं, मस्तिष्क उन आकारों को विवेक द्वारा समझता है। आंख और मस्तिष्क का कार्य अर्थात् देखने और समझने का कार्य जब बिना किसी प्रयत्न के स्वाभाविक रीति से अपने आप होता है, तब दृष्टि विकार रहित कही जाती है। निर्दोष आंखें दूर या पास की वस्तुओं के चारों ओर अपना दृष्टि बिन्दु डालती हैं और मस्तिष्क नेत्र के प्रकारों को सही-सही समझा देता है।किन्तु जब दृष्टि एकाग्रता या फोकस करने की शक्ति नष्ट हो जाती है या मस्तिष्क किसी कारण से थक जाता है, कि यह फोकस करने की शक्ति ही विकृत रहती है और रोगों में दूर या पास दृष्टि एकाग्र करने की शक्ति दोषपूर्ण हो जाती है। या यों कहिए कि आंख के कैमरे में आगे-पीछे करके भिन्न-भिन्न दूरियों पर दृष्टि एकाग्र करने की शक्ति लाती रहती है। इसी से भोंगापन भी उत्पन्न होता है।दृष्टि विन्दु केन्द्रीकरण की शक्ति का नष्ट होना एक प्रकार की थकान पर निर्भर है। जब किसी कार्य से मस्तिष्क पर जोर पड़ने से मस्तिष्क पर भी थकान होती है। दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। जब मस्तिष्क तथा नेत्र दोनों पर ही मात्रा से अधिक जोर पड़ता है तब केन्द्रीकरण की शक्ति का ह्रास प्रारम्भ होता है। मस्तिष्क के थकान के ये कारण हो सकते हैं—अधिक पढ़ना लिखना, चिन्ता, परेशानी, शोरगुल, डर, अपरिचित शब्दों का सुनना, अनिद्रा, रोषपूर्ण कल्पनाएं, हिसाब किताब। नेत्रों के थकान के ये कारण हैं—अपरिचित वस्तुओं, नक्शों, छाया चित्रों को देखना, रात्रि में, चलती गाड़ी में पढ़ना, दृष्टि गड़ाये रखना। एक विन्दु पर एक सेकिण्ड से अधिक देर तक देखने से भी केन्द्रीकरण की शक्ति नष्ट होती है।दृष्टि सम्बन्धी मुख्य रोगों के लक्षण—नेत्र में उत्पन्न होने वाले रोग आयुर्वेद के मत से 76 हैं। ये समस्त रोग नेत्र के भिन्न भिन्न हिस्सों में हो सकते हैं। नेत्र रोगों की चिकित्सा करने से पूर्व यह समझ लीजिए कि हमारी आंख दो फिरने वाली गोल वस्तुएं हैं, जिनके मध्य एक छेद व काले पंचभूतों से बना, जुगनू और अग्नि की चिनगारी के समान गोला होता है। इस नेत्र रूपी अर्ध बिन्दु की तीन तह होती हैं—बाहर की तह, बीच की तह, अन्दर की तह। बाहर की तह श्वेत व चमकदार होती है। केवल मध्य में छेद होता है, जिसमें होकर प्रकाश आता है। बीच की तह में सूक्ष्म नाड़ियां होती हैं जो रक्त को नेत्रों में लाती हैं। हीरे के ठीक पीछे पुतली होती है। तीसरी आन्तरिक तह बहुत पतली है तथा वाह्य पदार्थों का अक्स उस पर पड़ता है। वह भी रक्त वाहिनी सूक्ष्म नाड़ी का एक भाग ही है। यदि यह विनष्ट हो जाय तो दृष्टि लोप हो जाती है। प्रकाश की किरणें हीरे में होकर आती हैं, गोलाकार बिन्दु के पास टकराती हैं और केवल बीच की किरणें नेत्रों में प्रविष्ट होती हैं। यह किरणें अन्दर जाकर मस्तिष्क में सूक्ष्म नाड़ी द्वारा पहुंचती हैं और पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। इस क्रिया में बाधा पड़ने से। नेत्र-रोग होते हैं।अनेक व्यक्ति यह नहीं समझते कि आंखों की खराबी, कमजोरी और दृष्टिदोष भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग हैं। आंखों की कमजोरी व खराबी शरीर की निर्बलता से हो सकती है। दृष्टिदोष पृथक् पृथक् कारणों से होता है। दृष्टिदोष का एक कारण है नेत्रों की मांसपेशियों और नसों का कड़ा या सख्त हो जाना। कड़ेपन से कम हरकत होती है और ठीक ठीक देखने के लिए नेत्र के जिन हिस्सों को घटना बढ़ना चाहिए, यह परिवर्तन आसानी से नहीं हो पाता और वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर ठीक ठीक नहीं पड़ता। दूर दृष्टि और समीप दृष्टि ये दृष्टिदोष हैं। मोतियाबिन्द, ग्लाऊकोमा, इरिटिस आदि अखि की बीमारियां हैं। शास्त्रकारों ने दृष्टि के रोग 12 कहे हैं—(1) प्रथम पर्दे में तिमिर (2) दूसरे पर्दे में तिमिर (3) तीसरे में तिमिर (4) चौथे में दोष (5) लिंगनाश (6) काच (7) पित्त (8) विदग्ध-दृष्टि (9) श्लेमविदग्ध दृष्टि (10) धूमदर्शी (11) ह्रस्वजाड्य (12) नकुलाध्य (13) गम्भीरिका। यहां पर कुछ मुख्य रोगों का विवेचन किया जाता है—मायोफिया—दूर की वस्तुएं साफ नजर नहीं आती। हाईपर मोट्रोफिया में पास की वस्तुएं स्पष्ट नहीं दीखतीं यद्यपि दूर की चीजें साफ दीखती हैं। यह रोग वृद्ध तथा युवक दोनों को ही होता है। जब यह केवल बूढ़ों को होता है तो इसे प्रेसवायोपिया कहते हैं। आस्टिमैटिज्म इसमें नेत्रों के चारों ओर की मांसपेशियां में बराबर बराबर तनाव नहीं पड़ता। पेशियां सख्त हो जाती हैं उनमें लोच नहीं रह जाती। इसलिये देखने में अड़चन पड़ती है। ‘स्ट्रैबिसमस’ में स्नायविक दुर्बलता के कारण मांसपेशियां संकुचित हो जाती हैं। मोतियाबिंद में आंख पर एक प्रकार का कांच सा जमा हो जाता है, जिससे रोशनी भीतर नहीं पहुंचती और मनुष्य अन्धा हो जाता है। ‘कलर ब्लाइन्डनेस’ नामक रोग में रंगों की पहचान ठीक ठीक नहीं होती। ‘नाइट ब्लाइन्डनेस’ में रात को तिमिर सा छा जाता है तथा कुछ भी स्पष्ट नहीं दीख पड़ता। कभी-कभी रेटिना का बंधन ढीला पड़ जाता है और वह अपने स्थान से हट जाती है। आंख में चोट से प्रायः ऐसा होता है। इसे ‘डिटैचमेन्ट आफ रेटिना’ कहते हैं। आंख के ताल का दबाव बढ़ जाने से ‘ग्लाउकोमा’ रोग होता है आंख भीतर को बैठ जाती हैं और पीड़ा भी अधिक होती है। यह रोग चारों पर्दों में प्रविष्ट वायु से उत्पन्न होता है। वाणभट्ट कहता है कि इस रोग में वायु दृष्टि की नसों को संकोच लाती है। वस्तुतः दृष्टि मण्डल अन्दर को बैठ जाता है। इसके लक्षण आयुर्वेद की गम्भीरता से मिलते हैं। आंख के काले भाग में प्रदाह होने को ‘इरिटिस’ रोग कहते हैं।नेत्र की प्राकृतिक चिकित्सा—नेत्र सुधारने के इच्छुक को बड़ी सावधानी से नेत्र खराब हो जाने के कारणों को तुरन्त दूर करना चाहिए। प्रत्येक कारण को स्वतंत्र रूप से लीजिए और उसके निवारण में प्राणप्रण से चेष्टा कीजिए। नेत्रों के बिगड़ने के मुख्यतः तीन कारण बतलाये गये हैं—[1] दूषित भोजन [2] मस्तिष्क तथा नेत्रों का तनाव [3] नेत्रों में यथेष्ट रक्त न पहुंचना। प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत दिमाग और नेत्रों के ढीलेपन पर अत्यधिक जोर डालते हैं। फल, दूध तथा उपवास द्वारा दृष्टि दोष का परिहार करते हैं। जो व्यक्ति स्नायु मण्डल के विकार तथा गर्दन की खराबी से दृष्टि दोष होना मानते हैं, वे रीढ़ का ही उपचार करते हैं।कुछ व्यक्ति समझते हैं कि हमें चश्मा मिल गया तो बस, नेत्र विकार ठीक हुआ। ऐनक कृत्रिम साधन हैं, जो कुछ दिनों के लिए, जब तक नेत्र ठीक न हों, काम में लाया जा सकता है। जो सदा सर्वदा चश्मे की सहायता से रहना पसन्द करते हैं, वे भारी भूल करते हैं। चश्मे का प्रयोग करने वालों में से सौ में नब्बे का दृष्टि विकार बढ़ता है, नेत्र ज्योति क्रमशः क्षीण होती है। उन्हें बार-बार चश्मे का नम्बर बदलवाना पड़ता है। चश्मा झूठा मित्र है इससे दृष्टि में अनेक रोग और उत्पन्न हो जाते हैं। यदि अल्प दृष्टि वाले रोगियों को यह प्रतीत हो जावे कि चश्मा लगाने से उल्टे नेत्र सदा के लिए कमजोर हो जायेंगे और सुधार की रही-सही आशा भी न रहेगी, तो वे चश्मा छोड़कर अवश्य ही स्वाभाविक उपचारों की ओर अग्रसर होंगे।आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति—नेत्रों का सार भोजन सुधार में है। नेत्र भी शरीर के अंग विशेष हैं। अतः सम्पूर्ण शरीर यदि मजबूत बनेगा तो नेत्र भी सशक्त होंगे। समस्त शरीर के रोगी या स्वस्थ होने से नेत्र भी रोगी या विकार रहित होंगे। शरीर में फैले हुए विषों का नेत्र के स्नायु मंडल से गहन सम्बन्ध है। आंख दुखना, आंखों की सूजन, पानी व गन्दगी आना, बाल, जाला व फूला आना आदि इस बात के परिचायक हैं कि शरीर में मल पदार्थ संचित हो गये हैं। मनुष्य के आकार प्रकार, रंग रूप, प्रकृति तथा स्वास्थ्य में फेर फार करने वाले केवल विजातीय दूषित मल पदार्थ ही हैं। जब तक हमारे शरीर से विजातीय विषैले मल निकलते रहते हैं, तब तक शरीर का प्रत्येक अवयव अच्छी तरह कार्य करता है, किन्तु जिस दिन से यह विषैले मल हमारे रक्त में मिलने शुरू होते हैं, उसी दिन से रोगों का सूत्रपात होता है। विषैले पदार्थ पहिले अपना अड्डा पेट के आन्तरिक अवयवों के इर्द गिर्द जमाते हैं, फिर उनका जमाव मल मूल के द्वारों, स्थानों के आस पास होता है। तत्पश्चात् पाचन शक्ति पर इनका आक्रमण होता है, अजीर्ण तथा कब्ज का सूत्रपात होता है। अन्त में अनेकों रोगों की सूची हमारे सामने आती है। नेत्रों के अनेक रोग भी इन्हीं में हैं। जिन जिन नियमों से विजातीय मल दूर किये जा सकते हैं, उनका सामान्य रूप यों है—1—शुद्ध वायु का यथा संभव सेवन कीजिए। इससे फेफड़े सबल बनते हैं। दीर्घ श्वास-प्रश्वास द्वारा विषैले पदार्थ बाहर निकल जाते है। 2—स्वच्छ जल दूसरा साधन है। इसके उपयोग के दो रूप हैं—पीना और स्नान। शीतल जल से नेत्र धोना अमृतोपम है। अधिक जलपान करने से रक्त पतला होता रहता है। अतः बारीक और सूक्ष्म नाड़ियों में अच्छी तरह संचार हो सकता है रक्त का संचित मल जल से धुलता रहता है। पसीने तथा मूत्र द्वारा विजातीय मल निकलते रहते हैं। नेत्र ज्योति स्वयं बढ़ती है। स्नानों में पेडू स्नान तथा जननेन्द्रिय स्नान विशेष उपयोगी हैं। पेट तथा जननेन्द्रिय मलाशय के आस-पास के दूषित पदार्थ इन स्नानों से हट जाते हैं और नेत्र ज्योति लौट आती है। [3] तृतीय साधन उपवास है। उपवास से शरीर के मल पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में पच जाते हैं और दूषित पदार्थों से भरी हुई नसें पुनः शुद्ध विकार रहित हो जाती हैं। परिणाम स्वरूप आंखों व उनकी नसों से खराब पदार्थ बाहर निकलने से वे उज्ज्वल, शुद्ध व मुलायम हो जाती हैं।प्राकृतिक भोजन—नेत्रों का सुधार करने के लिए भोजन का सुधार कीजिए। खराब, अप्राकृतिक भोजन के कारण नेत्रों को शुद्ध रक्त नहीं मिलता। अध-पके फल, हरे शाक, बिना उबली या कम उबली हुई तरकारियां, मिर्च मसाले रहित सात्विक हल्का सुपाच्य आहार और सबसे अधिक मात्रा में दूध (दूध, दही, मठा, लस्सी, मधुपर्क, घी,) का उपयोग आपके नेत्रों को एक मास में ही ठीक कर देगा। आपके भोजन में शरीर को पुष्ट करने वाले पदार्थ प्रचुर मात्रा में होने चाहिए। भोजन के घंटे डेढ़ घंटे पश्चात गन्ना चूसना, सन्तरे खाना, अनार, टमाटर चूसना, अंगूर खाना, रसीले फलों का सेवन करना नेत्रों को बहुत शक्ति देता है। निरन्तर दो बार ठीक भोजन खाने के बजाय एक बार शाक तरकारी, फल वाला तथा दूसरी बार तरल पदार्थ, जैसे शहद, दूध, लस्सी, मधुपर्क, फलों का रस प्रयोग में लाना चाहिए। सब प्रकार के पौष्टिक खाद्य पदार्थों को अदल-बदल कर खाना बड़ा उत्तम है, इससे शरीर को जिस प्रकार के पोषण की आवश्यकता होती है, वह पर्याप्त रूप से मिलता रहता है। नेत्र रोगियों के लिए गाय का दूध, घी, मक्खन अत्यन्त आवश्यक है। मेवे, फल और दूध दही का जितना अधिक उपयोग हो सके करना चाहिए। पनीर, मट्ठा, मूली, शलजम और पौष्टिक पदार्थ नेत्रों को ठीक करते हैं। चोकर में बहुत अधिक पौष्टिक गुण हैं। दाल इत्यादि चोकर सहित खाना चाहिए। मछली मांस की अपेक्षा दाल में अधिक प्रोटीन होती है। प्रत्येक नेत्र के रोगी को तरावट देने वाले पदार्थ, ताजे फल, कन्दमूल, सूखे फल, दूध, मलाई, मधु आदि पौष्टिक, अमृत तुल्य पदार्थों का अधिक से अधिक मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।नेत्रों को विश्राम दीजिये—स्नायु एवं रीढ़ की हड्डियों को बल देने से अद्भुत प्रभाव पड़ता है। इनको दृढ़ करने के अनेक व्यायाम हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने आविष्कृत किए थे। इन व्यायामों का अवलम्बन कर हमारे पूर्वज गर्दन की मांसपेशी में लचीलापन स्थिर रखते थे। अतः डॉ. वेट्स ने जो शिथिलीकरण पर जोर दिया है मांसपेशियों एवं दिमाग को पूर्ण विश्वास देने के लिए जो अनुरोध किया है, वह हमारे लिए कोई नवीन बात नहीं है। योग की शिथिलीकरण क्रियाओं से सम्पूर्ण शरीर को विश्राम प्राप्त हो जाता है। शवासन, पूर्ण विश्राम के लिए ही करते हैं। पूर्ण नेत्र शक्ति प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि नेत्रों तथा उसके चारों ओर के स्नायु मंडल को ढीला व मुलायम किया जावे। तनिक भी खिंचाव, तनाव अथवा टेढ़ापन प्रस्तुत न हो।पामिंग—नेत्रों को विश्राम देने का डॉ. वेट्स ने जो ढंग आविष्कृत किया है, उसे पामिंग [नेत्रों को हाथों से मूंदने की क्रिया] कहते हैं। कमजोर दृष्टि का स्पष्ट कारण यह है कि बेचारे नेत्रों से अत्यधिक काम लिया गया है, विश्राम कम मिला है। स्वस्थ नेत्रों के लिए तो रात्रि की निद्रा का विश्राम यथेष्ट हो जाता है, किन्तु निर्बल नेत्रों के लिए यह यथेष्ट नहीं होता। अतः अन्य कृत्रिम उपायों से उन्हें समय पर विश्राम देना होता है।पामिंग को अर्थ है, हथेली से नेत्रों को ढक लेना। पामिंग के उचित प्रयोग से आंख को पर्याप्त विश्राम मिल जाता है और प्रतिदिन नेत्र-ज्योति में वृद्धि होती है। नेत्र मूंदने से आराम मिलता है, पलकों को मार कर रोशनी नहीं पहुंच पाती। ढकी हुई आंखें पूर्ण अन्धकार में रहती हैं। साथ ही हथेली की गर्मी, कोमल स्पर्श तथा आराम मिलता है। शांर्ङ्गधर में लिखा है कि ‘‘भोजन के पश्चात् हाथ धोकर गीले हाथों की दोनों हथेली परस्पर घिसकर नेत्रों में लगाने से, आंख के समस्त रोग तथा तिमिर दूर होते हैं।’’ डॉ. वेट्स ने इस पुरानी पामिंग की क्रिया में कुछ सुधार कर उसे चिकित्सा का एक अंग बना लिया है। 5-7 मिनट पामिंग से नेत्रों को आराम मिलता है, साथ ही ज्योति की वृद्धि भी होती है।पामिंग के लिए प्रात:काल सर्वोत्तम है। सोने से पूर्व पामिंग करने से निद्रा मीठी आती है। नेत्र के पुराने रोगियों-वृद्धों को दस से पन्द्रह बार तक आधे-आधे घन्टे के विश्राम के पश्चात् यह क्रिया करनी चाहिए। पामिंग चिन्ता फिक्र छोड़ शान्ति से करना चाहिए। खड़े-खड़े चलते या लेट कर करने के स्थान पर पामिंग सदैव शान्तिपूर्वक बैठ कर ही कीजिए।प्रतिदिन प्रातःकाल अथवा सायंकाल, एकान्त स्थान में आराम से बैठकर रीढ़ की हड्डी को बिलकुल सीधा कीजिए। सब विचारों को मानस प्रदेश से हटाकर दृढ़ता से सोचिए—‘‘मेरे नेत्रों में पुनः स्वाभाविक ज्योति प्रविष्ट हो रही है। नव ज्योति का विपुल संचार हो रहा है। मैं दिमाग की समस्त नसों और मांसपेशियों को शिथिल (ढीला) कर नेत्रों को पूरा-पूरा विश्राम प्रदान कर रहा हूं। मैं अपने नेत्रों में अधिकाधिक ज्योति का संचार करता हूं।’’—ऐसी धारणा पर दृढ़ता से मन लगाइये। मांसपेशियां तथा सूक्ष्म नसें ढीली हो जायेंगी। दो तीन बार के अभ्यास से आपको स्वयं अनुभव होने लगेगा कि नसें ढीली हो गईं तथा आंखों को आराम मिल रहा है। तदुपरान्त बाएं हाथ की हथेली से बांए नेत्र और दाहिने से दाहिने नेत्र को ढक लीजिए। हाथ की हथेली पूरी आंख पर रहे, नेत्र पर किंचित भी प्रकाश न पड़े, न दबाव ही। आपकी नाक भी न दबने पावे तथा श्वासोच्छवास में भी बाधा न पड़े। आंख ढक कर दोनों कुहनियों को घुटनों पर टेक लीजिये। दोनों घुटने परस्पर सटे रहेंगे। गर्दन झुक जायगी। पामिंग की क्रिया से क्रमशः काला रंग आंख मीचने पर अधिक गहरा प्रतीत होने लगेगा। ज्यों-ज्यों कालापन गहरा होता जाय, त्यों-त्यों नेत्र ज्योति में वृद्धि होने लगेगी।पामिंग करते समय नेत्र जोर से बन्द न कीजिए। नेत्र, गर्दन तथा मस्तिष्क की सूक्ष्म मांस पेशियों की नसों को ढीला रखिए। तीन-तीन मिनट के पश्चात् नेत्र खोलिए। नेत्रों को फाड़कर नहीं खोलना चाहिए। जितनी वह सरलता से खुल जायं वही यथेष्ट है। कविराज महेन्द्रनाथ जी पाण्डेय का विचार है कि पामिंग में नेत्र मूंदकर किसी काले दृश्य का विचार करना चाहिए या कोई आनन्ददायक विषय, जैसे सुन्दर पुष्प, सुन्दर कहानी का प्लांट, आकर्षक दृश्य, नौका विहार इत्यादि कल्पना की कूची से निर्मित कीजिए। पामिंग करने पढ़ने का अभ्यास भी कीजिए। अक्षर के एक अंश को देखिए, फिर पामिंग कीजिए और फिर उसी अक्षर को देखिए। आप देखेंगे कि अक्षर के जिस अंश को आप देख रहे हैं, वह शेष अक्षरों से अधिक काला है। इसी प्रकार अक्षर के प्रत्येक हिस्से को देखिए। इस प्रकार पामिंग करने और पढ़ने का अभ्यास साथ-साथ करने से बहुत लाभ होता है।झूमना—(स्वीइंग) झूमना भी एक उत्तम स्वाभाविक नेत्रोपयोगी व्यायाम है, जिससे नेत्र तथा उनके समीप की समस्त नसें मुलायम हो जाती हैं। डॉ. युगलकिशोरजी ने झूमने की निम्न रीति बताई है—‘सीधे खड़े हो जाओ। हाथ ढीले करके लटकादो। फिर सम्पूर्ण शरीर को एक दम ढीला करके आजू-बाजू दाहिनी व बांई तरफ झूमना शुरू करो। ऐसा विचारो कि तुम घड़ी के पेंडुलम (लटकने वाला भाग हो) और ठीक चाल से झूमते रहो। हर एक एड़ी को, एक के बाद दूसरी बारी-बारी से उठाते रहो मगर पूरे पांव तो जमे रहने चाहिए। आंख की पुतली की हरकत हर दशा में विभिन्न होगी और उसकी अच्छी कसरत हो जायगी। पुतलियां फिराने की क्रिया को प्रति दिन दस मिनट तक कर सकते हैं। पुतलियों की कसरत के पश्चात् आप पामिंग कर सकते हैं। आंखों को खोलना तथा बन्द करना यह दोनों क्रियाएं दो-दो मिनट के अन्तर से करना चाहिए।पलक झपकना—एकटक देखने से नेत्र पर जोर पड़ता है उसे दूर करने के लिए पलक मारने की क्रिया उत्तम उपाय है। नेत्र स्वाभाविक ही सदा खुलते बन्द होते रहते हैं। हर बार झपकने से कुछ आराम मिलता है। नेत्र में एक तरल पदार्थ चलता फिरता रहता है। पलक झपकते ही उस तरल पदार्थ से नेत्र की पुतली धुल कर साफ हो जाती है। नेत्र विकार उत्पन्न होने से पलक मारना कम हो जाता है। जिनकी दृष्टि कमजोर हो, उन्हें बार-बार पलक झपकने की आदत डालनी चाहिए। इस क्रिया से नेत्र का खिंचाव व तनाव दूर होकर आंख का भारीपन दूर होता है। आंखें हलकी बनी रहती हैं। दस सैकिण्ड में कम से कम तीन बार आंख झपकने की आदत डालनी चाहिए। पढ़ते हुए, सिनेमा देखते हुए, काढ़ने या बुनने, लिखने—अर्थात् यथा संभव प्रत्येक कार्य करते समय अधिक से अधिक बार झपकने की आदत डालनी चाहिए। पुस्तक पढ़ते समय नेत्र झपकने से बिना जोर पड़े आप बहुत कुछ पढ़ सकेंगे। नेत्रों में भारीपन, थकान तथा तिमिर भी प्रतीत न होगा। पलक मारते समय आंख को जोर से न मींच लीजिए। नेत्र पर पलक का जोर न डालिये वरन् सहज स्वाभाविक रीति से पलक मारने की आदत डालिये। बिना कोशिश के पलक झपकने से आंखों की थकान को सरलता से दूर किया जा सकता है और आंखें वैसी ही तरोताजा बनी रहेंगी।शिफ्टिंग—स्वस्थ आंखें हर समय तैरती रहती हैं तथा एक अक्षर से दूसरे अक्षर पर अथवा एक से दूसरी पर स्वभावतः जाया करती हैं, सदा सर्वदा अस्थिर बनी रहती हैं। जब स्थिरता कम होने लगती है, तो नेत्र विकार प्रारम्भ होते हैं। आंखें स्थिर होने का तात्पर्य यह है कि उनमें तनाव या खिंचाव आ गया है और हरकत मंद पड़ गई है। यह हरकत पुनः अपने स्वाभाविक रूप में शिफ्टिंग के द्वारा की जाती है।शिफ्टिंग का तात्पर्य है कि दृष्टि को बार-बार परिवर्तित करना। पुतली की कसरत करना। किसी छपी हुई पुस्तक की एक पंक्ति लीजिये और उसके मध्य के एक शब्द पर आंखें पूरी तरह दृढ़ता से जमा दीजिये। फिर उसी पंक्ति में कुछ दूर एक अन्य शब्द देखिये जिससे प्रथम अक्षर कुछ धुंधला सा प्रतीत हो। इसी प्रकार पुनरावृत्ति करते जाइये जिससे एक बार पहिला अक्षर और दूसरी बार दूसरा अक्षर धूमिल दिखलाई प्रतीत हो। यह क्रिया कई मिनट तक करनी चाहिये यहां तक कि वे अक्षर इधर से उधर चलने से दीखने लगें।एक और विधि यह है—पंक्ति का एक अक्षर अच्छी तरह देखकर नेत्र मूंद लीजिये। ऐसा प्रतीत होगा जैसे वह अक्षर अन्य शब्दों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अन्तर्जगत में इस शब्द को स्पष्टतर देखो यहां तक कि समस्त रेखायें बहुत साफ दीखने लगें। कुछ काल तक यह अभ्यास करने के पश्चात् वह शब्द अधिक साफ तथा शेष शब्द स्पष्ट व धुंधले प्रतीत होंगे। जहां दृष्टि जमाई जाय वहां का अक्षर स्पष्ट प्रतीत होना दृष्टि सुधार का लक्षण है। धीरे-धीरे अक्षरों की दूरी कम करते जाना चाहिये। नेत्र जांचने के विशेष चार्ट बाजार में, चश्मे वालों की दुकानों पर से प्राप्त हो सकते हैं। इनसे आप दृष्टि को जांच सकते हैं।
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नेत्र रोगों की चिकित्सा
Type: TEXT
Language: HINDI
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