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Books - प्रज्ञोपनिषद -1

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अध्याय -1

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1 Last
 प्रथम मंडल
॥ अथ प्रथमोऽध्यायः॥
लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण
लोककल्याणकृद् धर्मधारणा संप्रसारकः।
व्रती यायावरो मान्यो देवर्षिऋर्षिसत्तमः॥ १॥
अव्याहतगतिं प्राप गन्तुं विष्णुपदं सदा।
नारदो ज्ञानचर्चार्थं स्थित्वा वैकुंठसन्निधौ ॥ २॥
लोककल्याणमेवायमात्मकल्याणवद् यतः।
मेने परार्थपारीणः सुविधामन्यदुर्लभाम् ॥ ३॥
काले काले गतस्तत्र समस्याः कालिकीर्मृंशन्।
मतं निश्चित्यस्वीचक्रे भाविनीं कार्यपद्धतिम्॥ ४॥

टीका - लोक कल्याण के लिए जन- जन तक धर्म धारणा का प्रसार- विस्तार करने का व्रत लेकर निरंतर विचरण करने वाले नारद ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ गिने गए और देवर्षि के मूर्द्धन्य सम्मान से विभूषित हुए। एकमात्र उन्हीं को यह सुविधा प्राप्त थी कि कभी भी बिना किसी रोक- टोक विष्णुलोक पहुँचें और भगवान् के निकट बैठकर अभीष्ट समय तक प्रत्यक्ष ज्ञानचर्चा करें। यह विशेष सुविधा उन्हें लोक- कल्याण को ही आत्म- कल्याण मानने की परमार्थ परायणता के कारण मिली। वे समय- समय पर भगवान् के समीप पहुँचते और सामयिक समस्याओं पर विचार करके तदनुरूप अपना मत बनाते और भावी कार्यक्रम निर्धारित करते॥ १- ४॥

व्याख्या—परमार्थ में सच्ची लगन यदि किसी में हो तो उसे पुण्य अर्जन के अतिरिक्त आत्मकल्याण का लाभ मिलता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों को तारते हैं, स्वयं अपनी नैय्या भी जीवन सागर में खे ले जाते हैं।

नारद ऋषि को भगवान् की विशेष अनुकंपा इसी कारण मिली कि उन्होंने परहित को अपना जीवनोद्देश्य माना। इसके लिए वे निरंतर भ्रमण करते, जन चेतना जगाते व सत्परामर्श देकर लोगों को सन्मार्ग की राह दिखाते थे। ध्रुव प्रहलाद तथा पार्वती को अपने सामयिक मार्गदर्शन द्वारा उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर किया। इसी विभूति ने उन्हें देवर्षि पद से सम्मानित किया तथा भगवान् के सामीप्य का लाभ भी उन्हें मिला। चूँकि वे सतत जन संपर्क में रहते थे व लोक कल्याण में रत रहते थे इसी कारण सामयिक जन समस्याओं के समाधान हेतु वे परामर्श- मार्गदर्शन हेतु प्रभु के पास पहुँचते थे व अपनी भावी नीति का क्रियान्वयन करते थे ऐसे परमार्थ परायण व्यक्ति जहाँ भी होते हैं, सदैव श्रद्धा सम्मान पाते हैं।

एकदा हृदये तस्य जिज्ञासा समुपस्थिता ।।
ब्रह्मविद्यावगाहाय कालं उच्चैस्तु प्राप्यते ॥ ५॥

योगा यासं तपश्चापि कुर्वन्त्येते यथासुखम्॥ ६॥
सामान्यानां जनानां तु मनसः सा स्थितिः सदा।
चंचलास्ति न ते कर्तुं समर्था अधिकं क्वचित्॥ ७॥
अल्पेऽपि चात्मकल्याणसाधनं सरलं न ते।
वर्त्मपश्यंति पृच्छामि भगवंतमस्तु तत्स्वयम्॥ ८॥
सुलभं सर्वमर्त्यानां ब्रह्मज्ञानं भवेद् यथा।
आत्मविज्ञानमेवापि योग- साधनमप्युत ॥ ९॥
नातिरिक्तं जीवचर्यां दृष्टिकोणं निय य वा।
सिद्ध्येत् प्रयोजनं लक्ष्यपूरकं जीवनस्य यत्॥ १०॥

टीका—एक बार उनके मन में जिज्ञासा उठी। उच्चस्तर के लोग तो ब्रह्मविद्या के गहन- अवगाहन के लिए समय निकाल लेते हैं। संचित सुसंस्कारिता के कारण कठोर व्रत- साधन, योगाभ्यास एवं तपसाधन भी कर लेते हैं। किंतु सामान्य- जनों की मनःस्थिति- परिस्थिति उथली होती है। ऐसी दशा में वे अधिक कर नहीं पाते। थोड़े में सरलतापूर्वक आत्मकल्याण का साधन बन सके ऐसा मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त नहीं होता। अस्तु भगवान् से पूछना चाहिए। सर्वसाधारण की सुविधा का ऐसा ब्रह्मज्ञान, आत्मविज्ञान एवं योग साधन क्या हो सकता है। जिसके लिए कुछ अतिरिक्त न करना पड़े, मात्र दृष्टिकोण एवं जीवनचर्या में थोड़ा परिवर्तन करके ही जीवन लक्ष्य को पूरा करने का प्रयोजन सध जाए॥ ५- १०॥

व्याख्या—जनमानस को स्तर की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वे जो तत्वदर्शन, साधन तपश्चर्या के मर्म को समझते हैं। उतना कठोर पुरुषार्थ करने योग्य पात्रता भी उन्हें पूर्वजन्म के अर्जित संस्कारों व स्वाध्याय परायणता के कारण मिल जाती है। परंतु देवर्षि नारद ने जन- जन में प्रवेश करके पाया कि दूसरे स्तर के लोगों की संख्या अधिक है, जो जीवन व्यापार में उलझे रहने के कारण अथवा साधना विज्ञान के विस्तृत उपक्रमों से परिचित होने का सौभाग्य न मिल पाने के कारण अध्यात्मविद्या के सूत्रों को समझ नहीं पाते व्यवहार में उतार नहीं पाते तथा ऐसे ही उथली स्थिति में जीते हुए किसी तरह अपना जीवन शकट खींचते हैं।

विशेष लोगों के लिए तो विशेष उपलब्धियाँ हैं। ऐसे असाधारण व्यक्ति यों की तो बात ही अलग है उनके जीवन- उपाख्यान यही बताते हैं कि वे विशिष्ट विभूति संपन्न होते हैं।


पिपृच्छां च समाधातुं वैकुंठ नारदो गतः।
गत्वा स पूज्य देवेशं देवेनापि तु पूजितः॥ ११॥
कुशलक्षेमचर्चांतेऽभीष्टे चर्चाऽभवद् द्वयोः।
संसारस्य च कलयाणकामना संयुता च या॥ १२॥

टीका—इस पूछताछ के लिए देवर्षि नारद बैकुंठ लोक पहुँचे, नारद ने नमन- वंदन किया, भगवान् ने भी उन्हें सम्मानित किया। परस्पर कुशलक्षेम के उपरांत अभीष्ट प्रयोजनों पर चर्चा प्रारंभ हुई जो संसार की कल्याण- कामना से युक्त थी॥ ११- १२॥
नारद उवाच
देवर्षिः परमप्रीतः पप्रच्छ विनयान्वितः।
नेतुं जीवनचर्यां वै साधनामयतां प्रभो॥ १३॥
प्राप्तुं च परमं लक्ष्यमुपायं सरलं वद।
समाविष्टो भवेद्यस्तु सामान्ये जनजीवने॥ १४॥
विहाय स्वगृहं नैव गन्तुं विवशता भवेत्।
असामान्या जनार्हा च तितिक्षा यत्र नो तपः॥ १५॥

टीका—प्रसन्नचित्त देवर्षि ने विनयपूर्वक पूछा, देव संसार में जीवनचर्या को ही साधनामय बना लेने और परमलक्ष्य प्राप्त कर सकने का सरल उपाय बताएँ, ऐसा सरल जिसे सामान्य जन- जीवन में समाविष्ट करना कठिन न हो। घर छोड़कर कहीं न जाना पड़े और ऐसी तप- तितीक्षा न करनी पड़े जिसे सामान्य स्तर के लोग न कर सकें॥ १३- १५॥

व्याख्या—भगवान् से देवर्षि जो प्रश्न पूछ रहे हैं वे सारगर्भित हैं। सामान्यजन भक्ति -वैराग्य तप का मोटा अर्थ यही समझते हैं कि इसके लिए एकांत साधना के मर्म को नहीं जानते। इसी जीवन साधना, प्रभु परायण करने उपवन जाने की आवश्यकता पड़ती है। पर इस उच्चस्तरीय तपश्चर्या के प्रारंभिक चरण जीवन साधना जीवन के विधि- विधानों को जानने, उन्हें व्यवहार में कैसे उतारा जाए इस पक्ष को विस्तार से खोलने की वे भगवान् से विनती करते हैं।
रामायण में काकभुशुंडि जी ने इसी प्रकार का मार्गदर्शन गरुड़जी को दिया है। जीवन साधना कैसे की जाए इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राजा जनक के जीवन में भी देखने को मिलता है।
जिज्ञासां नारदस्याथ ज्ञात्वा मुमुदे हरिः।
उवाच च महर्षे त्वमात्थ यन्मे मनीषितम्॥ १६॥
युगानुरूपं सामर्थ्यं पश्यन्नत्र प्रसंगके।
निर्धारणस्य चर्चाया व्यापकत्वं समीप्सितम्॥ १७॥

टीका—नारद की जिज्ञासा जानकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले, देवर्षि आप तो हमारे मन की बात कह रहे हैं। समय की आवश्यकता को देखते हुए इस प्रसंग पर चर्चा होना और निर्धारण को व्यापक किया जाना आवश्यक भी था॥ १६- १७॥

व्याख्या—जो जिज्ञासा भक्त के मन में घुमड़ रही थी वही भगवान् के भी अंतः में विद्यमान थी। भक्त हमेशा भगवान् की आकांक्षा के अनुरूप ही विचारते हैं एवं अपनी गतिविधियों का खाका बनाते हैं। सच्चे भक्त की कसौटी पर देवर्षि खरे उतरते हैं, जभी वे जन- सामान्य की समस्या को लेकर प्रभु से मार्गदर्शन माँगते हैं।

ऋषिवर नारद से श्रेष्ठ और हो ही कौन सकता था जो सामयिक आवश्यकतानुसार अपने प्रभु के मन की इच्छा जानं  व उनकी प्रेरणाओं- समस्याओं के समाधानों को जन- जन के गले उतार सकें।

अधुनास्ति हि सर्वत्राऽनास्था क्रमपरंपरा।
अदूरदर्शिताग्रस्ता जना विस्मृत्यगौरवम् ॥ १८॥
अचिंत्यचिंतना जाता अयोग्याचरणास्तथा।
फलतः रोग शोकार्तिकलहक्लेशनाशजम्॥ १९॥
वातावरणमुत्पन्नं भीषणाश्च विभीषिकाः।
अस्तित्वं च धरित्र्यास्तु संदिग्धं कुर्वतेऽनिशम्॥ २०॥

टीका—इन दिनों सर्वत्र अनास्था का दौर है। अदूरदर्शिता ग्रस्त हो जाने से लोग मानवी गरिमा को भूल गए हैं। अचिंत्य- चिंतन और अनुपयुक्त आचरण में संलग्न हो रहे हैं, फलतः रोग, शोक और कलह, भय, विनाश का वातावरण बन रहा है। भीषण- विभीषिकाएँ निरंतर धरती के अस्तित्व तक को चुनौती दे रही हैं॥ १८- २०॥

व्याख्या—यहाँ भगवान आज की परिस्थितियों पर संकेत करते हुए अनास्था की विवेचना करते हैं व वातावरण में संव्याप्त कलुष तथा भयावह परिस्थितियों का कारण श्री श्रद्धा तत्त्व की अवमानना को ही बताते हैं।

मनुष्य के चिंतन और व्यवहार से ही आचरण बनता है। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख- दुःख, उत्थान- पतन का निर्धारण करती है। जमाना बुरा है, कलियुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गई हैं, भाग्य चक्र कुछ उलटा चल रहा है ऐसा कहकर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जन समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं। प्रतिकूलता का दोषी मूर्द्धन्य राजनेताओं को भी ठहराया जा सकता है, पर भूलना नहीं चाहिए कि इन सबका उद्गम केंद्र मानवी अंतराल ही है। आज की विषम परिस्थितियों को बदलने की जो आवश्यकता समझते हैं, उन्हें कारण तक तह तक जाना ही होगा। अन्यथा सूखे पेड़ को मुरझाते वृक्ष को हरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करते पत्ते सींचने जैसी विडंबना ही चलती रहेगी।

आज अंतः के उद्गम से निकलने तथा व्यक्ति त्व व परिस्थितियों का निर्माण करने वाली आस्थाओं का स्तर गिर गया है। मनुष्य ने अपनी गरिमा खो दी है और संकीर्ण स्वार्थ परता का विलासी परिपोषण ही उसका जीवन लक्ष्य बन गया है। वैभव संपादन और उद्धत प्रदर्शन, उच्छृंखल दुरुपयोग ही सबको प्रिय है। समृद्धि बढ़ रही है, पर उसके साथ रोग कलह भी प्रगति पर है। प्रतिभाओं की कमी नहीं पर श्रेष्ठता संवर्द्धन व निकृष्टता उन्मूलन हेतु प्रयास ही नहीं बन पड़ते। लोकमानस पर पशु प्रवृत्तियों का ही आधिपत्य है, आदर्शों के प्रति लोगों का न तो रुझान है, न उमंग ही। दुर्भिक्ष संपदा का नहीं आस्थाओं का है। स्वास्थ्य की गिरावट, मनोरोगों की वृद्धि, अपराधवृत्ति तथा उद्दंडता सारे वातावरण में संव्याप्त है और ये ही अदृश्य जगत में उस परिस्थिति को विनिर्मित कर रही हैं, जिसके रहते धरती महाविनाश युद्ध की विभीषिकाओं के बिलकुल समीप आ खड़ी हुई है।

भगवान् ने यहाँ स्पष्ट संकेत युग की समस्याओं के मूल कारण आस्था संकट की ओर किया है। सड़ी कीचड़ में से मक्खी, मच्छर, कृमि कीटक, विषाणु के उभार उठते हैं। रक्त की विषाक्तता फुंसियों के रूप में ज्वर प्रदाह के रूप में, प्रकट होती है। ऐसे में प्रयास कहाँ हो ताकि मूल कारण को हटाया जा सके। अंत की निकृष्टता को मिटाया जा सके। इसी तथ्य की विवेचना वे करते हैं।

ईदृश्यां च दशायां तु स्वप्रतिज्ञानुसारतः।
जाता नवावतारस्य व्यवस्थायाः स्थितिः स्वयम्॥ २१॥
प्रज्ञावतारना ना तु सर्वेषां हि मनःस्थितौ॥ २२॥
परिस्थितौ च विपुलं चेष्टते परिवर्तनम्।
सृष्टिक्रमे चतुर्विंश एष निर्धार्यतां क्रमः॥ २३॥

टीका—ऐसी दशा में अपनी प्रतिज्ञानुसार नए अवतार की व्यवस्था बन गई। प्रज्ञावतार नाम से इस युग का अवतरण भूलोक के मनुष्य समुदाय की मनःस्थिति एवं परिस्थिति में भारी परिवर्तन करने जा रहा है। सृष्टि क्रम में इस प्रकार का यह चौबीसवाँ निर्धारण है॥ २१- २३॥
व्याख्या—आस्था संकट के दौर में भगवान् हमेशा अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं ऐसी परिस्थिति में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण का उद्देश्य एक ही रहता है। 
गीता में कहा है |
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे- युगे॥
गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार
असुर मारि थापहिं सुरन्ह, राखहि निज श्रुति सेतु।
जग विस्तारहिं विशद यश, राम जन्म कर हेतु॥

भावार्थ यह है कि अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना अवतार प्रक्रिया का मूलभूत प्रयोजन है। यह संकल्प विराट् है और अनादिकाल से यथावत् चला आ रहा है।

भूतकाल के अवतारों में प्रारंभिक का कार्य क्षेत्र भौतिक परिस्थितियों से जूझना भर था। उसके बाद वालों को अनाचारियों से लड़ना पड़ा। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम, कृष्ण को पूर्ण पुरुष और बुद्ध को विवेक का देवता कहा जाता है। प्रज्ञावतार इन सबका उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। उसका कार्य अपेक्षाकृत अधिक कठिन और व्यापक है। उसे मात्र सामयिक समस्याओं एवं व्यक्तिगत उद्दंडताओं से ही नहीं जूझना है वरन् लोकमानस में ऐसे आदर्शों का बीजारोपण, अभिवर्द्धन तथा परिपोषण क्रियान्वयन करना है जो सतयुग जैसी भावना और रामराज्य जैसी व्यवस्था के लिए आवश्यक अंतःप्रेरणा व्यापक क्षेत्र में उत्पन्न कर सकें। लक्ष्य और कार्य की गरिमा एवं व्यापकता को देखते हुए प्रज्ञावतार की कलाएँ चौबीस होना स्वाभाविक है।

बदलती परिस्थितियों में बदलते आधार भगवान् को भी अपनाने पड़े हैं। विश्व विकास की क्रम व्यवस्था के अनुरूप अवतार का स्तर एवं कार्यक्षेत्र भी विस्तृत होता चला गया है। मनुष्य जब तक साधन प्रधान और कार्य प्रधान था तब तक शास्त्र और साधनों के सहारे काम चल गया। आज की परिस्थितियों में बुद्धि तत्त्व की प्रधानता है। मन ही सर्वत्र छाया हुआ है।

महत्वाकांक्षाओं के क्षेत्र में अनात्म तत्व की भरमार होने से संपन्नता और समर्थता का दुरुपयोग ही बन पड़ रहा है। महामारी सीमित क्षेत्र तक नहीं रही, उसने अपने प्रभाव क्षेत्र में समूची मानव जाति को जकड़ लिया है। विज्ञान ने दुनिया को बहुत छोटी कर दिया है और गतिशीलता को अत्यधिक द्रुतगामी। ऐसी दशा में भगवान् का अवतार युगांतरीय चेतना के रूप में ही हो सकता है। जनमानस के सुविस्तृत क्षेत्र में अपने पुण्य प्रवाह का परिचय देना इसी रूप में संभव हो सकता है, जिसमें कि प्रज्ञावतार के प्रादुर्भाव की सूचना संभावना सामने है।

वरिष्ठता नराणां च श्रद्धाप्रज्ञाऽवलंबिता।
निष्ठाश्रिता च व्यक्ति त्वं सर्वेषामत्र संस्थितम्॥ २४॥
न्यूनाधिकत्वहेतोर्हि क्षीयते वर्धते च तत्।
उत्थानसुखजं पातदुःखजं जायते वृतिः॥ २४॥
अधुना मानवैस्त्यक्तता श्रेष्ठताऽऽभ्यंतरस्थिता।
फलत आत्मनेऽन्येभ्यः संकटान् भावयंति ते॥ २६॥

टीका—मनुष्य की वरिष्ठता श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा पर अवलंबित है। इन्हीं की न्यूनाधिकता से उसका व्यक्ति त्व उठता- गिरता है। इसी व्यक्ति त्व के उठने- गिरने के कारण उत्थानजन्य सुखों और पतनजन्य दुःखों का वातावरण बनता है। इन दिनों मनुष्यों ने आंतरिक वरिष्ठता गँवा दी है। फलतः अपने तथा सबके लिए संकट उत्पन्न कर रहे हैं॥ २४- २६॥

व्याख्या—श्रद्धा अर्थात् सद्भाव, प्रज्ञा अर्थात् सद्ज्ञान एवं निष्ठा अर्थात् सत्कर्म। तीनों का समन्वित स्वरूप ही व्यक्ति त्व का निर्माण करता है। श्रद्धा अंतःकरण से प्रस्फुटित होने वाले आदर्शों के प्रति प्रेम है। इस गंगोत्री से निःसृत होने वाली पवित्र धारा ही सद्ज्ञान और सत्कर्म से मिलकर पतिपावनी गंगा का स्वरूप ले लेती है। इन तीनों का विकास- उत्थान ही मानव को महामानव बनाता है तथा इस क्षेत्र का पतन ही उसे निकृष्ट स्तर का जीवनयापन करने को विवश करता है।

मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव, पुरुषार्थ, बुद्धिबल, धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितांत मिथ्या है। व्यक्ति त्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अंतःकरण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ से होते हैं। मन और शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह अंतःकरण की आकांक्षा पूरी करने के लिए तत्परता और स्फूर्ति से लगे रहते हैं। उन्नति- अवनति का भाग्य विधान यहीं लिखा जाता है।

अंतःकरण से सद्भाव न उपजेगा तो सद्ज्ञान व सद्आचरण किस प्रकार फलीभूत होगा? वस्तुतः तीनों ही परस्पर पूरक हैं।

यदा मनुष्यो नात्मानमात्मनोद्धर्तुमर्हति।
कृतावतारोऽलं तस्य स्थितिं संशोधयाम्यहम्॥ २७॥
क्रमेऽस्मिन्सुविधायुक्तताः साधनैः सहिता नरा।
विभीषिकायां नाशस्याऽनास्थासंकटपाशिताः॥ २८॥
तन्निवारणहेतोश्च कालेऽस्मिंश्चलदलोपमे।
प्रज्ञावताररूपेऽवतराम्यत्र तु पूर्ववत्॥ २९॥
त्रयोविंशतिवारं यद्भ्रष्टं संतुलनं भुवि।
संस्थापितं मयैवेतद् भ्रष्टं संतुलयाम्यहम्॥ ३०॥

टीका—जब मनुष्य अपने बलबूते दल- दल से उबर नहीं पाते तो मुझे अवतार लेकर परिस्थितियाँ सुधारनी पड़ती हैं। इस बार सुविधा साधन रहते हुए भी मनुष्यों को जिस विनाश विभीषिका में फँसना पड़ रहा है उसका मूल कारण आस्था संकट ही है। उसके निवारण हेतु मुझे इस अस्थिर समय में इस बार प्रज्ञावतार के रूप में अवतरित होना है। पिछले तेईस बार की तरह इस बार भी बिगड़े संतुलन को फिर सँभालना है॥ २७- ३०॥

व्याख्या—मानवी पुरुषार्थ की भी अपनी महिमा महत्ता है लेकिन जब मनुष्य दुर्बुद्धिजन्य विभीषिकाओं के सामने स्वयं को विवश, असहाय अनुभव करता है, तब परिस्थितियाँ अवतार प्रकटीकरण की बनती हैं। भगवान् ने हर बार मानवता के परित्राण हेतु असंतुलन की स्थिति में अवतार लिया है और सृष्टि की डूबती नैय्या को पार लगाया है।

स्रष्टा अपनी अद्भुत कलाकृति विश्व वसुधा को, मानवी सत्ता को सुरम्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाता और अपनी सक्रियता का परिचय देता है तथा परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है। संकट के सामान्य स्तर से तो मनुष्य ही निपट लेते हैं, पर जब असामान्य स्तर की विपन्नता उत्पन्न हो जाती है तो स्रष्टा को स्वयं ही अपने आयुध सँभालने पड़ते हैं। उत्थान के साधन जुटाना भी कठिन है पर पतन के गर्त में द्रुतगति से गिरने वाले लोकमानस को उलट देना अति कठिन है। इस कठिन कार्य को स्रष्टा ने समय- समय पर स्वयं ही संपन्न किया है। आज की विषम वेला में भी अवतरण की परंपरा को अपनी लीला संदोह प्रस्तुत करते कोई भी प्रज्ञावान प्रत्यक्ष देख सकता है।


अवतार प्रक्रिया आदिकाल से चली आ रही है, और आदिकाल से अब तक मनुष्य जाति ने अनेक प्रकार के उतार- चढ़ाव देखे हैं। स्वाभाविक ही भिन्न- भिन्न कालों में समस्याएँ और असंतुलन भिन्न- भिन्न प्रकार के रहे हैं।

जब जिस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, तब उसी का समाधान करने के लिए एक दिव्य चेतना, जिसे अवतार कहा गया है प्रादुर्भूत हुई है और उसी क्रम से अवतार युग प्रवाह को उलटने के लिए अपनी लीलाएँ रचते रहे हैं। सृष्टि के आरंभ में जल ही जल था। प्राणी जगत में जलचरों की ही प्रधानता थी, तब उस असंतुलन को मत्स्यावतार ने साधा। जब जल और थल पर प्राणियों की हलचलें बढ़ीं तो उनके अनुरूप क्षमता संपन्न कच्छप काया ने संतुलन बनाया। उन्हीं के नेतृत्व में समुद्र मंथन के रूप में प्रकृति दोहन का पुरुषार्थ संपन्न हुआ। हिरण्याक्ष ने समुद्र में छिपी संपदा को ढूँढ़कर उसे अपने ही एकाधिकार में कर लिया तो भगवान् का वाराह रूप ही उसका दमन करने में समर्थ सक्षम हो सका। जब मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक कमाने में समर्थ हो गया तो संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित संचय की प्रवृत्ति भी बढ़ी। संचय और उपभोग की पशु प्रवृत्ति को उदारता में परिणत करने के लिए भगवान् वामन के रूप में छोटे बौने और पिछड़े लोग उठ खड़े हुए और बलि जैसे संपन्न व्यक्ति यों को स्वेच्छापूर्वक उदारता अपनाने के लिए सहमत कर लिया गया।

उच्छृंखलता जब उद्धत और उद्दंड हो जाती है तब शालीनता से उसका शमन नहीं हो सकता। प्रत्याक्रमण द्वारा ही उसका दमन करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर नरसिंहों की आवश्यकता पड़ती है और उन्हीं का पराक्रम अग्रणी रहता है। उन आदिम परिस्थितियों में भगवान् ने नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझा तथा नृसिंह अवतार के रूप में दुष्टता के दमन एवं सज्जनता के संरक्षण का आश्वासन पूरा किया।

इसके बाद परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध के अवतार आते हैं। इन सभी का अवतरण बढ़ते हुए अनाचरण के प्रतिरोध और सदाचरण के समर्थन पोषण के उद्देश्य के लिए हुआ। परशुराम ने शस्त्रबल से सामंतवादी निरंकुश आधिपत्य को समाप्त किया। राम ने मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया तो कृष्ण ने अपने समय की धूर्तता और छल- छद्म से घिरी हुई परिस्थितियों का दमन विषस्य विषमौषधम् की नीति अपना कर किया। कृष्ण चरित्र में कूटनीतिक दूरदर्शिता की इसीलिए प्रधानता है कि इस समय की परिस्थितियों में सीधी उँगली से घी नहीं निकल पा रहा था इसीलिए काँटे से काँटा निकालने का उपाय अपनाकर अवतार प्रयोजन को पूरा करना पड़ा।

बुद्ध के बुद्धवाद का स्वरूप विचार क्रांति था। पूर्वार्द्ध में धर्म चक्र का प्रवर्तन हुआ था। धर्म धारणा का सम्मान करते हुए लाखों व्यक्ति यों ने उसमें भाव भरा योगदान दिया था। आनंद जैसे मनीषी, हर्षवर्धन जैसे प्रतिभाशाली बड़ी संख्या में उस अभियान के अंग बने थे। इससे पिछले अवतारों का कार्यक्षेत्र सीमित रहा था, क्योंकि समस्याएँ छोटी और स्थानीय थीं। बुद्धकाल तक समाज का विस्तार बड़े क्षेत्र में हो गया था इसलिए बुद्ध का अभियान भी भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं रहा और उन दिनों जितना व्यापक प्रयास संभव था उतना अपनाया गया। धर्मचक्र प्रवर्तन भारत से एशिया भर में फैला और उससे भी आगे बढ़कर उसने अन्य महाद्वीपों तक अपना आलोक बाँटा।

प्रज्ञावतार, बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध है। बुद्धि प्रधान युग की समस्याएँ भी चिंतन प्रधान होती हैं। मान्यताएँ, विचारणाएँ, इच्छाएँ ही प्रेरणा केंद्र होती हैं और उन्हीं के प्रवाह में सारा समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तदनुरूप ही हो सकता है। लोकमानस को अवांछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यता से विरत करने वाली विचारक्रांति ही अपने समय की समस्याओं का समाधान कर सकती है।

आज आस्था संकट के कारण मनुष्य सुख- समृद्धि सं संपन्न होने के बावजूद जिस जंजाल में स्वयं फँसा हुआ है एवं अन्यों के लिए विपत्ति बना हुआ है, उसका निवारण आस्था प्रज्ञारूपी अस्त्र द्वारा ही संभव है।

परस्पर संवाद में वर्तमान स्थिति का विश्लेषण कर भगवान् इसीलिए प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण की परिस्थितियाँ देवर्षि को समझाते हैं और पिछले अवतारों का स्मरण दिलाते हुए इस बार भी विभीषिका निवारण हेतु अपनी शक्ति यों का संतुलन स्थापना के लिए आवश्यक प्रतिपादित करते हैं।

निराकारत्वहेतोश्च प्रेरणां कर्तुमीश्वरः।
शरीरिणश्च गृह्णामि गतिसंचालने ततः॥ ३१॥
अपेक्ष्यंते वरिष्ठाश्च आत्मनः कार्यसिद्धये।
अग्रदूतानिमान्कर्तुं पुष्णा यविन्ष्य सर्वथा॥ ३२॥
ततो निजप्रभावेण वर्चस्वेन च ते समम्।
समुदायं दिशां नेतुं भिन्नां कुर्युर्वृतिं पराम्॥ ३३॥

टीका—निराकार होने के कारण मैं प्रेरणा ही भर सकता हूँ। गतिविधियों के लिए शरीरधारियों का आश्रय लेना पड़ता है इसके लिए वरिष्ठ आत्माएँ चाहिए। इन दिनों अग्रदूत बनाने के लिए उन्हीं को खोजना, उभारना और सामर्थ्यवान् बनाना है। जिससे कि अपने प्रभाव, वर्चस्व से वे समूचे समुदाय की दिशा बदल सकें। समूचे वातावरण में परिवर्तन प्रस्तुत कर सकें ३१- ३३॥
व्याख्या—अवतार प्रकटीकरण का हमेशा यही स्वरूप रहा है। भगवान् प्रेरणा देते हैं एवं उस आदर्शवादी प्रेरणा को शरीरधारी क्रिया में परिणत करते हैं। ईश्वरीयसत्ता जब भी अवतरित होती है, उसके साथ लोक कल्याण की भावनाओं से संपन्न देवात्माएँ भी धरती पर अवतरित होती हैं। वरिष्ठ अग्रगामी अवतारों के पार्षदगण ही इस प्रेरणा संचार को ग्रहण करते हैं।

संयुक्तश्च प्रयासोऽयं कर्त्तव्यो नारद शृणु।
प्रेरयामि तु संपर्कं कुरु साधय पोषय॥ ३४॥
वरिष्ठात्मान एवं च व्यक्त्वा सर्वाः प्रसुप्तिकाः।
युगमानवकार्यं च साधयिष्यंति पोषिताः॥ ३५॥
अनेनागमनं ते तु ममामंत्रणमेव च ।।
द्वयोः पक्षगतं सिद्धं प्रयोजनमिदं ततः॥ ३६॥

टीका—हे नारद इसके लिए हम लोग संयुक्त प्रयास करें। हम प्रेरणा भरें, आप संपर्क साधें और उभारें। इस प्रकार वरिष्ठ आत्माओं की प्रसुप्ति जागेगी और वे युग मानवों की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सकेंगे। इससे आपके आगमन और हमारे आमंत्रण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा होगा॥ ३४- ३६॥

व्याख्या—संयुक्त प्रयास ही हमेशा फलदायी होते हैं। प्रेरणा निराकार सत्ता की तथा उसका सुनियोजित क्रियान्वयन दोनों मिलकर प्रयोजन को समग्र सफल बनाते हैं।

रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद समर्थ गुरु रामदास तथा शिवाजी, श्रीकृष्ण और अर्जुन, राम और हनुमान, स्वामी विरजानंद जी तथा दयानंद ऐसे संयुक्त प्रयासों के उदाहरण हैं। प्रेरणा हमेशा इसी रूप में आती है और पार्षद उसे क्रियान्वित करते हैं।

भगवान् की चेतना और जाग्रत आत्माओं का सहयोग इस उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमेें कम शक्ति सामर्थ्य होते हुए भी दो व्यक्ति मिलकर परस्पर पूरक बन गए।


सोत्सुकं नारदोऽपृच्छद्देवात्र किमपेक्ष्यते।
कथं ज्ञेया वरिष्ठास्ते किं शिक्ष्याःकारयामि किम्॥ ३७॥
येन युगसंधिकाले ते मूर्द्धन्या यांतु धन्यताम्।
समयश्चापि धन्यः स्यात्तात् तत्सृज युगविधिम्॥ ३८॥
पूर्वसंचितसंस्काराः श्रुत्वा युगनिमंत्रणम्।
मौनाः स्थातुं न शक्ष्यंति चौत्सुक्यात् संगतास्ततः॥ ३९॥

टीका—तब नारद ने उत्सुकतापूर्वक पूछा हे देव इसके लिए क्या करने की आवश्यकता है? वरिष्ठों को कैसे ढूँढ़ा जाए? उन्हें क्या सिखाया जाए और क्या कराया जाए? जिससे युग- संधि की वेला में अपनी भूमिका से मूर्द्धन्य आत्माएँ स्वयं धन्य बन सकें और समय को धन्य बना सकें। भगवान् बोले, तात युग सृजन का अभियान आरंभ करना चाहिए, जिनमें पूर्व संचित संस्कार होंगे, वे युग निमंत्रण सुनकर मौन बैठे न रह सकेंगे, उत्सुकता प्रकट करेंगे, समीप आवेंगे और परस्पर संबद्ध होंगे॥ ३७- ३८॥

व्याख्या—जागृत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।

सत्पात्रतां गतास्ते च तत्त्वज्ञानेन बोधिताः।
कार्याः संक्षिप्तसारेण यदमृतमिति स्मृतम्॥ ४०॥
तुलना कल्पवृक्षेण मणिना पारदेन च।
यस्य जाता सदा तत्त्वज्ञानं तत्ते वदाम्यहम्॥ ४१॥
तत्त्वचिंतनतः प्रज्ञा जागर्त्यात्मविनिर्मितौ।
प्राज्ञः प्रसज्जते चात्मविनिर्माणे च संभवे॥ ४२॥
तस्यातिसरला विश्वनिर्माणस्यास्ति भूमिका।
कठिना दृश्यमानापि ज्ञानं कर्म भवेत्ततः॥ ४३॥
प्रयोजनानि सिद्ध्यंति कर्मणा नात्र संशयः।
सद्ज्ञान देव्यास्तस्यास्तु महाप्रज्ञेति यास्मृता॥ ४४॥
आराधनोपासना संसाधनाया उपक्रमः।
व्यापकस्तु प्रकर्तव्यो विश्वव्यापी यथा भवेत्॥ ४५॥

टीका—ऐसे लोगों को सत्पात्र माना जाए और उन्हें उस तत्वज्ञान को सार संक्षेप में हृदयगंम कराया जाए, जिसे अमृत कहा गया है। जिसकी तुलना सदा पारसमणि और कल्पवृक्ष से होती रही है, वही तत्वज्ञान तुम्हें बताता हूँ। तत्व- चिंतन से प्रज्ञा जगती है। प्रज्ञावान आत्मनिर्माण में जुटता है। जिसके लिए आत्मनिर्माण कर पाना संभव हो सका है, उसके लिए विश्व निर्माण की भूमिका निभा सकना अति सरल है, भले ही वह बाहर से कठिन दीखती हो। ज्ञान ही कर्म बनता है। कर्म से प्रयोजन पूरे होते हैं, इसमें संदेह नहीं। उस सद्ज्ञान की देवी महाप्रज्ञा है। जिनकी इन दिनों उपासना साधना और आराधना का व्यापक उपक्रम बनना चाहिए॥ ४०- ४५॥

व्याख्या—सत्पात्रों को गायत्री महाविद्या का अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी तत्व ज्ञान दिया जाना इस कारण भगवान् ने अनिवार्य समझा ताकि वे अपने प्रसुप्ति को जगा प्रकाशवान हों ऐसे अनेकों के हृदय को प्रकाश से भर सकें। अमृत अर्थात् ब्रह्मज्ञान वेदमाता के माध्यम से पारस अर्थात् भावना, प्रेम। विश्वमाता के माध्यम से एवं कल्पवृक्ष अर्थात् तपोबल देवत्व की प्राप्ति देवमाता के माध्यम से। ये तीनों ही धाराएँ एक ही महाप्रज्ञा के तीन दिव्य प्रवाह हैं। अज्ञान, अभाव एवं आशक्ति का निवारण प्रत्यक्ष कामधेनु गायत्री के अवलंबन से ही संभव है।

गायत्री ब्रह्मविद्या है। उसी को कामधेनु कहते हैं। स्वर्ग के देवता इसी का पयपान करके सोमपान का आनंद लेते और सदा निरोग, परिपुष्ट एवं युवा बने रहते हैं। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा गया है। इसका आश्रय लेने वाला अभावग्रस्त नहीं रहता। गायत्री ही पारस है। जिसका आश्रय, सान्निध्य लेने वाला लोहे जैसी कठोरता कालिमा खोकर स्वर्ण जैसी आभा और गरिमा उपलब्ध करता है। गायत्री ही अमृत है। इसे अंतराल में उतारने वाला अजर- अमर बनता है। स्वर्ग और मुक्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह दोनों ही गायत्री द्वारा साधक को अजस्त्र- अनुदान के रूप में अनायास ही मिलते हैं।

 मान्यता है कि गायत्री माता का सच्चे मन से अंचल पकड़ने वाला कभी कोई निराश नहीं रहता। संकट की घड़ी में वह तरण- तारिणी बनती है। उत्थान के प्रयोजनों में उसका समुचित वरदान मिलता है। अज्ञान के अंधकार का भटकाव दूर करने और सन्मार्ग का सही रास्ता प्राप्त करके चरम प्रगति के लक्ष्य तक जा पहुँचना गायत्री माता का आश्रय लेने पर सहज संभव होता है।

प्रज्ञा व्यक्ति गत जीवन को अनुप्राणित करती है, इसे ऋतंभरा अर्थात् श्रेष्ठ में ही रमण करने वाली कहते हैं। महाप्रज्ञा इसे ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। उसे दूरदर्शिता, विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सद्भावना, उदारता के रूप में प्राणियों पर अनुकंपा बरसाती और पदार्थों को गतिशील सुव्यवस्थित एवं सौंदर्य युक्त बनाती देखा जा सकता है। परब्रह्म की वह धारा जो मात्र मनुष्य के काम आती एवं आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने की भूमिका निभाती है महाप्रज्ञा है। ईश्वरीय अगणित विशेषताओं एवं क्षमताओं से प्राणिजगत एवं पदार्थ जगत उपकृत होते हैं, किंतु मनुष्य को जिस आधार पर ऊर्ध्वगामी बनने परमलक्ष्य तक पहुँचने का अवसर मिलता है उसे महाप्रज्ञा ही समझा जाना चाहिए। इसका जितना अंश जिसे, जिस प्रकार भी उपलब्ध हो जाता है वह उतने ही अंश में कृतकृत्य बनता है। मनुष्य में देवत्व का दिव्य क्षमताओं का उदय उद्भव मात्र एक ही बात पर अवलंबित है कि महाप्रज्ञा की अवधारणा उसके लिए कितनी मात्रा में संभव हो सकी। महाप्रज्ञा का ब्रह्म विद्या पक्ष अंतःकरण को उच्चस्तरीय आस्थाओं से आनंद विभोर करने के काम आता है। दूसरा पक्ष साधना है,
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