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Books - साधना में वातावरण और श्रद्धा की महत्ता

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साधना की सफलता में वातावरण और श्रद्धा का महत्त्व

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आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी अनुकूल-अनुरूप वातावरण होना चाहिए अन्यथा संव्याप्त चिंतन की भ्रष्टता, चरित्र की दुष्टता प्रभावित किए बिना नहीं रहती। ढलान की ओर पानी अनायास ही बहता है। ऊपर से नीचे गिरने का उपक्रम पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही बनाती रहती है। ऊपर उठाने के लिए विशेष प्रयत्न करने की, विशेष साधन जुटाने और शक्ति लगाने की आवश्यकता पड़ती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी लक्ष्य के प्रति उत्साह बढ़ाने वाला, मार्ग दिखाने वाला माहौल चाहिए।


इसके दो उपाय हैं। एक यह कि जहाँ इस प्रकार का वातावरण हो वहाँ जाकर रहा जाए। दूसरा यह कि जहाँ अपना निवास है, वहीं प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति उत्पन्न की जाए। कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि अपने निज के लिए कुछ समय के लिए वैसी स्थिति उत्पन्न कर ली जाए।


एकांत, स्वाध्याय, मनन, चिंतन ऐसे ही आधार हैं। किसी एकांत कोठरी या निर्जन क्षेत्र में बैठकर यह अनुभव किया जा सकता है कि संसार में संव्याप्त अवांछनीयता से अपना संबंध टूट गया।


साधना की सफलता में स्थान, क्षेत्र व वातावरण का असाधारण महत्त्व है। विशिष्ट साधनाओं के लिए घर छोड़कर अन्यत्र उपयुक्त स्थान में जाने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि पुराने निवास स्थान का ढर्रा अभ्यस्त रहने से वैसी मनःस्थिति बन नहीं पाती जैसी महत्त्वपूर्ण साधनाओं के लिए विशेष रूप से आवश्यक है। कुटुंबियों एवं परिचित लोगों के साथ जुड़े हुए भले-बुरे संबंधों की पकड़ बनी रहती है। कामों का दबाव बना रहता है। राग-द्वेष उभरते रहते हैं। दिनचर्या बदलने पर कुटुंबी तथा साथी विचित्रता अनुभव करते और उसमें विरोध खड़ा करते हैं। आहार और दिनचर्या बदलने में विग्रह उत्पन्न होता है। घरों के निवासी, साथी जिस प्रकृति के होते हैं वैसा ही वातावरण वहाँ छाया रहता है। यह सभी अड़चनें हैं जो महत्त्वपूर्ण साधनाओं की न तो व्यवस्था बनने देती हैं और न मनःस्थिति ही वैसी रह पाती है। दैनिक नित्यकर्म के रूप में सामान्य उपासना तो घर पर भी चलती रह सकती है, पर यदि कुछ विशेष करना हो तो उसके लिए विशेष स्थान, वातावरण, सान्निध्य एवं मार्गदर्शन भी चाहिए। यह सब प्राप्त करने के लिए उपयुक्त स्थान का प्रबंध करना वह आधार है जिस पर सफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।


साधना के उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए भारत के हिमालय क्षेत्र को अद्वितीय गौरव प्राप्त है। यह क्षेत्र ऋषि, योगियों की तपोभूमि मानी जाती रही है। उच्च आध्यात्मिक प्रयोग इसी क्षेत्र में अनादिकाल से होते चले आ रहे हैं। ऋषि भूमि, देव भूमि के रूप में यह वंदनीय रहा है। दिव्यदर्शियों का कथन है-ब्रह्माण्ड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इसी क्षेत्र में होता रहा है। यह क्षेत्र ब्रह्माण्डव्यापी दिव्य चेतना का अवतरण केंद्र है, जहाँ शोध करते हुए तप करते हुए मनीषी साधक गण अपने को देवशक्तियों से सुसम्पन्न करते थे। अभी भी इस क्षेत्र में सारी सूक्ष्म विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं जो आत्मिक प्रगति के सहयोग के लिए आवश्यक हैं। आत्मसाधना के लिए यह शीत प्रदेश उपयुक्त है, साथ ही जलवायु की दृष्टि से आरोग्यवर्द्धक भी। गंगाजल को वैज्ञानिकों ने दिव्य औषधियों का सम्मिश्रण माना है। ऐसी मान्यता है कि मात्र गंगाजल के सेवन से ही कितनी ही बीमारियों का उपचार अपने आप हो जाता है।


आत्मिक स्वास्थ्य-संवर्द्धन के लिए उपयोगी वातावरण मिल सके तो उसका विशेष लाभ होता है। तपस्वी पर्वतों की गुफाओं में निवास करने, कंदमूल जुटाने, वल्कल वस्त्र पहनने जैसे निर्वाह के साधन ढूँढ़ लेते हैं। धूनी जलाकर शीत निवारण की-लौकी, नारियल आदि के बरतनों की-घास की चटाई बनाने की जैसी सुविधाएँ वहाँ भी मिल जाती हैं। तप साधना के इतिहास में हिमालय की ऊँचाई और गंगातट की पवित्रता का लाभ उठाने वाले साधकों की संख्या अत्यधिक है। ऐतिहासिक तीर्थ तो अन्यत्र भी हैं, पर आत्मसाधना के तीर्थों की संख्या जितनी इस क्षेत्र में है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं। जहाँ जिस स्तर के व्यक्ति रहते हैं जहाँ जिस प्रकार की हलचलें होती रहती हैं, वहाँ के सूक्ष्म संस्कार भी वैसे ही बन जाते हैं और वे बहुत समय तक अपना प्रभाव बनाए रहते हैं। तपस्वियों का प्राण उनके निवास स्थान के इर्द-गिर्द छाया रहता है। सिंह और गाय एक साथ ऋषि आश्रमों में प्रेमपूर्वक रहते थे। हिरन तथा दूसरे पशु-पक्षी वहाँ निर्भयतापूर्वक पालतू बन जाते थे। ऐसे वातावरण में सहज ही मानसिक विक्षोभ शांत होते हैं और साधना के उपयुक्त मनःस्थिति स्वत: बन जाती है। इस दृष्टि से हिमालय की महत्ता असंदिग्ध है।


एक ही मंत्र, एक ही साधना पद्धति और एक ही गुरु के मार्गदर्शन का अवलंबन लेने पर भी विभिन्न साधकों की आत्मिक प्रगति अलग-अलग गति से होती है। कोई तेजी से आत्मिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ने लगता है तो कोई मंथरगति स आगे बढ़ता है। इसका क्या कारण है? मनीषियों ने इसका उत्तर एक ही वाक्य में देते हुए कहा है कि अध्यात्म-क्षेत्र में श्रद्धा की शक्ति ही सर्वोपरि है। जिस प्रकार शक्ति के आधार पर भौतिक हलचलें और गतिविधियों संपन्न होतीं तथा अभीष्ट उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा ही अपनी सघनता या विरलता के आधार पर चमत्कार प्रस्तुत करती है। श्रद्धा-विहीन उपचार सर्वथा निष्प्राण रहते हैं और उनमें किया गया श्रम भी प्राय: निरर्थक चला जाता है। श्रद्धा का महत्त्व बताते हुए गीताकार ने कहा है-श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छद्ध: स एव सः । गीता १७/३ यह पुरुष श्रद्धामय है। जो जिस श्रद्धा वाला है अर्थात जिसकी जैसी श्रद्धा है वह स्वयं भी वही अर्थात उस श्रद्धा के अनुरूप ही है।


यह श्रद्धा ही है जो निर्जीव पाषाण प्रतिमाओं में भी प्राण भर देती है और उन्हें अलौकिक चमत्कारी क्षमता से संपन्न बना देती है। मीरा ने कृष्ण प्रतिमा को अपनी श्रद्धा के बल पर ही इतना सजीव बना लिया था कि वह प्रत्यक्ष कृष्ण से भी अधिक प्राणवान प्रतीत होने लगी थी। श्रद्धा विश्वास के संबंध में रामायण में एक सुंदर प्रसंग आता है। सेतुबंध के अवसर पर रीछ-वानरों ने राम के प्रति अपने विश्वास का आधार लेकर समुद्र में पत्थर तैरा दिए थे, किंतु स्वयं राम ने अपने हाथों से जो पत्थर फेंके वे नहीं तैर सके। इसी प्रसंग को लेकर शास्त्रकारों ने कहा है, ''राम से बड़ा राम का नाम'' पर नाम में कोई शक्ति नहीं है। शक्ति है उस श्रद्धा में जो अलौकिक सामर्थ्य उत्पन्न करती है।


अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा की शक्ति ही सर्वोपरि है। जिस प्रकार शक्ति के आधार पर भौतिक हलचलें गतिशील होती हैं और उनके सहारे अभीष्ट उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में ''श्रद्धा'' ही मूल है। उसी की सघनता चमत्कार दिखाती है।


श्रद्धा और विश्वास के बिना भौतिक जीवन में भी गति नहीं, फिर अध्यात्म क्षेत्र का तो उसे प्राण ही कहा गया है। आदर्शवादिता में प्रत्यक्षत: हानि ही रहती है, पर उच्चस्तरीय मान्यताओं में श्रद्धा रखने के कारण ही मनुष्य त्याग-बलिदान का कष्ट सहन करने के लिए खुशी-खुशी तैयार होता है। ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व तक प्रयोगशालाओं की कसौटी पर खरा सिद्ध नहीं होता। वह निश्चित रूप से श्रद्धा पर ही अवलंबित है।


श्रद्धा को महानता का बीज कह सकते हैं। वही उगता, बढ़ता और परिपुष्ट होता है जो जीवन वृक्ष को स्वर्गस्थ कल्पवृक्ष के समतुल्य बना देता है। चेतना का वर्चस्व उसी से निखरता है। नर-वानर का मानव, महामानव, अतिमानव की दिशा में बढ़ चलने का साहस एवं बल श्रद्धा के सहारे ही संभव होता है। श्रद्धा और आस्तिकता का एक−दूसरे के साथ अन्योन्याश्रय संबंध है। ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुग्रह श्रद्धा के रूप में ही मिलता है और जैसे इस तत्त्व की जितनी उपलब्धि हो जाती है उसके जीवन का वंदनीय बनने की संभावना उसी अनुपात से परिपुष्ट होती चली जाती है। इस स्थिति को ऋद्धियों और सिद्धियों की जननी कहा जा सकता है। आस्तिकता का यह परोक्ष प्रतिफल है जिसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।


सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्यस्वरूप एवं ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती, उसके प्रति सविनय प्रेमभावना विकसित होती है, उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहती है, सँभाले रहती है। श्रद्धा के बल पर ही मलिन चित्त अशुद्ध चिंतन का परित्याग करके बार-बार परमात्मा के चिंतन में लगा रहता है।


परमात्मा के प्रति अत्यंत उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है, वही श्रद्धा है। सात्त्विक श्रद्धा की पूर्णता में अंतःकरण स्वत: पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है जिसको देखकर श्रद्धावान स्वयं संतुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है जो श्रेयपथ की सिद्धि कराती है।


भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा−विश्वास रूपिणौ। याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम्।।रामायण बालकाण्ड

हम सर्वप्रथम भवानी और भगवान, प्रकृति और परमात्मा को श्रद्धा और विश्वास के रूप में वंदन करते हैं जिसके बिना सिद्धि और ईश्वरदर्शन की आकांक्षा पूर्ण नहीं होती।


श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है। पार्थिव वस्तुओं से ऊपर उठने के लिए सरलता और पवित्रता इन्हीं दो गुणों की अत्यंत आवश्यकता होती है। इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता के द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोनों का सम्मिलित स्वरूप है। उसमें भावना भी है, रस भी। जहाँ उसका उदय हो, वहाँ लक्ष्यप्राप्ति की कठिनाई का अधिकांश समाधान तुरंत हो जाता है।
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