
स्त्रियों की गायत्री साधना
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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।
पुरुषों की ही भांति स्त्रियां भी गायत्री उपासना से लाभान्वित हो सकती हैं। कई आध्यात्मिक तत्ववेत्ताओं का यह कहना है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को गायत्री उपासना का लाभ अधिक मिलता है क्योंकि माता को स्वभावतः पुत्र की अपेक्षा कन्या का अधिक ध्यान रहता है। वह अपनी पुत्रियों के लिये अधिक उदारता का परिचय देती है।
प्राचीन काल में अनेक महिलाएं उच्चकोटि की साधिकाएं हुई हैं। अध्यात्म कार्य में वे पुरुषों से कभी भी पीछे नहीं रही हैं। नारी का तप ही उसकी कुक्षि से महान् आत्माओं को प्रसव करने में समर्थ होता है। तपस्विनी अदिति ने वामन भगवान को जन्म दिया। कौशिल्या की गोदी में राम खेले। देवकी ने कृष्ण चन्द्र को जन्म दिया, रोहिणी और यशोदा के आंगन में उन्हें बाल-क्रीड़ा करनी पड़ी। समस्त देवताओं की जननी अदिति माता है! भगवती कात्यायिनी असुरों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हुईं। माता शतरूपा के गर्भ से मानव प्राणी का उद्भव हुआ है। ब्रह्मवादिनी घोपा काक्षवान ऋषि की कन्या थी, उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। तप करके उन्होंने अश्विनी कुमार देवता को प्रसन्न किया और निरोगिता एवं विद्या का विपुल भण्डार प्राप्त किया। महर्षि कर्दम की धर्मपत्नी देवहूति ने तपस्वी जीवन बिताकर भगवान कपिल को जन्म दिया। महर्षि मेघातिथि की कन्या अरुन्धती ने तापसारण्य वन में तप करके वशिष्ठ जैसे योगी को अपने पति रूप में पाया और वे सशरीर अजर-अमर बनीं।
महर्षि अत्रि के वंश में उत्पन्न ब्रह्मवादिनी महाविदुषी विश्वधारा ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के द्वितीय अनुवाद के अट्ठाइसवें षट ऋकों की मन्त्र द्रष्टा हैं। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से ऋषि पद पाया था। तपस्विनी अपाला पतिगृह में असाध्य रोग से ग्रसित हो गईं तो उन्होंने तप करके इन्द्र को प्रसन्न किया और खोया हुआ स्वास्थ्य तथा ब्रह्म-ज्ञान पाया। यह अपाला भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के 91 वें सूक्त की 1 से 7 तक
की ऋचाओं की द्रष्टा हैं। सती तपती की आयु बहुत बड़ी हो गई थी, उनका विवाह न हो सका था। तपती की तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं सूर्य नारायण ने उनसे विवाह किया। अभृण ऋषि की कन्या वाक् प्रसिद्ध ब्रह्मवादिनी हुई हैं। ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 125 वें देवी सूक्त के आठ मन्त्रों की ऋषि यह वाक् देवी ही हैं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 85 सूक्त की ऋचाओं की ऋषि होने का श्रेय ब्रह्मवादिनी सूर्या को प्राप्त है। बड़े रोमों वाली भावभव्य ऋषि की धर्मपत्नी ब्रह्मवादिनी रोमेशा ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 126 वें सूक्त की सात ऋचाओं की द्रष्टा ऋषि हुई हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् में वचक्तु ऋषि की पुत्री गार्गी और याज्ञवल्क्य के शास्त्रार्थ का विस्तृत वर्णन है। महातपस्विनी गार्गी ने राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य के छक्के छुड़ा दिये थे। ब्रह्मज्ञानिनी सुलभा ने राजा जनक जैसे तत्वज्ञानी की अनेक भ्रान्तियों का निवारण किया था। राजा आसंग की पत्नी शाश्वती ऋग्वेद के आठवें मण्डल के प्रथम सूक्त की 34 वीं ऋचा की ऋषि हैं। इसी प्रकार उशिज इसी मण्डल के 116 से 121 वें तक के मन्त्रों की ऋषि हैं। दशम सूत्र की ऋषि ब्रह्मवादिनी ममता हैं।
कई व्यक्ति कहते हैं कि—‘‘स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं, क्योंकि गायत्री वेदमन्त्र है। वेद मन्त्र स्त्रियों को नहीं पढ़ने चाहिए।’’ ऐसे लोग तनिक विचार करने का कष्ट करें कि यदि स्त्रियों को वेद का अधिकार न होता तो वेद मन्त्रों की द्रष्टा, व्याख्याता, विशेषज्ञा, अधिपति यह उपरोक्त स्त्रियां किस प्रकार रही होतीं? प्राचीन काल में घोषा, गोधा, विश्वधारा, अपाला, उपनिषत, जुहू, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपा-मुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि अनेकों ब्रह्मवादिनी वेद व्याख्याता हुई हैं।
मनु की पुत्री ‘इड़ा’ नामक एक महिला का वर्णन है जो ‘यज्ञात् काशिनी’ उपाधि से विभूषित थी। उसने अपने पिता तक के लिए यज्ञ कराये थे। भारद्वाज की पुत्री श्रुतावती, तपस्विनी सिद्धा, शांडिल्य की पुत्री श्रीमती, वेद विद् शिवा, ब्रह्मवादिनी सुलभा, स्वधा की पुत्रियां वद्युना और घारिणी आदि अनेक वेदज्ञ महिलाओं का वर्णन महाभारत में है। यदि उन्हें वेदों का अधिकार न होता तो किस प्रकार वे वेदज्ञ होतीं। शंकर दिग्विजय में भारती देवी नामक एक ऐसी महिला का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में शंकराचार्य के दांत खट्टे कर दिये थे।
विवाहादि संस्कारों में स्त्री को अपने मुख से अनेक वेद उच्चारण करने पड़ते हैं। यज्ञों में स्त्रियां सदा पति के साथ रहती हैं। स्त्री के बिना यज्ञ सफल नहीं होता। रामचन्द्रजी को सोने की सीता बनाकर यज्ञ पूर्ण करना पड़ा था। यज्ञ बिना वेद मन्त्रों के होते नहीं, यदि स्त्रियों को वेद का अधिकार न होता तो उन्हें यज्ञ में सम्मिलित होने का अथवा विवाहादि संस्कारों में मन्त्रोच्चारण का विधान किस प्रकार होता?
व्योम संहिता में कहा गया है कि—स्त्रियों को वेद का अध्ययन तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने का वैसा ही अधिकार है जैसे कि उर्वशी, यमी, शची, आदि को प्राप्त था।’’ यम स्मृति में लिखा है—‘‘स्त्रियों को वैदिक कर्म-काण्डों की भांति ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का भी अधिकार है। वाल्मीकि रामायण में कौशिल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा स्वयं संध्या, हवन करने तथा स्वस्तिवाचन आदि वेद मन्त्रों का पाठ करने का वर्णन है। वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि—‘‘यदि स्त्री के मन में पति के प्रति दुर्भाव आवे तो उस पाप को पश्चाताप करने के लिए 108 गायत्री मन्त्र जपने से वह पवित्र होती है।’’
मध्यकाल के मुसलमानी अन्धकार युग में नाना प्रकार की भ्रान्तियां, रूढ़ियां, बुराइयां हमारे समाज में फैलीं अथवा यों कहिए कि हिन्दू जाति को सब प्रकार छिन्न-भिन्न करने के लिए विधर्मियों द्वारा फैलवाई गईं। ग्रन्थों और प्राचीन पुस्तकों में यहां तक ऐसे श्लोक मिलाये और ठूंसे गए जिनसे भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न विचार धारा खण्ड-खण्ड हो जाय। ऐसी ही भ्रान्तियों में एक विचार धारा यह है कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं है। इस सम्बन्ध में कुछ टूटे फूटे श्लोक भी जहां-तहां से निकाल कर बताये जाते हैं पर वे भारतीय संस्कृति के अनादि प्रवाह के प्रतिकूल होने के कारण मान्य नहीं ठहरते।
हिन्दू विश्व-विद्यालय काशी में पहले स्त्रियों को वेद नहीं पढ़ाया जाता था। जब इस सम्बन्ध में पुनर्विचार की आवश्यकता हुई तो सनातन धर्म के कर्णधार महामना पं. मदनमोहनजी मालवीय ने देश के उच्चकोटि के पण्डितों की एक समिति नियुक्त की, जिसको यह कार्य सौंपा गया कि वह शास्त्रों के आधार पर यह खोज करे कि स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार है या नहीं। कमेटी ने लम्बे समय तक भारी खोज की और 22 अगस्त सन् 1946 को उस समिति की रिपोर्ट के आधार पर मालवीयजी ने घोषणा की कि स्त्रियों को भी पुरुषों की ही भांति वेद पढ़ने का अधिकार है। तब से हिन्दू विश्व-विद्यालय में स्त्रियों को भी पुरुषों की भांति वेद पढ़ाये जाते हैं।
गायत्री ईश्वर की सर्वोत्तम प्रार्थना है। वेद भगवान की अमृतमयी वाणी है। ऐसे उपयोगी तत्व से स्त्रियों का वंचित रखा जाना न्याय के, विवेक के, तथा भारतीय संस्कृति की मूलभूत भावना के प्रतिकूल है। इसलिये इस प्रकार के भ्रमों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्राचीन काल की भांति आज भी असंख्यों भारतीय महिलायें ऐसी हैं जो गायत्री मन्त्र द्वारा उपासना करती हैं, और उसके महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और सांसारिक लाभों को प्राप्त करती हैं।
अध्यात्म साधना के पथ पर अग्रसर महिलाओं ने भूतकाल में आत्म-शक्ति संचित की है। अब भी वह राज मार्ग वैसा ही खुला हुआ है और इस दिशा में कदम उठाकर श्रद्धावान महिलाएं वैसा ही तप-तेज प्राप्त कर सकती हैं।
सावित्री ने अपने तपोबल से अपने पति सत्यवान का प्राण यमराज के हाथ में से वापिस लौटा लिया। शाण्डली ने अपने पति की मृत्यु हो जाने पर अपने तपोबल से सूर्य का निकलना ही रोक दिया था, जिससे भयभीत होकर देवताओं को उनके पति को जीवित करना ही पड़ा। नल की स्त्री दमयन्ती को सताने वाला व्याध उसके शाप से वहीं जल कर भस्म हो गया था। मदालसा जैसी माताएं अपने आत्म बल से अपने पुत्रों को अत्यन्त ही उच्चकोटि के महापुरुष बनाने में समर्थ होती थीं। सुकन्या ने अपने तपोबल से अश्विनी कुमार देवताओं को प्रसन्न करके अपने वृद्ध पति च्यवन को तरुण बना लिया था। वैशालनी, बेहुला, चिन्ता, शैव्या, कांतिमयी, पिंगला, सुनीति, सुरमा, सीमन्तिनी, धर्मव्रता, शीला आदि महिलाओं के आत्मबल की कथाएं घर-घर में प्रसिद्ध हैं।
महर्षि अंगिरा जब अपने उग्र स्वभाव को शान्त करने के लिए अग्नि तप कर रहे थे, तब उनकी पत्नी ने अपने तपोबल से नदी रूप धारण करके उन्हें शान्त किया। श्रुतावती के तप से प्रसन्न होकर इन्द्रदेव उन्हें वरदान देने आये थे। गान्धारी के नेत्रों में इतना तेज था कि एक बार दृष्टिपात करने मात्र से उसके पुत्र दुर्योधन का शरीर वज्र समान हो गया था। जहां दुर्योधन ने लंगोटी पहन रखी थी, केवल वही अंग कमजोर रहा और वही उसकी मृत्यु का कारण बना। अहिल्या, द्रौपदी, तारा, आदि की आत्म-शक्ति प्रसिद्ध है। कुन्ती ने गायत्री मन्त्र से सूर्य को प्रसन्न करके कुमारी अवस्था में ही कर्ण को जन्म दिया था।
उपासना मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करती है। अनेक वेश्याएं तक सच्ची साधना से परमपद की अधिकारिणी हुई हैं। जीवन्ती नगर की गणिका सुमध्य, रत्न-मुकुट, कान्हू पाला, चिन्तामणि, अम्बपाली आदि का पिछला जीवन कलुषित रहा था, पर वे अन्त में अच्छी श्रद्धा के कारण योगियों को मिलने वाली सद्गति की अधिकारिणी हुईं।
पुरुषों की ही भांति स्त्रियों को भी गायत्री उपासना के लाभों से लाभान्वित होने का सौभाग्य मिलता है। वे आत्म बल का तप तेज एकत्रित करके योगी और तपस्वियों की भांति अनेक आत्मिक विशेषताओं एवं विभूतियों से विभूषित हो सकती हैं। अपने जन्म जन्मान्तरों के पाप तापों एवं कषाय कल्मषों से पिण्ड छुड़ाकर भव बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। कठिन साधनाओं को विरक्त भाव से वनों और जंगलों में पुरुष तो कर सकते हैं पर स्त्रियों के लिये न तो उतनी सुविधा होती है और न आवश्यकता ही। वे गायत्री महामन्त्र की शरण लेकर अपनी आत्मा को परम पवित्र बनाती हुई एक ही जीवन में परम पद की अधिकारिणी बन सकती हैं। गृहस्थ में रहते हुए तपस्वियों की परिस्थिति को पहुंचना गायत्री उपासना द्वारा ही सुलभ और संभव होता है।
आत्म-कल्याण के साथ-साथ सुमति, एकता, सद्बुद्धि एवं सद्भाव का भी लाभ गायत्री द्वारा मिलता है। सबसे पहले यह गुण साधिका में बढ़ते हैं। चिड़चिड़े स्वभाव की, क्रोधी, असहिष्णु, कलह प्रिय, मन ही मन कुढ़ते रहने की आदत वाली महिलाओं ने भी जब गायत्री उपासना आरम्भ की है तो उनके स्वभाव में आश्चर्य-जनक परिवर्तन हुआ है। थोड़े ही दिनों में वे तुनकने, झुंझलाने या रूठने की प्रवृत्ति छोड़कर हंस-मुख, प्रसन्नचित्त और मधुर स्वभाव वाली बन गईं। जो छोटे दृष्टिकोण के कारण दूसरों की जरा-जरा सी गलती पर या अपने स्वार्थ को तनिक सी ठेस-पहुंचने पर कलह और संघर्ष खड़ा किये रहती थीं, जिनके मन में परिवार के साथ इकट्ठा रहने की अपेक्षा अलग चूल्हा रखने की बात सदा भरी रहती थी, वे उपासना के बाद इस रहस्य को समझीं कि एकता, प्रेमभाव, सुमति तथा मिल जुल कर रहने में कितने लाभ हैं। फिर उन्होंने ‘‘क्षमा करो और भूल जाओ, अपनी सुविधा को दूसरों की भलाई के ऊपर न्यौछावर करो’’ की आध्यात्मिक रीति अपनाई और जो परिवार बिखरते हुए दिखाई पड़ रहे थे वे पहले की अपेक्षा भी अधिक मजबूती के साथ एकता के सूत्र में बंध गये।
जो स्त्रियां बात-बात में अपने दुर्भाव का रोना रोया करती थीं, दूसरों पर नाना प्रकार के दोषारोपण किया करती थीं और अपने को अत्याचार ग्रस्त मानकर सदा दुखी रहती थीं, उनकी अनेकों बार गायत्री उपासना से मति पलटी है। उन्होंने आत्म-चिन्तन किया है, अपनी भूलों को पहचाना है, अपने स्वभाव कार्यक्रम और दृष्टिकोण में गलतियां पाई हैं और उसमें सुधार करके अपने में ऐसा परिवर्तन किया है, कि उन्हें वे ही परिजन जो कुछ समय पहले स्वार्थी, अन्यायी, दुष्ट दिखाई पड़ते थे, फिर भले मनुष्य दीखने लगे। अपना स्वभाव एवं दृष्टिकोण बदलते ही दूसरों का व्यवहार भी बदल गया और इस प्रकार सहज ही शान्तिमय वातावरण उत्पन्न हो गया।
गायत्री उपासना से सद्बुद्धि बढ़ती है और कुबुद्धि के कारण जो नाना प्रकार की कठिनाइयां उलझनें पैदा होती रहती हैं वे सहज ही समाप्त हो जाती हैं। जो सुधार गाली गलौज, मारपीट, ताड़ना, असहयोग आदि से सम्भव नहीं वह गायत्री उपासना से सद्बुद्धि बढ़ने के कारण बड़ी सुविधापूर्वक हो जाता है। मन में शान्ति और सुमति हो तो शरीर गत अनेक रोग दूर होते हैं। अव्यवस्थित और अनियमित आहार विहार के कारण ही प्रायः बीमारियां होती हैं। सद्बुद्धि बढ़ने से मनुष्य के विचार और कार्य संयम, नियम, स्वच्छता, नियमितता और व्यवस्थामय होने लगते हैं। फलस्वरूप बीमारियों की जड़ ही कट जाती है। डाक्टरों और वैद्यों के लम्बे चौड़े बिल, रोगी को शारीरिक कष्ट तथा घर वालों को परेशानी यह तीनों ही झंझट गायत्री उपासक के घर से टलते देखे गये हैं।
गायत्री उपासना से घर में एक परम सात्विक एवं सौम्य वातावरण बनता है। उस वातावरण का प्रभाव घर के प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है। स्त्रियां अपने घर में गायत्री माता की छवि (चित्र) या प्रतिमा स्थापित करती हैं और उनकी पूजा उपासना करती हैं। उस घर में सुमति और सद्बुद्धि का एक प्रवाह दौड़ जाता है। जैसे घर में बदबू या सुगंध फैली हुई हो तो उसका अनुभव हर एक को होता है, उसी प्रकार इस आध्यात्मिक वायुमंडल का प्रभाव उस घर के बालकों पर, तरुणों पर, वृद्धों पर, महिलाओं पर समान रूप से पड़ता है और उनके स्वभावों और विचारों में सात्विक परिवर्तन होता है। ऐसे घरों में क्लेश, कलह, द्वेष, दुर्भाव, मनोमालिन्य निकल जाता है और जो कोई कुमार्ग पर पैर बढ़ा रहे थे, वे अपना पैर पीछे लौटा लेते हैं।
पतियों का सुधार स्त्रियां गायत्री उपासना द्वारा कर सकती हैं। इस तपस्या से अनेकों स्त्रियों ने अपने पतियों के बुरे स्वभावों और बुरे आचरणों को सुधारा है। उनके झगड़ालू, रूखे, निष्ठुर स्वभाव को बदल कर मधुर भाषी, सहानुभूति, सद्भाव एवं स्नेह वाला बनाया है। उनकी कुसंगति छुड़ाने एवं व्यभिचार आदि की बुराइयों से बचाने में भी स्त्रियां गायत्री उपासना को रामबाण की तरह प्रयोग कर सकती हैं। जो सुहागिन होते हुए भी विधवाओं की तरह जीवन यापन करती थीं, उन्होंने माता की कृपा से अपने जीवन उद्यान में आशा की नई फुलवारी खिलते देखी है। पति का ही नहीं उन्हें दोनों कुलों का आदर प्राप्त हुआ है। गायत्री माता की शरण पड़ने वाली स्त्रियां इस प्रकार के सुबुद्धि जन्य अनेक लाभों से लाभान्वित होती देखी गई हैं।
गायत्री उपासना करने वाली स्त्रियों के पेट में जो सन्तान होती है उस पर माता के विचारों का बड़ा उत्तम प्रभाव पड़ता है। उसमें विद्या, बुद्धि, विवेक, तेज, प्रतिभा, सदाचार आदि गुणों की कमी नहीं रहती। माताएं बालकों को दूध पिलाते समय यदि मन ही मन गायत्री मन्त्र जपती रहें, तो वह दूध बालक के शरीर और मन को शुद्ध बनाने के लिए अमृत रूप हो जाता है। बच्चों को निरोग, हंसमुख, सुन्दर, तेजस्वी, बुद्धिमान, गुणवान और दीर्घजीवी बनाने में माताएं गायत्री महामन्त्र से आशा जनक लाभ उठा सकती हैं।
कई बार प्रारब्ध के कठोर विधान बड़े कठिन होते हैं, उनका पूर्ण रूप से हटाना सरल नहीं होता, तो भी उनमें गायत्री उपासना से सुधार अवश्य होता है। प्रायः सभी परिवारों पर समयानुसार बुरे दिनों और अशुभ घड़ियों की कुदशा आती है। ऐसे संकटों एवं अनिष्टों की भयंकरता कम करने के लिए स्त्रियां गायत्री माता की शरण ले सकती हैं। घर का अर्थ संकट, दारिद्र, राजदण्ड का भय, मुकदमा, रोग, शत्रु भय आदि आपत्तियां जब सिर पर मंडरा रही हो तो इस महामन्त्र की सहायता से बहुत सहारा मिलता है। सन्तान का न होना, होकर मर जाना, केवल कन्याएं ही होना, गर्भपात होते रहना आदि व्यथाओं में बहुधा पूर्व जन्मों के अशुभ संस्कार कारण होते हैं, तो भी उनका निवारण गायत्री द्वारा होना असम्भव नहीं। जिन घरों में भूत, प्रेत का प्रकोप रहता है, वहां यदि गायत्री की पूजा होने लगे, तो किसी प्रेत पिशाच का ठहरना वहां नहीं हो सकता। किसी तान्त्रिक, ओझा आदि ने अपने ऊपर या अपने बालकों के ऊपर कोई कुप्रयोग किया हो, तो उसका अनिष्ट भी गायत्री माता की कृपा से शान्त हो जाता है।
विधवाओं के लिए गायत्री साधना का बहुत भारी महत्व है। वे आत्म संयम, सदाचार, विवेक, ब्रह्मचर्य पालन, इन्द्रिय निग्रह एवं मन को वश में करने के लिए गायत्री साधना को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती हैं। जिस दिन से वे यह साधना आरम्भ करती हैं उसी दिन से मन में शान्ति, स्थिरता, सद्बुद्धि और आत्मसंयम की भावना पैदा होती है। वैधव्य उनके लिए तप साधना जैसा शान्ति दायक बन जाता है। वे ऐसी आत्म शान्ति प्राप्त करती हैं जिसकी तुलना में सधवा रहने का सुख भी नितान्त तुच्छ दिखाई पड़ता है।
कुमारी कन्याएं अपने विवाहित जीवन में सब प्रकार की सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए भगवती की उपासना कर सकती हैं। सधवा बहिनों को अपने पति, पुत्र तथा दोनों कुलों को सुखी समृद्ध, स्वस्थ, सम्पन्न एवं दीर्घजीवी बनाने के लिए गायत्री उपासना करनी चाहिए। इसी प्रकार अन्य कठिनाइयों के निवारण एवं सुख शान्ति की वृद्धि के लिए भगवती का आश्रय लेना सब प्रकार मंगलमय होता है।
प्राचीन काल में अनेक देवियां गायत्री माता की शरण लेकर लौकिक और पारलौकिक सुख शान्ति प्राप्त कर चुकी हैं। अब भी अनेक महिलाएं वैसे ही अनुभव कर रही हैं। शिलांग (आसाम) की गुणवती देवी 20 वर्ष की आयु में विधवा हो गई थीं। गोदी में ढाई वर्ष का पुत्र था। घर में वृद्ध श्वसुर को छोड़कर और कोई न था। शोक और चिन्ता का घर में कोई ठिकाना न था। गुजारे का भी कोई प्रबन्ध न था। ऐसी शोक पूर्ण स्थिति में एक ज्ञानी के उपदेशानुसार श्वसुर तथा बहू ने गायत्री उपासना आरम्भ की। दोनों को सद्बुद्धि आई, शोक घटा। श्वसुर ने एक छोटी नौकरी करली, बहू ने पढ़ना आरम्भ किया। दो वर्ष बाद वह भी अध्यापिका हो गई। सुख पूर्वक दिन कटने लगे। वह ढाई वर्ष वाला लड़का अब एम.ए. पास कर 275 रुपये मासिक की नौकरी पर लग गया है।
हैदराबाद की विमला देवी की सास बड़ी कर्कश और पति शराबी व्यसनी तथा कुमार्गगामी थे। विमला को दोनों से पिटना पड़ता। इस दुख से बचने के लिए विमला को उसकी बुआजी ने गायत्री मन्त्र बताया, वह जपने लगी। एक दिन उसके पति को बड़ा भयंकर स्वप्न हुआ, कि उसके कुकर्मों के लिए कई देवदूत मृत्यु तुल्य कष्ट दे रहे हैं। जब स्वप्न टूटा तो उस भय का आतंक उन पर कई महीने तक रहा और उसी दिन से स्वभाव सीधा हो गया। सास भी ठण्डी पड़ गई। घर का कलह दूर हो गया।
वारीसाल (बंगाल) के एक उच्च अफसर की धर्मपत्नी हेमलता चटर्जी की आयु 33 वर्ष की हो गई, तब तक उसे कोई सन्तान न हुई। उसके पति दूसरा विवाह करने की तैयारी कर रहे थे। किसी साधक ने उन्हें गायत्री उपासना की विधि बताई। माता की कृपा से दो वर्ष के अनन्तर 35 वर्ष की आयु में उनके कन्या उत्पन्न हुई। बाद में दो पुत्र और हुए।
जैसलमेर की गोगन बाई को 16 वर्ष पुराना मृगी रोग था, वह गायत्री उपासना से दूर हुआ। गुजरानवाला [पंजाब] की सुंदरी देवी के गले में कण्ठमाला विषवेल के फोड़े बहुत दिन के पुराने हो गये थे। उनका दुख भी गायत्री उपासना से दूर हुआ। गोदावरी जिले की बसन्ती देवी को भूत प्रेत घेरे रहते थे। 23 वर्ष की आयु में हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी, गायत्री हवन द्वारा उसकी विपत्ति छूटी। मार्थू (गया) के डॉक्टर राजाराम शर्मा की पुत्री सावित्री देवी ने गायत्री उपासना के प्रभाव से घर गृहस्थी के झंझटों में लगे रहते हुए भी आयुर्वेदाचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कानपुर के पं. अयोध्या प्रसाद दीक्षित की धर्मपत्नी शान्ति देवी ने विवाह से पूर्व हिन्दी मिडिल पास की थी। 11 वर्ष तक पढ़ाई छोड़कर वे पारिवारिक झंझटों में लगी रहीं। यकायक उनने मैट्रिक की परीक्षा का फार्म भर दिया। अपनी गायत्री निष्ठा के कारण वे कुछ ही महीने की तैयारी में उत्तीर्ण हो गईं। कटक की एक महिला, पति की मृत्यु से दुखी होकर आत्महत्या करने जा रही थी, तो उसके स्वर्गीय पति ने प्रकट होकर उससे कहा तुम गायत्री जप करो, जिससे मेरी और तुम्हारी आत्मा को सद्गति मिले। वह महिला आत्म हत्या का विचार छोड़कर पति के बताये हुए मार्ग पर लग गई। रामपुर ग्राम की एक क्षत्री कन्या सोनीबाई जीवन भर ब्रह्मचारिणी और गायत्री उपासिका रही। उसकी भविष्य वाणियां सब सच्ची निकलती थीं।
रंगपुर (बंगाल) की सरला चौधरी के 6 बालक मर चुके थे। गायत्री उपासना का मार्ग अपनाने पर उनका कोई भी बालक नहीं मरा, अब वे तीन पुत्रों की माता हैं। भागलपुर की अनार देवी नामक महिला स्वयं सदा बीमार रहती थी और बच्चों को भी कोई न कोई रोग लगा रहता था, माता का अंचल पकड़कर उसने अपने घर में पूर्ण स्वस्थता का आशीर्वाद पाया। उदयपुर की एक मारवाड़ी महिला ज्ञानवती होने के कारण अपने पति से परित्यक्त दशा में जीवन यापन कर रही थी। उसे गायत्री उपासना बताई गई। तप निरर्थक नहीं जाता। वही कुरूपा अब पति को प्राण प्रिय है और गृह लक्ष्मी जैसे गुणों का परिचय दे रही है। इस प्रकार के एक नहीं हजारों उदाहरण वर्तमान समय में साधना करके समुचित लाभ उठाने वाली महिलाओं के मौजूद हैं।
महिलाओं को अशुद्धि तथा प्रसव काल के सूतक में गायत्री उपासना विधि पूर्वक नहीं करना चाहिये। मानसिक स्मरण और ध्यान ही ऐसी स्थिति में करना उचित है। जिन्हें पूरा मन्त्र याद न हो सके वे ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’ इस पंचाक्षरी गायत्री का जप कर के भी काम चला सकती हैं। गायत्री चालीसा का पाठ स्त्रियों के लिये विशेष उपयोगी है। गायत्री मन्त्र, माता का चित्र या मूर्ति घर में स्थापित करके उसका नित्य पूजन अर्चन होता रहे, तो यह पारिवारिक सुख, शान्ति सद्बुद्धि एवं सद्गति के लिये सब प्रकार उत्तम है। गायत्री माता का आश्रय लेना स्त्रियों के लिए सब प्रकार उत्तम है। पिता की अपेक्षा माता अपनी कन्या पर अधिक प्यार करती है। गायत्री माता परम कल्याणमयी है, उनका हृदय वात्सल्य से परिपूर्ण है। अपनी गोदी में चढ़ने वाली किसी पुत्री को वे निराश नहीं करतीं।
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