
उपासना क्यों ?
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प्रत्येक कर्म का कोई न कोई अधिष्ठाता जरूर है, परिवार के मुखिया के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण रहता है, मिल कारखानों की देख रेख के लिये मैनेजर होते हैं। राज्यपाल प्रान्त के शासन की बागडोर सम्हालते हैं—राष्ट्रपति सम्पूर्ण राष्ट्र का नियन्त्रण करता है। जिसके हाथ में जैसी विधि व्यवस्था होती है उसी के अनुरूप उसे अधिकार भी मिले होते हैं। अपराधियों की दण्ड व्यवस्था, सम्पूर्ण प्रजा के पालन पोषण और न्याय के लिये उन्हें उसी अनुपात से वैधानिक या सैद्धान्तिक अधिकार प्राप्त होते हैं। अधिकार न दिये जायं तो लोग स्वेच्छाचारिता, छल कपट और निर्दयता का व्यवहार करने लगें।
इतना बड़ा संसार एक निश्चित व्यवस्था पर ठीक ठिकाने से चल रहा है। सूर्य प्रतिदिन ठीक समय से निकल आता है, चन्द्रमा नियत समय पर उगता और अस्त होता है, ऋतुयें अपने समय आते ही आती और लौट जाती हैं, आम का दौर बसन्त में ही आता है, टेसू गर्मी में ही फूलते हैं। वर्षा तभी होती है, जब समुद्र से मानसून बनते हैं। सारी प्रकृति ठीक व्यवस्था से चल रही है, और इस सृष्टि की सीमा कहां है—यह आज तक कोई जान नहीं पाया है। इतने बड़े संसार का नियमन और नियन्त्रण करने वाली सत्ता का नाम ही परमात्मा है। उसी से दृश्यमान जीवन आता है और सदा सर्वदा आता रहेगा।
वह परमात्मा तत्व अणु-अणु का मूलाधार है। सब कुछ उसी से बनता और उसी से गतिशील होता है। वह परमात्मा अणु-अणु में परिव्याप्त है, घट-घट में निवास कर रहा है। कोई भी स्थान उससे रिक्त नहीं हैं। सभी स्थानों पर वह सदा सर्वदा उपस्थित रहता है। और सबके अस्तित्व का भी वही कारण है।
चूंकि परमात्मा सर्वव्यापी है इसलिये वह मनुष्य में भी हुआ। मनीषियों का अनुभूत सत्य है यह कि अन्ततः परमात्मा ही सब कुछ है। हम स्वयं भी ईश्वर के ही अंश हैं। हमारा आत्मा भी परमात्मा का एक अंश मात्र है। उसे जो कुछ शक्ति और प्रतिभा प्राप्त है वह ईश्वर की ही विभूति है। जिसमें यह विभूति जितनी कम पड़ जाती है वह उतना ही दीन-हीन बना रहता है। शक्ति का स्रोत जिस उद्गम से प्रभावित होता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से सामान्य जीव को भी शक्ति का पुंज बनने में देर नहीं लगती। बिजली घर के साथ जुड़े हुए पतले तार अपने भीतर इतनी शक्ति धारण कर लेते हैं कि उनके द्वारा सैकड़ों घोड़ों की शक्ति वाली मशीनें धड़धड़ाती हुई चलने लगती हैं। इनको स्पर्श करने वाले बल्ब अन्धेरी रात को दिन जैसा प्रकाशवान बना देते हैं बिजलीघर से जब तक सम्बन्ध है तभी तक उन तारों में यह विभूति रहती है कि उनके स्पर्श से चमत्कार उत्पन्न हो सके। जब वह सम्बन्ध कट जाता है, तारों को बिजली घर के विद्युत भण्डार की धारा का प्रवाह मिलना रुक जाता है, तो फिर उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। देखने में पहले जैसा लगने पर भी वे न प्रकाश उत्पन्न करते हैं और न मशीनें चला पाते हैं। तार का मूल्य बिजली घर से सम्बन्ध होने के करण ही तो था, वह टूट गया तो फिर उसकी महत्ता कहां स्थिर रह सकती थी?
आत्मा को जब भी स्थायी बल प्राप्त होता है तब उसे वह उपलब्धि परमात्मा से ही मिली होती है। मोती समुद्र से ही निकलते हैं। उनका उपयोग कहीं भी किसी कार्य के लिए भी किया जा सकता है, पर उनकी उत्पत्ति समुद्र के अतिरिक्त और कहीं नहीं होती। इसी प्रकार आत्म-बल का वरदान भी परमात्मा से प्राप्त होता है। अन्धा लाठी के सहारे अपनी मंजिल पार करता है। जीव भी इस पाप-ताप के अन्धकार से भरे संसार में जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने की यात्रा ईश्वर का अवलम्बन करके ही पूर्ण कर सकता है।
परमात्मा समस्त उच्च शक्तियों और संभावनाओं का केन्द्र है। उसी भण्डार से आत्मा अपनी अभीष्ट वस्तुएं उपलब्ध करती है। इसी अमृत को पीकर उसकी प्यास बुझती है। पपीहा तब तक तृषित ही रहता है जब तक उसे स्वाति नक्षत्र की वर्षा का जल नहीं मिलता। आत्मा भी तब तक अतृप्त ही रहता है जब तक उसे प्रभु की शरणागति प्राप्त नहीं हो जाती। नवजात शिशु अपनी माता का पय पान करके ही जीवन धारण कर सकने में समर्थ होता है। मानवीय महानतायें भी परमात्मा के सान्निध्य से प्राप्त होती है। इसलिए लौकिक सफलताओं से लेकर आध्यात्मिक विभूतियों एवं पारलौकिक उपलब्धियों के लिए, परमात्मा—चेतना से आत्म चेतना के सान्निध्य-सम्पर्क की व्यवस्था बनाना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक एवं उपयोगी है।
आत्मा को परमात्मा के साथ सम्बद्ध करने के लिये जिस प्रक्रिया पद्धति को अपनाना पड़ता है उसका नाम है उपासना। उपासना के द्वारा मनुष्य परमात्मा से जुड़ता है और उससे प्रकाश प्राप्त करता है—शक्ति ग्रहण करता है। चन्द्रमा तब चमकता है जब उस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है। सूर्य का प्रकाश जब उसे प्राप्त नहीं होता तो अमावस्या के दिन चन्द्रमा यथा-स्थान रहता है फिर भी उसका अस्तित्व लुप्त प्रायः हो जाता है। होते हुए भी न होने जैसी स्थिति उसकी रहती है। पृथ्वी के उतने भाग में दिन रहता है जितने भाग पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं। जितने भाग पर सूर्य की किरणें नहीं पड़ती उतने भाग में घोर अन्धकार छाया रहता है, वहां रात रहती है। यह बात आत्मा के सम्बन्ध में भी है, उस पर जब परमात्मा का प्रकाश चमकता है तो वहां उज्ज्वल और दीप्ति का भाव दीखता है और जब वह चमक बन्द हो जाती है तो मानव शरीरधारी एक निकृष्ट नर पशु के रूप में एक घृणित एवं निकम्मा अस्तित्व मात्र हो दृष्टिगोचर होने लगता है।
जीव स्वयं तो निर्बल, तुच्छ है। उसे विशालता और महानता परमात्मा के सान्निध्य से ही उपलब्ध होती है। इसके लिए जो प्रयत्न करता है वही बुद्धिमान है। दूरदर्शिता की एक मात्र कसौटी यह है कि अपने सुदूर भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए भावना उठे, विचारणा चले और क्रिया आरम्भ हो। सामान्यतया जानते, समझते और चाहते हुए भी यह नहीं हो पाता। पैर कदम-कदम पर डगमगाते हैं। विपन्नताएं मार्ग रोक कर खड़ी होती हैं, विभीषिकाएं निराश करती हैं और सांसारिक आकर्षणों का जाल अपने बन्धनों में कसकर बांध लेता है। इस स्थिति में जीव अपनी शान्ति संतोष के लिए कुछ कर नहीं पाता। और वह इन उपलब्धियों के लिए क्या किया जाय यह भी समझ नहीं पाता। फिर भी उसके लिए कोशिश तो करता ही है। प्रयत्न अज्ञान वश सही दिशा में न हों, पर किये इसीलिये जाते हैं कि जीव अपनी निर्बलता और तुच्छता को दूर करे तथा अपने मूल अस्तित्व से एकात्म होकर आत्मशान्ति प्राप्त करें। संसार में व्यक्ति जो भी प्रयत्न करता है उनके मूल में यह आत्म शान्ति, आत्म सन्तोष का ही हेतु रहता है। कुतुबनुमा की सुई उत्तर की ओर मुंह करके ही स्थिर रहती है, अन्यथा वह अस्थिर ही बनी रहेगी। स्थिरता तब आती है जब आधार का सही आश्रय मिल जाता है। आत्मा का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है—जब तक यह दिशा प्राप्त नहीं हो जाती तब तक अस्थिरता, उद्विग्नता, चंचलता एवं अशान्ति ही बनी रहती है। पर जब लक्ष्य की दिशा में पग उठने लगते हैं, तब उस प्रयत्न का प्रत्येक चरण जीवात्मा के लिए शान्ति का सृजन करने लगता है। परमात्मा के जितने ही समीप हम पहुंचते हैं उतनी ही श्रेष्ठताएं हमारे अन्तःकरण में उपजती तथा बढ़ती हैं। उसी अनुपात से आन्तरिक शान्ति की भी उपलब्धि होती चलती है। इसी को उपासना कहा जाता है।
आत्मा को परमात्मा के निकट पहुंचने पर वही बात बनती है जो गरम लोहे और ठण्डे लोहे के एक साथ बांधने पर होती है। गरम लोहे की गर्मी ठण्डे में जाने लगती है और थोड़ी देर में दोनों का तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाब जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनके पानी का स्तर नीचा ऊंचा बना रहता है। पर जब बीच में नाली निकाल कर उन दोनों को आपस में सम्बन्धित कर दिया जाता है तो अधिक भरे हुए तालाब का पानी दूसरे कम पानी वाले तालाब में चलने लगता है और यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि दोनों का जल स्तर समान नहीं हो जाता।
उपासना के द्वारा आत्मा को परमात्मा से सम्बन्धित करने का ही प्रयास किया जाता है। कोई भी व्यक्ति जितने समय तक पूजा, अर्चा स्तवन भजन, जप, ध्यान कीर्तन आदि में निरत रहता है उतनी देर तक वह यही अनुभव करता है कि परमात्मा उसके पास है अथवा वह परमात्मा के निकट है। भजन पूजन अथवा जप कीर्तन करने के समय तक वह अपने हृदय अथवा अपनी चेतना में परमात्मा की समीपता अनुभव करता है। यों तो परमात्मा हर जगह हर समय उपस्थित रहता है, ऐसा नहीं कि उपासना काल में ही वह उपासक के समीप अथवा उपासक उसके समीप रहता हो और अन्य समय में नहीं। वह हर समय, हर एक के पास, हर स्थिति में कोई काम करते समय भी बना रहता है। वरन् सर्वकाल में सर्वव्यापक रहता है। किन्तु सामान्य व्यक्ति हर समय उसके सान्निध्य की अनुभूति नहीं कर सकता। यदि विशेष उपासना विधि से भिन्न भी अपने हर काम को परमात्मा को सौंप दे, हर काम उसी का जाने-समझे और हर क्रिया को उपासना जैसी श्रद्धा एवं आस्था से करे तो मनुष्य के साधारण नित्य नैमित्तिक कार्य ईश्वर की उपासना के रूप में बदल जायें और उसी की तरह शान्ति, सन्तोष तथा आनन्द के पुण्यफल प्रदान करने लगें। यह विधि बहुत सरल एवं लाभप्रद होने पर भी बहुत ऊंची और दूर की बात है। जन साधारण का मनोविकास अभी इस स्तर तक नहीं पहुंच सका है।
सर्वव्यापक परमात्मा की सर्वकर्मक उपासना के योग्य मनःस्थिति आने तक विशेष प्रकार से निर्धारित समय में उपासना करते रहना दैनिक जीवन के लिये तो मंगलमय है ही सर्वकर्मक उपासक के योग्य मनोविकास प्राप्त करने के लिए भी आवश्यक है।
मनुष्य चेतना एवं स्थूल पंचतत्वों के संयोग से बना है। मानवी अस्तित्व के उन दोनों घटकों को उचित पोषण एवं विकास की सुविधा दी जानी चाहिए। शरीरोपयोग में सारी शक्ति का लग जाना और बेचारी आत्मा को कुछ भी न मिलना ठीक कौरव पांडवों के बीच चलने वाले अनौचित्य जैसा है। पांडव पांच गांवों की मांग अपने गुजारे के लिये कर रहे थे और सारा विशाल राज्य कौरवों को दे रहे थे, पर दुर्योधन सुई की नोंक की बराबर पृथ्वी देने को भी तैयार न हुआ। अन्ततः भगवान कृष्ण को महाभारत रचाने की व्यवस्था करनी पड़ी। हमारा अज्ञान एवं मोह दुर्योधन, दुःशासन की तरह सारी सामर्थ्य को शरीर सुख में ही खर्च करना चाहता है और आत्मा अर्जुन के लिये आधा घण्टा समय भी नहीं लगाना चाहता। यह अनीति अन्ततः दुष्परिणाम ही उत्पन्न करेगी और आज जो शरीर हमारा एक मात्र लक्ष्य बना हुआ है वह भी चैन से न रह सकेगा।
लाभ को परखने की बुद्धि हममें हो तो भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होना चाहिए कि जितना श्रम शरीर को सुखी बनाने में खर्च किया जाता है उसका एक अंश भी यदि आत्म-कल्याण के लिए खर्च किया जाय तो परिणाम अत्यधिक उत्साह वर्धक निकल सकता है। जिन दूरदर्शी महामानवों ने अपना समय ईश्वर उपासना में लगाया उनके चरित्र और वृत्तान्त पढ़ने पर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि हम घाटे में नहीं रहे। तृष्णा और वासना के दो पाटों की चक्की में पिसते रहने वालों की तुलना में वे अधिक ही लाभान्वित रहे जिनने ईश्वर का आश्रय ग्रहण करके उपासना के लिये श्रम किया और मनोयोग लगाया।
ऋषियों और सन्त-भक्तों के जीवन इसके प्रमाण हैं। उनने अपार आत्म-शांति पाई अपने आशीर्वाद और वरदान से असंख्यों के भौतिक कष्ट मिटाये, अन्धेरे में भटकते हुओं को प्रकाश दिया और उन दिव्य विभूतियों के अधिपति बने जिन्हें ऋद्धि और सिद्धि के नाम से पुकारा जाता है। नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं प्रत्येक गृही और विरक्त सन्त का जीवन चरित्र कसौटी पर कसा जा सकता है और देखा जा सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे का नीरस जीवन बिताने की अपेक्षा यदि उनने ईश्वर का आश्रय लेने का निर्णय किया तो कुछ घाटे में नहीं रहे।
उन्होंने जो पाया वह कोई साधारण श्रमिक, व्यापारी, बुद्धिजीवी प्राप्त नहीं कर सकता। कम लाभ की अपेक्षा अधिक लाभ का व्यापार करना बुद्धिमत्ता कही जाती है, फिर उपासना का आश्रय लेना क्यों दूरदर्शिता न मानी जायेगी? निःसन्देह यह उच्चकोटि की चतुरता कही जायेगी कि हम शरीर के स्वार्थों का ध्यान रखने के अतिरिक्त आत्म-कल्याण की भी आवश्यकता समझें और इसके लिये उपासना का आश्रय लेना आरम्भ करें। उसे नियमित दिनचर्या का अंग बनाये तो हर व्यक्ति उसके अनुपम लाभ प्राप्त कर सकता है।
शरीर को नित्य स्नान कराना पड़ता है, वस्त्र नित्य धोने पड़ते हैं, कमरे में बुहारी रोज लगानी पड़ती है और बर्तन रोज ही मांजने पड़ते हैं। कारण यह है कि मलीनता की उत्पत्ति भी अन्य बातों की तरह रोज ही होती है। एक बार की सफाई सदा का काम नहीं चला सकती। मन को एक बार स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन मनन आदि से शुद्ध कर दिया जाय तो समाधान होने के बाद भी वह सदा उसी स्थिति में बना रहेगा ऐसी आशा नहीं की जानी चाहिये।
अभी आकाश साफ है, अभी उस पर धूलि, आंधी, कुहरा, बादल छाने लगें तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं। एक बार का समझा-समझाया हुआ मन सदा उसी निर्मल स्थिति में बना रहेगा इसका कोई भरोसा नहीं। मलीनता शरीर, वस्त्र, बर्तन, कमरे आदि को ही आये दिन गन्दा नहीं करती मन को भी प्रभावित, आच्छादित करती है अतः अन्य सब मलीनताओं के निवारण की तरह मन पर छाने वाली मलीनता का भी नित्य परिष्कार आवश्यक एवं अनिवार्य मानकर चला जाय और उस परिशोधन को नित्य कर्मों में स्थान दिया जाय, उपासना का यही प्रयोजन है।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को मन की, जीवन की स्वच्छता को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानना चाहिए और उसका साधन जुटाने के लिए उपासना का अवलम्बन लेना चाहिए। मन असीम क्षमताओं का भण्डार है वह यदि मलीनताओं से भर जाय तो हमें अपार क्षति उठानी पड़ेगी। दांत साफ न किये जायं तो उनमें कीड़ा लग जायेगा और मुंह से बदबू आयेगी। शरीर को स्नान न करायें तो चमड़ी पर जमा हुआ मैल अनेक बीमारियां पैदा करेगा।
सफाई अपने आप में एक आवश्यक कर्म है। मेहतर, धोबी, कहार जैसे अनेक वर्ग इन्हीं कामों में जुटे रहते हैं। साबुन, फिनायल बनाने की फैक्ट्रियों से लेकर दन्त मंजनों तक के विशालकाय कारखाने गन्दगी के निराकरण के साधन बनाने में ही लगे रहते हैं। मन इन सबसे ऊपर है यदि उस पर निरन्तर चढ़ते रहने वाली मलीनता की उपेक्षा की गयी तो वह बढ़ते-बढ़ते इतनी अधिक हो जायेगी कि हमारा अन्तरंग ही नहीं बहिरंग जीवन भी अव्यवस्थाओं, अस्त-व्यस्तताओं और अवांछनीयताओं से भरा घिरा दीखेगा।
उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित करने की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्वाध गति से चलता रहे। नित्य का अभ्यास ही किसी महत्वपूर्ण विषय में स्थिरता और प्रखरता बनाये रह सकता है। यदि पहलवान लोग नित्य का व्यायाम छोड़ दें, फौजी सैनिक परेड की उपेक्षा कर दें तो फिर उनकी प्रवीणता कुछ ही दिन में अस्त-व्यस्त हो जायेगी। स्कूली पढ़ाई छोड़ने बाद जिन्हें फिर कभी पुस्तकें उलटने का अवसर नहीं मिलता वे उस समय के सारे प्रशिक्षण भूल जाते हैं।
आत्मोत्कर्ष में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपासना को अपने नित्य कर्म में सम्मिलित करना ही चाहिये। यह नहीं सोचना चाहिये कि हम ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं फिर उपासना की क्या जरूरत। लुहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि शिल्पी अपने श्रम और प्रयोजन में लगे रहते हुए भी यह आवश्यक समझते हैं कि उनके औजारों पर जल्दी-जल्दी धार धरी जाती रहे। नाई अपने काम में ठीक तरह लगा रहता है पर उस्तरा तो उसे बार-बार तेज करना पड़ता है। मन ही वह औजार है जिससे क्रिया-कलापों को ठीक तरह करते रह सकना सम्भव होता है। यदि भोथरा होने लगे तो फिर कर्तव्य का स्तर गिरने लगेगा। इसलिए जहां अन्य अनेक कार्यों में समय लगाया जाता है वहां मन की मलीनता को स्वच्छ करने और उसे प्रखर बनाने के प्रयास को भी नित्य का आवश्यक कर्तव्य माना जाना चाहिए। पेट की भूख बुझाने के लिए बार-बार भोजन करना पड़ता है। आत्मा की भूख बुझाने के लिए भी उसे उपासना का आहार बार बार नित्य ही—दिया जाना आवश्यक है।
पुरुषार्थ की प्रखरता में उपासना अत्यधिक सहायक होती है, उसे समय नष्ट करने वाली बाधा नहीं माना जाना चाहिए। पारलौकिक पुरुषार्थों में उत्कृष्टता लाने के लिए अपने समय का एक अंश उपासना में नियत रूप से लगाना चाहिए। धुले कपड़े पर टीनोपाल लगा देने से—लोहा करने से और भी सुन्दरता आ जाती है। निर्मल और उज्ज्वल जीवन क्रम रखते हुये भी यदि उपासना का अवलम्बन ग्रहण किया जायगा तो उससे अपेक्षाकृत कहीं अधिक सुव्यवस्थित एवं समुन्नत जीवन का अधिकारी बना जा सकता है।
उपासना में नियमितता लाना एवं प्रभाव पैदा करना तभी सम्भव होता है तब उसमें साधक की रुचि पैदा हो जाय, रस आने लगे। वह जरा भी कठिन नहीं है। अपने लाभ में सबकी रुचि होती है। उपासना का लाभ समझ में आ जाये तो रुचि न बढ़ने का कोई कारण नहीं रह जाता। इससे भी बढ़कर रस तब आता है जब साधक अपने इष्ट को अपने प्रियजन के रूप में अनुभव करने लगता है। प्रियजनों के पास बैठने का अपना आनन्द है। ईश्वर और जीव के बीच इतना अधिक घनिष्ठ आत्मभाव है, जितना संसार के किन्हीं प्राणियों या सम्बन्धियों में नहीं पाया जाता। संसारी लोग प्रेम का मोल-तोल करते हैं। जिससे प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रतिफल मिलता है, उससे दोस्ती निबाहते हैं अन्यथा उपेक्षा एवं अवज्ञा करने लगते हैं ईश्वर के बारे में ऐसी बात नहीं, वह हमारा सच्चा प्रेमी है। निस्वार्थ भाव से हमारी पग-पग पर अपार सहायता करता है उसने जो दिया है वह इतना अधिक है जितना सृष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला। ऐसे प्रिय पात्र की समीपता में आनन्द ही आनन्द मिलना चाहिए। पति-पत्नी पास बैठकर आनन्द लाभ कर सकते हैं। मां-बेटे के बीच, मित्र-मित्र के बीच जो भावनात्मक आदान प्रदान चलता है, उससे दोनों ही पक्ष उल्लसित होते हैं। फिर सच्चा प्रेमी सच्चा मित्र, सच्चा सहयोगी परमेश्वर यदि पास में बैठे तो किस को आनन्द एवं उल्लास प्राप्त न होगा? उपासना एक आनन्द विभोर कर देने वाली भावनात्मक प्रक्रिया है। उसे यदि सही ढंग से अपनाया जा सके तो उपासक उतने स्वर्णिम अंशों में आनन्द और उल्लास से ओत-प्रोत ही रह सकता है।
हमें यह जानना ही चाहिए कि उपासना का प्रयोजन ईश्वर और जीव जैसे चेतन तत्वों में समीपता एकता की स्थापना करना है इसके लिए भावनात्मक माध्यम का प्रयोजन अनिवार्य रूप से आवश्यक है उपासना के साथ-साथ भावना को अविच्छिन्न रूप से जुड़ा ही रहना चाहिए। कर्मकाण्ड को शरीर और भावना को प्राण कहा जा सकता है। शरीर और प्राण दोनों को मिला कर ही एक समग्र व्यक्तित्व विनिर्मित होता है। इसी प्रकार सजीव उपासना वही कहला सकती है, जिसमें पूजा प्रयोग के साथ-साथ स्नेह की अभिव्यंजना भी जुड़ी हुई हो। उल्लास इस अभिव्यंजना पर ही निर्भर है। जिनके मन नहीं मिले, केवल शरीर ही समीप हैं, उन्हें मिलने का क्या आनन्द आयेगा! किन्तु यदि भावनाएं प्रबल हैं, तो शरीर के दूर रहते हुए भी मन उत्साह से भरा रहता है और कल्पना के माध्यम से भी मिलन-सुख उपलब्ध होता रहता है। इस तथ्य को भुला कर जो लोग पूजा-पत्नी का कर्मकाण्ड मात्र पूरा करते रहते हैं और भावनात्मक अभिव्यंजना का समन्वय नहीं करते उन्हें ही मन न लगने की, आनन्द न आने की शिकायत रहती है। अन्यथा वे क्षण तो हर्षोल्लास से भरे हुए ही होने चाहिए। इस सम्बन्ध में बरती गई उपेक्षा ही वह भूल है, जिसके कारण उपासना, एक बोझिल प्रक्रिया मात्र बनकर रह जाती है और आरम्भिक उत्साह शिथिल होते ही कितने लोग उसे छोड़ बैठते हैं। यदि प्रारम्भ से ही वस्तुस्थिति का ध्यान रखा जाय, सजीव उपासना क्रम अपनाया जाय—भावनात्मक तत्परता का समावेश रखा जाय—तो एक बार इस आनन्द का रसास्वादन करने के उपरान्त उपासना को छोड़ने का कोई नाम भी न ले।
उपासना एक ऐसे वटवृक्ष का बीज है, जिसकी छाया, पल्लव पुष्प फल और विशालता से सभी का सब प्रकार से हित होता है। ईश्वर की समीपता का लाभ उठाकर जीव अपनी शक्ति सामर्थ्य को अनन्त गुनी बढ़ा सकता है और महापुरुष की—भूदेव की—भूमिका सम्पादित कर सकता है। ईश्वर का सान्निध्य, अनुग्रह, प्रकाश और अनुदान जिसने प्राप्त कर लिया उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। इस उपलब्धि के फलस्वरूप क्या मिलता है, उसे वाणी से कहना और लेखनी से लिखना पर्याप्त नहीं, उसे तो अनुभव करके ही देखना चाहिए।
इतना बड़ा संसार एक निश्चित व्यवस्था पर ठीक ठिकाने से चल रहा है। सूर्य प्रतिदिन ठीक समय से निकल आता है, चन्द्रमा नियत समय पर उगता और अस्त होता है, ऋतुयें अपने समय आते ही आती और लौट जाती हैं, आम का दौर बसन्त में ही आता है, टेसू गर्मी में ही फूलते हैं। वर्षा तभी होती है, जब समुद्र से मानसून बनते हैं। सारी प्रकृति ठीक व्यवस्था से चल रही है, और इस सृष्टि की सीमा कहां है—यह आज तक कोई जान नहीं पाया है। इतने बड़े संसार का नियमन और नियन्त्रण करने वाली सत्ता का नाम ही परमात्मा है। उसी से दृश्यमान जीवन आता है और सदा सर्वदा आता रहेगा।
वह परमात्मा तत्व अणु-अणु का मूलाधार है। सब कुछ उसी से बनता और उसी से गतिशील होता है। वह परमात्मा अणु-अणु में परिव्याप्त है, घट-घट में निवास कर रहा है। कोई भी स्थान उससे रिक्त नहीं हैं। सभी स्थानों पर वह सदा सर्वदा उपस्थित रहता है। और सबके अस्तित्व का भी वही कारण है।
चूंकि परमात्मा सर्वव्यापी है इसलिये वह मनुष्य में भी हुआ। मनीषियों का अनुभूत सत्य है यह कि अन्ततः परमात्मा ही सब कुछ है। हम स्वयं भी ईश्वर के ही अंश हैं। हमारा आत्मा भी परमात्मा का एक अंश मात्र है। उसे जो कुछ शक्ति और प्रतिभा प्राप्त है वह ईश्वर की ही विभूति है। जिसमें यह विभूति जितनी कम पड़ जाती है वह उतना ही दीन-हीन बना रहता है। शक्ति का स्रोत जिस उद्गम से प्रभावित होता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से सामान्य जीव को भी शक्ति का पुंज बनने में देर नहीं लगती। बिजली घर के साथ जुड़े हुए पतले तार अपने भीतर इतनी शक्ति धारण कर लेते हैं कि उनके द्वारा सैकड़ों घोड़ों की शक्ति वाली मशीनें धड़धड़ाती हुई चलने लगती हैं। इनको स्पर्श करने वाले बल्ब अन्धेरी रात को दिन जैसा प्रकाशवान बना देते हैं बिजलीघर से जब तक सम्बन्ध है तभी तक उन तारों में यह विभूति रहती है कि उनके स्पर्श से चमत्कार उत्पन्न हो सके। जब वह सम्बन्ध कट जाता है, तारों को बिजली घर के विद्युत भण्डार की धारा का प्रवाह मिलना रुक जाता है, तो फिर उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। देखने में पहले जैसा लगने पर भी वे न प्रकाश उत्पन्न करते हैं और न मशीनें चला पाते हैं। तार का मूल्य बिजली घर से सम्बन्ध होने के करण ही तो था, वह टूट गया तो फिर उसकी महत्ता कहां स्थिर रह सकती थी?
आत्मा को जब भी स्थायी बल प्राप्त होता है तब उसे वह उपलब्धि परमात्मा से ही मिली होती है। मोती समुद्र से ही निकलते हैं। उनका उपयोग कहीं भी किसी कार्य के लिए भी किया जा सकता है, पर उनकी उत्पत्ति समुद्र के अतिरिक्त और कहीं नहीं होती। इसी प्रकार आत्म-बल का वरदान भी परमात्मा से प्राप्त होता है। अन्धा लाठी के सहारे अपनी मंजिल पार करता है। जीव भी इस पाप-ताप के अन्धकार से भरे संसार में जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने की यात्रा ईश्वर का अवलम्बन करके ही पूर्ण कर सकता है।
परमात्मा समस्त उच्च शक्तियों और संभावनाओं का केन्द्र है। उसी भण्डार से आत्मा अपनी अभीष्ट वस्तुएं उपलब्ध करती है। इसी अमृत को पीकर उसकी प्यास बुझती है। पपीहा तब तक तृषित ही रहता है जब तक उसे स्वाति नक्षत्र की वर्षा का जल नहीं मिलता। आत्मा भी तब तक अतृप्त ही रहता है जब तक उसे प्रभु की शरणागति प्राप्त नहीं हो जाती। नवजात शिशु अपनी माता का पय पान करके ही जीवन धारण कर सकने में समर्थ होता है। मानवीय महानतायें भी परमात्मा के सान्निध्य से प्राप्त होती है। इसलिए लौकिक सफलताओं से लेकर आध्यात्मिक विभूतियों एवं पारलौकिक उपलब्धियों के लिए, परमात्मा—चेतना से आत्म चेतना के सान्निध्य-सम्पर्क की व्यवस्था बनाना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक एवं उपयोगी है।
आत्मा को परमात्मा के साथ सम्बद्ध करने के लिये जिस प्रक्रिया पद्धति को अपनाना पड़ता है उसका नाम है उपासना। उपासना के द्वारा मनुष्य परमात्मा से जुड़ता है और उससे प्रकाश प्राप्त करता है—शक्ति ग्रहण करता है। चन्द्रमा तब चमकता है जब उस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है। सूर्य का प्रकाश जब उसे प्राप्त नहीं होता तो अमावस्या के दिन चन्द्रमा यथा-स्थान रहता है फिर भी उसका अस्तित्व लुप्त प्रायः हो जाता है। होते हुए भी न होने जैसी स्थिति उसकी रहती है। पृथ्वी के उतने भाग में दिन रहता है जितने भाग पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं। जितने भाग पर सूर्य की किरणें नहीं पड़ती उतने भाग में घोर अन्धकार छाया रहता है, वहां रात रहती है। यह बात आत्मा के सम्बन्ध में भी है, उस पर जब परमात्मा का प्रकाश चमकता है तो वहां उज्ज्वल और दीप्ति का भाव दीखता है और जब वह चमक बन्द हो जाती है तो मानव शरीरधारी एक निकृष्ट नर पशु के रूप में एक घृणित एवं निकम्मा अस्तित्व मात्र हो दृष्टिगोचर होने लगता है।
जीव स्वयं तो निर्बल, तुच्छ है। उसे विशालता और महानता परमात्मा के सान्निध्य से ही उपलब्ध होती है। इसके लिए जो प्रयत्न करता है वही बुद्धिमान है। दूरदर्शिता की एक मात्र कसौटी यह है कि अपने सुदूर भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए भावना उठे, विचारणा चले और क्रिया आरम्भ हो। सामान्यतया जानते, समझते और चाहते हुए भी यह नहीं हो पाता। पैर कदम-कदम पर डगमगाते हैं। विपन्नताएं मार्ग रोक कर खड़ी होती हैं, विभीषिकाएं निराश करती हैं और सांसारिक आकर्षणों का जाल अपने बन्धनों में कसकर बांध लेता है। इस स्थिति में जीव अपनी शान्ति संतोष के लिए कुछ कर नहीं पाता। और वह इन उपलब्धियों के लिए क्या किया जाय यह भी समझ नहीं पाता। फिर भी उसके लिए कोशिश तो करता ही है। प्रयत्न अज्ञान वश सही दिशा में न हों, पर किये इसीलिये जाते हैं कि जीव अपनी निर्बलता और तुच्छता को दूर करे तथा अपने मूल अस्तित्व से एकात्म होकर आत्मशान्ति प्राप्त करें। संसार में व्यक्ति जो भी प्रयत्न करता है उनके मूल में यह आत्म शान्ति, आत्म सन्तोष का ही हेतु रहता है। कुतुबनुमा की सुई उत्तर की ओर मुंह करके ही स्थिर रहती है, अन्यथा वह अस्थिर ही बनी रहेगी। स्थिरता तब आती है जब आधार का सही आश्रय मिल जाता है। आत्मा का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है—जब तक यह दिशा प्राप्त नहीं हो जाती तब तक अस्थिरता, उद्विग्नता, चंचलता एवं अशान्ति ही बनी रहती है। पर जब लक्ष्य की दिशा में पग उठने लगते हैं, तब उस प्रयत्न का प्रत्येक चरण जीवात्मा के लिए शान्ति का सृजन करने लगता है। परमात्मा के जितने ही समीप हम पहुंचते हैं उतनी ही श्रेष्ठताएं हमारे अन्तःकरण में उपजती तथा बढ़ती हैं। उसी अनुपात से आन्तरिक शान्ति की भी उपलब्धि होती चलती है। इसी को उपासना कहा जाता है।
आत्मा को परमात्मा के निकट पहुंचने पर वही बात बनती है जो गरम लोहे और ठण्डे लोहे के एक साथ बांधने पर होती है। गरम लोहे की गर्मी ठण्डे में जाने लगती है और थोड़ी देर में दोनों का तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाब जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनके पानी का स्तर नीचा ऊंचा बना रहता है। पर जब बीच में नाली निकाल कर उन दोनों को आपस में सम्बन्धित कर दिया जाता है तो अधिक भरे हुए तालाब का पानी दूसरे कम पानी वाले तालाब में चलने लगता है और यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि दोनों का जल स्तर समान नहीं हो जाता।
उपासना के द्वारा आत्मा को परमात्मा से सम्बन्धित करने का ही प्रयास किया जाता है। कोई भी व्यक्ति जितने समय तक पूजा, अर्चा स्तवन भजन, जप, ध्यान कीर्तन आदि में निरत रहता है उतनी देर तक वह यही अनुभव करता है कि परमात्मा उसके पास है अथवा वह परमात्मा के निकट है। भजन पूजन अथवा जप कीर्तन करने के समय तक वह अपने हृदय अथवा अपनी चेतना में परमात्मा की समीपता अनुभव करता है। यों तो परमात्मा हर जगह हर समय उपस्थित रहता है, ऐसा नहीं कि उपासना काल में ही वह उपासक के समीप अथवा उपासक उसके समीप रहता हो और अन्य समय में नहीं। वह हर समय, हर एक के पास, हर स्थिति में कोई काम करते समय भी बना रहता है। वरन् सर्वकाल में सर्वव्यापक रहता है। किन्तु सामान्य व्यक्ति हर समय उसके सान्निध्य की अनुभूति नहीं कर सकता। यदि विशेष उपासना विधि से भिन्न भी अपने हर काम को परमात्मा को सौंप दे, हर काम उसी का जाने-समझे और हर क्रिया को उपासना जैसी श्रद्धा एवं आस्था से करे तो मनुष्य के साधारण नित्य नैमित्तिक कार्य ईश्वर की उपासना के रूप में बदल जायें और उसी की तरह शान्ति, सन्तोष तथा आनन्द के पुण्यफल प्रदान करने लगें। यह विधि बहुत सरल एवं लाभप्रद होने पर भी बहुत ऊंची और दूर की बात है। जन साधारण का मनोविकास अभी इस स्तर तक नहीं पहुंच सका है।
सर्वव्यापक परमात्मा की सर्वकर्मक उपासना के योग्य मनःस्थिति आने तक विशेष प्रकार से निर्धारित समय में उपासना करते रहना दैनिक जीवन के लिये तो मंगलमय है ही सर्वकर्मक उपासक के योग्य मनोविकास प्राप्त करने के लिए भी आवश्यक है।
मनुष्य चेतना एवं स्थूल पंचतत्वों के संयोग से बना है। मानवी अस्तित्व के उन दोनों घटकों को उचित पोषण एवं विकास की सुविधा दी जानी चाहिए। शरीरोपयोग में सारी शक्ति का लग जाना और बेचारी आत्मा को कुछ भी न मिलना ठीक कौरव पांडवों के बीच चलने वाले अनौचित्य जैसा है। पांडव पांच गांवों की मांग अपने गुजारे के लिये कर रहे थे और सारा विशाल राज्य कौरवों को दे रहे थे, पर दुर्योधन सुई की नोंक की बराबर पृथ्वी देने को भी तैयार न हुआ। अन्ततः भगवान कृष्ण को महाभारत रचाने की व्यवस्था करनी पड़ी। हमारा अज्ञान एवं मोह दुर्योधन, दुःशासन की तरह सारी सामर्थ्य को शरीर सुख में ही खर्च करना चाहता है और आत्मा अर्जुन के लिये आधा घण्टा समय भी नहीं लगाना चाहता। यह अनीति अन्ततः दुष्परिणाम ही उत्पन्न करेगी और आज जो शरीर हमारा एक मात्र लक्ष्य बना हुआ है वह भी चैन से न रह सकेगा।
लाभ को परखने की बुद्धि हममें हो तो भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होना चाहिए कि जितना श्रम शरीर को सुखी बनाने में खर्च किया जाता है उसका एक अंश भी यदि आत्म-कल्याण के लिए खर्च किया जाय तो परिणाम अत्यधिक उत्साह वर्धक निकल सकता है। जिन दूरदर्शी महामानवों ने अपना समय ईश्वर उपासना में लगाया उनके चरित्र और वृत्तान्त पढ़ने पर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि हम घाटे में नहीं रहे। तृष्णा और वासना के दो पाटों की चक्की में पिसते रहने वालों की तुलना में वे अधिक ही लाभान्वित रहे जिनने ईश्वर का आश्रय ग्रहण करके उपासना के लिये श्रम किया और मनोयोग लगाया।
ऋषियों और सन्त-भक्तों के जीवन इसके प्रमाण हैं। उनने अपार आत्म-शांति पाई अपने आशीर्वाद और वरदान से असंख्यों के भौतिक कष्ट मिटाये, अन्धेरे में भटकते हुओं को प्रकाश दिया और उन दिव्य विभूतियों के अधिपति बने जिन्हें ऋद्धि और सिद्धि के नाम से पुकारा जाता है। नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं प्रत्येक गृही और विरक्त सन्त का जीवन चरित्र कसौटी पर कसा जा सकता है और देखा जा सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे का नीरस जीवन बिताने की अपेक्षा यदि उनने ईश्वर का आश्रय लेने का निर्णय किया तो कुछ घाटे में नहीं रहे।
उन्होंने जो पाया वह कोई साधारण श्रमिक, व्यापारी, बुद्धिजीवी प्राप्त नहीं कर सकता। कम लाभ की अपेक्षा अधिक लाभ का व्यापार करना बुद्धिमत्ता कही जाती है, फिर उपासना का आश्रय लेना क्यों दूरदर्शिता न मानी जायेगी? निःसन्देह यह उच्चकोटि की चतुरता कही जायेगी कि हम शरीर के स्वार्थों का ध्यान रखने के अतिरिक्त आत्म-कल्याण की भी आवश्यकता समझें और इसके लिये उपासना का आश्रय लेना आरम्भ करें। उसे नियमित दिनचर्या का अंग बनाये तो हर व्यक्ति उसके अनुपम लाभ प्राप्त कर सकता है।
शरीर को नित्य स्नान कराना पड़ता है, वस्त्र नित्य धोने पड़ते हैं, कमरे में बुहारी रोज लगानी पड़ती है और बर्तन रोज ही मांजने पड़ते हैं। कारण यह है कि मलीनता की उत्पत्ति भी अन्य बातों की तरह रोज ही होती है। एक बार की सफाई सदा का काम नहीं चला सकती। मन को एक बार स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन मनन आदि से शुद्ध कर दिया जाय तो समाधान होने के बाद भी वह सदा उसी स्थिति में बना रहेगा ऐसी आशा नहीं की जानी चाहिये।
अभी आकाश साफ है, अभी उस पर धूलि, आंधी, कुहरा, बादल छाने लगें तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं। एक बार का समझा-समझाया हुआ मन सदा उसी निर्मल स्थिति में बना रहेगा इसका कोई भरोसा नहीं। मलीनता शरीर, वस्त्र, बर्तन, कमरे आदि को ही आये दिन गन्दा नहीं करती मन को भी प्रभावित, आच्छादित करती है अतः अन्य सब मलीनताओं के निवारण की तरह मन पर छाने वाली मलीनता का भी नित्य परिष्कार आवश्यक एवं अनिवार्य मानकर चला जाय और उस परिशोधन को नित्य कर्मों में स्थान दिया जाय, उपासना का यही प्रयोजन है।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को मन की, जीवन की स्वच्छता को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानना चाहिए और उसका साधन जुटाने के लिए उपासना का अवलम्बन लेना चाहिए। मन असीम क्षमताओं का भण्डार है वह यदि मलीनताओं से भर जाय तो हमें अपार क्षति उठानी पड़ेगी। दांत साफ न किये जायं तो उनमें कीड़ा लग जायेगा और मुंह से बदबू आयेगी। शरीर को स्नान न करायें तो चमड़ी पर जमा हुआ मैल अनेक बीमारियां पैदा करेगा।
सफाई अपने आप में एक आवश्यक कर्म है। मेहतर, धोबी, कहार जैसे अनेक वर्ग इन्हीं कामों में जुटे रहते हैं। साबुन, फिनायल बनाने की फैक्ट्रियों से लेकर दन्त मंजनों तक के विशालकाय कारखाने गन्दगी के निराकरण के साधन बनाने में ही लगे रहते हैं। मन इन सबसे ऊपर है यदि उस पर निरन्तर चढ़ते रहने वाली मलीनता की उपेक्षा की गयी तो वह बढ़ते-बढ़ते इतनी अधिक हो जायेगी कि हमारा अन्तरंग ही नहीं बहिरंग जीवन भी अव्यवस्थाओं, अस्त-व्यस्तताओं और अवांछनीयताओं से भरा घिरा दीखेगा।
उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित करने की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्वाध गति से चलता रहे। नित्य का अभ्यास ही किसी महत्वपूर्ण विषय में स्थिरता और प्रखरता बनाये रह सकता है। यदि पहलवान लोग नित्य का व्यायाम छोड़ दें, फौजी सैनिक परेड की उपेक्षा कर दें तो फिर उनकी प्रवीणता कुछ ही दिन में अस्त-व्यस्त हो जायेगी। स्कूली पढ़ाई छोड़ने बाद जिन्हें फिर कभी पुस्तकें उलटने का अवसर नहीं मिलता वे उस समय के सारे प्रशिक्षण भूल जाते हैं।
आत्मोत्कर्ष में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपासना को अपने नित्य कर्म में सम्मिलित करना ही चाहिये। यह नहीं सोचना चाहिये कि हम ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं फिर उपासना की क्या जरूरत। लुहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि शिल्पी अपने श्रम और प्रयोजन में लगे रहते हुए भी यह आवश्यक समझते हैं कि उनके औजारों पर जल्दी-जल्दी धार धरी जाती रहे। नाई अपने काम में ठीक तरह लगा रहता है पर उस्तरा तो उसे बार-बार तेज करना पड़ता है। मन ही वह औजार है जिससे क्रिया-कलापों को ठीक तरह करते रह सकना सम्भव होता है। यदि भोथरा होने लगे तो फिर कर्तव्य का स्तर गिरने लगेगा। इसलिए जहां अन्य अनेक कार्यों में समय लगाया जाता है वहां मन की मलीनता को स्वच्छ करने और उसे प्रखर बनाने के प्रयास को भी नित्य का आवश्यक कर्तव्य माना जाना चाहिए। पेट की भूख बुझाने के लिए बार-बार भोजन करना पड़ता है। आत्मा की भूख बुझाने के लिए भी उसे उपासना का आहार बार बार नित्य ही—दिया जाना आवश्यक है।
पुरुषार्थ की प्रखरता में उपासना अत्यधिक सहायक होती है, उसे समय नष्ट करने वाली बाधा नहीं माना जाना चाहिए। पारलौकिक पुरुषार्थों में उत्कृष्टता लाने के लिए अपने समय का एक अंश उपासना में नियत रूप से लगाना चाहिए। धुले कपड़े पर टीनोपाल लगा देने से—लोहा करने से और भी सुन्दरता आ जाती है। निर्मल और उज्ज्वल जीवन क्रम रखते हुये भी यदि उपासना का अवलम्बन ग्रहण किया जायगा तो उससे अपेक्षाकृत कहीं अधिक सुव्यवस्थित एवं समुन्नत जीवन का अधिकारी बना जा सकता है।
उपासना में नियमितता लाना एवं प्रभाव पैदा करना तभी सम्भव होता है तब उसमें साधक की रुचि पैदा हो जाय, रस आने लगे। वह जरा भी कठिन नहीं है। अपने लाभ में सबकी रुचि होती है। उपासना का लाभ समझ में आ जाये तो रुचि न बढ़ने का कोई कारण नहीं रह जाता। इससे भी बढ़कर रस तब आता है जब साधक अपने इष्ट को अपने प्रियजन के रूप में अनुभव करने लगता है। प्रियजनों के पास बैठने का अपना आनन्द है। ईश्वर और जीव के बीच इतना अधिक घनिष्ठ आत्मभाव है, जितना संसार के किन्हीं प्राणियों या सम्बन्धियों में नहीं पाया जाता। संसारी लोग प्रेम का मोल-तोल करते हैं। जिससे प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रतिफल मिलता है, उससे दोस्ती निबाहते हैं अन्यथा उपेक्षा एवं अवज्ञा करने लगते हैं ईश्वर के बारे में ऐसी बात नहीं, वह हमारा सच्चा प्रेमी है। निस्वार्थ भाव से हमारी पग-पग पर अपार सहायता करता है उसने जो दिया है वह इतना अधिक है जितना सृष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला। ऐसे प्रिय पात्र की समीपता में आनन्द ही आनन्द मिलना चाहिए। पति-पत्नी पास बैठकर आनन्द लाभ कर सकते हैं। मां-बेटे के बीच, मित्र-मित्र के बीच जो भावनात्मक आदान प्रदान चलता है, उससे दोनों ही पक्ष उल्लसित होते हैं। फिर सच्चा प्रेमी सच्चा मित्र, सच्चा सहयोगी परमेश्वर यदि पास में बैठे तो किस को आनन्द एवं उल्लास प्राप्त न होगा? उपासना एक आनन्द विभोर कर देने वाली भावनात्मक प्रक्रिया है। उसे यदि सही ढंग से अपनाया जा सके तो उपासक उतने स्वर्णिम अंशों में आनन्द और उल्लास से ओत-प्रोत ही रह सकता है।
हमें यह जानना ही चाहिए कि उपासना का प्रयोजन ईश्वर और जीव जैसे चेतन तत्वों में समीपता एकता की स्थापना करना है इसके लिए भावनात्मक माध्यम का प्रयोजन अनिवार्य रूप से आवश्यक है उपासना के साथ-साथ भावना को अविच्छिन्न रूप से जुड़ा ही रहना चाहिए। कर्मकाण्ड को शरीर और भावना को प्राण कहा जा सकता है। शरीर और प्राण दोनों को मिला कर ही एक समग्र व्यक्तित्व विनिर्मित होता है। इसी प्रकार सजीव उपासना वही कहला सकती है, जिसमें पूजा प्रयोग के साथ-साथ स्नेह की अभिव्यंजना भी जुड़ी हुई हो। उल्लास इस अभिव्यंजना पर ही निर्भर है। जिनके मन नहीं मिले, केवल शरीर ही समीप हैं, उन्हें मिलने का क्या आनन्द आयेगा! किन्तु यदि भावनाएं प्रबल हैं, तो शरीर के दूर रहते हुए भी मन उत्साह से भरा रहता है और कल्पना के माध्यम से भी मिलन-सुख उपलब्ध होता रहता है। इस तथ्य को भुला कर जो लोग पूजा-पत्नी का कर्मकाण्ड मात्र पूरा करते रहते हैं और भावनात्मक अभिव्यंजना का समन्वय नहीं करते उन्हें ही मन न लगने की, आनन्द न आने की शिकायत रहती है। अन्यथा वे क्षण तो हर्षोल्लास से भरे हुए ही होने चाहिए। इस सम्बन्ध में बरती गई उपेक्षा ही वह भूल है, जिसके कारण उपासना, एक बोझिल प्रक्रिया मात्र बनकर रह जाती है और आरम्भिक उत्साह शिथिल होते ही कितने लोग उसे छोड़ बैठते हैं। यदि प्रारम्भ से ही वस्तुस्थिति का ध्यान रखा जाय, सजीव उपासना क्रम अपनाया जाय—भावनात्मक तत्परता का समावेश रखा जाय—तो एक बार इस आनन्द का रसास्वादन करने के उपरान्त उपासना को छोड़ने का कोई नाम भी न ले।
उपासना एक ऐसे वटवृक्ष का बीज है, जिसकी छाया, पल्लव पुष्प फल और विशालता से सभी का सब प्रकार से हित होता है। ईश्वर की समीपता का लाभ उठाकर जीव अपनी शक्ति सामर्थ्य को अनन्त गुनी बढ़ा सकता है और महापुरुष की—भूदेव की—भूमिका सम्पादित कर सकता है। ईश्वर का सान्निध्य, अनुग्रह, प्रकाश और अनुदान जिसने प्राप्त कर लिया उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। इस उपलब्धि के फलस्वरूप क्या मिलता है, उसे वाणी से कहना और लेखनी से लिखना पर्याप्त नहीं, उसे तो अनुभव करके ही देखना चाहिए।