• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • संदर्भ और प्राक्कथन
    • आस्तिकता प्रकरण
    • आध्यात्मिकता प्रकरण
    • धार्मिकता प्रकरण
    • परिवार प्रकरण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • संदर्भ और प्राक्कथन
    • आस्तिकता प्रकरण
    • आध्यात्मिकता प्रकरण
    • धार्मिकता प्रकरण
    • परिवार प्रकरण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


आध्यात्मिकता प्रकरण

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 2 4 Last
गुणों की उपयोगिता और महत्ता

आध्यात्मिक व्यक्ति यह मानकर चलता है कि मनुष्य के विकास और प्रगति का मूल केन्द्र व्यक्ति के अन्दर ही है, बाह्य साधन और परिस्थितियां उन्हीं के सहयोग के लिए हैं। मनुष्य आंतरिक रूप से अस्त-व्यस्त और दुर्बल हो तो बाहर की कोई व्यवस्था और शक्ति साधन उसके किसी काम नहीं आ सकते। इसीलिए आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति आत्म चिन्तन, आत्म-शोधन, आत्मनिर्माण तथा आत्म विकसित के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। इसी आधार पर वे सतत विकास होते हुए श्रेष्ठता के उच्च सोपान पार करते चले जाते हैं। रामायण के पात्र भी इस दृष्टि से अनुकरणीय हैं। उनके गुण अपना-अपना महत्व रखते हैं। स्वयं राम गुणों की मूर्ति हैं। उनके राज्याभिषेक का समाचार सुनकर अयोध्यावासी कहते हैं।

तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसज्जननैः पितुः । गुणर्विरुरुचे रामो दीप्तैः सूर्य इवांशुभिः ।।

राम सभी प्रजाजनों को प्रिय हैं तथा पिता के हृदय में उनके लिये बहुत प्रेम है। गुणों से निर्मित राम किरणों सहित सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे हैं। रामायण में जगह-जगह राम के गुणों की चर्चा है। राम को वनवास देने के लिये कैकेयी ने दशरथ जी से वर मांगा तब उन्होंने राम के सम्बन्ध में कहा :—

सत्यं दानं तपः त्यागो मित्रता शौच मार्जवम् । विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे ।।

सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, प्रसन्नता, विद्या और गुरुजनों की सेवा—ये सब गुण राम में निश्चित रूप से हैं। श्री राम ने आत्मशोधन द्वारा स्वयं को कितना निर्मल बना लिया है इसका एक सुन्दर प्रमाण वन गमन प्रसंग में मिलता है। राम के वनवास की खबर सुनकर नागरिक आपस में कहते हैं।

न हि कश्चन पश्यामो राघवस्यागुणं वयम् । दुर्लभो ह्यस्य निरयः शाशाङ्कस्येव कल्मषम् ।।

हमको तो श्रीराम में कोई भी दोष देख नहीं पड़ता, प्रत्युत हम तो इनमें दोष का मिलना उसी प्रकार असम्भव समझते हैं, जिस प्रकार चन्द्रमा में मलिनता का मिलना। वनवास के समय जब राम लक्ष्मण और सीता अगस्त ऋषि के आश्रम में पहुंचे तब राम में सभी गुण होने का कारण बताते हुए महर्षि अगस्त ने कहा।

त्वयि सत्यं च धर्मश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् । तच्च सर्व महाबाहो शक्य धर्तुं जितेन्द्रियैः ।।

हे महाबाहो! आप में सत्य और धर्म आदि सब शुभ गुण विद्यमान हैं। और ये गुण उसी में ठहर सकते हैं, जो जितेन्द्रिय होता है अर्थात् अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखता है।

स्वयं लक्ष्मण राम के प्रति अपने समर्पण का मुख्य कारण उनके गुणों को ही मानते हैं। सुग्रीव के कहने पर जब हनुमान पहली बार राम लक्ष्मण से मिले तो लक्ष्मण ने परिचय देते हुए कहा :—

अहमस्यावरो भ्राता गुणैदस्यिमुपागतः । कृतज्ञस्य बहुज्ञस्य लक्ष्मणो नाम नामतः ।।

मैं इनका छोटा भाई हूं। ये कृतज्ञ और बहुज्ञ हैं। मैं इनके गुणों पर मोहित हो, इनकी सेवा किया करता हूं। मेरा नाम लक्ष्मण है। राम अपने बारे में ही नहीं अपने स्वजनों के गुणों के सम्बन्ध में भी सावधान हैं। सीता और लक्ष्मण के गुणों के विकास का उन्हें ध्यान है। वन में अगस्त्य ऋषि ने जब सीता और लक्ष्मण के गुणों की प्रशंसा की तो राम ने हार्दिक संतोष व्यक्त करते हुए कहा—

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुङ्गवः । गुणैः सभ्रातृभार्यस्य वरदः परितुष्यति ।।

मैं अपने को धन्य और अनुगृहीत समझता हूं कि, आप जैसे ऋषि श्रेष्ठ वरदाता मेरे, मेरे भाई और भार्या के गुणों से परम सन्तुष्ट हैं। ऋषि ने कोई मुंहदेखी बात नहीं कही थी। सत्य सिर चढ़कर बोलता है, गुणों की प्रशंसा वैरी भी करते हैं। यद्यपि लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक और कान काटे थे किन्तु उसने रावण को राम लक्ष्मण के बारे में बताते हुए कहा :—

भ्राता चास्यय महातेजा गुणतस्तुल्यविक्रमः । अनुरक्तश्च भक्तश्च लक्ष्मणो नाम वीर्यवान् ।

रामचन्द्र का छोटा भाई लक्ष्मण, पराक्रमी और महातेजस्वी है। गुणों में तथा पराक्रम में वह अपने भाई ही के समान है। वह अपने भाई में अनुरागवान् भी है और उनकी सेवा में भी लगा रहता है। इसी प्रकार राम की सेना को दिखाते हुए रावण का दूत उसे समझाता हुआ कहता है :—

एषोऽस्य लक्ष्मणो नाम भ्राता प्राणसमः प्रियः । नये युद्धे च कुशलः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।।

जिस पुरुष को तुम देख रहे हो, वह श्रीरामचन्द्र के प्राणसम प्यारे भाई लक्ष्मण हैं। क्या नीति, क्या युद्ध ये सब विषयों में निपुण हैं और शस्त्रधारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। गुणों के कारण हर जगह कोई न कोई सहयोगी मिल जाता है। सीता जब लंका में थी तब युद्ध के समय रावण ने राम के मारे जाने की अफवाह फैलाई। सीता दुखी हो गईं तो उन्हें समझाते हुए विभीषण की पत्नी ने उनसे कहा :—

अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन । चारित्रसुखशीलत्वात्प्रविष्टासि मनो मम ।।

हे सीते! मैंने न कभी तुमसे झूठ कहा और न कहूंगी। क्योंकि तुमने अपने शुभाचरणों के प्रभाव से मेरे मन में अपने लिये स्थान बना लिया है। गुणी और सच्चरित्र व्यक्ति को ही महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जाते हैं। जब लंका में सीता को हनुमान ने अपने राम दूत होने का विश्वास दिलाया तब सीता ने कहा :—

प्रेषयिष्यति दुर्धर्षो रामो न ह्यपरीक्षितम् । पराक्रममविज्ञाय मत्सकाशं विशेषतः ।।

यह तो जानी-बुझी बात है कि दुर्धर्ष श्री रामचन्द्र जी, बल-पराक्रम बिना जाने और परीक्षा लिये किसी को अपने दूत बना कर नहीं भेजेंगे—सो भी यहां और मेरे पास। हनुमान के गुणों की प्रशंसा करते हुए सीता ने कहा :—

बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम् । तेजः क्षमा धृतिर्धैर्यं विनीतत्वं न सशयः ।।

प्रयास, सहिष्णुता, युद्धोत्साह, शास्त्रज्ञान, शारीरिक बल, पराक्रम, सामर्थ्य, शत्रु का पराभव करने की शक्ति, अपराध सहिष्णुता, धैर्य, विनम्रता अथवा नीति का विशेष ज्ञान तुममें सब से श्रेष्ठ है—इसमें सन्देह नहीं। गुणी और शक्ति सम्पन्न व्यक्ति से ही कार्य सिद्धि की आशा की जाती है। सीता की खोज के लिये समुद्र लांघने के संबंध में जब विचार विमर्श चल रहा था तब जामवन्त ने हनुमान से कहा :—

वीर वानरलोकस्य यवशास्त्रविशारद । तूष्णीमेकान्तमाश्रित्यं हनुमन्कि न जल्पसि ।।

हे समस्त वानर कुलों में श्रेष्ठ हनुमान! हे सर्वशास्त्रविशारद! तुम अकेले और चुपचाप क्यों बैठे हो? क्यों नहीं कुछ कहते।

हनुमन्हरिराजस्य, सुग्रीवस्य समो ह्यसि । रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च ।।

हे हनुमान! तुम सुग्रीव के तुल्य हो। यही नहीं बल्कि तेज और बल में तुम्हें श्री रामचन्द्र जी और लक्ष्मण के भी बराबर समझता हूं। हनुमान ही नहीं अन्य वानर भी गुणी हैं। गुणों और बल-पराक्रम सम्पन्न व्यक्ति ही कठिन दीखने वाले कार्य सम्पन्न कर सकते हैं। सीता की खोज के लिए प्रस्तुत वानर वीरों से सुग्रीव ने कहा :—

अमितबलपराक्रमा भवन्तो विपुलगुणेषु कुलेषु च प्रसूताः। मनुजपतिसुतां यथा लभध्वं तदधिगुणं पुरुषार्थमारभध्वम् ।।

हे वानरो! तुम लोग अमित बल विक्रम वाले और बड़े गुणवान हो तथा तुम्हारा जनम उत्तम कुल में हुआ है। इस समय तुम सब ऐसा पुरुषार्थ करके दिखलाओ, जिससे श्रीरामचन्द्र जी की भार्या सीता जी मिल जायं।

ऐसे सहायकों की भगवान भी प्रशंसा करते हैं। रावण वध के पश्चात वानरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए राम ने विभीषण से कहा :—

सहैभिरजिता लङ्का निर्जिता राक्षसेश्वर । हृष्टैः प्राणभयं त्यक्त्वा संग्रामे ष्वनिवर्तिभिः ।।

हे राक्षसनाथ! इन सब ने अपनी जानों को हथेलियों पर रख, हर्षित अन्तःकरण से युद्ध किया। इन लोगों ने रण में कभी पीठ नहीं दिखलायी। इन्हीं लोगों की सहायता से मैं इस दुर्धर्ष अजेय लंका को फतह कर सका हूं। अतः यदि हम आध्यात्मिक या भौतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें गुण ग्रहण एवं दुर्गुण त्याग का प्रयास करना ही चाहिए।

मन और बुद्धि का परिष्कार

अध्यात्म मार्ग का साधक अपने मन और बुद्धि को अधिक से अधिक परिष्कृत बनाने का प्रयास करता है। मन में—उसके संकल्प में बड़ी शक्ति है, बुद्धि की दृष्टि बड़ी पैनी और दूरगामी है। यह दोनों मिलकर मनुष्य को किसी भी विपरीत परिस्थिति से उबार सकते हैं और किसी भी लक्ष्य तक पहुंचा सकते हैं।

अपने ही विकार हमारे विकास में बाधक—सबसे बड़े शत्रु सिद्ध होते हैं। मन बुद्धि के परिष्कार से ही इन्हें जीता जा सकता है। अपने आपको जीत लेना सच्चा शौर्य है। इसके बिना सारे संसार की विजय भी अधूरी है। रावण को भी इसी भूल का अनुभव हुआ। युद्ध प्रसंग में कुम्भकर्ण को जगा कर उसने कहा है—

द्विधा भज्येयमप्येवं नमेयं तु कस्यचित् । एष मे सहजो दोषाः स्वभावो दुरतिक्रमः ।।

मैं क्या करूं—मेरा यह स्वाभाविक दोष है कि, भले ही मेरे दो टुकड़े हो जायं, पर मैं किसी के सामने नवने वाला नहीं। स्वभाव होता ही दुरतिक्रम है। स्पष्ट है कि रावण अहंकार के दुष्परिणाम समझता था किन्तु उससे अपने को बचाने लिए उसने पर्याप्त पुरुषार्थ नहीं किया। इसलिए समय निकल जाने पर उसे पश्चात्ताप करना पड़ा।

विभ्रमाच्चित्तमोहाद्वा बलवीर्याश्रयेण वा । नाभिपन्नमिदानीं यद्व्यर्थास्तस्य पुनः कथाः ।।

मैंने चित्तविभ्रम से, अज्ञानवश अथवा अपने बलवीर्य के अहंकार से जो कार्य नहीं किया उसको अब बारबार कहना व्यर्थ है। गुण और दोष जानकर भी गुण ग्रहण और दोष त्याग का साहस बिरले ही कर पाते हैं। इसके लिये अपने दोष स्वीकार कर उनका निराकरण करना पड़ता है। राम के कहने पर सुग्रीव को सीता की खोज कराने का उसका दायित्व बोध कराने हेतु गये हुए लक्ष्मण से जब सुग्रीव ने अपने दोषों के बारे में बताया तब लक्ष्मण ने उनकी सराहना करते हुए कहा :—

दोषज्ञः सति सामर्थ्ये कोऽन्यो भाषितुमर्हति । वर्जंयित्वा मम ज्येष्ठं त्वां च वानरसत्तम ।।

हे वानरोत्तम! मेरे ज्येष्ठ भ्राता को और तुमको छोड़, सामर्थ्य रखने वाला कौन पुरुष ऐसा होगा जो अपने दोषों को जान कर, उन्हें अपने मुख से कहे। लक्ष्मण जी का तात्पर्य है कि झूठे अहंकार की उपेक्षा करके अपने दोषों को स्वीकार करना और उन्हें हटाना श्रेष्ठ सामर्थ्य का लक्षण है। सामान्य लोग अपमान के भय से ऐसा नहीं कर पाते और बुद्धि के निर्णय की उपेक्षा करके प्रगति के स्थान पर पतन अपना लेते हैं। उनका मत है कि कठिन से कठिन स्थिति में भी संतुलित बुद्धि का निर्णय स्वीकार करना चाहिए। उसमें यदि खतरा उठाना पड़े तो भी दुखी और विचलित नहीं होना चाहिए। जब विभीषण श्री राम की शरण में आते हैं और सब मंत्री मिलकर किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंच पाते हैं तो लक्ष्मण श्री राम से कहते हैं कि आप अपनी संतुलित बुद्धि से इस समय निर्णय करें :—

व्यसने वार्थकृच्छ्रे वा जीवितान्तके विमृशन्वै स्वया बुद्ध्या धृतिमान्नावसीदति ।।

धैर्यवान् पुरुष, स्वजन-वियोग के समय, धननाश के समय, भय उपस्थित होने पर प्राणों की शंका उपस्थित होने पर भी अपनी बुद्धि से काम लेते हैं और उसी से वे कभी दुःखी नहीं होते।

श्री राम में यह क्षमता है कि वे विपरीत परिस्थितियों में भी मन को नियंत्रण में रख सकें। लंका में जब हनुमान जी सीता जी से मिले तो वे श्री राम की कुशल पूछती हुई उनकी इस विशेषता का उल्लेख करती हैं।

धर्मापदेशात्त्यजतश्च राज्यं मां चाप्यरण्यं नयतः पदातिम् । नासीद्व्यथा यस्य न भीर्न शोकः कच्चित्स धैर्य हृदये करोति ।।

धर्म के लिए राज्य त्याग कर और मुझको साथ ले पैदल ही वन में आने पर भी, जिनका मन पीड़ित, भयभीत अथवा शोकान्वित नहीं हुआ, वे श्री रामचन्द्र इस समय हृदय में धैर्य तो रखते हैं?

लोग बहुधा दूसरे अस्थिर बुद्धि व्यक्तियों से प्रभावित होकर उचित निर्णय से डिग जाते हैं। श्री राम इस कमजोरी को समझते हैं और चित्रकूट में भाई भरत को समझाते हुए कहते हैं कि हजार बुद्धिहीनों की अपेक्षा एक समझदार को महत्व देना उचित है—

कच्चित्सहस्रान्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम् । पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्नि श्रेयस महत् ।।

तुम हजार मूर्खों को त्याग कर एक पण्डित (सलाहकार) का आश्रय ग्रहण करते हो न? क्योंकि यदि संकट के समय एक भी पण्डित पास हो तो बड़े ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है अर्थात् बड़ा लाभ होता है।

इसी प्रकार की बात सीताहरण प्रसंग में लक्ष्मण से कहते हैं। मारीच को मारने वे गये और लक्ष्मण को सीता की सुरक्षा के लिए छोड़ गये। किन्तु लक्ष्मण शंका से अधीर हुई सीता के शब्दों को महत्व देकर राम के पास चले गये। तब राम ने कहा कि तुमने यह अनुचित किया क्योंकि—

न हि ते परितुष्यामि त्यक्त्वा यद्यापि मैथिलीम् । कुद्धुायाः परुषं वाक्य श्रुत्वा यत्वमिहागतः ।

हे लक्ष्मण! तुम सीता को छोड़कर चल खड़े हुए—इस बात से मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न नहीं हूं। क्योंकि तुम क्रुद्ध स्त्री का कठोर वचन सुन यहां चले आये।

जानन्नपि समर्थ मां राक्षसां विनिवारणे । अनेन क्रोधवाक् न मैथिल्या निःसृतो भवान् ।।

आप तो यह जानते ही थे कि, राम राक्षसों को मारने में समर्थ हैं, फिर क्यों मैथिली के कठोर वचन सुन आप चल खड़े हुए।

अप्रिय प्रसंग सभी के जीवन में आते हैं, किन्तु यदि बुद्धि का संतुलन न बिगड़ने दिया जाय तो उनसे निकलने का मार्ग निकल ही आता है। रावण द्वारा हरण किये जाने पर सीता ने भी अपनी बुद्धि का संतुलन खोया नहीं। मार्ग में श्रीराम का नाम लेकर अथवा अपने वस्त्र और आभूषण गिरा कर अपने हरण के प्रमाण छोड़ती गयी। यह बुद्धिमानी बाद में बड़ी लाभदायक सिद्ध हुई।

तेषां मध्ये विशालाक्षी कौशेयं कनकप्रभम् । उत्तरीयं वरारोह शुभान्याभरणानि च ।।

उन विशालाक्षी वरारोहा जानकी जी ने सुवर्ण की तरह चमकीले चंपई रंग के वस्त्र में बांध अपने कुछ उत्तम गहनों को उन बंदरों के बीच में गिरा दिया।

लंका में भी सीता अपनी बुद्धि को संतुलित बनाये रहीं। किसी भी कार्य के करने न करने के संबंध में स्वतः ही सोच विचार कर निर्णय करना चाहिये। परिष्कृत बुद्धि ही ऐसा कर सकती है। जब हनुमान ने सीता से कहा आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये मैं आपको राम के पास ले जा सकता हूं, तब सीता ने हनुमान से कहा—

जानामि गमने शक्ति नयने चापि ते मम । अवश्यं सप्रधार्याशु कार्यसिद्धिर्महात्मनः ।।

मैं जानती हूं कि, तुममें बहुत दूर चलने और मुझको अपनी पीठ पर चढ़ा कर ले जाने की शक्ति है, किन्तु शीघ्रता पूर्वक कार्य सिद्धि होने के सम्बन्ध में मुझे स्वयं भी सोच विचार लेना आवश्यक है।

शोक संतप्त होने पर भी सीता ने हनुमान को अचानक ही अपना हितैषी नहीं मान लिया, बुद्धि संगत ढंग से परीक्षण करने के बाद ही विश्वास किया—

एवं विश्वासिता सीता हेतुभिः शोककर्शिता । उपपन्नैर भिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति ।।

शोकसन्तप्ता सीता ने अनेक कारण और श्रीराम चन्द्र लक्ष्मण जी के शारीरिक चिह्नों का यथार्थ पता पा कर, हनुमान जी की बातों पर विश्वास किया और उनको श्रीरामचन्द्र जी का दूत समझा।

किसी भी कार्य के करने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर बारीकी से सोच विचार कर समयानुसार कार्य करना चाहिये। लक्ष्मण में यह गुण था। सुग्रीव से सीता की खोज करने के बारे में राम का संदेश कहने जा रहे लक्ष्मण मार्ग में विचार करते जा रहे हैं।

यथोक्तकारी वचनमुत्तर चैव सोत्तरम वृहस्पतिसमो बुद्ध्या मत्वा रामानुजस्तथा ।।

भ्राता के वचनानुसार कार्य करने वाले अथवा भाई के वचन को पूरा करने वाले, बुद्धि में बृहस्पति के समान लक्ष्मण जी अपने मन में श्रीरामचन्द्रजी के अतिरिक्त अपनी ओर से जो कुछ और कहना था सो विचारते जाते थे।

लक्ष्मण की बुद्धि बहुत ही परिष्कृत थी। सीता के वियोग में शोकाकुल राम को समझाते हुये लक्ष्मण ने उनसे कहा—

यदि दुःखमिदं प्राप्तं काकुत्स्थ न सहिष्यसे । प्राकृतश्चाल्पसत्वश्च इतरः कः सहिष्यति ।।

हे काकुत्स्थ! यदि आप ही इस प्राप्त हुए दुःख को न सहेंगे, तो अज्ञानी और अल्पबुद्धि वाले दूसरे लोगों में कौन सह सकेगा।

हमारी बुद्धि में सही निर्णय लेने की क्षमता होती है किन्तु हम उसका ठीक-ठीक उपयोग नहीं करते और अकारण भ्रांति में फंस जाते हैं। लक्ष्मणजी श्रीराम को इस संदर्भ में सावधान करते हुए कहते हैं—

तत्वतो हि नरश्रेष्ठ बुद्ध्या समनुचिन्तय । बुद्ध्या युक्ता महाप्रज्ञा विजानन्ति शुभाशुभे ।।

हे नरश्रेष्ठ! आप अपनी बुद्धि से इसका ठीक-ठीक विचार कीजिये। क्योंकि जो बुद्धिमान होते हैं, अपनी बुद्धि से शुभ और अशुभ जान लेते हैं।

बुद्धि जब आवेश ग्रस्त हो जाती है तो उसकी ठीक-ठीक निर्णय की क्षमता लुप्त हो जाती है। अस्तु आवेश आने नहीं देना चाहिए, किन्तु यदि आ जाय तो उस स्थिति में कोई महत्वपूर्ण निर्णय अथवा कार्य नहीं करना चाहिए। आवेग शान्त होने तक रुकना चाहिए। वालि वश के उपरांत जब राम और लक्ष्मण प्रवर्षण पर्वत पर रहे थे तब राम के विचलित होने पर लक्ष्मण ने उन्हें समझाया—

किमार्य कामस्य वशंगतन किमात्मपौरुष्यपराभवन । अय सदा संहियते समाधिः किमत्र योगेन विनर्तितेन ।।

हे भाई! आप जो काम के वश में हो, आत्मपौरुष को त्याग बैठे हैं, सो यह आप क्या करते हैं? आपके चित्त की स्थिरता नष्ट हुई जाती है। सो क्या आप इसका निवारण नहीं कर सकते?

उसी समय सीता के वियोग में व्याकुल हो राम क्रोधित हो गये, लक्ष्मण ने उन्हें शांत करते हुये कहा—

नियम्य कोपं प्रतिपाल्यतां शर- त्क्षमस्व मासांश्चतुरो मया सह । वसाचलेऽस्मिन्मृगराजसेविते संवर्धयन्शत्रु वधे समुद्यमम् ।

आप क्रोध को रोक कर, शरत्काल तक शान्त रहिये और वर्षा ऋतु भर मेरे साथ इस मृगराजसेवित पर्वत पर रहिये, तदनन्तर शत्रुवध की तैयारी कीजियेगा। मनुष्य के लिए उचित है कि सही निर्णय लेने की अपनी क्षमता बनाये रखे किन्तु मन में इस बात का अहंकार न आने दे। तथा दूसरे समझदार व्यक्तियों से भी परामर्श किया करे। श्रीराम में यह गुण था वनवास के समय लक्ष्मणजी राम के प्रति यही भाव व्यक्त करते हुए उनसे कहते हैं—

न त्वां प्रव्यथयेद्दुःखं प्रीतिर्वा न प्रहर्षयेत् । सम्मतश्चासि वृद्धानां तांश्च पृच्छसि सशयान् ।।

न तो आपको दुःख दुःखी कर सकता है और हर्ष हर्षित कर सकता है। सब बड़े बूढ़े आपको मानते हैं, तथापि धर्म के विषय में सन्देह होने पर उन लोगों से पूंछा करते हैं।। अधूरे मन से कार्य करने वाले अथवा बुद्धिहीन व्यक्ति समर्थ होने पर भी कार्य में सफल नहीं होने पाते। बड़े कार्य सदैव मनोयोग पूर्वक तथा बुद्धिमानी से ही सम्भव है। श्री राम के सर्व श्रेष्ठ भक्त और सहायक हनुमान जी में यह विशेषतायें हैं। समुद्र लांघने के लिए तैयार हनुमान के सम्बन्ध में कहा गया है :—

स वेगवान्वेगसमाहितात्मा हरि प्रवीरः पर वीरहन्ता । मनः समाधाय महानुभावो जगाम लङ्का मनसा मनस्वी ।।

शत्रुहन्ता, वेगवान, मनस्वी, महानुभाव और कपिश्रेष्ठ हनुमान जी सागर लांघने का दृढ़ विचार कर, मन से लंका में पहुंच गये।

हनुमान जी अपने कार्य में सफल हो सकेंगे या नहीं इस शंका के समाधान हेतु देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने के लिये सुरसा को भेजा। परीक्षा में उत्तीर्ण हनुमान की प्रशंसा करते हुए सुरसा ने कहा—

साधयार्थमभिप्रेतमरिष्टं गच्छ मारुते । यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव ।। धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ।

अब तुम निर्विघ्न हो अपना कार्य सिद्ध करो। हे वानरेन्द्र! तुम्हारी तरह जिसमें धीरता, सूक्ष्मदृष्टि, बुद्धि और चतुराई, ये चार गुण होते हैं, वह कभी किसी काम के करने में नहीं घबड़ाता। ये चारों गुण तुममें मौजूद हैं।

हनुमान को आगे चलकर पग पग पर अपनी बुद्धि का उपयोग करना आवश्यक हो गया। लंका की सुरक्षा व्यवस्था एवं सतर्क रक्षकों को देख हनुमान ने अपने मन में सोचा—

उग्रौजसो महावीर्या बलवन्तश्च राक्षसाः । वञ्चनीया मया सर्वे जानकीं परिमार्गता ।।

तब मुझे, जानकी जी का पता लगाने के लिए, इन सब महाबली और महापराक्रमी राक्षसों को धोखा देना होगा।

हनुमान के सारे कार्यों में उनके बल, पराक्रम के अलावा उनकी सतर्कता एवं बुद्धिमत्ता का भी परिचय मिलता है। वे प्रतिक्षण अपने कार्य के संबंध में विचार कर उचित निर्णय लेते हैं—

भूताश्चार्था विपद्यन्ते देशकालविरोधिताः । विक्लब दूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा ।।

देश और काल के प्रतिकूल कार्य करने वाला और कादर दूत, बने बनाए कार्य को उसी प्रकार नष्ट कर डालता है, जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को।

अर्थानर्थान्तरे बुद्धिर्निनिश्चताऽपि न शोभते । घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः ।।

कर्त्तव्याकर्त्तव्य के विषय में निश्चित कर लेने पर भी, ऐसे दूतों के कारण कार्य की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि वे अपनी बुद्धिमानी के अभिमान में चूर हो, कार्यों को बना कर उन्हें बिगाड़ डालते हैं।

न विनश्येत्कथं कार्य वैक्लव्यं न कथं भवेत् । लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न भवेद्यथा ।।

अतः अब किस उपाय से मैं काम लूं जिससे न तो कार्य ही बिगड़े, और न मुझमें कादरता आवे। साथ ही मेरा समुद्र लांघना वृथा भी न हो।

इस प्रकार बिना भयभीत या उद्विग्न हुए हनुमान जी ने उचित योजना बनायी, अपनी शक्ति के अहंकार में कुछ भी कर डालना उचित नहीं समझा। लंका में समझदारी से प्रवेश किया।

उद्वारेण महाबाहुः प्राकारमभिपुप्लुवे निशि लंका महासत्वो विवेश कपिकुञ्जरः ।

महाबली होते हुए भी हनुमान जी ने द्वार से न जाकर रात्रि के समय परकोटे की दीवाल फांदी और लंका प्रवेश किया।

माता सीता की खोज में हनुमान को लंका में सोती हुई स्त्रियों को देखना पड़ता है। किन्तु उनकी बुद्धि वहां भी सावधान है और मन नियंत्रण में रहता है। वे अपने कार्य के औचित्य पर विचार करते हुए सोचते हैं :—

निश्चितैकान्तचित्तस्य कार्यनिश्चयदर्शिनी । कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः ।। नाहि मे मनसः किञ्चिद्वैकृत्यमुपपद्यते । मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने ।। शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् । नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम् ।।

उनके मन में स्थिरता और निश्चय पूर्वक यह बात आई कि यद्यपि मैंने इन स्त्रियों को देखा, तथापि मेरे मन में तिलभर भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। फिर मन ही तो पाप और पुण्य करने वाली सब इन्द्रियों का प्रेरक है। सो वह मन मेरे वश में है। अतः मुझे सोती हुई पराई स्त्रियों के देखने का पाप नहीं लग सकता। फिर अन्यत्र मैं सीता को ढूंढ़ भी तो कहां सकता था।

परिष्कृत मन और बुद्धि के स्वामी होने के कारण ही हनुमान जी को अद्भुत सफलता मिली उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हुए सीता ने कहा।

विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम । येनेदं राक्षसपदं त्वयैकेन प्रधर्षितम् ।।

सीता जी कहने लगीं—हे कपिश्रेष्ठ! तुमने अकेले ही रावण की राजधानी को सर कर लिया—इससे जान पड़ता है कि तुम कोरे पराक्रमी और शरीर बल सम्पन्न ही नहीं हो, बल्कि बुद्धिमान् भी हो।

मन आवेशग्रस्त हो या अवसादग्रस्त दोनों ही स्थितियों में हानिकारक है। इस संदर्भ में समुद्र किनारे बैठे बन्दरों को सावधान करते हुए जामवन्त ने कहा—

न विषादे मनः कार्यं विषादो दोषवत्तमः । विषादो हन्ति पुरुषं बालं क्रुद्ध इवोरग ।।

हे वानरो! विषाद मत करो, क्योंकि विषाद अत्यन्त दोषकारक है। क्रुद्ध सर्प जिस प्रकार बालकों को मार डालता है उसी प्रकार विषाद भी पुरुषों को मार डालता है।

हमारी मनोभूमि और चिन्तन की स्थिति ही हमारे दुख का कारण है। वनवास प्रसंग में मां कौशल्या को दुखी देखकर श्री राम लक्ष्मण जी को समझाते हुए कहते हैं।

मम मातुर्महद्दुःखमतुलं शुभलक्षण । अभिप्राय मविज्ञाय सत्यस्य च शमस्य च ।।

हे शुभ लक्षण युक्त लक्ष्मण सत्य और शम का अभिप्राय न समझ पाने के कारण मेरी मां को अतुलनीय और महान दुःख हो रहा है।

इसलिए बुद्धि के सहारे मन और इन्द्रियों को वश में रखने का निर्देश रामायण देती है—

इन्द्रियाणां प्रदुष्टानां हयानामिव धावताम् । कुर्वीत धृत्या सारथ्यं सहृत्येन्द्रियगोचरम् ।।

इन्द्रियां दुष्ट घोड़ों की तरह विषयों की ओर दौड़ा करती हैं। अतः उन इन्द्रियरूपी घोड़ों को सारथी रूपी बुद्धि से अपने अधीन कर, उनका सन्मार्ग पर चलाना चाहिए। यदि इसमें ढील बरती गयी तो मनुष्य का अंतःकरण सदाचार की मर्यादा तोड़कर दुराचार में प्रवृत्त हो जाता है। और उस स्थिति में वही अपना सबसे भयंकर शत्रु सिद्ध होता है। ग्रन्थकार का मत है :—

न तत्कुर्यादसिस्तीक्ष्णः सर्पो वा व्याहतः पदा । अरिर्वा नित्यसंक्रुद्धो यथाऽऽत्मा दुरनुष्ठितः ।।

दुराचार से बिगड़ा हुआ आत्मा जैसा अनिष्ट किया करता है, वैसा अनिष्ट तेज धार वाली तलवार, पैर से कुचला हुआ सांप अथवा अत्यन्त क्रोधी शत्रु भी नहीं कर सकता। अतः हमें सावधानी पूर्वक मन और बुद्धि के परिष्कार पर ध्यान देना चाहिये तभी आध्यात्मिकता के मार्ग पर प्रगति तथा सांसारिक जीवन में सफलता की उपलब्धि संभव हो सकेगी।

संत असंत देव-दानव—

संत और असंतों को अथवा देव दानवों की बाह्य वेष भूषा के आधार पर नहीं गुण कर्म स्वभाव के आधार पर पहचाना जाता है। असुरों के वीभत्स रूप जो चित्रित किए जाते हैं वे उनके भावनात्मक प्रतीक हैं—उन्हें विवेक की दृष्टि से देखा जाय तो वे ऐसे ही भयंकर हैं। अन्यथा रूप की दृष्टि से तो असुर एक से एक सुन्दर होने के प्रमाण मिलते हैं। स्वरूप और वेषभूषा से असज्जन की पहचान भी नहीं हो सकती, धोखेबाज चार सौ बीस एक से एक सुन्दर स्वरूप बना कर घूमते हैं। यही बात संत-असंत तथा देव-दानवों पर लागू होती है। रावण को समझाते हुए माल्यवान कहता है—

सुराणामसुराणां च धर्माधर्मौ तदाश्रयौ । धर्मो हि श्रूयते पक्षौ ह्मराणां महात्मनाम् ।।

अर्थात् देवता और असुर क्रमानुसार धर्म और अधर्म इन दोनों के आश्रय-भूत पक्ष हैं। सुना जाता है कि महात्मा देवताओं का धर्म का पक्ष है।

धर्म और अधर्म का आचरण करने में तो हम स्वतंत्र हैं किन्तु उसका परिणाम नियमानुसार ही होता है। हमारे आचार व्यवहार और वाणी से आंतरिक भावनाओं का पता लग ही जाता है। संत के लक्षण असंत से भिन्न होते हैं। शरण में आये विभीषण के बारे में राम इसी आधार पर निर्णय करते हैं। वे कहते हैं—

अशङ्किमतिः स्वस्थो न शठः परिसर्पति । न चास्य दुष्टा वाक्चापि तस्मान्नस्तीह संशयः ।।

जो धूर्त होता है वह निर्भीक और स्थिर चित्त होकर नहीं आता। इसकी बोली में भी मुझे कोई दोष नहीं जान पड़ता। अतएव मुझे तो उस पर कुछ भी सन्देह नहीं है।

स्पष्ट है कि देव और असुर शरीर से नहीं अपने गुणों के कारण माने जाते हैं रावण का वर्णन करते हुये वाल्मीकि जी कहते हैं।

क्षेप्तारं पर्वतेन्द्राणां सुराणां चा प्रमार्दनम् । उच्छेत्तारं च धर्माणां परदाराभिमर्शनम् ।।

वह बड़े-बड़े पर्वतों को उखाड़ कर फेंकने वाला, देवताओं को मर्दन करने वाला, सब धर्मों की जड़ काटने वाला, परस्त्री गामी था।

कर्कशं निरनुक्रोश प्रजानामहिते रतम् । रावणं सर्वभूतानां सर्वलोकभयावहम् ।।

रावण कर्कश, दयाशून्य, प्रजाजनों का अहित करने वाला, सब प्राणियों और सब लोकों को भयभीत करने वाला था।

रावण अपनी इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के कारण राक्षस की कोटि में गिना गया। हीन आचरण युक्त हर व्यक्ति की निन्दा होती है। कैकेयी राजा दशरथ की पत्नी तथा भरत जैसे पुत्र की मां थी, किन्तु उसकी भर्त्सना किसी से कम नहीं हुई। कारण यही कि उसने जानबूझ कर संतों-देवों के अनुरूप धर्मानुकूल न्याय संगत मार्ग की उपेक्षा की। राम-वन-गमन प्रसंग से जब राजा दशरथ ने उसके वरदान मांगने पर कहा कि यह धर्म संगत नहीं तो उसने औचित्य को नहीं अपने स्वार्थ को ही प्रधानता देते हुए कहा—

भवत्वधर्मो धर्मो वा सत्यं वा यदि वाऽनृतम् । यत्त्वया संश्रुतं मह्यं तस्य नास्ति व्यतिक्रमः ।।

अब चाहे धर्म हों या अधर्म, चाहे सत्य हो चाहे झूठ आपने मुझ से जो कुछ सुना है (मैंने जो वरदान तुमसे मांगा है) उसके विपरीत कुछ नहीं हो सकता।

श्रेष्ठ और हींन मार्ग, धर्म और अधर्म समझ में तो सबकी आ जाता है पर उसके अनुरूप आचरण में चून ने से ही व्यक्ति का पतन होता है। संत बनने, देव पक्ष में जाने के लिए रूप और शरीर नहीं, श्रेष्ठ मार्ग अपनाने योग्य सत्साहस की आवश्यकता होती है।

सत्संग और कुसंग का प्रतिफल—

हर जीव में वातावरण से प्रभावित होने का गुण होता है। सत्संग से सद्गुणों और कुसंग से दुर्गुणों की प्राप्ति होती है। शबरी, महर्षि मातंग और जिन महात्माओं के आश्रम के समीप रहती थी उसमें उन महात्माओं ने न होने पर भी वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव विद्यमान था। उस आश्रम को देख राम ने लक्ष्मण से कहा—

दृष्टोऽयमाश्रमः सौम्य बह्वाश्चर्यः कृतात्मनाम् । विश्वस्तमृगशार्दूलो नानाविहग सेवितः ।।

हे सौम्य! मैंने उन महात्माओं का यह आश्रम देखा। यहां तो अनेक आश्चर्यमय वस्तुयें देख पड़ती है। देखो यहां पर हिरन और सिंह तथा अनेक पक्षी आपस का वैर भाव त्याग कर बसे हुये हैं।

संसार की हर जड़ चेतन वस्तु में गुण और दुर्गुण विद्यमान है, तामसी पदार्थों के सेवन से तमोगुण की वृद्धि और सतोगुण का ह्रास होता है। राम के कहने पर सुग्रीव को समझाने को गये हुये लक्ष्मण ने तारा से कहा—

न हि धर्मार्थासिद्ध्यर्थं पानमेव प्रशस्यते । पानादर्थश्च धर्मश्च कामश्च परिहीयते ।।

धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिये शराब पीना अच्छा नहीं है। क्योंकि शराब पीने से धर्म, अर्थ और काम नष्ट हो जाते हैं।

कुसंग के प्रभाव से व्यक्ति राक्षस हो जाता है तथा उसकी सारी विभूतियां दूसरों के उत्पीड़न में ही लगती हैं तथा उसे इसका दण्ड सर्वनाश के रूप में भोगना ही पड़ता है। मेघनाद द्वारा अशोक वाटिका से बांध कर ले जाये गये हनुमान ने जब रावण को देखा तब उन्होंने अपने मन में सोचा—

यद्यधर्मो न बलवान्स्यादयं राक्षसेश्वरः । स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता ।।

हां! यदि यह कहीं ऐसा पापाचारी न होता, तो यह राक्षसराज इन्द्र सहित देवताओं का भी रक्षक हो सकता था।

इस तरह कुसंग के कारण अधर्माचरण करने वाले रावण का पतन हुआ। क्या हम इससे कुछ सबक लेंगे?

मनुष्य जीवन का सदुपयोग—

मानव जीवन ईश्वर का अमूल्य उपहार है। आत्मा मानव देह पाकर ही अपने उद्धार का उपाय कर सकती है। देह रहित आत्मा कुछ नहीं कर सकती। रामायण में इसके बारे में कहा गया है—

सर्वेषां देहहीनानां महद्दुःखं भविष्यति । लुप्यन्ते सर्वकार्याणि हीनदेहस्य वै प्रभो ।।

हे प्रभो! देह न होने से बड़ा कष्ट है क्योंकि देह रहने ही से सब काम किये जा सकते हैं। अथवा देहहीन मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता।

मनुष्य देह सौभाग्य से मिलती तो है किन्तु निश्चित समय के लिए ही। मनुष्य अपनी समय की मर्यादा भूलकर उसका लाभ उठाने की जगह मौज मजे में बिताने लगता है। वह भूल जाता है कि जीवन की अवधि समाप्त होती जा रही है। यह तथ्य बराबर याद रखने का संकेत देते हुए ग्रंथकार ने लिखा है—

नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमिते रखौ । आत्मनो नावबुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम् ।।

मनुष्य सूर्य के उदय होने पर और अस्त होने पर नित्य ही प्रसन्न होते हैं, किन्तु इससे उनकी आयु घटती है—इस बात को वे नहीं समझते।

मृत्यु की कल्पना से भयभीत नहीं होना चाहिए, बल्कि कर्तव्य बोध होना चाहिए। क्योंकि वह जीवन की सखी है सहयोगिनी है

सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति । गत्वा सुदीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते ।।

मौत मनुष्य के साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और दूर जाने पर भी साथ नहीं छोड़ती और साथ जाकर साथ ही लौट भी आती है।

श्री राम भारतजी को चित्रकूट में यही स्मरण दिलाते हुए उन्हें आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देते हैं।

आत्मानमनुशोच त्वं किमन्यमनुशोचसि । आयुस्ते हीयते यस्य स्थितस्य च गतस्य च ।।

अतः हे भरत! तुम अपने लिए (अर्थात् अपने आत्मा के उद्धार के लिये) सोचो तो सोचो, दूसरों के लिये सोच क्यों करते हो? आयु तो सभी को खटाती है, चाहे कोई बैठा रहे, चाहे चला फिरा करे।

मनुष्य सुख की आकांक्षा रखता है, यह अस्वाभाविक नहीं, किन्तु आत्मिक सुख ही स्थायी है अन्य तो अस्थायी हैं, क्षणिक हैं। अस्तु ग्रन्थकार आत्मिक सुख के लिए प्रयास करने की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं—

वयसः पतमानस्य स्रोतसो वाऽनिवर्तिनः । आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजाः स्मृताः ।।

जिस प्रकार नदी की धारा आगे ही बढ़ती जाती है, पीछे नहीं लौटती, उसी प्रकार आयु केवल जाती ही है अर्थात् घटती ही है, और आती नहीं अर्थात् बढ़ती नहीं। अतः यह देख कर आत्मा को सुख देने वाले सत् कार्यों में लगना उचित है। सुख की आकांक्षा सभी के मनों में होती है।

सांसारिक सुख तो सामान्य घटनाओं से छिन्न-भिन्न होने लगते हैं। संयोग और वियोग साथ-साथ लगे हैं। संसार का नियम ही ऐसा है कि इनसे बचकर नहीं रहा जा सकता—

एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च धनानि च । समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवो ह्येषां विनाभवः ।।

जिस प्रकार महासागर में अन्य स्थानों से बह कर आयी हुई दो लकड़ियां एक स्थान पर पहुंच कर मिल जाती हैं और फिर काल पा पृथक् हो इधर उधर बहती चली जाती हैं, इसी प्रकार भार्या, पुत्र, भाईबन्द और धन सम्पत्ति जो आकर अपने को मिलते हैं, इन सब का कालान्तर में वियोग होना भी निश्चय ही है।

अतः सांसारिक सम्बन्धों के प्रति मोह न होने देना ही श्रेयस्कर है। मोह में पड़कर व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को भूलने लगता है। यह मर्म लक्ष्मणजी समझते हैं। सीता जी को वाल्मीकि आश्रम में छोड़ कर लौटते समय वे सुमन्त्र को समझाते हुए कहते हैं—

तस्मात्पुत्रेषु दारेषु मित्रेषु च धनेषु च । नातिप्रसंग कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्ध्रुवम् ।।

अतः एक न एक दिन पुत्रों, कलत्रों और मित्रों एवं धन ऐश्वर्य से तो अलग होना ही पड़ता है। सो इनमें अधिक अनुरक्त होना ठीक नहीं।

यह कल्पना करना भूल है कि श्रेष्ठमार्ग पर चलने से कोई दुःख प्रसंग नहीं आयेगा, वह तो स्वाभाविक रूप से सभी के जीवन में आते ही हैं। उनसे विचलित होकर श्रेष्ठ मार्ग नहीं छोड़ देना चाहिए। राम के जीवन में भी दुःख के प्रसंग बहुतायत से आये। दुर्वासा ऋषि ने उन्हें इस संदर्भ में पहले ही सावधान कर दिया था। सुमन्त्र को यह विदित था। उन्होंने लक्ष्मण जी को बतलाया कि ऋषि दुर्वासा ने पहले ही यह कहा था कि—

भविष्यति दृढं रामो दुःखप्रायो विसौख्यभाक् । प्राप्स्यते च महाबाहुर्विप्रयोगं प्रियैर्द्रुतम् ।।

श्रीरामचन्द्रजी प्रायः दुःखी ही रहेंगे और उन्हें सुख नहीं मिलेगा। उनको अपने प्यारे जनों से शीघ्र ही वियोग होगा। अतः सुख-दुःख और संयोग-वियोग पर विशेष ध्यान न देकर अपने कर्त्तव्य पालन पर ही अटल रहना चाहिये।

राम ने यही आदर्श उपस्थित किया। वे सुख-दुःख के प्रसंगों से अप्रभावित रहकर अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में हर क्षण सतर्कता पूर्वक लगे रहे। वन गमन प्रसंग में वे मात कैकेयी से कहते हैं—

शारीरो मानसो वाऽपि कच्चिदेनं न बाधते । सन्तापो वाऽभितापो वा दुर्लभं हि सदा सुखम् ।।

हे माता! शारीरिक एवं मानसिक ताप किसे पीड़ित नहीं करते, सदा सुख ही सुख मिलना दुर्लभ है।

अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को ठीक प्रकार निर्वाह करने वाले को मृत्यु भी भयभीत नहीं कर पाती। वह स्वाभाविक रूप से कर्तव्य शृंखला में ही उसे अपना लेता है। लिखा है—

यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद्भयम् । एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्भयम् ।।

जिस प्रकार पके हुए फल को गिरने से डरना न चाहिये—उसी प्रकार उत्पन्न हुए नर को मरण से डरना न चाहिये। अर्थात् पका हुआ फल गिरना ही है और जो पैदा हुआ है वह मरता ही है।

जीवन को उद्देश्य पूर्ण आदर्श ढंग से जीना तथा मृत्यु को प्रसन्नता से स्वीकार कर लेना मनुष्य के लिए शोभनीय है। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन में यही आदर्श उपस्थित किया है। उनके महा प्रयाण प्रसंग में लिखा है—

कस्यचित्तवथ कालस्य रामे धर्मपरे स्थिते । कालस्तापसरूपेण राजद्वारमुपागमत् ।।

इस प्रकार धर्म पूर्वक राज्य करते-करते कुछ समय और बीतने पर तपस्वी का रूप धारण कर, काल राजद्वार पर आया।

यदि हमने अपने कर्तव्य का पालन कर लिया तो हमारा जीवन सार्थक माना जावेगा।

गुरु का महत्व और स्वरूप—

हमारे जीव में गुरु का असाधारण महत्व है। राम को मनाने चित्रकूट गये हुये भरत से कुशल प्रश्न करते हुये राम ने कहा कि तुम अपने आचार्य का यथेष्ट सम्मान करते हो कि नहीं, क्योंकि—

पिता ह्येनं जनयति पुरुषं जनयति पुरुषर्षभ । प्रज्ञां ददाति चाचार्यस्तस्मात्स गुरुरुच्यते ।।

हे पुरुषश्रेष्ठ! पिता माता तो केवल शरीर को जन्म देते हैं, और आचार्य बुद्धि देता है। अतः वह गुरु कहलाता है।

योग्य गुरु के निर्देशन में चलने वाले को भौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के कर्मों में सफलता मिलती है। वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में दशरथ के राज्य का वर्णन करते हुये बताते हैं—

दैवं च मानुषं चापि कर्म तो साध्वनुष्ठितम् । वसिष्ठं च संमागम्य कुशलं मुनिपुङ्गवः ।।

राजा दशरथ अपने दैवी और मानुषी सभी कार्य मुनि श्रेष्ठ और कुशल वशिष्ठजी के निर्देशानुसार सम्पन्न करते हैं।

गुरु की महत्ता के अतिरिक्त शिष्य की योग्यता भी आवश्यक है। योग्य गुरु सदैव योग्य शिष्य की खोज में रहते हैं। जब यज्ञ रक्षार्थ राक्षसों को मारने के लिये राम और लक्ष्मण को ले जाने के लिये विश्वामित्र अयोध्या पधारे तथा उनने राजा से दोनों पुत्रों को मांगा तो राजा के आनाकानी करने पर वसिष्ठ ने उन्हें समझाया—

तेषां निग्रहणे शक्तः स्वयं च कुशिकात्मजः । तव पुत्रहितार्थाय त्वामुपेत्याभियाचते ।।

ये विश्वामित्र जी स्वतः उन राक्षसों को मारने में समर्थ हैं किंतु तुम्हारे पुत्रों की हित कामना से ही ये तुम से तुम्हारे दोनों पुत्रों की याचना कर रहे हैं। किन्तु पात्रता के बिना विभूतियों का मिलना असम्भव है। ताड़का वध के उपरांत राम का पराक्रम और उनकी क्षमता देख देवताओं ने विश्वामित्र से कहा—

तपोबलभृतान् ब्रह्मन् राघवाय निवेदय । पात्रभूतश्च ते ब्रह्म स्तवानुगमने धृतः ।

हे ब्रह्मन् आप अपने तपोबल द्वारा उपलब्ध सभी विभूतियां राम को सौंप दीजिये ये योग्य पात्र विभूतियां धारण करने में समर्थ एवं आपके अनुगामी हैं।

इस तरह सद्गुरु एवं सुपात्र शिष्य के मिलन से ही कार्य सिद्धि होती हैं।
First 2 4 Last


Other Version of this book



वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
Language: HINDI
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • संदर्भ और प्राक्कथन
  • आस्तिकता प्रकरण
  • आध्यात्मिकता प्रकरण
  • धार्मिकता प्रकरण
  • परिवार प्रकरण
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj