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Books - विवेक की साधना और सिद्धि

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Language: HINDI
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विवेक की साधना और सिद्धि

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(४ जून, १९६९ गायत्री तपोभूमि, मथुरा)

सात्विकता से सिद्धि
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

    देवियो, भाइयो! महात्मा आनंद स्वामी ने एक बार एक व्यक्ति से कहा था कि तू जब तक अनीति द्वारा कमाया हुआ धन खाएगा, तेरी प्रगति और बुद्धि नष्ट होती चली जाएगी। अतः हमें सात्विक अन्न खाना चाहिए। अन्नमय कोश की साधना के लिए आपको विशेष रूप से यह विचार करना होगा कि आपका आहार सात्विक है या नहीं। यहाँ अन्न से मतलब आजीविका से है। आजीविका शुद्ध होनी चाहिए। आजीविका ठीक होगी, तो मन भी ठीक होगा। मनुष्य के जीवन में आजीविका का अपना महत्त्व है। अन्न का अपना महत्त्व है। यदि ये शुद्ध होंगे, तो साधना से सिद्धि मिलने में देर नहीं होगी। सात्विकता से सिद्धियाँ स्वतः आती हैं।

    एक तपस्वी महात्मा जी थे। वह एक पेड़ के नीचे बैठे थे कि एक चिड़िया ने बीट कर दिया। उन्होंने उसकी ओर देखा और वह जलकर भस्म हो गयी। महात्मा जी को अपनी सिद्धि पर अहंकार हो गया था। एक दिन वे एक गाँव में गए और एक महिला से भीख माँगने लगे। महिला ने कहा कि आप थोड़ी देर रुकें। थोड़ी देर बाद भी जब वह नहीं आयी, तो महात्मा जी ने आवाज लगायी। महिला बोली कि इस समय हम योगाभ्यास कर रहे हैं। पति की सेवा करना, खाना खिलाना, बच्चों को स्कूल भेजना-यह मेरा योगाभ्यास है। जब यह खत्म हो जाएगा, तो हम आपकी सेवा करेंगे।

    महात्मा जी नाराज हो गए और उसे शाप देना चाहा। महिला बोली कि महात्मन्! हम चिड़िया नहीं है, जो आप हमें जला देंगे। महिला के इस कथन से महात्मा जी को आत्मग्लानि हुई और वे सोच में पड़ गए। उन्होंने पूछा कि तुम कैसे जानती हो कि यह घटना घटित हो चुकी है। महिला बोली कि मैं पति को ही परमेश्वर मानकर उनकी सेवा करती हूँ, जो हमारे लिए भोजन-वस्त्र की व्यवस्था करते हैं, देखभाल करते हैं। यह उसी का परिणाम है। महात्मा जी को उसने एक और गुरु के पास भेजा। वे बनिया के पास गए। वह प्रातःकाल से सायं तक पूरे परिश्रम और ईमानदारी से अपनी दुकानदारी करता था। यही उसका नित्य का योगाभ्यास था। इसके बाद महात्मा जी एक और व्यक्ति के पास गए। वह भी ईमानदारी के साथ अपने कर्त्तव्य-कर्म-सफाई के काम मे लगा रहता। शाम को माता-पिता की सेवा करता। उसने भी महात्मा जी को बतलाया कि देखा हमारा योगाभ्यास। हमारी यही है ईमानदारी का योगाभ्यास, परिश्रम का योगाभ्यास।

तप में बल आहार साधना से

    वस्तुतः ये तीनों ही शुद्ध अंतःकरण वाले व्यक्ति थे। पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना या पढ़ा होगा आपने। उनके जीवन में जो भी चमत्कार होता चला गया, वह उनके सात्विक आहार का था। तपस्या-उपासना में जो बल देता है, उसका नाम अन्न है। यह सात्विक होना चाहिए। इससे मन पवित्र, स्थिर और शांत रहता है। अगर आपका मन ठीक नहीं रहता है, तो साधना-उपासना का मूल आप समझ नहीं पाये हैं, तपस्या का मूल आप समझ नहीं पाये। फिर मैं आपको कैसे समझा सकता हूँ, जब आपके दिमाग में कूड़ा भरा पड़ा है। उस गंदगी को आपके दिमाग से हम कैसे साफ कर सकते हैं। इसकी सफाई आपको स्वयं ही करनी होगी।

    मित्रो! हमारा मन साधना-उपासना में बहुत लगता है। इसमें हमें जो आनंद आता है, उसका वर्णन हम नहीं कर सकते हैं। आपका भी मन लगे, इसके लिए आपको अन्न की सात्विकता अपनानी होगी, तभी प्रगति हो सकती है। हमने चौबीस साल तक अपनी जीभ को साधा तथा सात्विक अन्न का सेवन किया। आप अपने को साधना नहीं चाहते हैं, तो उपासना के क्षेत्र में आगे कैसे बढ़ेंगे? एक दिन हमने आपको आहार-विहार के बारे में बताया था, साथ ही यह भी चर्चा की थी कि समय का विभाजन करें और समय का मूल्य समझें। अगर आप अपनी जीभ को साध लें, तो चमत्कार उत्पन्न हो जाएगा। आहार-विहार के असंयम के कारण ही बीमारियाँ आपको घेरे रहती हैं। इसी के कारण अभी तक आप छोटे आदमी बने रहे।

व्यवहार की सिद्धियाँ

    मित्रों, चंद्रभान नामक एक व्यक्ति भारत-पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान से यहाँ आये थे। वे वहाँ पर एक टेलीफोन आपरेटर थे। यहाँ आने पर उन्होंने अपने कागज वगैरह दिखाया, तो उनको भारत में नौकरी मिल गयी। आज बीस वर्ष बाद वे इसी विभाग के डायरेक्टर बनकर उच्चतम पोस्ट पर पहुँच गये। मित्रो यही सिद्धि है। यह कैसे मिली? यह उनके व्यवहार, परिश्रम तथा सात्विक आचार-व्यवहार के कारण मिली और वे प्रगति-पथ पर आगे बढ़ सके। उन्होंने उपासना के साथ साधना भी की, जिसका लाभ उन्हें मिल गया। वे ऑपरेटर के साथ-साथ विभाग के अन्य पेंडिंग कार्य को भी पूरा करते रहे। उनके विभाग के लोग उनके कार्य एवं व्यवहार से प्रसन्न रहते थे।

    मित्रो, जब हम आगरा में प्रेस में काम करते थे, वहाँ एक हमारे मित्र थे, जो कहते थे कि काम ऐसा करो कि मालिक के हाथ-पैर तोड़कर रख दो। हमने कहा कि आप हमें जेल भिजवाएँगे क्या? उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह है कि मालिक का सारा कामकाज अपने जिम्मे ले लो, तो मालिक आप पर निर्भर हो जाएगा, साथ ही आपकी इज्जत भी करेगा।  चंद्रभान जी, जिनके बारे में अभी मैंने बताया, वे इसी प्रकार अपने ऑफीसर के हाथ-पैर तोड़ते चले गए। आगे जब कभी मौका आता था, तब अपने अफसर से कहते कि हमारा प्रमोशन नहीं हो सकता? अफसर कहता था अवश्य होगा। वे परीक्षा में बैठते और ऑफीसर उनका सहयोग कर देता था। इस प्रकार उनकी प्रगति होती चली गयी। उनका पहनावा-ड्रेस भी बहुत सीधा-सादा था। लोगों को उनकी सादगी से प्रेम था।

    मित्रो! मैं आपको अभी व्यवहार की सिद्धियाँ बता रहा था। आहार की सिद्धियाँ बता रहा था कि आप अपनी जबान पर काबू पाइए तथा सबके मित्र बनते चले जाइए। पिछले दिनों हमने आपको बतलाया भी था कि जब हम अज्ञातवास में गए थे तो एक साल तक केवल शाक-भाजी पर जिंदा रहे। आप तो आडंबर में आकर न जाने क्या-क्या खाते चले गए। आपने प्राकृतिक चिकित्सा की पुस्तकें भी पढ़ीं, परंतु आपने कभी भी उस पर चलने का प्रयास नहीं किया। आपने समय का संयम भी नहीं किया। इस कारण आप उन्नतिशील भी न बन सके। जापान एवं अमेरिका के लोग सारे दिन भजन नहीं करते, परंतु वे कितनी प्रगति पर हैं। वे अपने समय का एक मिनट भी बर्बाद नहीं करते हैं। हमारा बच्चा जब कमाने लगता है और हम बूढ़े हो जाते हैं, तो घर में बैठे रहते हैं, मक्खी मारते रहते हैं। जबकि बुड्ढे को बहुत काम करना चाहिए। बुड्ढे गाँधी ने बहुत काम किया। बूढ़े जवाहर ने लगभग पिचहत्तर वर्ष की उम्र में भी अठारह-अठारह घंटे काम किया। जवान आदमी की तरह ही बूढ़े व्यक्ति को भी काम करना चाहिए। कामचोर-हरामखोर हमें पसंद नहीं हैं।

मन की साधना कैसे?

    साधना, जो मनुष्य को उत्कृष्ट बना देती है, इसी संदर्भ में, मैं बतला रहा था, जो आपको अपने दिमाग में बैठा लेना चाहिए। कल हमने आपको बतलाया था कि मन को काबू में कर लेने के बाद भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिए। गायत्री माता का ध्यान कैसे करना चाहिए? उन्हें बार-बार घूम-घूमकर देखना होगा, ताकि आपका इधर-उधर भागने वाला मन काबू में रहे तथा आप उनसे संबंध रख सकें। इसके लिए आपको मन की साधना करनी पड़ेगी। मन की साधना के दो माध्यम हैं। पहला है-विवेक और दूसरा-साहस। इनके द्वारा ही हम ऋद्धि-सिद्धियों से भरते चले जाते हैं। अपने आहार-विहार को ठीक करने के बाद अपनी प्रगति होती चली जाती है। मनुष्य के अंतःकरण में बैठा हुआ विवेक और साहस जब जाग्रत हो जाता है, तो इन दो आधारों पर ही मनुष्य जो चाहे प्राप्त करता हुआ चला जाता है।

    मित्रो! राजस्थान में एक संस्कृत के अध्यापक थे-हीरालाल शास्त्री। शास्त्री जी की पत्नी की मृत्यु हो गयी। हमारे आपके साथ ऐसा हो जाने पर या तो आत्महत्या कर लेंगे या दूसरी शादी कर लेंगे, परंतु संस्कृत का वह अध्यापक गाँव चला गया। उसने कहा कि उस महान नारी ने हमें आनंद-उल्लास से भर दिया था, हमारे अंदर विवेक, साहस जाग्रत कर दिया था। उसके मरने के बाद उसकी याद में हम इस गाँव के अंतर्गत कुछ करना चाहते हैं। हम उसके प्रति अपना फर्ज अदा करना चाहते हैं। इस गाँव की कन्याओं को हम पढ़ाना चाहते हैं। वे नौकरी छोड़कर गाँव आ गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर उस गाँव की कन्याओं को पढ़ाने लगे। तीस दिन की रोटी का प्रबंध तीस घरों से हो गया और वह अपने आदर्श-कर्त्तव्यों पर आरूढ़ हो गए तथा पूरी निष्ठा के साथ उस कार्य को करने लगे। आदर्श-सिद्धांतों का धनी वह उस स्कूल को चलाता चला गया। लोग आए और मदद करते चले गए। विद्यालय का काम सुचारू रूप से चलने लगा।

    मित्रो, शीरी-फरहाद की कहानी आप जानते हैं। शीरी को फरहाद चाहता था। राजा ने इस समस्या का हल करना चाहा तथा फरहाद को इस रास्ते से अलग करने का मन बना लिया। उसने एक योजना बनायी। फरहाद से कहा कि देख-इस पहाड़ के उस पार एक नदी है। उसको इसको काटकर उधर से नहर लानी है। फरहाद का प्रेम अमर था। उसने कहा कि ठीक है, हम वैसा ही करेंगे। उसने कुल्हाड़ी उठायी और पहाड़ को काटकर नहर ले आया। लोगो ने भी सहयोग दिया। इस साधना को देखकर राजा को शीरी का हाथ फरहाद के हाथ में देना पड़ा।

विवेक की सिद्धि का राजमार्ग

    इसी प्रकार उस अध्यापक का भी विद्यालय चल पड़ा तथा कुछ ही दिनों में वह राजस्थान का एक महान विद्यालाय बन गया। वह व्यक्ति राजस्थान का मुख्यमंत्री भी बन गया। उस हीरालाल शास्त्री को सब लोगों ने पसंद किया तथा उसे सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री बनाया गया। मित्रो, इस तरह विवेक की सिद्धियाँ प्राप्त करने वाले लोग महान बनते चले गए, उनकी प्रगति के रास्ते खुलते चले गए।

    साथियो! एक छोकरी थी। उसकी शादी एक दारोगा के लड़के के साथ हो गयी थी। दारोगा शराब पीता था तथा उसके लड़के को भी शराब की लत लग गयी थी। वह भी अठारह साल की उम्र से ही शराब पीने लगा। छोकरी ससुराल आयी, उस घर का सारा दृश्य देखा, परंतु घबराई नहीं। अपने पति की सेवा करती रही और अपनी कर्त्तव्य-परायणता पर अडिग रही। उसका पति रोज बारह बजे रात में आता था, तब तक वह जागती रहती थी। उसको भोजन कराके ही वह भोजन करती थी। चूँकि उसके परिवार वालों ने बताया था कि पत्नी को पति को भोजन कराके खाना चाहिए।

    एक दिन रात को दो बज गए। वह आया ही नहीं। आटा गूँधकर रखा था, चूल्हा जल रहा था। थोड़ी देर के बाद वह आया, तो काफी शराब पी रखी थी। आते ही उल्टी करने लगा। सारे कपड़े खराब कर दिए। पत्नी ने सफाई की, नहलाया-धुलाया तथा सुला दिया। सुबह आँखें खुली, तो उसने देखा कि चूल्हा जल रहा है, आटा गुँधा रखा है। उसने पत्नी से पूछा कि क्या तुमने खाना नहीं खाया? पत्नी बोली-भला मैं कैसे खा लेती। मेरे माता-पिता ने कहा है कि पति के खाने के बाद खाना तथा उसकी सेवा करना। कल रात्रि में जब आप आए, तो काफी मात्रा में शराब पी रखी थी। हमने सफाई की, क्योंकि आपने उल्टी कर दी थी। आपने जब भोजन नहीं किया, तो फिर हम कैसे कर लेते?

    मित्रो! करुणा की देवी, वात्सल्य की देवी की आवाज उसकी आत्मा में पहुँची, वह द्रवित हो गया। उसे आत्मग्लानि हुई तथा उसी दिन से उसने शराब न पीने का संकल्प ले लिया। साथियो! आगे चलकर वही व्यक्ति मुंशीराम, स्वामी श्रद्धानंद के नाम से विख्यात हुआ। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय कितना महान है। वह मालवीय जी द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के समकक्ष एक दूसरा विश्वविद्यालय है

आदर्शवादिता की ओर

    विवेक के आधार पर आत्मचिंतन करने वाला व्यक्ति स्वामी श्रद्धानंद बन गया। आदर्शवादिता की ओर अग्रसर कर देने वाला विवेक बड़ा महान है। विवेक मनुष्य को कहाँ-से-कहाँ उछालकर ले जाता है। सिद्धियाँ मनुष्य के भीतर भरी पड़ी हैं। अगर विवेक के आधार पर हम चलें, तो सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

    एक बार हम महाराष्ट्र गए और महर्षि कर्वे के आश्रम से यह सीखकर आए कि महिलाओं की सेवा किस तरह से हो सकती है? बच्चों की सेहत को कैसे सुधारा जा सकता है? महर्षि कर्वे के आश्रम में जाकर मैंने यह सब सीखा। उन्होंने कहा कि मैं बंधन का जीवन नहीं जीना चाहता और न ही नौकरी करना चाहता हूँ। मैं तो देश, समाज तथा संस्कृति की सेवा करना चाहता हूँ। इस दुनिया के अंतर्गत जो भी पीड़ित और पतित हैं, उनकी मैं सेवा करना चाहता हूँ। जो दुखी हैं, उनकी आँखों के आँसू को मैं पोछना चाहता हूँ। उनके आश्रम में जाकर हमने भी एक प्रेरणा प्राप्त की थी कि नौकरी नहीं करेंगे तथा दूसरों को भी नौकर बनने की शिक्षा नहीं देंगे। महर्षि कर्वे ने भी जीवन भर गुलामी नहीं की, नौकरी नहीं की।

    मित्रो! उनके  पिताजी ने सभी लड़कों को तीन-तीन हजार रुपये दिए थे। महर्षि कर्वे ने उन्हें जमा कर दिया और सेवा में लग गए। साथियो, बच्चों को फोकट का खिलाना ठीक नहीं है। इससे बच्चे बिगड़ जाते हैं। यह अनीति एवं अत्याचार है। बच्चों को कुसंस्कारी, भ्रष्ट एवं दुराचारी बनाना है, तो उनके हाथों में बेकार के, मुफ्त के पैसे थमा दीजिए।

कर्त्तव्य का पाठ पढ़ाएँ

    अगर आप अपने बच्चों को कर्त्तव्य-परायणता का पाठ पढ़ाते चले जाएँ, तो आपके बच्चे हीरे एवं मोती के बनते चले जाएँगे, परंतु अगर आपने बेईमानी से कमाया तथा वह अन्न उन्हें खिलाया, तो उसका असर उन पर अवश्य होगा। अगर आप फोकट का धन छोड़ते हैं तथा यह सोचते हैं कि इसे बेटा खाएगा, तो यह आपकी भारी भूल है। मित्रो, इस धन को बेटा नहीं खाएगा, उसे बर्बाद करेगा। विवेक की सिद्धियाँ अगर आपको प्राप्त करनी हैं, तो आप सरदार पटेल बनने का प्रयास करें। लालबहादुर शास्त्री को नाना ने ढाई रुपये दिए थे, जो उनके जीवन में चमत्कार करता हुआ चला गया। उनने जवाहरलाल नेहरू के ऊपर अपनी छाप छोड़ी और भारत के प्रधानमंत्री बने। यह है विवेक की सिद्धि, जिसे आप तो समझते ही नहीं हैं। इस सपर सोचते भी नहीं हैं। विचार भी नहीं करते हैं। बच्चों को फिजूलखर्च बनाते चले जाते हैं।

सातवलेकर एवं राजा महेन्द्रप्रताप

    मित्रो, सातवलेकर ने रिटायर्ड होने के बाद अपने विवेक का साथ लिया और संस्कृत पढ़ना प्रारंभ किया, तो वह महानता को प्राप्त हो गये। उनने चारों वेदों का भाष्य किया और हिंदुस्तान में सम्मान प्राप्त किया। साथियो! यह है विवेक की उपासना, जो सातवलेकर ने की और उच्चतम स्थान पर पहुँच गए। मछली पानी को चीरती हुई आगे बढ़ती है, उसी प्रकार अध्यात्मवादी आदमी अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए चले जाते हैं। उनका रास्ता कोई नहीं रोक सकता है।

    मित्रो! मथुरा के राजा महेन्द्र प्रताप ने विवेक की उपासना की थी। लोगों ने कहा कि आपके बच्चे नहीं हैं, अतः आपको दूसरी शादी करनी चाहिए या फिर कोई बच्चा गोद ले लेना चाहिए, नहीं तो वंश कैसे चलेगा? उन्होंने कहा कि ऐसा संभव नहीं है। हमें देश, संस्कृति की सेवा करनी है। असंख्य ऐसे बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई नहीं होती है, जो गरीबी की मार से दबे रहते हैं, उनकी हमें सेवा करनी है। उन्होंने अपने मन में विचार किया और मालवीय जी को नामकरण संस्कार कराने के लिए बुलाया।

    संस्कार के समय सब आश्चर्य में पड़ गए कि यहाँ तो कोई बच्चा नहीं है, किसका संस्कार होगा? लोगों ने सोचा दासी आती होगी और अपने साथ किसी बच्चे को लाएगी। थोड़ी देर बाद राजा साहब ने कहा कि रानी के बच्चे नहीं हुए हैं, हमारे बच्चे हुए हैं। लोग बड़े आश्चर्यचकित हुए कि कहीं राजा के भी बच्चे होते हैं? उन्होंने एक थाली में रखी चादर हटाई और लोगों को दिखा कि यही हमारा बच्चा है, जिसका नाम आदरणीय मालवीय जी ने ‘प्रेम महाविद्यालय’ रखा है। यहाँ बच्चों की पढ़ाई होगी। बच्चे विवेकवान होंगे तथा देश, समाज और संस्कृति की सेवा करेंगे। हमारा नाम जो रोशन होगा, वह ऐसे बच्चों से ही होगा। उसमें देश के विभूतिवान व्यक्ति अध्यापक रखे गए थे। उसमें पढ़ाई भी आश्चर्यजनक हुई। इस विद्यालय से विवेकवान, विभूतिवान, आदर्शवान विद्यार्थी निकले, जिन्होंने देश, समाज तथा राजा महेन्द्र प्रताप का नाम उज्ज्वल किया।

    मित्रो! यह विवेक की सिद्धि महान थी, जिसने राजा महेन्द्र प्रताप को ऊँचा उठा दिया। आज अज्ञान में डूबे लोग, तृष्णा में डूबे लोग, अहंकार में डूबे लोग उपासना के सही अर्थ को समझ नहीं पाते हैं। वास्तव में विवेक की सिद्धि महान स्थान रखती है।
आज की बात समाप्त
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