
साधुओं का कर्तव्य
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(समर्थ गुरु रामदास)
अपनी क्षुधा निवारण करने के उपरान्त बची हुई रसोई दूसरों को बाँट देनी चाहिये। इस प्रकार पहले अपने को ज्ञानवान बनाकर तब उस ज्ञान का वितरण दूसरे लोगों में करना चाहिए। तैरने वालों को चाहिए कि यदि कोई पानी में डूब रहा हो तो उसे डूबने न दें। उत्तम गुणों को अपने अन्दर धारण करने के उपरान्त उन्हें दूसरे लोगों में फैलाना कर्तव्य है। शरीर का सर्वश्रेष्ठ उपयोग परोपकार है वह देह धन्य है जो पराये काम आती है और जिससे किसी का अनिष्ट नहीं होता। दूसरों के दुख में दुखी होना, दूसरों के सुख में प्रसन्न होना पराये को अपना लेना, मधुर वचन बोलना, दुखी जनों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर उनकी सेवा सहायता के लिये प्रस्तुत रहना यह साधुजनों का काम है। आलस्य को त्यागकर कर्तव्य परायण होना, थोड़ा और विवेकयुक्त बोलना क्रोध और मन्सर को त्यागकर विनति भाव से रहना यह सत्पुरुषों का स्वभाव है। वे साधु धन्य हैं जो अपने सद्व्यवहार से दुर्जनों को सुपथ पर आरुढ़ करते हैं स्वयं कष्ट सहकर दूसरों का उपकार करते हैं आपत्ति काल में धैर्य धारण करते हैं और आलोचकों को देखकर विचलित नहीं होते। उन्हीं का भजन सच्चा है और परमात्मा को तृप्त करने वाला है।
जो बोया जाता है वही उगता है इसलिए कर्कश वचन और कठोर व्यवहार के विष बीजों को नहीं बोना चाहिए। इस दुनिया में उत्तम गुण वाले सज्जनों की बड़ी आवश्यकता है ऐसे पुरुषों को मनुष्य जाति सदैव खोजती रहती है। श्रेष्ठ जनों को समूह बनाना चाहिये, संगठन करना चाहिए। अकेला आदमी क्या कर सकता है। इसलिए विवेकवान धर्मप्रचारक को चाहिये कि शिक्षित साथियों की सहायता से कल्याण के कार्य को बढ़ावे।