
वीर्य नाश से अहित
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श्रुति कहती है कि “मरणं बिन्दु पातेन जीवनम् बिन्दु धारणात्” वीर्य रक्षा में ही मृत्यु है और वीर्य रक्षा में जीवन। वीर्य रक्षा के साथ हमारी सर्वतोन्मुखी उन्नति का द्वार खुलता है तो उसे नष्ट करने के साथ हानिकारक उद्रेक बढ़ते हैं।
ब्रह्मचर्य को नष्ट करने से आधि भौतिक, आधि दैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की हानियाँ होती है। आधि भौतिक हानि यह है कि शरीर कमजोर हो जाता है, नेत्रों की दृष्टि निर्बल पड़ जाती है। पाचन क्रिया मंद होती है, फेफड़े निर्बल बनते हैं, सहन शक्ति घटती है। तेज नष्ट होता है और दुर्बलता के कारण देह में नाना प्रकार के रोगों का अड्डा स्थापित हो जाता है।
आधि दैविक हानियाँ यह हैं कि-मस्तिष्क पोला हो जाता है। बुद्धि मंद पड़ जाती है, स्मरण शक्ति का ह्मस होता है। सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने की शक्ति घट जाती है, विद्या सीखी नहीं जाती। अन्तः करण ऐसा मलीन हो जाता है कि, स्वार्थ, लोभ, कपट, पाप आदि के आक्रमणों का विरोध करने की उसमें क्षमता नहीं रहती, इच्छा शक्ति, ज्ञान मनुष्य साहस हीन, इन्द्रियों का गुलाम भयभीत, चिन्तित और हीन मनोवृत्ति का बन जाता है। ब्रह्मचर्य नष्ट करने से जो आध्यात्मिक हानि होती है वह तो बहुत ही दुखदायी है। आत्मा के स्वरूप को पहचानना, ईश्वर में परायण होना, धर्म कर्तव्यों पर बढ़ने के लिए कदम उठाना विषय वासना में रत मनुष्य के लिए क्या कभी संभव है ? ऐसे व्यक्तियों के लिए योग साधना एक कल्पना का विषय ही हो सकता है। कई असंयमी मनुष्य योग क्रियाओं में उलझे तो उन्हें तपैदिक, पागलपन या अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ा।
ब्रह्मचर्य को नष्ट करना एक ऐसा अपराध है जिसका फल न केवल अपने को वरन् समस्त सृष्टि को भोगना पड़ता है। लम्पट व्यक्तियों के निर्बल वीर्य से जो संतान उत्पन्न होती है वह भी अपने पिता की कमजोरी विरासत में साथ लाती है। ऐसी सन्तान संसार के लिए भार रूप ही सिद्ध होती है वह अपने और दूसरों के कष्ट में ही वृद्धि करती रहती है। जीवों के श्रेणी उत्पादन का क्रम यही है कि उन्नत आत्माएं तेजस्वी पिताओं के वीर्य में प्रवृष्ट होकर जन्म धारण करती हैं और पाप योनियों में जाने वाली पतित आत्मायें निर्बल व्यक्तियों के वीर्य का आश्रय ग्रहण करके जन्म लेती हैं। जिस देश के मनुष्य लम्पट और दुर्बल होंगे वहाँ कुल को कलंक लगाने वाली, देश और जाति को लज्जित करने वाली संतान ही उत्पन्न होगी।
वीर्य स्खलित होने के बाद यदि गर्भ स्थापना में काम न आवे तो भी वह नष्ट नहीं होता। जल की सहायता से वह मोरियों में जाता है और वहाँ संतानोत्पादन का कार्य करता है। हैजा, तपेदिक, प्लेग, इन्फ्लुऐंजा, गर्दन तोड़ बुखार आदि नाना प्रकार के भयंकर रोगों के कीटाणु उससे उत्पन्न होकर असंख्य मनुष्यों तथा जीव जन्तुओं का संहार करते हैं।
इस प्रकार विवेकपूर्वक देखा जाय तो वीर्य नाश करने से सब प्रकार हानि है। अपना दूसरों का सत्यानाश करके नरक गमन से बचने के लिए हर मनुष्य का कर्तव्य होना चाहिए कि वह ब्रह्मचारी बने और शास्त्रोक्त मर्यादा के अतिरिक्त वीर्य की एक बूँद भी नष्ट न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले।