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Magazine - Year 1943 - Version 2

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सर्व धर्म समन्वय

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अपने को धार्मिक कहने वाले व्यक्ति यों को हम तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं (1) अन्वयी (2) प्रत्ययी,(3) समन्वयी। अन्वय का अर्थ (अनु+अय) पीछे जाना, प्रत्यय का अर्थ (प्रति+अय) विरुद्ध जाना और समन्वय का अर्थ (सम-अनु+अय) भले प्रकार पीछे जाना है। अन्वयी उन व्यक्ति यों को कहते हैं जो बुद्धि बेचकर किसी बात का अन्धानुकरण करते हैं। अमुक बात प्रचलित है। बस! इसीलिए उन्हें स्वीकार है, इतने लोग इसे मानते हैं, फिर यह गलत कैसे हो सकती है। बस इतना ही तर्क उसके लिए काफी है। किसी प्रख्यात व्यक्ति या मोटी पुस्तक ने उस बात का समर्थन कर दिया। बस यह बात भी सन्तोष के लिए पर्याप्त है। जो चीज जैसी उसके सामने है, उसी को वे सर्व श्रेष्ठ समझ बैठते हैं। इतना कष्ट कौन करे जो यह सोचे कि यह बात देश काल के अनुरूप है या नहीं, इससे हमें लाभ होगा या हानि। अज्ञान भेड़ों का स्वभाव यह है कि एक भेड़ का मुँह जिधर को उठ जाए और वह जिधर भी चल पड़े उधर ही झुण्ड की अन्य भेड़े भी चल देंगी, उन्हें यह सोच विचार करने की जरूरत प्रतीत नहीं होती कि हम कहाँ जा रही हैं और क्या परिणाम उठावेंगी। अधिकाँश धार्मिक ऐसे ही अन्वयी होते हैं वे निकटतम परम्परा से चिपट जाते हैं और आत्मिक निर्बलता के कारण अपने आस पास के लोगों के विचार भार से इतने दब जाते हैं कि स्वतन्त्र रूप से उसके हानि लाभों पर विचार करते हुए उन्हें डर, झिझक और कष्ट प्रतीत होता है अनेक मनुष्य ऐसे ही संकुचित दायरों में बँधे हुए हैं और कष्ट कर प्रथाओं के अनुयायी बड़े पढ़े लिखे लोग भी मिल सकते हैं जो सब दृष्टियों से त्याज्य और समाज की वर्तमान अवस्था के बिलकुल प्रतिकूल है। ऐसे अंधानुयायियों को अन्वयी कहा जाएगा।

चाहे कोई धर्म कितना ही बुरा क्यों न हो पर उसके मूल भूत सिद्धान्त दूसरों से टकराते नहीं, किन्तु अज्ञान और अन्धानुकरण जैसी दो वस्तुएं मिलती हैं तो प्रत्यय उत्पन्न होता है। “मैं दूसरे की बात को नहीं मानूँगा।” ऐसा प्रत्ययी का दृढ़ निश्चय होता है। मैं सच बोलता हूँ और सब झूठे हैं, ऐसी मान्यता प्रत्ययी ही कर सकता है। एक बार दो मनुष्यों में लड़ाई हो रही थी। एक कह रहा था, कि मैंने पहाड़ों को दौड़ते हुए देखा है। दूसरा कहता था कि बिलकुल झूठ है ऐसा हो ही नहीं सकता, पहाड़ तो अपनी जगह पर से जरा दूर भी चलने में असमर्थ हैं। दोनों ही अपनी बात पर जोर दे रहे थे और विरोधी की हठधर्मी से चिढ़कर लड़ने मरने पर उतारू थे। गाली गलौज हो रही थी और हाथा-पाई की तैयारी थी। इतने में एक विचारवान सज्जन उधर से निकले और लड़ाई का कारण पूछा। जब दोनों की बात सुन चुके तो वे मन ही मन हँसे और झगड़े का कारण समझ गये। उन सज्जन ने पहाड़ दौड़ने की बात का आग्रह करने वाले से पूछा कि- भाई जब तुमने पहाड़ दौड़ते देखे थे, तो रेलगाड़ी में तो नहीं बैठे थे? उसने उत्तर दिया -हाँ जी, रेलगाड़ी में यात्रा करते समय ही पर्वतों की घुड़दौड़ मुझे दिखाई दी थी। तब उन सज्जन ने समझाया कि मित्र! रेल के दौड़ने से पर्वत चलने का भ्रम होता है। दूसरे से उन्होंने कहा कि तुम्हें किसी बात का खंडन करने से पूर्व उस बात के स्थूल रूप को झूठा करार न दे देना चाहिए, वरन् कहने वाले के दृष्टिकोण, उसकी मानसिक योग्यता और घटना का वास्तविक कारण तलाश करना चाहिए।

आये दिन साम्प्रदायिक कलह होने और विरोधी विचार वाले को शत्रु समझ लेने का कारण यह प्रत्यय ही है। जो मैं कहता हूँ वही ठीक है, केवल मैं ही सत्य कहता हूँ, ऐसा मानना प्रत्यय है। प्रत्यय का निश्चित परिणाम कलह है। अन्यथा धर्म पृथक्-2 तो हैं पर आपस में टकराते नहीं। विचार भिन्नता अस्वाभाविक नहीं वरन् आवश्यक है। फिर लड़ने झगड़ने का क्या कारण? जो धर्म के नाम पर दूसरे का खून पीने खड़े होते हैं, समझ लीजिये कि वे प्रत्ययी हैं।

इन दोनों तापसी राजसी अवस्थाओं से ऊपर सत् है। सतोगुण के साथ जब धर्म तत्व संमिश्रण होता है तो मनुष्य समन्वयी बन जाता है। भले प्रकार पीछे चलने वाला वह है जो किसी वस्तु का वास्तविक स्वरूप देखता है उसके गुण दोषों को पहचानता है और उपयोगी पदार्थ को ग्रहण करता है। राजहंस न तो पानी से द्वेष करते हैं और न दूध से राग। उन्हें चाहे दूध में पानी मिला हुआ दिया जाए या दूध में पानी, वे न तो झुँझलाते हैं और न किसी को दोष देते हैं वरन् अपने काम के योग्य सार वस्तु निकाल लेते हैं। अमुक धर्म अच्छा है और अमुक बुरा, इस झगड़े में राजहंस वृत्ति के विचारवान सज्जन नहीं पड़ते। वे अपने काम के योग्य वस्तु ग्रहण कर लेते हैं और अनुपयोगी वस्तु की उपेक्षा कर देते हैं। सभी धर्म सत्य की ओर हमें अग्रसर करते हैं, किन्तु मनुष्य कृत होने के कारण वे सभी अपूर्ण हैं। यदि किसी छोटे कपड़े में फिट रहने योग्य ही अपने शरीर को बनाये रखने का प्रयत्न करेंगे तो आपको चारों ओर से अपना बदन कस देना पड़ेगा और अपने वृद्धि क्रम को रोक देना पड़ेगा। वस्त्र के मोह पर शरीर की वृद्धि का बलिदान करना पड़ेगा । धर्म शास्त्र आप से निवेदन करता है कि ऐसा मत कीजिए आप शरीर को बढ़ने दीजिए और जो कपड़ा छोटा प्रतीत होता है उसे बदल लीजिए। सभी धर्म में कुछ न कुछ गुण हैं और सभी में कुछ न कुछ दोष। इसलिए निष्पक्ष होकर उन्हीं सिद्धान्तों को अपनाइये जो आप को ग्रन्थ आप उन्हीं प्रथ अंकों अपनाइये जो आप को संतोष प्रदान करें। आपकी आध्यात्मिक चेतना में यदि कोई मजहबी मान्यता विरोध उत्पन्न करे, यदि आपका आत्मा पुकारे कि मेरे लिए यह रिवाज असत्य है तो आप उस प्रथा को मानने से इनकार कर दीजिए। मार्ग आत्मा को उन्नति के लक्ष्य पर पहुँचाने के लिए हैं, मार्गों पर चलने के लिए ही आत्मा का अस्तित्व नहीं है। आप मानसिक दासता के विरुद्ध बगावत का झण्डा खड़ा कीजिए, दूसरे लोग ऐसा कहते हैं, या मानते हैं, यह कोई कारण नहीं है जो आपको भी वैसा ही करने या मानने के लिए बाध्य करें। हर व्यक्ति अपनी अलग कक्षा में विकास कर रहा है। आपका विकास क्रम भी अलग है। हर व्यक्ति का धर्म दूसरे से सर्वथा भिन्न है। आपका धर्म भी दूसरों से बिल्कुल स्वतंत्र है। आप अपनी आत्मा में उठने वाले ईश्वरीय सन्देश को सुनिए और उसी के अनुरूप मानसिक भोजन जिस खेत में भी मिले उसमें से चर लीजिए। सब धर्मों का सार ग्रहण कीजिए। समन्वयी बनिए, धर्मों से बल प्राप्त कीजिए, पर उन्हें भूल कर भी आत्मा का हनन करने वाला मत बनने दीजिए।

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