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Magazine - Year 1943 - Version 2

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कलियुग का निवास स्थान

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गत अंक की इन्हीं पंक्तियों में बताया जा चुका है कि कलियुग का प्रमुख स्थान स्वर्ण में-पैसे में है। यदि अखण्ड ज्योति के पाठक अपने जीवन को सात्विक-सतयुगी बनाना चाहते हैं तो उन्हें अपना जीवनोद्देश्य पैसा बटोरना और मौज उड़ाना छोड़कर आत्मोन्नति बनाना होगा, पैसे को सर्वोच्च स्थान पर न रखकर धर्म और ईश्वर के प्रति आदर भाव बढ़ाना होगा।

परीक्षित ने कलियुग को रहने के लिए जो स्थान बताये थे, उनमें धन ही सर्वोपरि है। अन्य उसी से सम्बन्धित हैं तो भी उनका स्थान है ही, हम लोगों को उन भयंकर स्थानों से भी उसी प्रकार सावधान रहना होगा जिस प्रकार साँप की बाँबी, सिंह की गुफा, रीछ की झाड़ी के निकट जाते हुए सतर्कता से काम लेते है कि कहीं इनमें से हमारे ऊपर खतरनाक आक्रमण न हो जाए। परीक्षित ने कलियुग को बताया था कि स्वर्ण के अतिरिक्त झूठ, जुआ, नशा, व्यभिचार, चोरी और हत्या भी तुम्हारे निवास स्थान होंगे। उन छः स्थानों से बचाव किस प्रकार करना चाहिए, इसका कुछ विवरण नीचे दिया जा रहा है।

झूठ -”जो बात जैसी हो उसको वैसी ही कह देना” सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण लँगड़ी लूली, अनेक शंका संदेहों से भरपूर एवं अव्यावहारिक है। कई बार धर्म की रक्षा और लोक हित के लिए इसमें अपवाद उपस्थित हुआ करते हैं, उन अवसर पर प्रयोग किया हुआ असत्य भी सत्य जैसा उचित होता है। वास्तव में झूठ से तात्पर्य छल, कपट, ठगी, ढोंग, धूर्तता, धोखा, बेईमानी, विश्वासघात से है। बड़े से बड़े लाभ के लिये इन दुष्कर्मों को नहीं किया जाना चाहिए। अनीतिपूर्वक किसी के हक का, अधिकार का, अपहरण करना, धोखा देकर विपत्ति में फँसा देना, विश्वास दिलाकर वचन पलट देना यह ‘झूठ’ का असली तात्पर्य है। मनोरंजन के लिए या धूर्तता से बचाव करने के लिए “मंत्र को गुप्त रखने” की शास्त्रीय परिपाटी का अवलंबन किया जा सकता है, वह झूठ नहीं कहा जायेगा। हाँ, किसी के साथ असत्य आचरण करके उसे विपत्ति में नहीं डालना चाहिए।

जुआ- ताश, कौड़ी, पासे, गोट आदि की सहायता से जो जुआ खेले जाते हैं, जो खेल कानून द्वारा जुआ की परिभाषा में सम्मिलित हैं वे तो जुआ हैं ही, पर वास्तव में जुए का क्षेत्र आज बहुत व्यापक हो गया है। बुद्धि चातुरी से उन कार्यों को जुआ की परिभाषा और कानून से बचा लिया गया है तो भी असल में वे सब जुआ ही हैं। तेजी मंदी के सट्टे, फीचर के सटे, वायदे के सौदे, लाटरी, दड़ा, यह एक खास किस्म के जुए हैं जिन कार्यों में उद्योग, परिश्रम, बुद्धि का सामंजस्य नहीं वरन् भाग्य के ऊपर निर्भर रहना पड़े वे कार्य जुआ हैं। आजकल प्रतियोगिताएं भी जुए के रूप में चल पड़ी हैं। किसी पराक्रम के लिए पुरस्कार देना प्रतियोगिता का उद्देश्य था पर इन दिनों पहेलियाँ, तीतरों की लड़ाई, घुड़दौड़, पतंग बाजी आदि में जुआ ही चल पड़ा है। यह जुए त्याज्य हैं, धन कमाने का मार्ग शरीर और बुद्धि का परिश्रम ही हैं, व्यापार वस्तुओं का होना चाहिए, बातूनी जमा खर्च का नहीं। इससे ही आर्थिक परिस्थिति बिगड़ती है, पुरुषार्थता घटती है एवं झटके के साथ जो असाधारण हानि-लाभ होते हैं वे दोनों ही निकृष्ट परिणाम उत्पन्न करते हैं। सब प्रकार के जुओं से बचते हुए केवल वास्तविक व्यापार पर ही निर्भर रहना चाहिए।

नशा- नशे दो प्रकार के हैं- तम्बाकू, भाँग, गाँजा, ताड़ी, चरस, अफीम, शराब, कोकीन आदि जितने भी नशे हैं, इनके सेवन से लाभ किसी प्रकार का नहीं और हानि शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, नैतिक, चार प्रकार की है। अन्य व्यसनों में कुछ प्रत्यक्ष लाभ तो भी है पर इन नशों में तो वह भी नहीं। बुरा द्वन्द्व, बुरी गंध, बुरा फल तीनों ही प्रकार की बुराई है। मूर्खतावश दूसरों की देखा−देखी या बहकावे में आकर मनुष्य नशा सेवन करने लगता है, फिर इनकी ऐसी आदत पड़ जाती है कि छुड़ाये नहीं छूटती। मानसिक नशा अहंकार का होता है, धन का, विद्या का, बुद्धि का, अधिकार का, घमंड का, किन्हीं किन्हीं को ऐसा होता है कि उसकी खुमारी में शराबी की तरह झूमते रहते हैं, जमीन पर सीधे पाँव नहीं धरते, सीधे मुँह बोलते नहीं, हर बात में अकड़, ऐंठ, गुमान, गरुर टपकता हैं यह मानसिक नशा है। यह दोनों ही प्रकार के नशे त्याग देने योग्य हैं। इनसे मनुष्य पतन, क्लेश और दुखों में ही गिरता है। भूख की तृप्ति के लिये आवश्यकतानुसार सात्विक आहार करना चाहिए और विनय, सत्यता, भाईचारा, प्रेम, मनुष्यता को ध्यान में रखते हुये दूसरों से मधुर व्यवहार करना चाहिए।

व्यभिचार- ब्रह्मचर्य की मर्यादा तोड़ने को व्यभिचार कहते है। स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए नियत मर्यादा में काम सेवन करना चाहिए। अगम्य से गमन करना, दबाव, बहकावा, प्रलोभन द्वारा विपरीत पक्ष को काम सेवन के लिए तैयार करना आदि व्यभिचार की सीमा में आते हैं। जिस भोग से समाज में किसी प्रकार का अन्याय उत्पन्न नहीं होता एवं स्त्री पुरुष स्वेच्छा से एक दूसरे को स्वीकार करते हैं वही उचित है। व्यभिचार से बचना चाहिए और शक्ति संचय के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

चोरी- किसी के उपार्जित धन को बिना उसकी इच्छा के गुप्त रूप से ले लेने को चोरी कहते हैं। दूसरों को उचित भाग दिये बिना स्वयं खाना चोरी है, उपकार के लिये कृतज्ञ न होना चोरी है, अनीति पूर्वक किसी का हक लेना चोरी है, रिश्वत चोरी है, कर्तव्य का पालन न करना चोरी है, प्रकट करने योग्य विचारों को प्रकट न करना चोरी है, आवश्यकता से अधिक जमा करना चोरी है, इन सब चोरियों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए, अपने हाथ-पाँव और बुद्धि की धर्म उपार्जित कमाई पर निर्वाह करना एवं पराये धन का आसरा नहीं तकना चाहिए।

हिंसा - मोटे अर्थ में किसी प्राणी की हत्या करना या दुख देना हिंसा कही जाती है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर दुष्ट, अत्याचारी, परपीड़क, पापी, कुकर्मी को दंड देना या मार डालना हिंसा नहीं है। वरन् हिंसा वह है जिससे सत्कर्मों में बाधा पड़ती हो, श्रेष्ठ व्यक्तियों को कष्ट होता हो, धर्म की अवनति और अधर्म की उन्नति हो, किसी के उचित अधिकारों का अपहरण किया जाता हो, ऐसे हिंसा पूर्ण कार्यों से दूर रहना चाहिए। माँसाहार तो स्पष्ट हिंसा है ही, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दूसरों का शोषण, उनके अधिकारों का अपहरण हिंसा है, आप न किसी का अनुचित रीति से सताया जाना सहन करें और न किसी को अनुचित रीति से सतावें, इस प्रकार सच्चे अहिंसक बन सकेंगे।

अब कलियुग का आसुरी अधिकार अपने ऊपर से हटा डालने का समय आ गया है, आप अपने अन्दर सत्य की सत्ता स्थापित कीजिए। कलियुग जिन स्थानों में रहता है उनसे बचते रहने का निरन्तर प्रयत्न करते रहिए, फिर वह आपके ऊपर अधिकार न जमा सकेगा।

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