
दान में विवेक की आवश्यकता
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धर्म का प्रधान लक्षण दान है। भारतीय जनता सदा से धर्म में दिलचस्पी लेती आई है, फलस्वरूप दान करने की उसकी प्रवृत्ति सदा रहती है। देश का बौद्धिक अधोपतन होने के साथ-साथ दान की पुण्य प्रथा में भी अविवेक का समावेश हो गया। आज दान देने और लेने वाले दोनों ही पक्षों ने इस ओर औचित्य का ध्यान रखना छोड़ दिया है। दान के दो उद्देश्य हैं कि (1) दैवी तत्वों को ऊँचा उठाया जाए। (2) असमर्थों की सहायता की जाए। हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों को दान देने की प्रथा है, इसका कारण अमुक वंश को महत्व देना नहीं है वरन् यह है कि जो समूह जनता में सदाचार की, ज्ञान की, विवेक की वृद्धि करता है, समाज की सुख शान्ति की रक्षा के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहता है उसके भरण-पोषण का भार दूसरे लोग उठावें। प्राचीन समय में ब्राह्मण ऐसे ईमानदार ट्रस्टी थे जो दान में आये हुए धन में से अत्यन्त स्वल्प भाग अपने निजी निर्वाह में खर्च करते थे और शेष को, गुरुकुल चलाने में, अन्वेषण करने में, ग्रन्थ-निर्माण करने में, सत्संग समारोहों में, प्रचार में, यज्ञ में, जीव दया में खर्च कर देते थे। ऐसे विश्वसनीय ट्रस्टियों के हाथ में गई हुई दान की एक-एक पाई का सदुपयोग होता था। दुरुपयोग की कोई संभावना न थी इसलिए सर्व-साधारण में ऐसी प्रथा थी कि सत्य कार्यों के निमित्त तथा ब्राह्मण के भरण-पोषण के निमित्त जो दान देना होता था, उसका वर्गीकरण करने के झंझट में नहीं पड़ते थे अपितु उस सारी दान-राशि को सुपात्र विश्वस्त ब्राह्मण के हाथ में सौंप देते थे कि वह जैसा चाहे उसका उपयोग करें। दान देने वाले की श्रद्धा के साथ ब्राह्मण लोग खिलवाड़ नहीं करते थे। जिस उद्देश्य के लिए वह धन था उसमें विश्वासघात नहीं किया जाता था, अमानत में खयानत होने की स्वप्न में भी संभावना न रहती थी।
इसके अतिरिक्त अनाथों, बालकों, अपाहिजों, रोगियों, विपत्ति ग्रस्तों, असमर्थों की सहायता के लिए दान दिया जाता था, जिससे वे लोग अपने कष्टों से छुटकारा पा सकें। दुखियों को देखकर जो दया उमड़ती है, उसे सार्थक और फलवती बनाने के लिए असमर्थों को दान दिया जाता है और पुण्य से जो प्रेम होता है उसको सार्थक करने के लिए, संसार में पवित्रता एवं दैवी तत्वों की वृद्धि के लिए, ब्रह्म कर्मों में दान दिया जाता है। यह विवेक युक्त दान ‘ब्रह्म दान’ कहलाता है। वह कर्तव्य युक्त दान ‘दया दान’ कहा जाता है।
आज इन दोनों ही दानों का रूप बड़ा विकृत हो रहा है। ब्रह्मदान से ब्राह्मण वेशधारी कुपात्र गुलछर्रे उड़ाते हैं। तिलक लगाये, जनेऊ पहने, चोटी बढ़ाये, अनेक ब्राह्मण वेशधारी चारों ओर दिखाई पड़ते हैं, दान प्राप्त करना और उसे बैठकर खाना यह दो ही इन लोगों के काम हैं। दधीचि की तरह अस्थि दान करने वाले, बृहस्पति के समान देव समाज का पथ प्रदर्शन करने वाले, द्रोणाचार्य की तरह शास्त्र विद्या सिखाने वाले, चरक के समान चिकित्सा करने वाले, परशुराम के समान अन्यायियों को दंड देने वाले, वेद व्यास की तरह ग्रन्थ रचने वाले, नारद के समान प्रचार करने वाले, कपिल के समान दस सहस्र विद्यार्थियों का गुरुकुल चलने वाले, आर्यभट्ट के समान खगोल विद्या का अन्वेषण करने वाले, इन ब्राह्मणों में ढूँढ़े न मिलेंगे। ब्राह्मण की एक ही कसौटी है कि वह अपना समय और बल परमार्थ में, सर्व भूत व्यापी ईश्वर की पूजा में, लगाता है, बेशक दान लेना ब्राह्मण के छः कर्मों के अंतर्गत है। पर दान देना भी उसके साथ साथ ही लगा हुआ है। जो दान लेता है पर संसार के प्रत्युपकार में अपने को खपा नहीं देता, घुला नहीं देता, वह ब्राह्मण नहीं है, कम से कम दान लेने का अधिकारी तो किसी भी दशा में नहीं है। आज अनेक संत, महंत, पंडे, पुजारी, पुरोहित, याचक, भिक्षुक ब्राह्मण का बाना धारण किये हुये है और दान के धन से अपनी उदर दरी को भर रहे हैं। ब्राह्मणत्व की खाल उन्होंने ओढ़ रखी है पर उस खाल के अन्दर ब्राह्मणत्व का प्राण कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
इसी प्रकार असमर्थों की समस्या बड़ी घृणित हो चली है। हट्टे-कट्टे स्वस्थ व्यक्ति परिश्रम करने की योग्यता होते हुए भी भिक्षा को अपना व्यवसाय बनाये हुए हैं। झूठ मूठ अपने को विपत्तिग्रस्त कह कर ठगते हैं, स्वस्थ अपाहिजों का स्वाँग बनाते हैं, आँख रहते अन्धे बनते हैं, पाँव रहते लंगड़ा कर चलते हैं। लोगों की दया उभार कर अधिक कमाई करने की इच्छा से यह लोग बड़ी निर्भयता पूर्वक क्रूर कर्म करते है। एक गौ का अंग काट कर दूसरी गौ के अंग को चीरकर उसमें सी देते हैं, इस तरह पाँच पैर की गौ बनाकर उसके बहाने भिक्षा माँगते हैं। आप शायद विश्वास न करें पर ऐसे भिखारी हैं जो अपने छोटे बच्चों के हाथ-पाँव तोड़ डालते हैं, आँखें फोड़ देते हैं ताकि उनके सहारे अधिक भिक्षा मिल सकें। असमर्थों के नाम पर अधिकाँश में समर्थ भिखमंगे मौज मारते हैं, यह लोग वास्तविक असमर्थों का हक खा जाते हैं और उन बेचारे वास्तविक असमर्थों वास्तविक पीड़ितों को उनके भाग से वंचित कर देते हैं।
शास्त्रों में देव भाग और यज्ञ भाग खाने वाले को बड़ा पापी माना गया है, उसकी बड़े कठोर शब्दों में भर्त्सना की गई है। दान का पैसा देव भाग और यज्ञ भाग हैं, जो सच्चे अधिकारी को ही ग्रहण करना चाहिए किन्तु आज तो छप्पन लाख पेशेवर व्यक्ति भिक्षा के लिए हाथ पसारे फिर रहे हैं और प्रतिग्रह लेना अपना ‘हक’ मान बैठे हैं। इस प्रकार हमारा दान उन कुपात्रों के हाथ में चला जाता है जो किसी प्रकार उसके अधिकारी नहीं हैं। अविवेक पूर्वक, बिना पात्र-कुपात्र का विचार किये, अश्रद्धा युक्त दान केवल व्यर्थ जाता हो सो बात नहीं, वरन् दाता के लिए उलटा घातक होता है, उसे नरक में ले जाता है। मनु ने पशु हत्या में माँस खाने वाला, पकाने वाला, बेचने वाला, वध करने वाला, सलाह देने वाला आदि आठ व्यक्तियों को पाप का साझीदार बताया है। इसी प्रकार कुपात्र लोग दान पाकर हराम-खोरी, ठगी, धोखाधड़ी, दुराचार, बदमाशी, मलीनता आदि में प्रवृत्त होते हैं, इसका पाप उन दाताओं को भी लगता है जो बिना विचारे चाहे किसी को दान देकर अपने अविवेक का परिचय देते हैं।
दान मनुष्य का अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य कर्तव्य है। जिसको जो कुछ देना संभव हो अपनी स्थिति के अनुसार ज्ञान, समय, बल, सेवा, विद्या, पैसा, अन्न आदि का दान करना चाहिए, इसके बिना न तो आत्मोन्नति हो सकती है और न लोक परलोक में सुख मिल सकता है। पुण्य कर्मों में दान का प्रमुख स्थान है, यह दान विवेकपूर्वक होना चाहिए। ब्राह्मणों को दान देना चाहिए, ब्रह्म कर्मों के लिए दान देना चाहिए जिससे समाज में ज्ञान की, विद्या की, सदाचार की, सद्विचारों की उन्नति हो। यह भली प्रकार छानबीन करनी चाहिए कि जिस व्यक्ति को दान दिया गया है वह सच्चा ‘ब्राह्मण’ है या नहीं, जिस कार्य में दान किया गया है? उस कार्य का कोई अच्छा फल समाज को मिलेगा या नहीं? यदि आप देखें कि यह दान संसार में सात्विकता की वृद्धि करेगा, मनुष्य जाति की उन्नति में सहायक होगा तो समझिए कि वह दान सार्थक है और उसका फल स्वर्ग के समान सुखदायक प्राप्त होगा। यदि आप ऐसे देखें कि यह दान अमुक निठल्ले व्यक्ति की उदर दरी को कुछ समय तक भरे रहने मात्र का साधन सिद्ध होगा या दान पाया हुआ व्यक्ति अपनी अकर्मण्यता एवं धूर्तता के लिए अधिक प्रोत्साहित होगा तो समझिए कि आपका दान निरर्थक गया और उसका परिणाम नरक के समान दुखदायी होगा। असमर्थों, पीड़ितों, विपत्ति ग्रस्तों को अधिक से अधिक सहायता करनी चाहिए, एक पैसा फेंक कर कर्तव्य की इतिश्री न करनी चाहिए वरन् उसके अभाव को अधिक मात्रा में, अधिक समय के लिए दूर करने का अधिक प्रयत्न करना चाहिए। बेगार भुगत कर पाई पैसा फेंक देने से दया सार्थक नहीं होती वरन् किसी व्यक्ति को यदि वास्तविक कष्ट है तो उस कष्ट को मिटाने के लिए भरपूर सहायता करने का उद्योग करना चाहिए जिससे सच्चा आत्मसंतोष प्राप्त हो सके, सच्चे रूप में दया सार्थक हो सके।
स्मरण रखिए ‘दान’ मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है पर वह सार्थक, पुण्य-रूप, सुखदायक तभी हो सकता है, जब विवेकपूर्वक परिणाम पर विचार करके श्रद्धापूर्वक दिया जाये। अन्य प्रकार के दान अधर्म की वृद्धि में सहायक होते हैं, इसलिए उनका परिणाम दुखदायी ही होता है।