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Magazine - Year 1943 - Version 2

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आध्यात्मिक निष्ठा कैसे दृढ़ हो

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First 14 16 Last
(श्री साधुराम रंधवें, सिटीकालेज, नागपुर)

मनुष्य अपने व्यक्तित्व को दो तरह से शासित कर सकता है। (1) आभ्यंतरिक प्रवृत्तियों को नियमित करके और (2) बाह्य प्रवृत्तियों को संयमित करके। पहिले मार्ग में साधक भीतर से बाहर की ओर आता है, दूसरे में वह बाहर से भीतर की ओर प्रविष्ट होता है।

पहिले मार्ग में चिन्तन-विचारशीलता की आवश्यकता है। साधक मनन के द्वारा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकता है। अर्थात् अपनी मनोवृत्तियों पर साधक जब विजय प्राप्त कर लेता है तब उसे बाह्य प्रकृति प्रभावित-शासित नहीं कर सकती। इस साधना की बागडोर आत्मबल, मनन, विचारशीलता और चिन्तन के हाथ में है। यहाँ हमें हर कदम पर सावधान रहना चाहिए, कहीं अपनी पगडंडी से फिसल न जायें।

दूसरे मार्ग में बाह्य प्रवृत्तियों को संयमित किया जाता है। इसमें चाहिए परिस्थितियों की अनुकूलता। साधक जैसा बनना चाहता है, उसी के अनुकूल अपना वातावरण निर्मित करना होगा। मित्रों का चुनाव, दिनचर्या का क्रम आदि जिन भी उपकरणों से उसका अधिकतर संसर्ग रहता है, उन उपकरणों को वह अपने अनुकूल कर ले। बस, फिर उसे अपना मार्ग सहज और निरापद जान पड़ेगा। इसमें पहली मुसीबत यही है कि वह अनुकूल चुनाव-अनुकूल वातावरण कैसे निर्मित करे। इस पथ का पथिक अपनी अनुकूल परिस्थिति के बाहर कदम रखते ही अक्सर फिसल जाता है- अपने को अनुत्तीर्ण पाता है और महसूस करता है कि अभी वह इतना निष्ठावान नहीं बन सका है कि प्रतिकूल वातावरण में भी स्वस्थ रह सके-अपने व्यक्तित्व को-अपने अहमत्व को अपने आत्मबल को अचल रख सके।

तीसरा मार्ग बिल्कुल निराला ही है। इसमें साधक अपने को परमेश्वर की इच्छा पर छोड़ देता है। वह अदृष्ट के प्रवाह में स्वच्छन्द बहने लगता है। उसे रास्ते का ख्याल नहीं रहता। एक मात्र ख्याल रहता है अपने लक्ष्य का-उस परमोज्जवल सत्य ज्योति का। परन्तु इस साधक को परमेश्वर में अपनी श्रद्धा दृढ़ और अमल रखनी चाहिए; अन्यथा वह परमेश्वर के नाम पर अपने अहमत्व के प्रवाह में ही बह जावेगा और जब आक्षिप्त किया जावेगा तो साहस के साथ प्रत्युत्तर देगा- “परमेश्वर की ऐसी ही इच्छा है, हम क्या करें? वह ऐसा ही कराता है, शायद उसकी ऐसी ही प्रेरणा हो।” यह प्रकृति पतन की ओर ही ले जायेगी। वस्तुतः यह मार्ग साधना में प्रविष्ट होने वाले साधक के लिए घातक ही सिद्ध होगा। यह साधना पुष्टि मार्ग की है और तदनुसार यही कहना चाहिए कि यह ‘स्टेज’ परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इस दर्जे को प्राप्त करने के लिए प्रथम कथित दो साधन ही उपयुक्त सिद्ध होंगे।

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