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Magazine - Year 1943 - Version 2

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कलियुग का निवास स्थान

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श्रीमद्भागवत में कलियुग आगमन की कथा इस प्रकार है कि एक म्लेच्छ गौ, बैल को मारता जा रहा था तो राजा परीक्षित ने उसे रोका और पूछा कि तू कौन है जो गौ बैलों को मारता है? म्लेच्छ ने कहा- मैं कलियुग हूँ। अब आगे मेरा ही शासन होगा। परीक्षित जब उस म्लेच्छ को मारने को तैयार हुए तो उसने कहा- महाराज अब तो मुझे रहना ही है, इसलिए मेरे लिए कोई स्थान ऐसा बता दीजिए जहाँ रहा आऊँ। मुझे तो थोड़ा स्थान चाहिए सर्वत्र पाँव पसारने की मेरी इच्छा नहीं है।

परीक्षित ने कलियुग को गन्दे घृणित और त्याज्य स्थान रहने के लिए बता दिये। वे स्थान यह थे, स्वर्ण, जुआ, झूँठ, नशा, व्यभिचार, चोरी और हिंसा। राजा की आज्ञानुसार कलियुग इन स्थानों में रहने लगा।

एक दिन सिर पर स्वर्ण मुकुट धारण करके परीक्षित बन को गये, स्वर्ण में बसे कलियुग ने राजा की बुद्धि बिगाड़ दी, उन्होंने घमंड में आकर लोमस ऋषि के साथ अनुचित व्यवहार किया, तदनंतर श्रृंगी ऋषि के कोष के कारण तक्षक द्वारा राजा की मृत्यु हो गई। यह कलियुग आगमन की कथा डडडड है। इस पर गम्भीर डडडड करने से कुछ नहीं डडडड तथ्यों पर अच्छा प्रकाश डडडड कलियुग का रहने के जो स्रोत स्थान प्राप्त हैं उनमें एक ही मुख्य है और वह है ‘स्वर्ण- धन’ बाकी छः उसी से संबंधित हैं। जुआ, नशा, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, झूठ इनका पैसे से ही संबंध है। यदि पैसा न हो तो इनके होने की संभावना ही कम रह जाती है। यह छः तो ऐसे हैं जिनका उपयोग कोई-कोई व्यक्ति कभी-कभी करते हैं। ‘धन’ की व्यापकता अधिक हे, उससे हर व्यक्ति का प्रयोजन रहता है। कलियुग की व्यापकता इसी के आधार पर बढ़ी है और आज उसने मनुष्य को बुरी तरह ग्रस लिया है।

प्राचीनकाल में धन संग्रह को एक निंदनीय समझा जाता था। जिनके पास धन इकट्ठा होता था वे उसे यथा शीघ्र सत्कर्मों में खर्च कर देते थे। राजा कर्ण सवा भार स्वर्ण नित्य दान करते थे और अपनी जीवन पालन की आवश्यकताओं से जो कुछ बचता उसे सत्कर्म में लगा देते थे। राजा के यहाँ आय दिन बड़े पैमाने पर दान हुआ करता था, व्यापारी लोग धर्म स्थान बनवाने में अनुष्ठान, दान पुण्य में अतिरिक्त पैसे को अच्छे कार्यों में लगाते रहते थे। जिसके पास पैसा होता था अपनों को उसका ट्रस्टी समझते और जरूरत पड़ने पर जरा भी लोभ संकोच किये बिना उसका त्याग कर देते। राणा प्रताप की आवश्यकता को देखकर भामाशाह ने अपनी करोड़ों रुपये की सम्पत्ति उनके चरणों में फेंक दी। जो लोग धन का संग्रह करते भी थे, वे किसी महत्वपूर्ण, लोकहित के कार्य में लगा देते थे। वैयक्तिक भोग विलास के लिए उपयोग न होता था, जिसके पास पैसा अधिक वह अपने ठाठ बाट और शान शौकत में अपने को न लगाता था, आज भी पुराने चलन के धनवान बहुत सादगी से रहते हैं, तड़क-भड़क का शौक वे जरा भी पसन्द नहीं करते।

मनुष्यों का रहन सहन एक सा रखना उचित है जिससे समाज में असमानता न फैलने पावे। स्वार्थ के लिए धन संग्रह करने वाले को अपने लिए कमाने वाले को गीतादि धर्म शास्त्रों में चोर बताया गया है और उसके प्रति घृणा एवं निन्दा की भावना प्रकट की है।

किन्तु कलयुग में चक्र दूसरी तरह से घूमा। स्वर्ण में उसने अपना प्रमुख स्थान बनाया, लोग पैसे को सर्वोपरि वस्तु समझने लगे। संग्रह का चस्का लगा, कोठियाँ बनने लगीं, तिजोरियाँ भरने लगी, खजाने गढ़ने लगे, पैसे की हविस बढ़ी, धन जमा करने में एक दूसरे से बाजी मार ले जाने का प्रयत्न करले लगे। यदि किसी के पास धन हैं तो वह अपने को उसका ट्रस्टी समझे और लोकोपकारी कार्यों में उसे व्यय करें इस तथ्य को लोग बिलकुल भूल गये, अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने, ऐश आराम करने, तड़क-भड़क बढ़ाने के लिए, शानो-शौकत बनाने में पैसे का उपयोग होने लगा। निजी जरूरतें अनाप-शनाप बढ़ाई जाने लगीं, जिन वस्तुओं के अना जीवन निर्वाह में जरा भी बाधा नहीं पहुँचती ऐसी निरर्थक वस्तुओं को फैशन के नाम पर अन्धाधुन्ध इकट्ठा किया जाने लगा, अपने लिये अधिक से अधिक परिमाण में किस प्रकार पैसा खर्च किया जा सकता है इसके लिए नाना प्रकार के तरीके सोचे और निकाले जाने लगे। आज आप किसी अमीर के खर्च का हिसाब देखें तो मालूम पड़ेगा कि उतने पैसे के बीसवें भाग में ही भली प्रकार जीवन निर्वाह कर सकता है। बीस या पचास गुना खर्च जो बढ़ा रखा है वह इसलिए नहीं कि उससे किसी शारीरिक तथा मानसिक आवश्यकता की पूर्ति होती है वरन् इसलिए है कि उससे शान शौकत बढ़ती है, फैशन की पूर्ति होती है।

जैसे-जैसे कलयुग का दौर बढ़ता गया वैसे वैसे ही पैसे की प्रधानता बढ़ती गई। अधिक जमा करो और अधिक उड़ाओ की नीति का बोल-बाला हुआ। बड़ों को देखकर छोटों के मुँह में पानी भर आया, वे भी इसी मार्ग पर दौड़े, जिसका जैसा मुँह है वह वैसी ही हविस लिए हुए है, “आवश्यकता की पूर्ति के लिए पैसा” इसकी ओर कैसी का ध्यान नहीं है, हर कोई अधिक जमा करने और अधिक उड़ाने की हविस पर मस्त हो रहा है। संसार में सर्वोपरि स्थान आज जिस वस्तु को प्राप्त हो रहा है- ‘पैसा’। पैसे के लिए मनुष्य बुरे से बुरे कार्य करने पर उतारू हो रहे हैं, मनुष्यता, पैसे के बदले बिक रही है। स्वर्ग, मुक्ति, धर्म, परमार्थ पैसे के द्वारा टकेसेर बिक रहे हैं। मनुष्य का बड़प्पन रुपयों की गड्डी से तोला जा रहा है, जिसके पास जितना पैसा अधिक है वह उतना ही बड़ा है और उतना ही आदरणीय है, फिर भले ही वह मूर्ख, अधर्मी या दुर्गुणी क्यों न हो। पैसे की इतनी प्रभुता देखकर हर एक के मुँह में पानी भर रहा है, जिसे देखिए वह जीवन की सफलता पैसे में ही तलाश कर रहा है। कलियुग की यह पूर्ण विजय है स्वर्ण में निवास करने वाला कलिकाल अपनी इस सफलता पर फूला नहीं समाता।

अब हम उस शैतानी जादू के खिलाफ धर्मयुद्ध करने चले हैं, कलियुग की सत्ता के नीचे रहने से इनकार करने के लिए खड़े हुए हैं, अब हमने निश्चय कर लिया कि हम परमात्मा के अविनाशी राजकुमार असुरत्व की आराधन छोड़कर अपना स्वाभाविक देवत्व को प्राप्त करेंगे, अपने ऊपर से दानवी छाया को हटाकर ईश्वर के चरणारविन्दों में अपने को मुक्त करके रहेंगे जिसने हमारे जीवनोद्देश्य को बिलकुल उलट दिया है, जिसने हमें अन्धा कर दिया है।

“पैसा” आपको पैसा चाहिए, यह हम मानते हैं, पैसे की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं, पैसा कमाना चाहिए इस तथ्य को हम मानते हैं, परन्तु इस बात से इनकार करते हैं कि उसे अनावश्यक महत्व दिया जाए-सर्वोपरि स्थान दिया जाए। भोजन, वस्त्र, अध्ययन, अतिथि सत्कार, विपत्ति निवारण के लिए जितने पैसे की जरूरत है उतना कमाना चाहिए और बिना कंजूसी किये आत्मोन्नति के कार्यों में उसे विवेकपूर्वक खर्च करना चाहिए। जीवनयापन में पैसा एक साधन की तरह प्रयोग होना चाहिए, वह ‘परम लक्ष’ नहीं बन जाना चाहिए। यदि ईश्वर की कृपा से आपके व्यवसाय द्वारा “आवश्यकताओं को पूर्ण करने” लायक आय हो जाती है तो कोई कारण नहीं कि अध्ययन, आत्मोन्नति, सत्संग, स्वाध्याय, परमार्थ, परोपकार जैसे अमूल्य तथ्यों की अवहेलना करें और पागल की तरह पैसे की रट लगाते रहें। अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखिए, निर्वाह और उन्नति के मार्ग पर चलते हुए जितने के बिना काम नहीं चल सकता उतना ही संचय कीजिए। जिन्दगी भर के लिए आज ही जमा कर लेने की योजना मत बनाइए। ईश्वर के राज्य में ऐसी समुचित व्यवस्था है कि आपको यथा समय सब कुछ मिलता रहेगा। प्रभु पर विश्वास कीजिए और सीमित मात्रा में संग्रह कीजिए। अपनी बढ़ी हुई अनावश्यक जरूरतों को घटा डालिए ताकि धन की प्यास कम हो जाए। नियत व्यवसाय द्वारा जीविका कमा लेने के उपरान्त अपने मस्तिष्क को दूसरी तरफ लगाइए, ज्ञान का संचय कीजिए, आत्मा को ऊँचा उठाने की साधना कीजिए, परमार्थ में प्रवृत्त हूजिए।

मनुष्य की महत्ता उसको आत्मिक सम्पत्ति के अनुसार, ज्ञान के अनुसार, विचार और कार्यों के अनुसार नापिये, रुपयों की गड्डी से और सताने की शक्ति के अनुसार नहीं। कोई व्यक्ति अधिक सताने की शक्ति रखता है या अधिक पैसे वाला है केवल इसी कारण उसे महत्व मत दीजिए, इसी कारण उसके प्रशंसक एवं सहायक मत बनिए। निर्धन गुणवानों की सतयुग में मान्यता थी, पैसा न होना कोई अयोग्यता नहीं समझी जाती थी, वरन् गुण, ज्ञान और आचरण का अभाव, तिरस्कार का, लघुता का कारण होता था। अब हमें उसी प्राचीन राजमार्ग की ओर लौट चलना होगा, पैसे की अपेक्षा श्रेष्ठ आचरण को बड़प्पन की कसौटी बनाना होगा।

आप कलियुग से घृणा कीजिए, उसके प्रमुख निवास स्थान को सर्वोपरि स्थान देने से इनकार कर दीजिए, पैसे के बांटो को मनुष्यता की महत्ता को मत तौलिए, अब तक धन में सुख की खोज कर चुके अब ज्ञान और आचरण में उसे तलाश कीजिए, धन संग्रह की लिप्सा छोड़िए, अनावश्यक खर्चों को हटाकर सादगी का जीवन व्यतीत कीजिए, संतुष्ट रहिए, सम्पदा जमा हो तो उसे सत्कर्मों के लिये धरोहर समझिए। अब हम सतयुग की ओर -धर्म की ओर -ईश्वर की ओर कदम बढ़ाते हैं, इसलिए निश्चय करते हैं कि कलियुग- पाप के निवास स्थान से सावधान रहेंगे, परीक्षित की तरह उसके चंगुल में फँस कर अपना सर्वनाश न होने देंगे। पैसे को सर्वोपरि स्थान देकर कलियुग को हमने सर्वव्यापी बनाया है, अब उसको पदच्युत करेंगे, असत्य को हटाकर सत्य की स्थापना करेंगे।

-श्री राम शर्मा,

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