
शिक्षा का क्या करें?
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(पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय एम. ए.)
शिक्षा के विषय में आजकल बहुत ऊहापोह हो रही है। कुछ लोग शिक्षा के साँस्कृतिक उद्देश्य पर बल देते हैं। कुछ उसको औद्योगिक रूप देना चाहते हैं। परन्तु हैं यह सब गर्म दल वाले एकान्तिक और एकाँगी। वह भूल जाते है कि शिक्षा ‘पूर्ण मनुष्य’ बनाने के लिए है। ‘पूर्ण मनुष्य’ न तो माँस हाड़ का पुँज है न शरीर रहित जीव है। ‘पूर्ण मनुष्य’ में तो हाड़ माँस से लेकर अहंकार युक्त आत्मा तक सभी सम्मिलित हैं। जो शिक्षा रोटी के प्रश्न तक ही सीमित रहती है वह भी न केवल अधूरी किन्तु भयानक है। आधुनिक पाश्चात्य भाषा का प्रयोग किया जाए तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य में स्थूल शरीर है, फिर इस के पश्चात् नर्वस सिस्टम या वात संस्थान है। फिर इस के पश्चात मस्तिष्क या ब्रेन है। इसके पीछे मन या माइंड है। मस्तिष्क और माइंड के बीच में कोई बड़ी दीवार नहीं है। अंतः जो शिक्षा हड्डियों और साँस-पिंडों का विकास तो करती है परन्तु नर्वस सिस्टम या मस्तिष्क के विकास पर बल नहीं देती वह अधूरी क्या निरर्थक है। पाश्चात्य शिक्षा माइंड तक समाप्त हो जाती है। वे आगे बढ़ना नहीं चाहते। यही उनकी अंतिम मंजिल है। इस मनोवृत्ति ने पाश्चात्य देशों की उन्नति को एक विचित्र अधूरा रंग दे रक्खा है और संसार का वर्तमान अशान्ति-पूर्ण वातावरण उसी का फल स्वरूप है। वे शरीर को पालते समय शरीरी को भूल जाते हैं। उनको देशों को बचाने की चिन्ता है देशवासियों को बचाने की नहीं। कारखानों की अधिक परवाह है कारखाने वालों की नहीं। यंत्रों की अधिक चिन्ता है यंत्रियों की नहीं। इसी को तो भौतिक दृष्टिकोण कहते हैं। असली भौतिकवाद यही है। आज से सैंतालीस वर्ष पूर्व ड्रमंड ने क्या ही अच्छा कहा था -
“भौतिकवादियों का एक मात्र दोष यह है कि उन्होंने संसार को परमाणु की दृष्टि से देखा हैं। जो मशीन इस विशाल जगत् को चला रही हैं उसका उन्होंने केवल मशीन के रूप में अवलोकन किया है। वे भूल जाते हैं कि जहाज में कोई यात्री भी हैं। या यात्रियों में कोई कप्तान भी है और उस कप्तान के सामने एक उद्देश्य भी है”।
वैदिक भाषा में हम मनुष्य को अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, और आनन्दमय कोष का एक संमिश्रित पंच कह सकते हैं। इसलिये वैदिक शिक्षा का आरम्भ अन्नमय कोष से होकर आनन्दमय कोष पर उसका अन्त होता है। हम रोटी तो भूलते नहीं परन्तु उसको किसी बड़े उद्देश्य का साधन मानते हैं। जो साधन साध्य की प्राप्ति नहीं कराता वह दूषित और त्यक्तव्य साधन हैं। उस मार्ग से क्या लाभ जो निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा न सके? जो लोग रोटी के खाने वाले आत्मा की अवहेलना करते हैं उनको याद रखना चाहिये कि रोटी केवल खाई नहीं जाती, वह खाने वाले को भी खा जाती है। इसलिये तो भर्तृहरि ने कहा था। - भोगा न मुक्ता वयमेव भुक्ताः। “ हमने रोटी नहीं खाई। रोटी ने हमको खा लिया।”।
आज पाश्चात्य देशों की ओर गम्भीर दृष्टि डालो। वहाँ रोटी पर इतना बल दिया जा रहा है कि रोटी देशों को खाये जा रही है। हमारे देश में भी रोटी ने हमको खाना आरम्भ कर दिया है। हमने लोगों में रोटी की दुहाई देकर उन पाशविक प्रवृत्तियों को उत्तेजित कर दिया है जिन के कारण न रोटी वालों को चैन है न बिना रोटी वालों को। शिक्षा विशारदों को इस बात पर अवश्य ही विचारना चाहिये। ऐसा न हो कि रोग-नाश के उपाय रोगी का भी नाश कर दें।
परन्तु साँस्कृतिक शिक्षा के गर्म दल वालों को भी एक बात नोट कर लेनी चाहिये। यह आवश्यक नहीं है कि जो नंगा है वह पहुँचा हुआ योगी ही हो। वर्तमान भारतवर्ष में जहाँ रोटी नहीं वहाँ आत्मिक ज्ञान भी नहीं। मैं यह नहीं मानता कि वेदों और उपनिषदों जैसी पुस्तकों के स्वामी सब भारतवर्षी आत्मिकोन्नति से सम्पन्न हैं। उन से प्राचीन ऋषियों के आत्मिक तल का तो पता चलता है परन्तु प्राचीन इतिहास वर्तमान परिस्थिति का स्थानापन्न तो नहीं हो सकता। बृहदारण्यक उपनिषद् हमको उस समय तक लाभ नहीं पहुँचा सकती जब तक हम में मैत्रेयी की वह स्पिरिट न हो जिस से प्रेरित होकर उस ने कहा था। - “येनाहं नामृता स्याँ कि महं तेन कुर्याम”। अर्थात् - “जिससे मुझे अमृत की प्राप्ति नहीं होती उसका मैं क्या करूंगी” आज की भौतिक शिक्षा का हम क्या करेंगे?