
सर्व धर्मान्परित्यज्य
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धर्म अधर्म के बड़े पेचीदा जंजाल में कभी कभी मनुष्य बड़ी बुरी तरह उलझ जाता है। धर्म का मर्म न समझने वाला व्यक्ति उसके ऊपरी आवरण पर ही मुग्ध हो रहता है और आटे को खोकर भुसी पल्ले बाँध लेता है। ऐसी अवस्था में धार्मिक व्यक्ति करीब करीब पागल या पिशाच बन जाता है। पागल तब बनता है जब साम्प्रदायिक कट्टरता पर लट्टू होकर केवल अपने को ही धर्मात्मा मानता हुआ अन्य मतावलम्बियों को अधर्मी ठहरा देता है। अपने मजहब की बुरी बातों को भी अच्छी मानता है और दूसरों की अच्छी बातों को भी बेकार समझता है। कट्टर साम्प्रदायिकता उसकी बुद्धि को कुँठित कर देती है, निर्धारित कर्मकाण्ड या रीति रिवाजों को ही धर्म का संपूर्ण स्वरूप समझता हुआ उनका अन्ध भक्त बन बैठता है, कट्टरता के किवाड़ बन्द करके अन्तर में निष्पक्षता का ईश्वरीय प्रकाश आना रोक देता। ऐसा धार्मिक व्यक्ति पागल के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। जब यदि कट्टरता अधिक उग्र होकर आसुरी भावनाओं के साथ सम्बद्ध हो जाती है तो मनुष्य पिशाच बन जाता है। इतिहास बताता है कि धर्म के नाम पर रक्त की होलियाँ खेली गई हैं। “हमारा मजहब कबूल करो या मृत्यु को आलिंगन करो” की नीति का बोलबाला चिरकाल तक रहा है और उसके फलस्वरूप असंख्य निर्दोष व्यक्तियों से माता वसुँधरा को रक्त रंजित किया गया है। जरा जरा सी बात पर होने वाले साम्प्रदायिक देंगे, रुचि भिन्नता के कारण किये गये छोटे मोटे स्वतंत्र कार्यों पर होने वाले धार्मिक विरोध, उसी पिशाचत्व का दर्शन करते हैं।
मानव जाति की बाहरी और आन्तरिक शान्ति एवं सुव्यवस्था के लिए धर्म है इस मर्म को समझने वाला व्यक्ति धर्म मजहब या संप्रदायों की मर्यादाओं से लाभ उठाता है और मजहबों के नियमोपनियमों पर अपनी बुद्धि बेचकर लकीर का फकीर हो जाता है। ऐसे ही अन्ध भक्त अर्थ का अनर्थ करते हैं। वे सब धान बाईस पसेरी बेचते हैं, “टकासेर भाजी, टकासेर खाजा” की उक्ति चरितार्थ करते हैं और एक ही लाठी से सब भेड़ों को हांकते हैं। सारी दुनिया हमारे ही मजहब को मानने वाली बन जावे वे ऐसा प्रयत्न करते हैं और उस प्रयत्न के लिए अधर्म, अनर्थ सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं। रूढ़िवादी, पोंगा पंथी, अंध भक्त, ऐसे ही बुद्धि के होते हैं जो अपनी मूढ़ता का दंड दुनिया को देते फिरते हैं। अपने चित्त भ्रम को न समझ कर दूसरों को सताते, झगड़ते और दुख देते फिरते हैं। ऐसे कट्टर वादियों का तथा कथित धर्म यथार्थ में अधर्म हैं क्योंकि वह किसी के लिए भी शान्तिदायक नहीं होता वरन् उसके भार से दबे हुए लोगों को नाना प्रकार के कष्ट क्लेश ही पाते रहते हैं।
विभिन्न मजहबों और सम्प्रदायों की ऐसी उलझन भरी स्थिति में से मनुष्य जाति को बचाने के लिए और मजहबी मतभेदों का एकीकरण करने के लिए भगवान की ओर से एक दिन दिव्य संदेश प्राप्त होता है कि “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहंत्वाँ पुँज पाषेभ्यो मोक्षयस्याम माशुचः।”
सब धर्मों को त्याग कर अकेले मेरी शरण में आ। मैं तुझे पापों से छुड़ाकर मुक्ति प्रदान करूंगा, शोच मत करें।
धर्म का वह अंश जो संपूर्ण मानव जाति पर लागू होता है वास्तविक में और स्थायी है और जो अंश अमुक कर्मकाण्डों का आदेश मात्र करता है तथा अमुक जाति एवं वर्ग को विशेष सुविधाएं प्रदान करता है वह अस्थायी और समयानुसार परिवर्तन होने वाला है। रीतिरिवाज और व्यवस्थाएं जब पुरानी पड़ने के कारण अनुपयोगी बन जावे और वे उन उद्देश्यों की पूर्ति करने में असमर्थ हो जावे जिनके लिए कि वे बनाई गई थीं तो वे एक से व्यर्थ है। मोह वश भरे हुए मुर्दे को छाती से चिपकाये रहने से हानि और अपकार होने की ही संभावना है। साम्प्रदायिक के रीति रिवाजें जो समयानुसार अनुपयोगी हो गई हैं केवल कलह, मतभेद, अनीति और अन्ध विश्वास को ही बढ़ा सकती हैं। ऐसी अवस्था में पड़े रहना मनुष्य के लिए अत्यंत ही खतरनाक और भयानक है, भगवान इस खतरे से सावधान करते हैं और साम्प्रदायिक लोगों को अपनी उलझनें जहाँ की तहाँ छोड़कर पीछे लौट आने का आदेश देते हैं।
धर्म का प्रकाश ईश्वरीय अखंड-ज्योति में से प्राप्त होता है। हम जब आत्मा के दीपक को परमात्मा की ज्योति का स्पर्श कराके प्रज्वलित कर लेते हैं तो अँधेरा हट जाता है और उस दीपक के प्रकाश में सच्चे के दर्शन होने लगते हैं। सच्चा धर्म मनुष्य मात्र की समान स्वाधीनता को स्वीकार करता है इसलिए किसी के स्वाभाविक अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करता। सत्य, प्रेम, न्याय में उसे धर्म की प्रतिभा दृष्टिगोचर होती है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति अपने और दूसरों के कल्याण करने के मार्ग में कदम बढ़ाता है और उन्हीं में आनन्द प्राप्त करता है, व्यर्थ की सड़ी गली प्रथाओं में उसे कोई दिलचस्पी नहीं होती। असल में सच्चा धार्मिक वही है जा अपने और पराये के उत्थान एवं विकास के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है और आत्मा को परमात्मा की शरण में सौंपता है।
भगवान का ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य वाला आदेश-अधार्मिक होने का उपदेश नहीं देता वरन् सच्चे अर्थों में मनुष्य को धार्मिक बनाता है। आप साम्प्रदायिक जंजालों को छोड़कर ईश्वर की शरण में जाइए यही सच्चा धर्म पथ है।