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Magazine - Year 1945 - Version 2

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परमात्मा को अपने भीतर से कार्य करने दीजिए।

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए. डी. लिट्. डी. डी.)

भलाई एवं पवित्रता का मार्ग पाप और नीचता की अपेक्षा कहीं सरल है। भलाई में जो स्वाद है, पवित्रता में जो आनन्द है वह पाप और नीचता के सरुर से अधिक मजेदार है। भलाई करना पाप करने से ज्यादा आसान है क्योंकि परमात्मा स्वरूप की प्रवृत्ति स्वभावतः पवित्रता की ओर है। पाप और नीचता बड़े अप्राकृतिक हैं। मनुष्य नहीं चाहता कि वह निकृष्टता के पंजों में फँस जाय। उस मार्ग पर चलने में उसे पग-पग पर अपनी आत्मा का संहार करना पड़ता है, मन की रुचि पर बलात्कार करना होता है तब कहीं वह पाप कर पाता है।

जो व्यक्ति धूम्रपान प्रारम्भ करते हैं उन्हें भयंकर खाँसी उठती है, नेत्रों में आँसू आ जाते हैं, शरीर में पीड़ा होती है, सर में चक्कर आते हैं, मुँह में से दुर्गन्ध उठती है। यह सब इसी कारण होता है क्योंकि तम्बाकू अप्राकृतिक है। परमेश्वर नहीं चाहता कि हम वह कार्य करें। प्रकृति का सहयोग उसमें नहीं है। केवल हमारी अनाधिकार चेष्टा ही उन दिव्य शक्तियों के विरुद्ध युद्ध करती है।

इसी प्रकार पाप एवं नीचता का प्रारम्भ करने में हमारे अंतःकरण में भयंकर विक्षोभ होता है, आत्म ग्लानि तथा क्लेश उत्पन्न होता है, मन किसी अज्ञात भय से थर-थर काँपता है, हमारे दुष्कृत्य में साथ नहीं देना चाहता, हमारा शरीर स्वाभाविक गति से उस ओर नहीं चलता। अड़ियल घोड़े की तरह वह स्थान-स्थान पर अटकता है और उस मार्ग पर नहीं चलना चाहता। हमारे संकल्प, हमारी धारणाएं, हमारी वृत्ति सब ही जवाब दे देते हैं। अपने मन पर अत्याचार करते हुए हम पाप में प्रवृत्त होते हैं। बार-बार उसी की आवृत्ति करते रहने से हमारी पवित्र आकाँक्षाएं मृतप्रायः हो जाती हैं। जिस प्रकार जानते बूझते हम अफीम, शराब, तम्बाकू तथा अनेकों विषैले पदार्थों के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा हमें उनकी कड़वाहट भी प्रतीत नहीं होती, उसी प्रकार अभ्यस्त हो जाने पर हमें पाप और नीचता करते हुए ग्लानि अनुभव नहीं होती। कालान्तर में हम पक्के पापी (Hardened) हो जाते हैं।

परमात्मा को अपने अन्दर से कार्य करने दीजिये। आदिप्रभु की जो इच्छा है उसी के अनुसार चलने के लिए अपने आपको विवश कीजिए। परमात्मा को स्वयं अपनी मर्जी के अनुसार चलने को मजबूर न कीजिए। तुम्हारी इच्छा व परमात्मा की इच्छा एक होनी चाहिए। तुम वही सर्व शक्तिमान परमात्मा हो जिसने तमाम जगत को अपनी पवित्रता प्रदान की है और अणु-अणु में वही उत्कृष्ट तत्व ओत-प्रोत कर दिया है जो सत्य है, सुन्दर है तथा सर्वत्र शिव है।

आत्म निरीक्षण द्वारा मालूम कीजिए कि कितने अंशों में तुम ईश्वरेच्छा के अनुगामी बने हो? तुम्हारे कितने कार्य परमात्मा के लिए होते हैं? कितनी देर तुम ‘स्व’ की पूर्ति में व्यतीत करते हो? कितनी देर तुम पूजा आराधना में लगाते हो?

तुम्हारे विभिन्न अंगों का क्या अभिप्राय है? वे किस आशय से बनाये गए हैं? तुम्हारे नेत्रों का कार्य पवित्र से पवित्र वस्तुओं का दर्शन होना चाहिए। तुम कुरूपता में भी भव्यता ढूँढ़ निकालो। प्रतिकूलता में भी सहायक तत्वों के दर्शन करते रहो। कठिन से कठिन और विषम से विषम परिस्थिति में भी विचलित न हो। तुम्हारे पाँव तीव्र आँधी पानी में भी स्थिर रहें। तुम्हारे हृदय में पवित्रता की गर्मी हो। शरीर में उत्साह हो। परमेश्वर का तेज अंग-प्रत्यंग से झलकता रहे।

आत्म बन्धुओं! हमारा इस संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम सत्-चित्-आनन्द विशुद्ध परम पदार्थ-आत्मा हैं। संसार और साँसारिक सम्बन्ध खिलौने मात्र हैं। अक्सर हम कहा करते हैं कि अमुक व्यक्ति हमारा पिता है, अमुक हमारा मित्र है, अमुक पुत्र है किन्तु वास्तव में न कोई शत्रु है, न मित्र, न पिता, न पुत्र। हम सब साक्षात परब्रह्म पदार्थ हैं। हमारा संसार के क्षुद्र झगड़ों से कोई सम्बन्ध नहीं है। सुख-दुःख छाया तथा उजाला है जो आता-जाता रहता है। उससे हमारी आन्तरिक शान्ति भंग नहीं होनी चाहिए। हम संसार से बहुत ऊंचे हैं।

जैसे वायुयान में बैठकर आकाश में विहार करने से संसार की प्रत्येक वस्तु घर बार, मनुष्य पशु, वृक्षादि छोटे-छोटे प्रतीत होते हैं। उसी प्रकार आत्म स्वरूप का प्रकाश करने वाले साधक को साँसारिक पदार्थ मिथ्या प्रतीत होते हैं। वह उनसे बहुत ऊंचा उठ जाता है। माया मोह के चक्र में नहीं फंसता। उसे दिव्य ज्ञान वह प्रकाश प्रदान करता है। जिसकी रोशनी में उसे भव्यता, पवित्रता तथा वास्तविक सत्यता के दर्शन होते हैं।

आप संसार के साथ जुदा ही रह कर आत्म-ज्योति का प्रकाश कर सकें- ऐसी बात नहीं है। संसार के थपेड़े सहकर भी आप भली-भाँति दिव्यता प्राप्त कर सकते हैं। घर गृहस्थ के अनेक उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए भी आप सहर्ष अपने भीतर से परमात्म तत्व को प्रकाशित कर सकते हैं।

आप यह मान कर प्रत्येक कार्य कीजिए कि आप परमात्मा हैं, उसी के एक अंग हैं। आपमें ज्ञान, सत्य, प्रेम भरा पड़ा है और आप नित्यप्रति के जीवन में उन्हीं तत्वों का प्रकाश कर रहे हैं आप सर्वत्र प्रेम, दिव्यता एवं शान्ति का ही दर्शन करते हैं। आपकी दृष्टि केवल भव्य तत्वों के चिंतन में ही लगती है। आप पवित्र शब्दों का ही उच्चारण करते हैं और मनोमंदिर में सदा सर्वदा पवित्र संकल्पों को ही स्थान देते हैं।

आप का लक्ष्य एवं आदर्श जितना दिव्य होगा, उतनी ही आपको ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त होगी। जो गुण आपमें नहीं हैं, उन्हें अपने अन्दर मान लीजिए। फिर उन्हीं के अनुरूप आचरण कीजिए। कालान्तर में वे ही शुभ तत्व आपमें प्रकट होंगे। आप अपने को दीन-हीन पापी नहीं, परम पवित्र निर्विकार आत्मा मानिये।

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