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Magazine - Year 1945 - Version 2

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महान जागरण

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(प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता डॉक्टर रामचरण महेन्द्र एम.ए.डी.लिट्. एफ.बी.टी.आई. (लंदन)

(प्रस्तुत लेख माला के अंतर्गत डॉक्टर महेन्द्र के ऐसे अनुभव पूर्ण साधन, अभ्यास तथा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का विशद विवेचन रहेगा। जिससे पाठक अपूर्व मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक सामग्री एकत्रित कर सकेंगे। स्वसंकेत (Auto suggestion) क्या है? उसका मनोवैज्ञानिक आधार कहाँ है? कैसे चमत्कारिक कार्य करता है? इत्यादि महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जायेगा सं.)

अंतःवृत्ति का निर्माण

क्या तुमने अपने चिंतन के क्षणों में इस तत्व पर मनःक्रिया केन्द्रित की है कि मानव की चित्तवृत्ति, स्वभाव आदतें, भावनाएं प्रसुप्त आकाँक्षाएं किस आधार शिला पर स्थित है? मानसिक स्थितियों, उत्कृष्ट या निकृष्ट भूमिकाओं का निर्माण कौन करता है? वासनाओं अथवा मनोविकारों को प्रदीप्त करने वाला कौन तत्त्व है? अन्तःकरण में विशुद्ध सजातीय पदार्थ अथवा विषैले विजातीय कण क्या आन्दोलन उत्पन्न करते हैं?

असंख्य व्यक्ति रात-दिन किसी काल्पनिक शत्रु से प्रतिशोध लेने की युक्ति सोचा करते हैं। अमुक हमारा बैरी है, वह हमारी त्रुटियाँ, कमजोरियाँ, बुराइयाँ लोगों को बतलाता फिरता है, हमारी ओर वाक्य-बाण कसता है, हमें अभद्र शब्दावली सुनाता है, हम से ईर्ष्या, बैर, द्वेष करता है। ऐसे सुकुमार छुई मुई (sensitive) प्रकृति वाले व्यक्ति तनिक सी बात में चिढ़ जाते हैं, विक्षुब्ध हो उठते हैं और आत्मबल को क्षय करने लगते हैं।

कुछ व्यक्ति विगत प्रसंगों, पुरानी व्यथाओं, बीते हुए कटु दृश्यों का स्मरण कर अनायास ही विक्षिप्त से हो उठते हैं। यदि ऐसा न करके ऐसा हुआ तो सब ठीक हो जाता, रोगी को अमुक औषधि न देकर अमुक करते फलाँ डॉक्टर की औषधि न करा फलाँ की कराते तो प्रियजन की मृत्यु कदापि न होती। हमने अमुक समय बड़ी गलती कर डाली। बस उसी त्रुटि ने हमारा जीवन खेल समाप्त कर डाला, अमुक बात हो जाती तो संपूर्ण जीवन स्वर्णमय हो जाता।

एक वे भी हैं जो भ्रान्ति के कारण मिथ्या दुःखादि के दर्शन किया करते हैं। वे ऐसी बातें सोचते हैं जिनका पृथ्वी तल पर कोई अस्तित्व नहीं। उनके मनःचित्र इतने विकृत होते हैं कि भिन्न-भिन्न हेतुओं में भयंकर उत्क्राँति मची रहती है। वे एकान्त में बड़बड़ाते हैं तथा अदृश्य वस्तुओं से तादात्म्य कर विक्षुब्ध हुआ करते हैं।

ये सब मनः स्थितियाँ, अन्तःकरण की विभिन्न क्रियाएं केवल एक तत्व पर स्थित है। यह महान वस्तु है- विचार। आज तक विश्व में जो-जो महत्वपूर्ण आश्चर्य चकित कर देने वाले महान कार्य हुए हैं, जो कुछ उत्कृष्ट कार्य हो रहा है वह मनुष्य के उस दिव्य गुण का चमत्कार है, जिसे मनोविज्ञानवेत्ता विचार कहते हैं। व्याकुलता, संतुलन, उच्च या निम्न भूमिका, क्षोभ, चित्त की सुस्थिरता, मित्र अथवा शत्रु हमें जो कुछ भी प्राप्त हैं, हो रहा है यह सब हमारे विचारों के ही परिणाम हैं।

जीवन में चहुँ ओर जो अन्धकार या प्रकाश, विपत्ति वा प्रतिकूलता तुम्हें दृष्टिगोचर होता है वह विचारों के ही फल हैं। भूतकाल की स्मृतियाँ, काल्पनिक दुःख, जादू की मिथ्या भावना, दूसरों की आलोचना स्वयं हमारे निजी विचारों की प्रतिच्छाया (Reflection) मात्र है।

जीवन की यथार्थता हमारे विचारों पर निर्भर है। आज आप जो हैं, अपने जीवन को जिस उत्कृष्ट या निम्न स्थिति में रखे हुए हैं, आप का अन्तःकरण, इच्छाएं, बाह्य स्वरूप, वातावरण, मानसिक संतुलन प्रायः प्रत्येक तत्व हमारे विचारों के परिणाम हैं। मनुष्य की सर्व महत्ता, जीवन के सर्वोत्तम कर्त्तव्य उसके प्रबल स्थायी विचारों पर निर्भर हैं।

उत्पादक शक्ति का अखण्ड नियम-

कर्म हमारे विचारों के रूप हैं। सर्वप्रथम विचार मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं और जब ये विचार मन में प्रबलता से (Fixedly) अंकित हो जाते हैं, गहरी नींव पकड़ लेते हैं तब तदनुकूल ही बाह्य अंग प्रत्यंग क्रियाएं करते हैं। अन्तःकरण में विचारों का एक वृहत् भंडार रहता है। वे क्षण-क्षण उत्पन्न एवं विनष्ट हुआ करते हैं। अन्तःकरण में विचार के अभाव में कोई भी क्रिया सम्पन्न नहीं होती।

इन विचारों के भी विभिन्न प्रकट, भेद अभेद हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं जो पानी के क्षणिक बुलबुले के अनुरूप क्षत विक्षत होते रहते हैं। वे बनते हैं बिगड़ते हैं तथा मन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ जाते। जैसे पानी में नौका विहार के समय रेखाएँ हो जाती हैं किन्तु क्षण भर में विलीन हो जाती हैं वैसे ही इन क्षणिक विचारों की क्रिया भी है। ये आये और गये, उत्पन्न हुए और विनष्ट हुए।

कुछ विचार दूसरों के संकेत से मन में प्रवेश करते हैं, आन्दोलन उत्पन्न करते हैं, कुछ काल तक टिकते हैं किन्तु तत्पश्चात विलीन हो जाते हैं।

जिन विचारों से मनोभूमि में स्थायी छाप पड़ती है, जिन से हमारे अन्तःकरण में प्रबल सत्ता अंकित होती है जो पुनरावृत्ति के कारण स्वभाव के एक विशिष्ट अंक बन जाते हैं, उन्हीं विचारों का विशेष महत्त्व है। मानसशास्त्र (Psychology) इस तत्व का दृढ़ता पूर्वक निर्देश करता है कि इस प्रबल विचार की सत्ता महान है-यह स्थूल वस्तु है। जो ठीक सम्यक् रीति से विचार करने की कला से परिचित है। वह अपना भाग्य, दृष्टिकोण, वातावरण परिवर्तित कर सकता है। जो उचित रीति से विचार बोना जानता है, विचार बीजों का पारखी है, उचित अनौचित्य से पूर्णतः परिचित है, वह अपने भाग्य, स्वभाव तथा वातावरण को परिवर्तित कर सकता है।

आज आप जैसे कुछ-अच्छे बुरे हैं, अपने जीवन को जिस स्थिति में रखे हुए हैं, आप का अन्तःकरण, इच्छाएं, बाह्य स्वरूप, वातावरण, मानसिक संतुलन सब कुछ आपके निजी विचारों के परिणाम हैं। जैसे तुम्हारे विचार होंगे तदानुकूल ही तुम्हारे भविष्य का निर्माण होगा।

बीज के अनुसार वृक्ष की उत्पत्ति होती है। जैसे बीज बोओगे वैसा ही पौधा उत्पन्न होगा। जैसे विचार मन में उत्पन्न होंगे वैसा ही जीवन निर्माण होगा। सर्वप्रथम विचार मन में उत्पन्न होता है। मस्तिष्क से संयुक्त गतिवाहक सूक्ष्म तन्तुओं पर उसका प्रभाव होता है। अन्त में प्रबल विचार के अनुकूल ही कार्य करने की बलवत्तर प्रेरणा की उत्पत्ति होती है। पहले विचार तत्पश्चात क्रिया और व्यवहार रूप में परिणति यही नियम है।

उत्पादक शक्ति का अखण्ड नियम यह है कि जैसे विचार होंगे, वैसा ही निर्माण होगा, जैसा हम विचार करेंगे वैसी ही आदतें बनेगी, जैसे विचार मनः सरोवर में उत्पन्न होंगे, वैसा ही स्वभाव का निर्माण होता जाएगा। शोक संताप के विचारों से चिड़चिड़ेपन, रोने चिल्लाने से जीवन का मृदुता नष्ट होती है।

मानव के जैसे विचार होते हैं वैसा ही वह होता है। जिस महापुरुष ने यह महासत्य मालूम किया वह सचमुच महान दार्शनिक विचार का रहा होगा क्योंकि विश्व के समग्र व्यक्तियों के भविष्य मनोरथ, उद्देश्य, सिद्धि एवं सफलता इसी महा सत्य के इर्द गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। हमारी समस्त आशा, श्रद्धा, लालसा, मनोवृत्ति सब के पृष्ठ भाग में यही महासत्य अलौकिक सत्य अन्तर्हित है। यह वह (Great Principle of Life) है जो हमें उत्पादक शक्तियाँ प्रदान करता है।

उत्पादक शक्ति का अटल नियम यह है कि जिन विचारों पर हम दृढ़तापूर्वक विश्वास करते हैं, जिन के पीछे बलवत्तर प्रेरणा प्रस्तुत रहती है, जो विचार बारम्बार मस्तिष्क में उठता है तथा जिसका पुनरावर्तन (Repeatation) चलता रहता है उन्हीं के अनुसार हमारा जीवन ढल जाता है। बात यह है कि हम अपने आप को जैसा मानने लगते हैं अपने बारे में जो दृढ़ चिंतन कर लेते हैं, जिन हजारों में संलग्न रहते हैं, क्रमशः वैसे ही होते जाते हैं। जैसे हमारे आदर्श होते हैं, जैसे हमारे हार्दिक भाव होते हैं, ठीक उन्हीं का बिम्ब प्रतिबिम्ब हमारे भूमंडल पर द्युतिमान हो उठता है और कुछ काल पश्चात् हम वैसे ही हो जाते हैं।

संकेत (Suggestion) क्या है?

यदि मनुष्य अपने आपको स्वस्थ, निरोग, सामर्थ्यशील माने, निरन्तर इसी भावना का संकेत (suggestion) अपनी आत्मा को देता रहे, इसी विचार में पूर्ण निश्चय एवं विश्वास भर कर अपने आप को इसी की सूचना करे तो वह अवश्य सामर्थ्यशाली बन जावेगा। आवश्यकता केवल निरंतर सूचना या संकेत देने की है। जितने परिपुष्ट संकेत होंगे, उतना ही महान परिवर्तन, उतने ही उत्कृष्ट तत्वों की सिद्धि। संकेत क्या हैं? पुष्ट एवं दृढ़ विचार, स्पर्श, ध्वनि, शब्द दृष्टि तथा विभिन्न आसनों तथा क्रियाओं द्वारा किसी के मन पर प्रभाव डालने तथा अपनी इच्छा द्वारा कार्य सम्पन्न कराने का नाम संकेत करना है। संकेत ऐसे वाक्यों से किया जाता है जिन में अपूर्व दृढ़ता, गहन श्रद्धा, शब्द, शब्द में शक्ति भरी रहती है। जिज्ञासु बारम्बार कुछ शब्दों, वाक्यों तथा सूत्रों को लेता है, बारम्बार मस्तिष्क में उठाता है, उन पर विचार क्रिया दृढ़ करता है। पुनरावर्तन द्वारा कुछ काल पश्चात ये विचार स्थायी स्वभाव में परिणत हो जाते हैं। मन को जिस प्रकार का प्रबोध बार-बार दिया जाता है, कालान्तर में वही उसकी स्थायी सम्पत्ति हो जाती है। मन हमारे सम्पूर्ण कार्यों का ड्राइवर है। यह प्रचंड शक्ति वाला यंत्र है। विचारों का उत्पन्न, परिवर्तन, परिवर्द्धन करने का कार्य भी इसी संचालक द्वारा होता है। अतः संकेत का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है।

मन का प्रवाह, उसकी विभिन्न क्रियाएं तीव्र गति से चलती हैं। ये विभिन्न क्रियाएं हमारे शरीर, इन्द्रिय, मन, एवं बुद्धि इत्यादि प्रत्येक मनोभाव की अधिष्ठाता है। बिना इनके मंतव्य के शरीर किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। जब तक संकेत (suggestions) दूसरे की मानसिक संस्थान के एक विशिष्ट भाग (Part & Parcel) नहीं बन जाते तब तक उनका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। यदि हमारा मन उन्हें स्वीकार कर ले, उन से तादात्म्य स्थापित कर ले, अपना क्रिया, व्यापार, व्यवसाय उनके अनुसार करने लगे तो वे संकेत सफल हो जाते हैं।

ये संकेत हमारे व्यक्तित्व के एक भाग बन जाते हैं, मानसिक क्षेत्र में दृढ़तापूर्वक कर कठोर बन जाते हैं। तत्पश्चात से अपनी प्रतिक्रिया (Reaction) प्रारंभ करते हैं। ये संकेत शक्ति, सामर्थ्य के तत्व हैं, अन्तःकरण में आग्रहपूर्वक ये संकेत नवीन संस्कार उत्पन्न कराते हैं। पुराने संस्कारों को नष्ट इन्हीं के द्वारा किया जा सकता है।

जैसे कैस्ट्रायल पेट में प्रवेश करने के उपरान्त विजातीय तत्व को निकाल बाहर कर देता है उसी प्रकार मनः क्षेत्र में प्रवेश कर संकेत महान आन्दोलन उत्पन्न कर देते हैं। पूर्व संस्कारों तथा इन नवीन संकेतों में एक संघर्ष उत्पन्न होता है। निश्चय बल के अनुसार इस युद्ध में सफलता मिलती है। यदि हमारी पूर्व भावना बलवती हुई तो ये संकेत निष्प्रयोजन सिद्ध होते हैं, यदि इनके पीछे दृढ़ निश्चल विश्वास की बलवत्तर प्रेरणा विद्यमान रही तो इन संकेतों के अनुसार मानसिक निर्माण कार्य प्रारंभ होता है।

संकेत कहाँ प्रभाव डालता है?

हमारे मन के दो स्वरूप हैं-एक चेतन (conscious or objective) तथा दूसरा अचेतन (un-conscious or subjective) यह सूक्ष्म कोष्ठों (cells) से निर्मित हैं। मन की शक्ति इन कोषों पर ही निर्भर है। जिन्हें अपनी शक्ति वृद्धि इष्ट है उन्हें उस स्थान के इन कोषों की वृद्धि करनी चाहिए। चेतन मन हमारी बौद्धिक प्रगतिशीलता पर निर्भर है। जो कार्य हम नित्य प्रति सोच समझ कर करते हैं, जिसके पीछे हमारी चेतनता निरन्तर कार्य करती है, जिनका प्रभाव हमारे शरीर पर सीधा (directly) पड़ता है वे सब कार्य इस चेतन (conscious) मन द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। हम जो काम सोच विचार कर, आगे-पीछे सोचकर करते हैं वह यही से होता है। यह मन हमारी जाग्रतावस्था (consciousness) तथा चेतनता पर आश्रित है। बिना चेतन मन की आज्ञा के हमारी चेतन शक्तियाँ कार्य नहीं करेगी।

अचेतन (un conscious) मन हमारी चेतना का दास नहीं। वह तो सर्वथा उन्मुक्त, स्वाधीन है। बिना चेतना की आज्ञा तथा आदेश के वह जो चाहे कर सकता है। वास्तव में मन का यह भाग हमारे बिल्कुल अधिकार में नहीं है वह जो-जो कार्य किया करता है अपनी मर्जी से और कभी-कभी तो यह कार्य हमारी इच्छा के विपरीत होते हैं। हम नहीं चाहते कि वे हों, उसमें हमारी कामना, निष्ठा सहयोग तनिक भी नहीं होता तब भी यह अचेत मन निज मनमानी किया ही करता है।

अचेत मन का एक विशिष्ट गुण यह है कि यह सोते जागते प्रत्येक अवस्था में कार्यशील (Active) रहता है। चेतन मन को हम जिस तरह चाहें दिशा परिवर्तन करा देते हैं किन्तु जब हम एक को आदेश दिया करते हैं तो द्वितीय निज मनोकुल जो चाहे करता ही रहता है। निश्चेष्ट चुप-चाप नहीं बैठता, न कभी थकता ही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह हम से निर्देश करता हो, ‘तुम अपना काम करो हमें अपना कार्य करने दो।’ अचेतन मन की उच्छृंखलता सचमुच अद्भुत है।

अचेतन मन ही परोक्ष तत्वों (Intuition) का केन्द्र स्थान है। हमारी प्रेरणाएं (Onspirations) भी यहीं से उत्पन्न होती है। यद्यपि ये दोनों ही हमारे चेतन मन द्वारा प्रभावित होती हैं किन्तु इनका केन्द्र स्थान अचेतन जगत ही है। इसी प्रकार अचेतन मन हमारी मूल प्रवृत्तियों (Instincts) तथा अनुभावों (Emotions) से अखण्ड रूप में सन्नद्ध है।

दमन

हमारी अनेक टूटी-फूटी इच्छाएं प्रसुप्त वासनाएं, अपूर्ण वृत्तियाँ इसी अव्यक्त मन में छुप जाती हैं। जब कभी कोई बात वस्तु जगत में पूर्ण न हुई या अवरोध उत्पन्न हुआ तो ये वृत्तियाँ दबाई जाती हैं। किन्तु दबने (suppression) का अर्थ यह नहीं कि ये सर्वथा गायब ही हो जायं। ये कभी लुप्त नहीं होती प्रत्युत जब तक जागृत मन का प्रभुत्व अधिक होता है, कुछ काल के निमित्त एक ओर चुप चाप बैठ जाती हैं। जैसे एक शक्तिशाली सम्राट के राज्य में उसके आतंक से प्रतिद्वन्द्वी दब जाते हैं, कुछ द्वन्द्व नहीं करते किन्तु उसका आतंक हटने से पुनः विरोध करते हैं उसी प्रकार जागृत मन के प्रभुत्व रहने तक तो ये कुछ नहीं बोलती, चुपचाप पड़ी रहती हैं किन्तु उसके प्रभुत्व के क्षीण होते ही ये प्रसुप्त चित्त वृत्तियाँ एकदम शक्तिशालिनी हो उठती है, अति सूक्ष्म रूप, विशाल कार्य रूप धारण कर लेता है। फिर तो जागृत एवं इन प्रसुप्त वासनाओं में भयंकर संघर्ष प्रारंभ होता है। व्यक्त तथा अव्यक्त के वैमत्य का संबोधन ही अन्तर्द्वन्द्व है। आत्म घात-प्रतिघात से ही मनोरोगों की उत्पत्ति होती है।

अन्तर्द्वन्द्व का कारण

सामाजिक रूढ़ियां इतनी जटिल तथा सख्त हैं कि हमारी उचित अनुचित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं। अपयश, सामाजिक टीका टिप्पणी के विचार से हम उद्भूत वासनाओं को छिपाना चाहते हैं। हमारी विवेक, बुद्धि दुर्वासना को व्यक्त नहीं होने देती। अतः ये वासनाएं चेतन मन से अचेतन में जा छुपती हैं। ये जब तक परितृप्त न हो जायं तब तक शाँत कदापि न होंगी। अतएव रेंगती हुई ये अव्यक्त मन में बीज रूप से छुपी रहती हैं। प्रसुप्तावस्था में चेतन मन में प्रविष्ट हो जाती है और हमारी विवेक-बुद्धि से द्वन्द्व करती हैं। प्रत्येक वासना परितृप्ति का प्रयत्न करती है जब तक वह पूर्णतः तृप्त नहीं हो जाती लुप्त नहीं होती। छोटी अथवा वृहत मात्रा में वर्तमान रहती है। कभी क्षीणतर कभी प्रबलतर हुआ करती हैं।

स्वप्न में संघर्ष

अव्यक्त की प्रसुप्त वासनाएं समाज के डर से स्वप्न में निरन्तर निकला करती हैं। स्वप्न में चेतन अथवा व्यक्त मन तो निष्क्रिय हो जाता है किन्तु अव्यक्त (nconscious) मन रुकी हुई वासनाओं को आगे बढ़ाता है। ये क्रान्तिकारी वासनाएं स्वप्न में भयंकर ताण्डव करती हैं तथा अनुकूल परितृप्ति पाती हैं। ज्यों-ज्यों ये परितृप्त का मार्ग ग्रहण करती हैं त्यों-त्यों इन्हें एक निर्धारित मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है, इस विशिष्ट मार्ग की बागडोर अहंकार के आधीन है। अहंकार को विवेक बुद्धि, चेतन मन के आधीन रहना पड़ता है। अतः प्रसुप्त वासनाएं चेतन जगत (Focus of the mind) में रेंगती आती हैं पर डरती रहती हैं। इस प्रकार चेतन जगत में चुपचाप चली आने पर अहंकार से इनका संघर्ष होता है। अहंकार अपने अनुकूल वातावरण के अनुसार अव्यक्त वासनाओं को परितृप्त या नियंत्रित करता है। स्वप्न में देशकाल परिस्थिति की मर्यादा को तोड़कर जो वासनाएं किंचित काल के लिए शाँत होना चाहती हैं, वे पुनः अहंकार द्वारा कुचल दी जाती है। जब मनुष्य का चेतन मन अचेतन का तिरस्कार करता है तो व्याधि की उत्पत्ति होती है।

(क्रमशः)

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