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Magazine - Year 1946 - Version 2

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वासना, पागलपन और आत्म हत्या

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(श्री डॉक्टर विश्वामित्र वर्मा, मानसचिकित्सक)

सारा विश्व परमाणुओं का बना हुआ है। परमाणु अति सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं, इनमें बड़ी तीव्रगति होती है, आकर्षण होता है और बहुत प्रकार के गुण वाले हैं, इसी कारण भिन्न-भिन्न परमाणुओं के मेल से भिन्न-भिन्न रंग रूप स्वभाव के प्राणी संसार में हैं। एक छोटा सा बीज पृथ्वी पर पड़ जाने से समयानुसार पृथ्वी, जल, वायु और आकाश के अदृश्य तत्वों के संयोग से ही विशालकाय वटवृक्ष हो जाता है।

उसी प्रकार यह मानव शरीर भी बना है और जिन तत्वों के परमाणुओं से इसका पोषण होता है उन्हीं का रंग रूप गुण स्वभाव इसमें होता है। मनुष्य जैसा भोजन करता है उसी के गुणों के अनुसार उसकी प्रकृति, विचार और रंग रूप होते हैं। भूख लगने पर भोजन करने से भूख शाँत होती है, पच जाने पर उपयोग न किया हुआ शरीर में रहा हुआ भोजन का वह रूप बाहर निकालने की आवश्यकता होती है, मल त्याग करने पर शाँति मिलती है। प्यास लगने पर पानी पीने से, तथा मूत्र त्याग करने से शाँति मिलती है। इसी प्रकार शरीर से अन्य स्वाभाविक क्रियाएँ अंग संचालन नींद, छींक, जँभाई, हँसना, रोना, तथा और भी शरीर की आवश्यक स्वाभाविक क्रियाएँ हैं। इन क्रियाओं में न्यूनता, अधिकता होने अथवा इनके बन्द होने अथवा इनको रोकने, दबाने से रोग और मृत्यु हो जाती है। इन्हें हम शारीरिक वासनाएँ कहेंगे, वासना से हमारा अर्थ हैं लगाव। शरीर के साथ ये क्रियाएँ लगी हुई हैं।

इसी प्रकार मन की लगी हुई क्रियाएँ हैं, प्रेम करना, मनोविनोद आशा, आकाँक्षा सौंदर्य दर्शन, संगीत, कला रुचि आदि कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं। आगे चल कर और भी सूक्ष्म वासनाएँ शरीर और मन के परे हैं जिनके पूर्ण होने अथवा न होने से शरीर, मन तथा जीवात्मा पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर की अवस्थाएँ बढ़ने के साथ-साथ में वासनाएँ रूप बदलती रहती हैं। यथा बचपन में खेल कूद, युवावस्था में उच्छृंखलता, अदण्डता, पुरुष-स्त्री प्रेम, कामेच्छा, (स्त्रियों से ऋतु धर्म) प्रौढ़ावस्था में संतानेच्छा, सन्तानोत्पत्ति, माता-पिता बनने की इच्छा, संपत्ति संचय, सामाजिक व्यवहार व सम्बन्ध, गंभीरता, तथा वृद्धावस्था में झंझटों से त्याग आत्म चिंतन, ईश्वर भजन।

यदि इन अवस्थाओं में तत्संबंधी स्वाभाविक क्रम न पूर्ण हुए, अथवा किसी कारण वश स्वयं उन्हें रोका गया, दबाया गया तो आगे चलकर इसका भयानक परिणाम होता है, यथा रोना, पागलपन, आत्महत्या, तथा मृत्यु के पश्चात भी जीवात्मा, अपूर्ण जीवन व्यतीत होने के कारण पार्थिव वासनाओं में सैकड़ों वर्ष तक लिप्त हो दुःखी रहती है और सारा उन्नति का पारलौकिक क्रम बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में आश्रम धर्म का बराबर पालन हो तो आत्मा की इहलौकिक तथा पारलौकिक यात्रा पूर्ण सफल हो। परन्तु आधुनिक युग में विचार स्वातंत्रय, सिद्धान्त, आदर्श तथा बचपन में ही धार्मिक सामाजिक किन्हीं उच्च काल्पनिक संस्कारों के जम जाने से अल्पावस्था से ही राष्ट्र सेवा समाज सेवा करने, ब्रह्मचारी, संन्यासी, त्यागी बन कर आदर्श के द्वारा जो पहले से ही साँसारिक व्यवहार में प्रवेश किये बिना, जीवन क्रम की अवहेलना करके शीघ्र ही एकदम उछल कर चौथी सीढ़ी पर छलाँग मारकर देवत्व प्राप्त करना चाहते हैं उनमें आगे चल कर पिछली अवस्था की बिछड़ी हुई वासनाएँ विकृत मार्ग से विकृत रूप में प्रगट होती हैं। इससे शरीर और मन की स्वाभाविक क्रियाएं बिगड़ जाती हैं।

पृथ्वी पर एक बीज बो देने पर अंकुर निकल कर जब वह पृथ्वी की सतह पर प्रगट होकर पौधा बनना चाहता है उस समय यदि उस पर चट्टान रख दी जाय, तो वह विकृत मार्गी होकर स्वयं को दर्शावेगा और उसका रूप तथा फल भी कमजोर होगा।

सिद्धान्त और आदर्श के कारण, अथवा बचपन से जमे हुए संस्कारों के कारण जब स्वाभाविक क्रम वासनाएं पूर्ण नहीं होतीं, तो मन और शरीर में संघर्ष होता हैं और वासनाएँ प्रगट होने के लिए अन्दर ही अन्दर घुटती छटपटाती तथा उसी प्रकार मार्ग ढूँढ़ती हैं जिस प्रकार पृथ्वी की सतह पर चट्टान आ जाने से बीज का अंकुर मार्ग ढूँढ़ता है। मन और शरीर की ऐसी व्यवस्था पागलपन होती है। पागलपन कभी प्रगट होकर जीवन और व्यवहारों में गड़बड़ी करता है अथवा कभी स्वयं व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक अवस्था में अन्दर ही गड़बड़ी करता रहता है। जिससे उसके बाहर के व्यवहार ठीक रहते हैं। लोग उसे पागल नहीं कहते परन्तु वह स्वयं छिन्न-भिन्न रहता है। धार्मिक सामाजिक बन्धनों के कारण किसी व्यक्तिगत लाचारी अथवा किसी अन्य दबाव के कारण जब वह अपने स्वाभाविक क्रम के अनुकूल जीवन बनाने में स्वयं को असमर्थ पाता है और आँतरिक यातनाओं को सहन करते-करते थक जाता है तब आत्म हत्या कर लेता है।

जीते जी ऐसे व्यक्तियों का आँतरिक जीवन बड़ा अशान्त होता है, हम कल्पना कर सकते हैं कि जब भूख लगती है और भोजन न दिया जाय, टट्टी लगने पर उसे रोका जाय, पेशाब लगने पर उसे रोका जाय, जंभाई अथवा छींक आने पर उसे रोका जाय, नींद आने पर सोने न दिया जाय, कामेच्छा होने पर उसे किसी कारण पूर्ण न किया जाय, स्त्री का ऋतु धर्म न हो, उत्सव रुक जाय, तो कितना कष्ट होता है। इनका केवल रुकना ही नहीं, वरन् न्यून अथवा अधिक होने पर मनुष्य रोगी होता है और मृत्यु हो जाती है।

विशेष कर कामेच्छा, पुरुष स्त्री प्रेम, संतानेच्छा, संतान प्रेम, ऐसी वासनाएं हैं जिनका पूर्ण होना बहुत ही आवश्यक है- इनके पूर्ण न होने से अनेक रोग शरीर और मन को होते हैं, तथा मरने के बाद जीवात्मा असन्तुष्ट रहता है। इनकी अपूर्णताओं से मन में तथा मन से शरीर में ऐसे रोग हो जाते हैं कि परीक्षा व निदान करने पर कारणों का कुछ पता नहीं चलता, न इनका इलाज हो सकता क्योंकि उनका शारीरिक-स्थूल-कारण न होकर, उनकी जड़ सूक्ष्म में रहती हैं। एक स्त्री को दो वर्ष से ऋतु धर्म न हुआ था फलतः आँखें होते हुए भी उसे कुछ दिखाई न देता था, यद्यपि आँखों में कोई खराबी न सिद्ध हुई, वह अंधी थी।

स्वाभाविक कर्मों का दमन करके, यद्यपि व्यक्तिगत जीवन आश्रम धर्म के अनुकूल न हो तो भी आजकल लोग कामेच्छा को भले ही किसी अप्राकृतिक अथवा स्वाभाविक साधन से अस्थायी रूप में पूर्ण कर लें, मन बहलाव कर लें-उसका सूक्ष्म प्रभाव नहीं जाता। यथा युवावस्था में विवाह न कर, अविवाहित स्त्री पुरुष यद्यपि स्वतंत्रता के मद में, गृहस्थ की झंझटों और कष्ट से बचने के लिये प्रेमालाप, विषय भोग करते रहें, संतति निरोध एक ऐसा रोग है जिसका परिणाम स्त्रियों पर भयानक होता है क्योंकि “गर्भाशय की भूख” गर्भधारण और संतानोत्पत्ति से ही शाँत होती है और उसकी जीवात्मा को शाँति मिलती है।

संतानोत्पत्ति न होने से बहुत सी स्त्रियों में पागलपन भयानक रूप धारण कर लेता है, उनकी कामेच्छा बहुत बढ़ जाती है और किसी प्रकार भी शाँत नहीं होती। संतान प्रेम की अनुपस्थिति उन्हें बहुत दुःखी करती है, मरने पर उनकी जीवात्मा दूसरी गर्भवती तथा गोदभरी स्त्रियों व उनकी संतानों पर बुरा या अच्छा प्रभाव डालती है।

आधुनिक वैज्ञानिकों सभ्यता के युग में स्वतंत्र, आदर्श जीवन की आढ़ में आश्रम धर्म की अवहेलना से ही वासनाओं का दमन, आँतरिक संघर्ष, पागलपन और आत्म हत्या की प्रेरणा अधिक होती है, तथा व्यापारिक हानि, गृह कलह, द्वेष तथा अन्य कारणों की अपेक्षा, वासनाओं के कारण आत्म हत्याएं अधिक होती हैं। विवाहितों का गृहस्थ जीवन यद्यपि झंझट मय होता है, वे बालबच्चों में तथा पारस्परिक सहयोग से जीवन के दुःखों को भूले हुए अधिक काल तक जीते हैं, एकाकी लोग जीवन से घबरा उठते हैं, क्योंकि उनकी आकांक्षा, व्यवहार और सहयोग का आधार नहीं है।

मोरसली नामक एक पाश्चात्य डॉक्टर ने खोजकर बताया है कि अविवाहितों और विधुर-विधवाओं की अवस्था ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है त्यों-त्यों, विवाहितों की अपेक्षा उनमें पागलपन और आत्महत्या की प्रेरणा अधिकाधिक बढ़ती जाती है। उन्होंने बताया हैं कि प्रति दस लाख की जनसंख्या में बालबच्चे वाले 205 आदमियों ने आत्महत्या की, 470 निःसंतान मनुष्यों ने, बाल बच्चे वाले 526 विधुरों ने, 1004 निःसंतान विधुरों ने, सन्तान वाली 45 स्त्रियों ने, निःस्तान 15 स्त्रियों ने, सन्तान वाली 104 विधवाओं ने, निःसन्तान 238 विधवाओं ने आत्महत्या की संपूर्ण संख्या का 75 प्रतिशत अविवाहितों की आत्महत्या है।

स्त्रियों के विषय में वे कहते हैं कि यूरोप में पागल स्त्रियों की गणना में, 5 पागल स्त्रियों में 4 पागल स्त्रियाँ अविवाहित मिलेंगी अर्थात् सारे सभ्य संसार में विवाहित पागल स्त्रियों की अपेक्षा अविवाहित पागल स्त्रियाँ तिगुनी चौगुनी हैं। फ्राँस में 1853 ई॰ में मरने वालों की गिनती की गई तो मालूम हुआ कि विवाहितों की अपेक्षा अविवाहितों की 20 से 70 वर्ष तक अवस्था वालों से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक थी, यथा प्रति हजार की 20 से 30 वर्ष वाले अविवाहित मनुष्यों में मृत्यु क्रम 11 था, विवाहितों में प्रति हजार केवल 6 मरते थे, स्काटलैण्ड में 20 से 30 वर्ष अवस्था वाले प्रति हजार अविवाहितों में 15 मरते थे, विवाहित प्रति हजार केवल 7 मरते थे। उनका कहना है कि जीवन की नष्टकारी शक्तियों में कुँआरापन सबसे भयानक है। भोजन व रहन-सहन के तरीकों में गन्दगी, बीमारी आदि को अपेक्षा मृत्यु की अपेक्षा कुँआरेपन का मृत्यु अधिक होती है।

स्वाभाविक जीवन क्रम को रोकने या दबाने का यह दुष्परिणाम होता है। धार्मिक रूढ़ियों में मन की चंचलता और शरीर की उद्दण्डता को वासना और पाप बताया जाकर उसका निरोध और दमन करके दीर्घ जीवन मोक्ष और परमात्मा प्राप्ति करना बताया है, इसीलिये लौकिक सुख की अवहेलना करके पारलौकिक स्वर्ग सुख के लालच से हिन्दु संस्कृति में विभिन्न सम्प्रदाय के अल्पवयस्क ब्रह्मचारी, संन्यासी, साधु महात्मा, नागा आदि नजर आते हैं जो मनो विरोध, इन्द्रिय दमन और ‘काम’ को मारने के हेतु संसार त्याग देते हैं, भाँग, गाँजा, चरस पीते, जोर से कीर्तन भजन, घण्टों पूजा पाठ करते हैं। अन्तर्द्वन्द्व करते हुए वे अनेक प्रकार के प्रतिबिम्बों से जीवन का बहलाव कर, स्वाभाविकता को दबाते, मारते, मनुष्यत्व लाभ किये बिना देवता नहीं बन सकते।

यह विचारधारा प्रायः सभी धर्मों में इतनी जड़ जमा चुकी है कि नारी और प्रेम को बहुत बदनाम कर रखा है। एक और नारी को लक्ष्मी और माता, प्रकृति मानकर फिर उसे नागिन, कल्याण मार्ग में बड़ी बाधा मानी है, प्रेम एक ओर ईश्वर है दूसरी ओर पाप। भारतवर्ष में विधवाओं पर तो, विभिन्न वासनाओं से ठुकराकर, मनोवैज्ञानिक प्रभाव की अवहेलना कर धर्म ने कुठाराघात किया है। एक आदमी ने तो अपनी माँ से घृणा करते हुए, धर्म ग्रन्थों के प्रभाव में आकर यहाँ तक कह डाला कि तूने पाप कर के मुझे जन्म दिया है। इस आधार पर किन्हीं धार्मिक संस्थाओं में जन सेवा और मोक्ष प्राप्ति तथा पवित्र जीवन बनाने के हेतु कुँआरा रहना बिल्कुल ही अनिवार्य है। हमें ऐसे धर्मों पर आश्चर्य होता है कि वे व्यक्ति को भूख लगने पर भोजन करने, शौच के लिये मल मूत्र त्याग करने, परिश्रम के पश्चात नींद पूरी करने, हंसने रोने की अनुमति तो देते हैं परन्तु सूक्ष्म भूख, वासनाओं की आवश्यक पूर्ति पर कुल्हाड़ा चला कर लोक परलोक दोनों का कल्याण मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। सामाजिक और धार्मिक परम्परा की बहुत सी व्यावहारिक बातों पर ध्यान देने से यही मालूम होता है कि सभ्यता का निर्माण स्वाभाविकता को दबाकर किया गया है, मनोविज्ञान और धार्मिक सामाजिक रीति रिवाजों में सामंजस्य नहीं है और सभ्यता एक ऐसा आडंबर और पाखण्ड है जिसकी कतिपय बातों में मनोवैज्ञानिक आधार नहीं है, जो कुछ मानते हैं वह लकीर की फकीरी है।

सभ्यता और स्वाभाविकता की खींचा तानी में किसका पक्ष सुखकर है इसका अनुभव संयम पूर्वक जीवन बिता कर आप स्वयं करें।

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