
रोग तथा व्याधि का मनोवैज्ञानिक पहलू
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मनुष्य का मन जगत नियन्ता का एक अद्भुत आश्चर्य है, वही समस्त जड़ चेतन का कारण भूत है तथा मानव जीवन के समग्र पहलू प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से ही उसी एक केन्द्र के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। मनुष्य का अस्तित्व मानसिक संघर्ष से हुआ है, उसके विचारों ने उसका पंच भौतिक शरीर विनिर्मित किया है। अपनी मानसिक अवस्था के कारण प्रत्येक व्यक्ति अपनी बेड़ियाँ दृढ़ करता है तथा अज्ञान तिमिर में आच्छन्न हो ठोकरें खाता फिरता है।
अन्तःकरण से निर्माण-
जब मन महत्ता तथा विजय प्राप्त करने के निमित्त अग्रसर होता है, जब आन्तरिक उद्बोधन होता है, तब ही विश्व की समस्त शक्तियाँ उसे उन्नत होने के लिए चारों दिशाओं से सहायक होती हैं। अन्तःकरण से हमारी बाह्य अवस्थाओं का निर्माण प्रारम्भ होता है। संसार के अनेक अस्थिर मन वाले व्यक्ति दुर्बल अन्तःकरण एवं अशुद्ध अन्तरंग के कारण ही रोग तथा व्याधि का भार वहन करते हैं। जितनी ही मानसिक शक्ति मनुष्य कषायों तथा कुवासनाओं के पोषण करने में विनष्ट करता है, उतनी ही शक्ति का यदि सदुपयोग किया जाय तो वह पूर्ण स्वस्थ एवं अक्षय यौवन के अमृतोपम सुख लूट सकता है। सर्व प्रकार की व्याधियाँ मन की बुरी भावनाओं से ही उद्भूत होती हैं। इसके विपरीत जहाँ शुद्ध भावना का अक्षय राज्य है, वहाँ शान्ति निवास करती है। मानसिक शान्ति का नाम सुख तथा अशान्ति ही दुःख है।
मन तथा शरीर का सम्बन्ध-
मन का शरीर पर अटूट अविच्छिन्न एवं अकाट्य प्रभाव है और यह सब काल, सब स्थितियों तथा समस्त अवस्थाओं में समान रूप से रहता है। मानसिक जर्जरता, मानसिक अशान्ति, उद्वेग, आवेश, विकार, मन में उद्भूत अनिष्ट कल्पना, चिंतन की अकल्याणकारी मूर्ति, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि मन की विभिन्न भूमिकाओं का शरीर पर भयंकर प्रभाव पड़ता है। मनोविकार निरन्तर हमें नाच नचाया करते हैं, काम, क्रोध, इत्यादि मनुष्य के षट्रिपु हमें समूल नष्ट करने को प्रस्तुत रहते हैं। अनेक व्यक्ति सर्वत्र इनके मिथ्या प्रलोभनों में ग्रसित होकर अनेक स्नायु रोगों के शिकार बनते हैं।
शरीर में प्रत्येक प्रकार की अनुकूल अथवा प्रतिकूल अवस्था का निर्माण करने की सामर्थ्य मनुष्य के मन में अंतर्निहित है। मन के गर्भ भाग में जो कुटिल अथवा भव्य मनः संस्कार अंकित होते हैं, वही सिद्धान्त एवं निश्चय रूप धारण करके प्रतिमा रूप बन कर बाह्य जगत में प्रकट होते हैं और तद्रूप जीवन निर्माण करते हैं।
जो मनः स्थिति हमारे अन्तःकरण में वर्तमान है, उसी ने हमारी रूप रेखा का निर्माण किया है। यदि मनुष्य की आन्तरिक स्थिति तुच्छ एवं घृणित है, तो उसके पीछे दुःख तथा क्लेश इस प्रकार लगे हैं जैसे जीव के पीछे उसकी परछाहीं। मनुष्य अपने विचारों का फल है। बाह्य स्वरूप मन द्वारा विनिर्मित शरीर वह ढांचा (Mould) है, जिसमें वह निरन्तर अविच्छिन्न गति से निज शक्तियाँ संचारित किया करता है। आन्तरिक भावनाओं की प्रतिकृति मुख, अंग प्रत्यंगों, क्रियाओं, वार्तालाप, मूक चेष्टाओं, रहन-सहन, व्यवहार में क्षण-क्षण में परिलक्षित होती हैं। जिस प्रकार जिह्वा द्वारा उदर की गतिविधि जानी जाती है, उसी प्रकार मुखमण्डल आन्तरिक भावनाओं का प्रतिबिम्ब है।
मन की शरीर पर क्रिया एवं शरीर की मन पर प्रतिक्रिया निरन्तर होती रहती है। जैसी आपका मन, वैसा ही आपका शरीर, जैसा शरीर वैसा ही मन का स्वरूप। यदि शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा है, तो मन भी क्लान्त, अस्वस्थ, एवं पीड़ित हो जाता है। वेदान्त में यह स्पष्ट किया गया है कि समस्त संसार की गतिविधि का निर्माण मन द्वारा ही हुआ है। जैसी हमारी भावनाएं, इच्छाएँ, वासनाएँ अथवा कल्पनाएँ हैं, तदनुसार ही हमें शरीर, अंग-प्रत्यंग, बनावट प्राप्त हुई है। मनुष्य के माता-पिता, परिस्थितियाँ, जन्म स्थान, आयु, स्वास्थ्य, विशेष प्रकार के छिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त करना, स्वयं हमारे व्यक्तिगत (Personal) मानसिक संस्कारों पर निर्भर है। हमारा बाह्य जगत हमारे प्रसुप्त संस्कारों की प्रतिच्छाया मात्र है।
मन की विभिन्न भूमिकाएँ-
संसार अपने आप में न निकृष्ट है, न उत्तम। सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन के पश्चात् हमें प्रतीत होता है कि यह वैसा ही है जैसी प्रतिकृति हमारे अंतर्जगत में विद्यमान है। हमारी दुनिया वैसी ही है, जैसा हमारा अन्तःकरण का स्वरूप। भलाई, बुराई, उत्तमता, निकृष्टता, भव्यता, कुरूपता, मन की ऊँची-नीची भूमिकाएँ मात्र हैं।
हमारे अपने हाथ में है कि चाहे ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ की भट्टी में भस्म होते रहें और अपना जीवन शूल मय बनावें अथवा सद्गुणों का समावेश कर अपने अन्तःकरण में शान्ति स्थापित करें।
यदि तुम क्रोध, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष अथवा अन्य नाशकारी विकार से उत्तेजित रहते हो और फिर इस बात की आशा रखते हो कि तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम रहे, तो तुम निश्चय ही असम्भव बात की आशा बाँधे बैठे हो। ऐसा कदापि संभव नहीं क्यों कि तुम तो निरन्तर अपने मन में व्याधि के बीज बो रहे हो। ऐसी अप्रिय मानसिक अवस्थाएं गन्दे नाले और कूड़े करकट के उस ढेर की तरह है जिसमें अनेक रोगों के कीटाणु फैल रहे हों। मनो जनित कुत्सित कल्पनाओं, क्रिया-प्रतिक्रिया, आघात प्रतिघात से भूतप्रेत के अन्ध विश्वास आज भी हमारे आन्तरिक जगत में द्वन्द्व उत्पन्न करते हैं। विवेक बुद्धि परास्त हो जाती है। अतः अव्यक्त (nconscious mind) की उद्भूत अनिष्ट कल्पनाएँ भ्रम या प्रमाद के रूप में व्यक्त होती हैं और भिन्न-भिन्न व्यथाओं का कारण बनती हैं।
मन का मैल-वहम-
हमारी अनेक बातें केवल वहम की प्रतिक्रियाएँ हैं। वहम मन का मैल है। यह अज्ञान अविश्वास एवं मूढ़ता का प्रतीक है। अमुक तिथि को गृह से प्रस्थान न होना चाहिए। छींकने पर कोई भयंकर घटना घटित होने वाली है। छिपकली शरीर पर गिर गई, अतः मृत्यु अवश्यंभावी है, जन्मपत्री नहीं मिलती अतः दाम्पत्य जीवन में रोग शोक कटुता होनी ही चाहिए-हमारी ऐसी ही अनेक वहमी धारणाएँ मानसिक निर्बलता की द्योतक हैं। भारतवासी अभी इतने ज्ञान सम्पन्न नहीं हो पाये हैं कि अपनी पुरानी विचार धाराओं को तिलाँजलि दे दें। वस्तुतः वे रोग और व्याधि को किसी अदृष्ट शक्ति का व्यापार मान लेते हैं।
अनेक व्यक्ति चिंता, क्रोध, भय इत्यादि मनोवेगों द्वारा अपने मनोबल को इतना निर्बल बना लेते हैं कि इनके द्वारा उनकी मानसिक स्थिति अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठती हैं। ऐसे व्यक्तियों का मन सर्वदा किसी अज्ञात भय से उत्तेजित, गिरा हुआ और प्रकम्पित रहता है, चित्त में निरंतर अस्थिरता वर्तमान रहती है, विचार क्षिप्र गति से परिवर्तित होते रहते हैं, स्मरण शक्ति का ह्रास होता है, जरा-जरा सी बातों में उद्विग्नता, कटुता, कर्कशता उत्पन्न होती है, मन कुत्सित कल्पनाओं का अड्डा बन जाता है, और अन्त में अनेक मनो जनित रोग उन्हें धर दबाते हैं। कभी-कभी यह मानसिक दुर्बलता पागलपन में प्रकट होकर अनेक उपद्रव करती है।
व्याधियों का उद्भव स्थान-
अन्तस्तल के गहन स्तरों के नीचे हमारी रहस्य मयि अन्तश्चेतना (Sub-conscious) में हमारे नित्यप्रति के विद्वेष, व्यंगपूर्ण कटुता, ईर्ष्या, द्रोह तथा असंतोष की जड़ें मिल सकती हैं। मानव के नित्य प्रति के जीवन में जो परस्पर विरोधिता और असामंजस्य कल्पनातीत रूप से वर्तमान है उसका मर्म हमारी अज्ञात चेतना के भीतर निहित है।
मन की यह अन्तश्चेतना ही व्याधियों का उद्भव स्थान है। प्रत्येक रोग बीज रूप से यहीं से प्रारम्भ होता है। शरीर में उत्पन्न होने से पूर्व प्रत्येक रोग अज्ञात चेतना में अंकुरित पल्लवित एवं फलित होकर क्रमशः शरीर में प्रकट होता है। हमारी जाग्रत चेतना (Consciousness) उसे आकस्मिक और नूतन समझती है और इन अन्तर्स्थित कटुताओं, वैषम्य, असंतोष को भुलाकर अपने आपको (और स्वभावतः दूसरों को) ठगने के लिए बिना विलम्ब कोई छोटा-मोटा कल्पित कारण उपस्थित कर देने की तत्परता में कमाल कर दिखाती है।
आइये, व्याधियों के कारण शरीर में न ढूंढ़ कर हम मन में ढूंढ़े, अज्ञात पहलुओं पर प्रकाश डालें मन के गहन स्तर से अपने रोगों की चिकित्सा प्रारम्भ करें। जितना ही हम रोग के अज्ञात कारणों को, जो अन्तश्चेतना में गढ़े हुए हैं, मालूम करने की चेष्टा करेंगे और उन्हें चेतन मन के समक्ष प्रस्तुत करने में सफल होंगे, उतनी ही लाभ की आशा करनी चाहिए।
आधुनिक काल का मानवजीवन अत्यन्त संघर्ष पूर्ण है, वैज्ञानिक जड़वाद तीव्र गति से समाज में विस्तीर्ण हो रहा है, मानव तृष्णा, ईर्ष्या, अहंकार इतने बढ़ गए हैं कि इन समस्त शुभ अशुभ इच्छाओं की परितृप्ति असंभव है। अतृप्त अशुभ संस्कार अत्यन्त मार्मिक रूप में फूटे पड़ रहे हैं। आन्तरिक अन्तर ज्वाला, कशमकश, आघात-प्रतिघात, वैषम्य, भय, भ्राँति और चिन्ता के विचार, अनिष्ट इच्छा के विकृत विचार दीमक की भाँति शरीर को जर्जरित करते तथा बलात्कार हमें रोग व्याधि ग्रस्त रखते हैं। मनुष्य के जीवन की दुर्दशा करने वाला और रोगों से परेशान करने वाला वास्तव में हमारा मन ही है।