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Magazine - Year 1947 - Version 2

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सम्यक्त्व योग

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यह विश्व त्रिगुणात्मक है। स्थूल प्रकृति को हम तीन रूपों में देखते हैं। (1) ठोस (Solid) (2) तरल (Liquid) और (3) वायु (Gas) सृष्टि की समस्त स्थूल सम्पदा इन रूपों में ही है। (1) सत् (2) रज और (3) तम मनुष्यों के स्वभाव, चेतनाएं, प्रवृत्तियां इन तीन विभागों में विभक्त हैं। विश्व की सूक्ष्म प्रक्रियाएं, संवेदनाएं इच्छा आकांक्षाएं इन तीनों के अंतर्गत हैं। जब तक आत्मा जीवन धारण किये हुए हैं, जीव रूप में अवस्थित है, प्रकृति के साथ विचरण कर रहा है तब तक इन तीन गुणों के साथ भी रहना पड़ता है। स्थूल तत्व समयानुसार न्यूनाधिक होते रहते हैं पर पूर्ण रूप से किसी का भी आस्तित्व नष्ट नहीं होता।

जैसे वात पित्त कफ तीनों ही शरीर के लिए आवश्यक हैं, उसी प्रकार चैतन्य जगत के लिए सत रज तम अनिवार्य है। इनमें कोई भला बुरा नहीं केवल उनकी विषमता अति दुखदाई है। वात, पित्त, कफ तीनों में से कोई भी अत्यधिक या अतिन्यून हो जाय तो वही अनिष्ट का कारण बन जाता है। जब वे अपनी अपनी, मात्रा मर्यादा, और स्थिति के अनुसार संतुलित रहते हैं तो स्वास्थ्य ठीक रहता है, इस संतुलन में गड़बड़ी पड़ते ही मनुष्य बीमारी या मृत्यु की डाढों के नीचे कुचलने लगता है। हमारे अंतर्जगत में भी सत, रज, तम की जिस अनुपात में आवश्यकता है यदि वह अनुपात बिगड़ जाता है तो मानसिक स्वस्थता नष्ट होने लगती है, आत्म शांति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। इसलिए तीनों गुणों का समुचित समन्वय हमारे बाह्य और आन्तरिक जीवन में होना चाहिए। किसी एक ही तत्व की अति का आत्मविद्या के तत्वज्ञों ने निषेध किया है भगवान बुद्ध ने श्रेष्ठ योग साधन ‘मज्झाम मग्ग’ अर्थात् मध्यम मार्ग पर चलना बताया ‘मज्झम निकाम’ का भली प्रकार मनन करने से मध्यम मार्ग की श्रेष्ठता और आवश्यकता सहज ही समझ में आ जाती है।

हिन्दू धर्म में इन तीनों गुणों की समुचित उपासना करने का आदेश किया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में त्रिदेवों का अधिष्ठान सत, रज, तम का ही प्रतीक है। वेद का, ज्ञान का, अधिष्ठाता ब्रह्मा सत का प्रतीक है। लक्ष्मी पति शाक वैकुण्ठ लोक के वासी विष्णु कहते हैं रजोगुण का प्रतिनिधित्व त्रिशूल धारी, ताण्डव नृत्य करने वाले, तीसरे नेत्र के आग उगलते हुए रुद्र तमोगुण की प्रतिमा हैं। जिन साधकों ने प्रकृति को नारी के रूप में देखा है उन्होंने सत, रज, तम को सरस्वती लक्ष्मी एवं दुर्गा की छवि के साथ देखा है। इन सभी को हिन्दू दार्शनिकों ने उपास्य ठहराया है। तीनों ही गुण, जीवन के अभिन्न अंग हैं इसलिए उनका समुचित सदुपयोग सम्यक् समन्वय होना चाहिए वही त्रिदेव पूजा का आध्यात्मिक रहस्य है।

मोटी धारणा के अनुसार सत को ग्राह्य और मन को त्याज्य माना जाता है पर यह धारणा भ्रममूलक है। तीनों का ही अपना अपना महत्व है तीनों की ही अपने अपने स्थान पर आवश्यकता है। हाँ मात्रा में अन्तर अवश्य होना चाहिए। सत की मात्रा सब से अधिक, रज की उससे कम, तम की उससे कम होनी चाहिए और तीनों का यथास्थान यथा अवसर, विवेकपूर्वक उपयोग होना चाहिए। समत्व का एक अर्थ समता बराबरी है और दूसरा धर्म सम्यक्त्व (भली प्रकार यथोचित रीति से है) गीता के समस्त योग का वास्तविक तात्पर्य सम्यक्त्व ही है। सब को समान समझने का अर्थ ब्राह्मण और कसाई को, राजा और गधे को, माता और पत्नी को पुत्र और पिता को एक समान समझना नहीं है वरन् यह है कि सम्यक् रीति से भली प्रकार उन्हें समझा जाय। जो जैसा हो उसे वैसा ही समझा जाय।

सतोगुण हमारे जीवन में सबसे अधिक होना चाहिए। प्रेम, करुणा, मैत्री, सेवा, सहायता, दया निष्कपटता, उदारता, पवित्रता, त्याग एवं संयम के भाव मन में अधिक मात्रा में होने चाहिएं। इन भावों को चरितार्थ करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अधिकारी व्यक्तियों के प्रति विवेकपूर्वक उनका उचित उपयोग करना चाहिए।

रजोगुण का अर्थ है सम्पन्नता। जीवन के चतुर्मुखी विकास के साधनों को सम्पन्नता कहते हैं। जैसे बिना कागज स्याही के पत्र नहीं लिखा जा सकता, बिना खाँड के मिठाई नहीं बन सकती इसी प्रकार बिना साधनों के जीवन विकास नहीं हो सकता स्वास्थ्य, विद्या, धन, प्रतिष्ठा, मित्रता, चातुर्य साहस यह सात संपन्नताएं आत्मोन्नति के लिए बड़ी आवश्यक हैं। अपने आपको बलवान, सम्पन्न, समृद्ध, विकसित बनाना अपने निकटवर्ती व्यक्तियों को सम्पन्न बनाना जीवन की बहुत बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि सत् की रक्षा और वृद्धि के लिए रज की जरूरत पड़ती है। जो स्वयं भूखा है, स्वयं अभाव ग्रस्त दीन दुखी है, विद्या बल, पुरुषार्थ आदि से रहित है, उनके मन में उठने वाली सतोगुणी भावनाएं ग्रीष्म की बालू में उगने वाले अंकुरों की भाँति मुरझा जाती हैं। रजोगुण से ऊपर उठ कर सतोगुण में पहुँचना सुगम है, क्योंकि उसे बहुत ही पास की मंजिल पर कदम धरना होता है।

तमोगुण क्रोध, अविश्वास, घृणा, हिंसा, दुराव जैसे कार्यों में देखा जाता है। राक्षस पिशाच तस्कर, पापी, निर्दय, लोक कंटक, आततायी, अनीति एवं भ्रान्ति फैलाने वाले लोगों की आत्मा से प्रेम करते हुए भी उनके स्थूल शरीर एवं विकृति मन से घृणा करने की विरोध करने की, दंड देने की आवश्यकता होती है। इस दुनिया में अनीति के अनेकों शक्तिशाली केन्द्र हैं।

लोक कल्याण के लिए, उनसे आत्म रक्षा के लिए दुराव की, गुप्त मंत्रणा की एवं समाचार की जरूरत पड़ती है। भगवान वामन को राजा बलि के साथ, मोहनी रूपधारी विष्णु को भस्मासुर के साथ राम, को बालि के साथ ऐसा ही व्यवहार करना पड़ा था। आवश्यकतानुसार इस प्रकार की नीति भी अपनानी पड़ सकती है। अशाँति को नष्ट करने वाली अशाँति भी शाँति कही जाती है। बच्चे के फोड़े को डॉक्टर से चिरवाते समय माता जिस प्रकार कठोर बन जाती है ऐसे अवसर जीवन में आ सकते हैं। “भय बिनु होहि न प्रीति” “वक्र चन्द्रहिं भ्रसे न रहूँ।” “लातों के देव बातों से नहीं मानते।” “सीधी उंगली से घी नहीं निकलता।” जैसी उक्तियों से यह प्रकट है कि केवल सीधे मन से ही काम नहीं चल सकता। जैसे को तैसा की नीति बरते जाने की जहाँ संभावना रहती है, वहाँ ही दुष्टों की दुष्टता का प्रतिबन्ध लगता है। अपने आन्तरिक शत्रुओं के प्रति भी विरोध की, घृणा की, संघर्ष की प्रवृत्ति सतेज किये बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार तमोगुण भी समयानुसार उचित मात्रा में उपयोगी होता है।

इन तीनों गुणों में से हर एक उचित एवं आवश्यक है। केवल उनकी अति तथा दुरुपयोग में ही दोष है। अति तो सतोगुण की भी बुरी है। दुष्टों पर दया करने से, साँप को दूध पिलाने से, दुष्टता के विष की वृद्धि होती है। बिच्छु को पालना एक प्रकार से घर के बच्चों को डंक की तीव्र पीड़ा में झोंकना है। भावुकता वश किसी एक भिखारी को अपना सब कुछ दे डाला जाय तो इसका अर्थ दूसरे दिन से ही अपने बच्चों को भिखारी बना देना होगा। घृणा और द्वेष करने योग्य व्यक्तियों से प्रेम निबाहा जाय तो वह धर्म विरोधी तत्वों को एक प्रकार की सहायता देना ही होगा। ऐसे सतोगुण की अति भी अनुचित है। रजोगुण की अति में मनुष्य लोभी कंजूस तथा अहंकारी बनता है। तमोगुण के दुरुपयोग से हिंसा अनीति एवं पाप तापों की अभिवृद्धि होती है। सम्यक्त्व का तकाजा है कि हम आन्तरिक स्वास्थ्य तथा सुव्यवस्था को कायम रखने के लिए सत, रज, तम का भी प्रकार उचित रीति से उपयोग करें। इस मार्ग पर चल कर ही हम सुख शाँतिमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

सम्यकत्व योग की साधना।

अपने स्वभाव पर दृष्टिपात कीजिए कि आपमें किस तत्व की आवश्यकता से अधिक न्यूनता और आवश्यकता से ज्यादा अधिकता है। वह निरीक्षण पहले मोटे तत्व पर से आरंभ कीजिए। तमोगुण उचित मात्रा में है या नहीं? कहीं आप कायर डरपोक आलसी तो नहीं हैं? यदि यह बातें हों तो समझिए कि आपमें तमोगुण की मात्रा न्यून है। वीरता की कमी है। तब आपको वीरता उत्पन्न करने की, तमोगुण बढ़ाने की आवश्यकता है।

यदि आप निर्धन दरिद्र, मित्रों से रहित, बीमार, समाज में अप्रसिद्ध, साधन रहित, अशिक्षित बुद्धु स्वभाव के हैं तो आपको रजोगुण बढ़ाने की आवश्यकता है।

यदि आप तोताचस्म प्रेम रहित अनुदार हैं दान सेवा परोपकार, त्याग, संयम उपासना में रुचि नहीं, तो समझिए कि आप में सतोगुण बढ़ाने की जरूरत है।

इन तीनों में कौन तत्व अधिक कम है, यह भली प्रकार निरीक्षण कीजिए। जो तत्व सब से कम हो, जिस कमी से जीवन यात्रा में अधिक असुविधा होती हो। उसे प्रथम हाथ में लीजिए। यदि सत तत्व कम हो तो ब्रह्म को, रज कम हो तो विष्णु को, तम कम हो तो शिव को अपना इष्ट देव चुन लीजिए।

प्रातः सायं नियत समय पर साधना के लिए बैठिए। यदि सत कम है तो ब्रह्म का ध्यान कीजिए। मस्तिष्क के मध्य भाग में सहस्र दल कमल के ऊपर अवस्थित परम सात्विकता के पुँज, वेद ज्ञान के अक्षय भंडार, विवेक वृद्ध, ब्रह्मा जी का ध्यान कीजिए, आप उनके समीप नतमस्तक श्रद्धाभाव से बैठे हैं और वे अनन्त सात्विकता की शुभ्र किरणें आपके ऊपर फेंक रहे हैं। दाहिना हाथ उठा कर आपको प्रचंड सात्विक शक्तियों की अभिवृद्धि का वरदान दे रहे हैं। इस ध्यान को एकाग्र मन से दृढ़ कल्पना और पूर्ण श्रद्धा के साथ कीजिए।

यदि आप में रजोगुण कम है तो ध्यान कीजिए कि निखिल रजोगुण के प्रतीक श्री विष्णु भगवान अतुलित वैभव वाले बैकुँठ लोक रत्नजटित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान है। आप उनके दाहिनी ओर भक्तिभाव से बैठे हैं और वे आपके मस्तक पर हाथ फेर रहे हैं। उनकी कृपा दृष्टि द्वारा अतुलित रजोगुणी शक्तियाँ आपके अन्तः करण में भरी जा रही हैं।

यदि आप में तमोगुण कम है तो ध्यान कीजिए कि प्रलयंकर शंकर लाल-लाल प्रज्वलित अग्नि जैसा तीसरा नेत्र खोल कर ताण्डव नृत्य कर रहे हैं। उनके नृत्य के साथ कड़कड़ाती बिजली जैसी पीत वर्ग लपटें चारों ओर उठ रही हैं। आप इस नृत्य को देख रहे हैं। डमरू ध्वनि से आपके हृदय में वीरता की संहारिणी शक्ति संचार हो रहा है। चारों ओर उड़ने वाली बिजली की लपटें आपके शरीर में प्रवेश करके नवचेतना नवस्फूर्ति निरालस्यता उत्पन्न कर रही हैं। भगवान शंकर प्रसन्न होकर आपके चारों ओर डमरू बजाते हुए नृत्य कर रहे हैं और आपको अतुलित बल प्रदान कर रहे हैं।

यदि आप इष्ट देव को पुरुष वेष की अपेक्षा स्त्री वेष में दर्शन करना पसन्द करते हैं या स्वयं स्त्री हैं, तो ब्रह्म के स्थान पर सरस्वती का, विष्णु के स्थान पर लक्ष्मी का, शिव के स्थान पर दुर्गा का ध्यान कर सकते हैं। इन ध्यानों से जो तत्व आप में कम हैं वह निश्चित रूप से वृद्धि को प्राप्त होगा।

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