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Magazine - Year 1947 - Version 2

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भूत साधना से आत्म विजय

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कितने ही मनुष्यों की विचार प्रणाली ऐसी विकृत हो जाती है कि वे अपने मस्तिष्क में दौड़ने वाले विचार प्रवाह को रोकने में समर्थ नहीं हो पाते। किसी से झगड़ा हुआ, झगड़ा होने के बाद दोनों पक्ष अलग हो गये पर विकृत विचार प्रणाली वाले मनुष्य का मस्तिष्क उसी में उलझा रहता है। दिमाग में भारी उत्तेजना एवं गर्मी भर जाती है जिसके कारण सिर भन्नाने लगता है। उस समय कितना ही आवश्यक कोई कार्य सामने हो मस्तिष्क उस उत्तेजना को छोड़ कर नये प्रश्न पर विचार करने के लिए तैयार ही नहीं होता। बुद्धि कहती है कि “जो होना था हो गया, छोटी सी बात पर इतना उलझना ठीक नहीं, चलो दूसरी बात पर विचार करें।” पर वह विचार प्रवाह हटता नहीं बराबर वही उत्तेजना सिर के भीतर गूँजती रहती है। रात को पूरी नींद नहीं आती सिर में दर्द होने लगता है। आँखों में गर्मी छा जाती है पर उस उत्तेजना से पीछा नहीं छूटता।

इसी प्रकार कितने ही व्यक्ति, चिन्ता, शोक, ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष, लोभ आदि के कुविचारों में बुरी तरह डूबे रहते हैं। वे इन विचारों को छोड़ना चाहते हैं पर वे छूटते नहीं। लौट-लौट कर वह बातें दिमाग में भर जाती हैं। यह दूषित विचार प्रणाली का परिणाम है। यह एक प्रकार का भयंकर बन्धन है। जिसमें बंधा हुआ मनुष्य विवश होकर कहीं का कहीं घिसटता फिरता है। इस विचारों की गुलामी से छुटकारा पाये बिना आन्तरिक शाँति प्राप्त होना कठिन है।

विचारों पर हमारा आधिपत्य होना चाहिए। जब जिस विचार को हम चाहें अपने मस्तिष्क में विचार करने दें और जब चाहें जिस विचार को निकाल बाहर करें यह स्थिति प्राप्त करना अध्यात्म क्षेत्र के पथिकों के लिए बड़ा आवश्यक है। विचारों पर काबू पाना एकाग्रता में सफलता पाना है। एकाग्रता- मानसिक उन्नति का सर्वोपरि हथियार है। मैस्मरेजम में दूसरों को निद्रा में लाने का प्रधान साधक एकाग्रतापूर्वक तीव्र दृष्टिपात ही तो है। ध्यान में एकाग्रता ही मुख्य है। समाधि एकाग्रता की ही सिद्धावस्था है। व्यापारी, वैज्ञानिक, कवि, चित्रकार, नट, लेखक, विचारक, शिल्पकार कलाकार सरीखे प्रतिभाशाली वर्गों के सफल व्यक्ति एकाग्रता के ही प्रभाव से अपनी प्रतिभा चमकाते हैं। जिसमें एकाग्रता नहीं वह मानसिक क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता।

बारूद को जमीन पर फैला कर उसमें आग लगाई जाए तो वह भक् से जल कर समाप्त हो जायगी। पर उसी बारूद को बन्दूक की नली में रखकर केवल एक नियत दिशा में ही चलने दिया जाय तो वह भयंकर शब्द और प्राण घातक चोट करती है। विचार भी यदि बिखरे रहें अस्त व्यस्त रहें, तो उनका कोई महत्व नहीं, पर जब वे एक स्थान पर केन्द्रित किए जाते हैं तो एकाग्रता की शक्ति के साथ गजब के परिणाम उपस्थित करते हैं। एकाग्र मन जिधर लग जाता है उधर ही सफलताओं का ढेर लग जाता है।

विचारों पर काबू पाना ही मन को वश में करना कहलाता है। पातंजलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जिसने अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर ली समझिए कि उसने संसार के ऊपर विजय प्राप्त कर ली। महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे विचारों के प्रवाह में नहीं बहते वरन् जिधर चाहते हैं उधर विचारों को बहाते हैं। जब चाहते हैं तब विचारों के प्रवाह को मोड़ देते हैं, बदल देते हैं पलट देते हैं एवं बन्द कर देते हैं। महात्मा गाँधी को बड़ी गंभीर गुत्थियाँ सुलझानी पड़ती हैं, उनके आगे कभी-कभी बड़ी विकट चिन्ताजनक समस्याएं आती हैं उनके कन्धे पर हर घड़ी जिम्मेदारियों का भारी बोझ रहता है पर वे जब चाहते तब विचारों के प्रवाह को रोक देते हैं। गंभीर बहस मुवाहिसे में भाग लेते हुए यदि कुछ मिनटों का समय मिल जाता है तो वे इतनी ही देर में गहरी नींद सो लेते हैं। नैपोलियन युद्ध क्षेत्र में घमासान करते समय कुछ देर के लिये घोड़े को पेड़ के सहारे लगा कर और देह को पेड़ का सहारा देकर सो लेता था। विचारों पर हमारा ऐसा ही अधिकार होना चाहिए। घुड़सवार लगाम मोड़ कर अपने घोड़े को मन चाही दिशा में ले जाता है विचार पर भी हमारा ऐसा ही आधिपत्य होना आवश्यक है।

मनोनिग्रह, विचार संयम, चित्त निरोध, एकाग्रता की साधना से एक बड़ी आध्यात्मिक समस्या का हल हो जाता है। जहाँ चाहें वहाँ मन लगा देना और जहाँ चाहे वहाँ से मन हटा लेना यह एक ऐसी सिद्धि है जिसके द्वारा शोक, क्रोध, चिन्ता, भय, काम, निराशा, आवेश आदि अवाँछनीय स्थिति से मन हटा कर समस्त मानसिक दुखों का अन्त किया जा सकता है। संसार में तीन चौथाई दुख मानसिकता और एक चौथाई दुख शारीरिक है। शारीरिक दुख को भी तब मनुष्य भूल जाता है। जब उसका चित्त किसी आनन्ददायक विचारधारा में रमण कर रहा हो। जिसका मन काबू में है जिसका आहार विहार संयमित है उसे वैसे भी शारीरिक कष्टों में नहीं पड़ना पड़ता पर यदि कदाचित किसी पर कोई प्रारब्ध भोग का कष्ट आ भी पड़े तो उसे संबंधित चित्त वाला व्यक्ति आसानी से हंसी हंसी में ही सहन कर लेता है। इस प्रकार साँसारिक दुखों से छुटकारा पाकर मनोनिग्रही आत्मानन्द का सुखोपभोग करता है। हर घड़ी विपरीत, परिस्थितियों में रह कर भी- उसकी आँतरिक शाँति नष्ट नहीं होती।

मनोनिग्रह की साधना।

मन का स्वभाव कुछ न कुछ काम करने का है। वह बेकार कभी नहीं बैठता हर वक्त उसे कुछ न कुछ कार्य चाहिए। इसलिए मन को अन्य दिशाओं से रोक कर पाँच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषयों पर लगाया जाता है। कान, आँख, जिव्हा, नाक, त्वचा यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं- इनके कार्य क्रमशः शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श को अनुभव करना है। यह पाँचों अनुभूतियाँ पाँच तत्वों से भी सम्बन्धित हैं। आकाश से शब्द; तेज से रूप जल से रस, पृथ्वी से गन्ध और वायु से स्पर्श का भान होता है। मन को इन पाँचों की अनुभूतियों में एक विशेष विधि से लगाने की साधना द्वारा उसका संचय हो सकता है। अब क्रमशः पाँचों साधना संक्षिप्त रूप से आगे लिखी जाती हैं।

शब्द-साधना :- कबीर पंथ और राधा स्वामी मत में शब्द साधना की बड़ी मान्यता है। नाद विन्दोमनिषद में इस नाद योग का विस्तृत वर्णन है।

जायफल का चूर्ण, मोम और थोड़ी कस्तूरी मिला कर उसे लाल रेशम की दो छोटी-छोटी गोली जैसी पोटलियों में बाँध लेना चाहिए। यह पोटली इतनी बड़ी होनी चाहिए कि कान में बोतल के काक की तरह फिट हो जावें और भीतर हवा जाने को पथ न बचे। कोई कोई साधक इन पोटलियों की बजाय, तुलसी या चन्दन की लकड़ी, बोतलों के काक रुई या उंगलियों का प्रयोग करते हैं, प्राचीन प्रथा तो रेशम की पोटली की है। पर सुविधानुसार अन्य चीजों से भी काम लिया जा सकता है। साधना के बाद इन्हें निकाल कर ठीक तरह से साफ कर लेना जरूरी है जिससे कि कान का मैल उससे चिपका रह कर गन्दगी की वृद्धि न करे।

इस साधना के लिए रात्रि का निस्तब्ध, कोलाहलरहित समय अधिक उत्तम है। शुद्ध होकर शाँतिपूर्वक ऐसे सुविधाजनक आसन पर बैठिए जिसे कष्ट के कारण साधना समय के बीच में फिर न बदलना पड़े। गोली, पोटली, कार्क, रुई या उंगली लगा कर कान के छेदों को बन्द कर लीजिए ताकि बाहर के शब्द कानों के भीतर न पहुँचने पाएं। नेत्रों को बन्द कर लीजिए। मेरुदण्ड सीधा रखिए।

“ओऽम्” की ध्वनि लहरी पर चित को एकाग्र कीजिए। जैसे घड़ियाल में थोड़ी मार देने पर कुछ देर तक उसमें से थरथराती हुई शब्द ध्वनि निकलती रहती है। इसी प्रकार की ओं..... ओं..... ओं...... ओं..... शब्द ध्वनि आपके मनः लोक में गुँजित हो रही है। इस प्रकार की भावना श्रद्धा एवं गम्भीरता के साथ कीजिए।

कुछ समय पश्चात् कई प्रकार की शब्द ध्वनियाँ सूक्ष्म कर्णेंद्रिय द्वारा सुनाई पड़ेगी, आँधी चलने, रेल दौड़ने, झींगुर बोलने, घंटियां मृदंग, शंख बजने, सितार झनझनाने, बादल गरजने एवं वंशी बजाने जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं।

सब साधकों को एक जैसी ये शब्द ध्वनियाँ सुनाई नहीं पड़ती। कारण यह है कि विभिन्न साधकों की मानसिक स्थिति भिन्न होती है। सतोगुणी स्वभाव वालों को मन्द, समरस, मृदुल शब्द सुनाई पड़ते हैं। रजोगुणी को तीव्र स्वर के गम्भीर शब्द सुनाई देते हैं। तमोगुणी को कर्कश अस्थिर भयंकर डराने वाले शब्दों का अनुभव होता है।

इन शब्द ध्वनियों को आरम्भ में पन्द्रह मिनट तक सुनना चाहिए। फिर क्रमशः एक-एक मिनट बढ़ा कर सुविधानुसार अधिक से अधिक दो घंटे तक किया जा सकता है। जो ध्वनि सुनाई पड़े उसे सुनने में मन को पूरी तन्मयता के साथ लगाना चाहिए ताकि वह बीच में इधर-उधर न दौड़े।

रूप साधना :- रूप साधना के लिए त्राटक का अभ्यास किया जाता है। त्राटक दो प्रकार के होते हैं वाह्य और आभ्यंतरिक दोनों की साधना नीचे लिखी जाती है।

(1) वाह्य त्राटक- किसी बिन्दु पर दृष्टि जमाने को कहते हैं। सफेद चिकने चमकदार कागज के एक चौकोर टुकड़े पर ठीक बीचों-बीच एक रुपये के बराबर गहरी काली स्याही से गोला अंकित कीजिए इस गोले के बीचों-बीच सफेद बिन्दु रहने दिया जाए।

मेरुदंड को सीधा रख कर स्वस्थ चित्त होकर पद्मासन पर अथवा अर्धपद्मासन पर (पाल्थी मार कर) बैठिए। उपरोक्त काले गोले को नेत्रों की सीध तीन फुट के फासले से दीवार पर टाँग लीजिए। काले गोले के बीच के सफेद बिन्दु पर दृष्टि जमाइए। पलक मारते रहने में कुछ हर्ज नहीं पर दृष्टि बिन्दु पर से न हटे। आंखें न तो बहुत अधिक खोली जाएं न पलक सिकोड़े जाएं, दृष्टिपात बहुत हलका हो और न बहुत जोर लगाया जाय। मध्यम स्थिति में यह साधन करना चाहिए। यह साधन स्वस्थ नेत्र वालों को ही करना चाहिए। जिनकी आँखों में कोई रोग है उनके लिए त्राटक करना वर्जित है।

एकटक दृष्टि जमाने से कुछ ही देर में गोले के बीच का सफेद बिन्दु हिलता डुलता घटता बढ़ता काँपता थरथराता तथा रंग बदलता दीखने लगता है। यह सब होने पर भी दृष्टि हटानी न चाहिए। कुछ दिनों के अभ्यास से बिन्दु स्थित हो जाता है। यह इस साधना की परिपक्वावस्था का चिन्ह है। साधन दो मिनट से आरम्भ करके एक-एक मिनट नित्य बढ़ाना चाहिए। आँखों में पानी भर आवे तो त्राटक अवश्य ही समाप्त कर देना चाहिए।

चन्द्रमा पर, घी के दीपक की शिखा पर, शालिग्राम या शिवलिंग के अभाग पर, इष्ट देव के चरण नख या किसी अंग विशेष के बिन्दु पर भी यह साधन किया जा सकता है।

(2) आभ्यन्तरिक त्राटक के लिए नेत्र बन्द करके साधना पर बैठना चाहिए। दोनों कानों के छिद्रों के बीच में एक सीधी रेखा खींची जाय और भूमध्य भाग से लेकर शिरा के पीछे की ओर एक रेखा खींची जाय तो वह दोनों रेखाएं आपस में जहाँ मिलती हैं वहाँ त्रिकुटी ब्रह्मरंध्र या सहस्रकमल का स्थान है। इस स्थान पर शाँत चित्त से ध्यान जमाने पर एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु दृष्टिगोचर होता है कुछ दिन के बाद एक के स्थान पर अनेक तथा लाल, पीले हरे, काले, विभिन्न वर्णों के विभिन्न आकृतियों के बिन्दु मस्तक के भीतर चारों ओर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। दीर्घ कालीन सतत अभ्यास से वे बिखरे हुए विभिन्न आकार प्रकार के बिन्दु उस मूल बिन्दु में लय होने लगते हैं और अन्त में एक ही शुभ्र ब्रह्म ज्योति रह जाती है। इसके दर्शन से अन्तः प्रदेश में बड़ी आनन्ददायक शान्ति वर्षा होती है।

रस साधना- जो फल आपको खाने में सबसे अधिक स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर हैं तो उसके पाँच छोटे टुकड़े लें। एक टुकड़ा लेकर जिव्हा के अग्रभाग पर एक मिनट तक रखे रहें और उसके स्वाद का अनुभव करें। फिर इस टुकड़े को फेंक दें और उस पूर्व स्वाद का ध्यान करें बिना आम के आम का स्वाद जिव्हा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा फिर दूसरा टुकड़ा जबान पर रखिए और पूर्ववत उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए इस प्रकार पाँच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।

धीरे-धीरे जिव्हा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना इस वस्तु के रस अनुभव करने का समय बढ़ना चाहिए। कुछ समय पश्चात बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है।

गन्ध साधना- नासिका के अग्रभाग पर त्राटक करना इस साधना के लिए आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्रभाग पर त्राटक नहीं हो सकता इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बाई ओर करना उचित है। दाहिने नेत्र को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बाएं नेत्र को प्रधानता देकर बाएं हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए आरम्भ में एक-एक मिनट से करके अन्त में पाँच पाँच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक से नासिका की सूक्ष्म शक्तियाँ जाग्रत होती हैं।

इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर एक मिनट तक धीरे-धीरे सूँघिए और उसकी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध को दो मिनट तक स्मरण कीजिए। इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पाँच फूलों का पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम से कम एक सप्ताह एक ही फूल प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।

स्पर्श साधना- (1) बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु, शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे हटा लें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वही ठंडक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श करा कर उसकी अनुभूति कायम रखने की भावना करनी चाहिए। पंखा झोल कर हवा करना, चिकना काँच का गोला या रुई की गेंद त्वचा पर स्पर्श कर के फिर उस स्पर्श को ध्यान रखना भी इसी प्रकार का अभ्यास है। ब्रश से रगड़ना लोहे का गोला उठाना जैसे अभ्यासों की भी इसी प्रकार ध्यान भावना की जा सकती है।

(2) किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछा कर उस पर चित्त लेट रहिए कुछ देर इसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिए। इसके बाद बिना गद्दे की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइए। कठोर भूमि पर पड़े रह कर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए। फिर पलट कर गद्दे पर आ जाइए और उस कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना करने से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श साधना में सफलता प्राप्त करने पर शारीरिक कष्टों को हँसते हँसते सहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

उपरोक्त पाँचों साधनाओं को एक साथ ही किया जाय यह आवश्यक नहीं। जिनके पास साधना के लिए थोड़ा समय है वे इन में से किसी एक दो साधनाओं को अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार चुन सकते हैं। उसमें सफलता मिलने पर अन्य साधनाओं को हाथ में लिया जा सकता है।

इन साधनाओं से मन वश में होता है, चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और विचारों पर काबू होता है। योग के समस्त साधनों का यही उद्देश्य है। एकाग्रता की सफलता तथा आत्म विजय जीवन की सब से बड़ी सफलताएं हैं। इनके आधार पर मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो चाहे सो बन सकता है। जो चाहे सो कर सकता है। इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति से अनेकों प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं, वे इन्द्रियाँ वस्तुओं के आधार पर नहीं वरन् इच्छा के आधार पर संसार के समस्त सुखों को अनुभव कर लेती हैं। भोगी लोग जिन भौतिक भोगों के लिए मृग तृष्णा में मारे-मारे फिरते हैं वे सब योगियों के करतल गत होते हैं। संकल्प शक्ति से वे सब सुख उनके सामने आकर खड़े हो जाते हैं।

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