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Magazine - Year 1947 - Version 2

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फिजूलखर्ची का गलत रास्ता

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मनुष्य की पाशविक-वृत्तियों में अहंकार की प्रचंडता बढ़ी चढ़ी है। अपने आपको, अपने अस्तित्व को, बढ़े-चढ़े रूप में देखने और दिखाने की उसकी इच्छ रहती है। यह इच्छा वीरतापूर्ण कष्टसाध्य कार्य करके महापुरुष बनने के लिए प्रेरित करती है। यह स्वाभाविक वृत्ति जब सतोगुण में होकर गुजरती है तो मनुष्य ऐसे कार्य करता है, जिनसे उसके आत्मगौरव का विकास हो। त्यागी, तपस्वी, देशभक्त नेता, लेखक, ग्रन्थकार, शिल्पी, कलाकार आदि प्रतिष्ठित और उपयोगी कार्य करके महान बनते हैं। इनका अहंकार सतोगुण मार्ग से प्रकट होता है, इसलिए वह उचित एवं लोक-कल्याण कारक होता है।

पर जब यह अहंकार मानसिक मार्ग से प्रकट होता है तो बड़े बुरे रूप में सामने आता है। मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति, उसका मानसिक विकास है। विद्या, ज्ञान, विज्ञान, सद्गुण, सदाचार, उत्तम स्वभाव, स्वच्छ दृष्टिकोण, सेवा, मृदु-भाषण, उदारता, परोपकार, उच्च चरित्र सरीखे गुणों से महानता प्राप्त होती है और अपनी नजर में तथा दूसरों की नजर में ऊंचा उठता है। लेकिन समय के कुप्रभाव से सत्पुरुषों की कमी हो गई है और रजोगुण बढ़ गया है। अब धन को प्रधानता दी जाने लगी है, बहुमत की दृष्टि में धन का महत्व सबसे अधिक है, इसलिए लोग धनी बनकर अपने अहंकार की पूर्ति करने के लिये प्रयत्नशील हैं।

धन का अधिक मात्रा में उपार्जन और संग्रह केवल मात्र चाहने पर निर्भर नहीं है। देश-काल, परिस्थिति, एवं अवसर से इसका बड़ा सम्बन्ध है। आपका देश पिछले दिनों जिन परिस्थितियों में रहा है और आजकल जिन परिस्थितियों में होकर गुजर रहा है, उनमें चन्द मनुष्य ही धनी बन सकते हैं। शेष को गरीब का-मध्यम वर्ग का रहने को बाध्य होना पड़ता है। अधिकाँश भारतवासी गरीब ही हैं। पर गरीब, मध्यवर्ग और अमीर सब में अहंकार की मात्रा एक समान है। इस अहंकार की पुष्टि आज के सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार धनी बनने से होती है। किन्तु धनी बनना बड़ा दुःसाध्य है। ऐसी अवस्था में वह अहंकार एक नई दिशा में फूटता है। धनी न होते हुए भी धनी बनने का दम्भ करके, ढोंग बनाकर किसी प्रकार आत्मसन्तोष करना चाहते हैं, दूसरों की आँखों में धूल झोंककर अपने को धनी मनवाना चाहते हैं। आज जन समाज का अहंकार इसी तामसिक मार्ग से बेतरह फूट निकला हैं।

अपने को अमीर साबित करने के लिए गरीब आदमी भी अमीरों जैसा लिफाफा बनाता है। इस लिफाफे को बनाने और उसकी रक्षा करने के लिए एक इतनी भारी फिजूलखर्ची को सिर पर लेना पड़ता है कि जिसके बोझ से उसकी कमर और गर्दन झुक जाती है। हम देखते हैं कि लोग विवाह, शादी, त्यौहार, उत्सव, प्रीतिभोज आदि के अवसर पर दूसरे लोगों के सामने अपनी हैसियत प्रकट करने के लिए अन्धाधुन्ध खर्च करते हैं। भूखों मरने वाले लोग भी कर्ज लेकर अपना प्रदर्शन इस धूमधाम से करते हैं मानों कोई बड़े भारी अमीर हों। इस धूमधाम के करने में उन्हें अपनी नाक उठती हुई और न करने में कटती हुई दिखाई पड़ती है।

भारत एक गरीब देश है। हमारे देशवासियों की औसत आमदनी आजकल भी तीन-चार आना रोज से अधिक नहीं है। इतनी छोटी आमदनी में शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र, मकान तथा अन्य आवश्यक खर्चों की पूर्ति बड़ी मुश्किल से हो सकती है। पैसे की कमी के कारण उचित मात्रा में दूध, घी, फल नहीं खा सकते, स्वच्छ मकान और स्वच्छ वस्त्र प्राप्त नहीं कर सकते, बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला सकते, बीमारी में ऊँची चिकित्सा नहीं करा सकते, यात्रा, अध्ययन, मनोरंजनों के अवसरों से वंचित रहते हैं, सुविधाजनक जीवन की अन्य आवश्यकताओं को जुटा नहीं पाते, फिर भी विवाह शादी के मृत भोजों के अवसर पर सैंकड़ों हजारों रुपया फूँक देते हैं। इस उपक्रम के लिए उन्हें वर्षों पेट काट कर एक एक कौड़ी जोड़नी पड़ती है, कर्ज लेना पड़ता है या और कोई अनीति मूलक पेशा अख़्तियार करके धन जोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

आज असंख्यों व्यक्ति बेईमानी का पेशा करने में लगे हुए हैं। क्योंकि वे अपना जितना लिफाफा बनाना चाहते हैं उसका आडम्बर बनाने के लिए आवश्यक धन ईमानदारी से नहीं कमाया जा सकता। इस प्रकार यह अनीति का रोग देखा देखी एक से दूसरे को छूत की बीमारी की तरह लगता है। जल्दी-जल्दी धनवान बन जाने का एकमात्र तरीका व्यापारिक व्यभिचार है। आज उसका आम रिवाज हो रहा है और हमारे समाज का नैतिक धरातल गिरता जा रहा है।

कितने ही बड़े जमींदार जागीरदार जिनकी आमदनी संतोषजनक है, कर्जदार बन कर दिवालिये हो जाते हैं। वे अपनी रईसी के आडम्बर की रक्षा के लिए अन्धाधुन्ध फिजूल खर्ची करते हैं। अमीरी का विज्ञापन करने का आज एक ही तरीका प्रचलित है वह है- फिजूल खर्ची जिसका काम ताँगे में बैठने से चल सकता है वह भी मोटर के बिना जमीन पर पैर नहीं धरता। जिसका काम एक मोटर से चल सकता है उसे दस चाहिए। कपड़े, जेवर, मकान नौकर, भोजन मनोरञ्जन, कहाँ तक कहें हर दिशा में अधिक खर्च-अधिक अमीरी का चिन्ह बना हुआ है। वास्तविक धनी इस देश में मुट्ठी भर हैं। अधिकाँश लोग धनी होने का नकाब ओढ़े फिरते हैं। रामलीला के खेल में कागज के चेहरे मुँह पर बाँधकर जैसे खेल करने वाले अपने को देवता, राक्षस आदि बना लाते हैं आज वैसे ही फिजूलखर्ची का चेहरा मुँह पर बाँधकर लोग अमीर बने फिरते हैं। रामलीला के पात्र वास्तव में मनुष्य होते हैं देवता राक्षस नहीं है पर अहंकार की तामसिक प्रगति तो देखिए। झूठ मूँठ अमीर बने फिरते हैं, बेकार फिजूलखर्ची का पत्थर गले से बाँधे फिरते हैं।

यह मानव प्राणी का बौद्धिक ‘बाल क्रीड़ा’ है। दम्भ का नकाब ओढ़कर फिजूलखर्ची के आधार पर धनी बनना बालबुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अहंकार के प्राकट्य का यह निकृष्ट रूप है हमें चाहिये कि इस अज्ञान को उतार फेंके। फिजूलखर्ची से बचें। पैसे का वास्तविक उपयोग शारीरिक, मानसिक सामाजिक और आत्मिक स्वास्थ्य को बढ़ाना है। हमें चाहिए कि अपने और अपने परिजनों की इस चतुर्मुखी स्वस्थता को बढ़ाने के लिए अपनी ईमानदारी से कमाया हुआ पैसा लगावें और व्यर्थ के आडम्बरों को हटाकर सादगी का जीवन बनावें। “सादा जीवन उच्च विचार” यही मनुष्य की महानता का वास्तविक चिन्ह है।

अहंकार जीव की स्वाभाविक वृत्ति है। उसे चरितार्थ करने के लिए आज लोगों ने ‘फिजूल खर्ची द्वारा धनी बनने का ढोंग करने” के मार्ग को अपना लिया है। यह तामसिक मार्ग है। इससे मनुष्य जाति में अशान्ति तथा पाप की वृद्धि होती है। हम इसे छोड़े और अपने को महान् बनाने के लिए सादगी, सभ्यता, सत्कार्य सेवा तथा संस्कृति की वृद्धि करें। आत्मिक महानता में ही हमारी वास्तविक महानता है।

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