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Magazine - Year 1947 - Version 2

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शैतान को आत्म समर्पण न करो।

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जिन विचारों, सिद्धान्तों और कार्यों को मनुष्य सत्य, उचित एवं आवश्यक समझता है कभी-कभी वह उनके अनुसार कार्य नहीं कर पाता। परिस्थितियाँ और कमजोरियाँ उसे इस योग्य नहीं बनने देंगी कि जिन सिद्धान्तों को वह सत्य समझता हैं, उनके अनुसार व्यावहारिक जीवन को बना सके। वर्तमान वातावरण को पार करना उसे कठिन प्रतीत होता है।

ऐसी स्थिति में कितने ही लोग आत्म वंचना करने लगते हैं। हृदय जिस बात को अनुचित एवं असत्य समझता है बहस में उसी बात का पक्ष समर्थन करने लगते हैं। उस अनुचित को उचित सिद्ध करने के लिए उनका मस्तिष्क लम्बी चौड़ी वकालत करने लगता है और कई कई जोरदार दलीलें इस ढंग से पेश करता है जिससे उसका पक्ष मजबूत हो जाय और यह मान लिया जाय कि मैं जिस कार्य को कर रहा हूँ वह अनुचित नहीं उचित है।

यह मार्ग आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ही नीची श्रेणी का काम है। इसे शैतान को आत्म समर्पण करना कहा जा सकता है। मजबूरी की हालत में विवश होकर, दूसरों के दबाव या व्यक्तिगत स्वभाव संस्कारों की कमजोरी के कारण कोई ऐसा काम करना पड़ रहा है जो अनुचित प्रतीत होता है, तो यह आवश्यकता नहीं कि हम अनुचित को उचित सिद्ध करने का प्रयत्न करें। यह तो शैतान की वकालत होगी।

जो बात अनुचित है उसे हृदय में अनुचित ही मानिए। आप उसका त्याग नहीं कर पा रहे हैं यह दूसरी बात है। चूँकि हम बीमार हैं इसलिए बीमारी अच्छी चीजें हैं यह कहना या खुद समझना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं हैं। मनुष्य भूलों, कमजोरियों और बुराइयों से मुक्त नहीं है। आप भी उनसे मुक्त नहीं हैं।

हमें अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए और उनके विरुद्ध विद्रोह जारी रखना चाहिए चाहे वह विद्रोह कितना ही मंद क्यों न हो। जो बुराई है उसे बुराई ही समझना चाहिए। अपने मल मूत्र को भी कोई पवित्र नहीं मानता फिर अपनी बुराई को अच्छाई क्यों बताया जाय। गीता में भगवान कृष्ण ने हर घड़ी युद्ध जारी रखने का उपदेश किया है। यह युद्ध अपनी बुराई और कमजोरियों के विरुद्ध ही लड़ा जाता हैं। शत्रु के विरुद्ध जब तक किसी भी रूप में लड़ाई जारी है तब तक पराजय नहीं समझी जाती। गत महायुद्ध में हमने देखा कि जिन देशों पर शत्रु ने कब्जा कर लिया उनने गुरिल्ला युद्ध जारी रखे, शत्रु के सामने आत्म समर्पण न किया। राजनीतिज्ञ जानते हैं कि जब तक कोई जाति मानसिक दृष्टि से पराधीन नहीं हो जाती, मानसिक आत्मसमर्पण नहीं कर देती तब तक वह राजनैतिक गुलाम नहीं कही जा सकती। जिस जाति ने मानसिक दृष्टि से पराधीनता स्वीकार नहीं की है वह एक न एक दिनों अवश्य ही राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करके रहेगी।

यही बात अपनी बुराइयों के सम्बन्ध में है। परिस्थितियां और कमजोरियाँ पैदा करके शैतान ने किसी को अवाँछनीय स्थिति में डाल रखा है, गुलाम बना लिया है, कब्जा कर लिया है तो भी उसे चाहिए कि गुरिल्ला युद्ध जारी रखे। मन में नित्य प्रति दुहराता रहे कि यह मेरी कमजोरी है, इस कमजोरी से मुझे घृणा है। इसे एक न एक दिन दूर करके रहूँगा। अवसर आने पर दूसरों के सामने भी अपनी कमजोरी, भूल स्वीकार करनी चाहिए। कम से कम उसका समर्थन तो नहीं ही करना चाहिए, इस प्रकार यदि शैतान के आगे आत्म समर्पण न किया जाय, उसके विरुद्ध युद्ध जारी रखा जाय तो एक न एक दिन पूर्ण आध्यात्मिक स्वतंत्रता-मुक्ति-मिले बिना न रहेगी।

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