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Magazine - Year 1949 - Version 2

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गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि

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गायत्री मंत्र सर्वोपरि मंत्र है। इससे बड़ा और कोई मंत्र नहीं। जो काम संसार के किसी अन्य मंत्र से हो सकता है वह निश्चित रूप से गायत्री द्वारा हो सकता है। दक्षिण मार्गी योग साधक वेदोक्त पद्धति से जिन जिन कार्यों के लिए अन्य किसी मंत्र से सफलता प्राप्त करते हैं वे सब प्रयोजन गायत्री से पूरे हो सकते हैं। इसी प्रकार ताँत्रिक जो कार्य तंत्र प्रणाली से किसी मंत्र के आधार पर करते हैं वह सब भी गायत्री द्वारा किये जा सकते हैं। यह एक प्रचंड शक्ति है जिसे जिधर भी लगा दिया जायेगा उधर ही चमत्कारी सफलता मिलेगी।

काम्य कर्मी के लिए, सकाम प्रयोजनों के लिए अनुष्ठान करना आवश्यक होता है। सवा लक्ष का पूर्ण अनुष्ठान, चौबीस हजार का आँशिक अनुष्ठान अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार फल देते हैं। जितना गुड़ डालो उतना मीठा वाली कहावत इस क्षेत्र में भी चरितार्थ होती है। साधना और तपश्चर्या द्वारा जो आत्मबल संग्रह किया गया है उसे जिस काम में भी खर्च किया जायेगा उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। बन्दूक उतनी ही उपयोगी सिद्ध होगी, जितने बढ़िया और जितने अधिक कारतूस होंगे। गायत्री की प्रयोग विधि एक प्रकार की आध्यात्मिक बन्दूक है। तपश्चर्या और साधना द्वारा संग्रह की हुई आत्मिक शक्ति कारतूसों की पेटी है। दोनों के मिलने से ही निशाने को मार गिराया जा सकता है। कोई व्यक्ति प्रयोग विधि जानता हो पर उसके पास साधना बल न हो तो ऐसा ही परिणाम होगा जैसा खाली बन्दूक का घोड़ा बार-बार चटका कर कोई यह आशा करे कि अचूक निशाना लगेगा। इसी प्रकार जिनके पास तपोबल तो है पर उसका काम्य प्रयोजन के लिए विधिवत प्रयोग करना नहीं जानते वे वैसे हैं जैसे कोई कारतूस की पोटली बाँधे फिरे और उन्हें हाथ से फेंक-फेंक कर शत्रुओं की सेना का संहार करना चाहे। यह उपहासास्पद तरीके हैं।

आत्मबल संचय करने के लिए जितनी अधिक साधनाएं की जायं उतना ही अच्छा है पाँच प्रकार के साधक गायत्री सिद्ध समझे जाते हैं- 1. लगातार बारह वर्ष तक कम से कम एक माला नित्य जप किया हो 2. गायत्री की ब्रह्म संध्या को लगातार नौ वर्ष किया हो 3. ब्रह्मचर्य पूर्वक पाँच वर्ष तक एक हजार मंत्र नित्य जपे हों। 4. चौबीस लक्ष गायत्री का अनुष्ठान किया हो 5. एक वर्ष तक गायत्री तप किया हो। जो व्यक्ति इन साधनाओं में कम से कम एक या एक से अधिक का तप पूरा कर चुके हों, गायत्री मंत्र का काम्य कर्म में प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चौबीस हजार वाले या सवा लक्ष वाले अनुष्ठानों की पूँजी जिनके पास है वे भी अपनी-अपनी पूँजी के अनुसार एक सीमा तक सफल हो सकते हैं।

नीचे कुछ खास-खास प्रयोजनों के लिए गायत्री के प्रयोग की विधियाँ दी जाती हैं-

रोग निवारण-

स्वयं रोगी होने पर जिस स्थिति में भी रहना पड़े उसी में मन ही मन गायत्री का जप करना चाहिए। एक मंत्र समाप्त होने और दूसरा आरंभ होने के बीच में एक बीज मंत्र का सम्पुट भी लगाते चलना चाहिए। सर्दी प्रधान (कफ) रोगों में ‘ऐ’ बीज मंत्र, गर्मी प्रधान पित्त रोगों में ‘ऐं’ अपच एवं विष प्रधान (वात) रोगों में ‘हुँ’ बीज मंत्र का प्रयोग करना चाहिए। निरोग होने के लिए वृषभ वाहिनी हरितवस्त्रा गायत्री का ध्यान करना चाहिये।

दूसरों को निरोग करने के लिए भी इन्हीं बीज मंत्रों का और इसी ध्यान का प्रयोग करना चाहिए। रोगी के पीड़ित अंगों पर उपरोक्त ध्यान और जप करते हुए हाथ फिराना, जल अभिमंत्रित करके रोगी पर मार्जन देना एवं छिड़कना। इन्हीं स्थितियों में तुलसी पत्र और काली मिर्च गंगाजल में पीस कर दवा के रूप में देना, यह सब उपचार ऐसे हैं जो किसी भी रोग के रोगी पर किये जायें उसे लाभ पहुँचाये बिना न रहेंगे।

विष निवारण-

सर्प, बिच्छू, बर्र, ततैया, मधुमक्खी और जहरीले जीवों के काट लेने पर बड़ी पीड़ा होती है। साथ ही शरीर में विष फैलने से मृत्यु तक हो जाने की संभावना रहती है। इस प्रकार की दुर्घटनाएं घटित होने पर गायत्री शक्ति द्वारा उपचार किया जा सकता है।

पीपल वृक्ष की समिधाओं से विधिवत हवन करके उसकी भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिए। अपनी नासिका का जो स्वर चल रहा है उसी हाथ पर थोड़ी सी भस्म रख कर दूसरे हाथ से उसे अभिमंत्रित करते चलो और बीच में ‘हुँ’ बीज मंत्र का संपुट लगावे तथा रक्तवर्ण, अश्वारुढ़ा गायत्री का ध्यान करते हुए उस भस्म को विषैले कीड़े के काटे हुए स्थान पर दो चार मिनट मसलें। पीड़ा में जादू के समान आराम होता है।

सर्प के काटे हुए स्थान पर रक्त चंदन से किये हुए हवन की भस्म मलनी चाहिए और अभिमंत्रित करके घृत पिलाना चाहिए। पीली सरसों को अभिमंत्रित करके उसे पीसकर दसों इन्द्रियों के द्वार पर थोड़ा लगा देना चाहिए। ऐसा करने से सर्प विष दूर हो जाता है।

बुद्धि-वृद्धि -

गायत्री प्रधानतः बुद्धि को शुद्ध, प्रखर और समुन्नत करने वाला मंत्र है। मन्द बुद्धि, स्मरण शक्ति की कमी वाले लोग इससे विशेष रूप से लाभ उठा सकते हैं। जो बालक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं, पाठ ठीक प्रकार याद नहीं कर पाते उनके लिए निम्न उपासना बड़ी उपयोगी है।

सूर्योदय के समय, प्रथम किरणों को पानी से भीगे हुए मस्तक पर पड़ने दें। पूर्व की ओर मुख करके अध खुले नेत्रों से सूर्य का दर्शन करते हुए आरंभ में तीन बार ॐ का उच्चारण करते हुए गायत्री का जप करें। कम से कम एक माला (108 मंत्र) अवश्य जपने चाहिए। पीछे दोनों हाथों का हथेली भाग सूर्य की ओर इस प्रकार करें मानों आग पर ताप रहे हैं। इस स्थिति में बारह मंत्र जप कर हथेलियों को आपस में रगड़ना चाहिए और उन उष्ण हाथों को मुख, नेत्र, नासिका, ग्रीवा, कर्ण, मस्तक, आदि समस्त शिरोभागों पर फिराना चाहिए।

राजकीय सफलता

किसी सरकारी कार्य मुकदमा, राज्य स्वीकृति, नियुक्ति आदि में सफलता प्राप्त करने के लिए गायत्री का उपयोग किया जा सकता है। जिस समय अधिकारी के सम्मुख उपस्थित होना हो अथवा कोई आवेदन पत्र लिखना हो उस समय यह देखना चाहिए कि कौन सा स्वर चल रहा है। यदि दाहिना स्वर चल रहा हो तो पीत वर्ण ज्योति का मस्तिष्क में ध्यान करना चाहिए और यदि बाँया स्वर चल रहा हो तो हरे रंग के प्रकाश का ध्यान करना चाहिए। मंत्र में सप्त व्याहृतियाँ लगाते हुए ॐ भूर्भुवः स्वः तपः जनः महः सत्यम्। बारह मंत्रों का मन ही मन जप करना चाहिए। दृष्टि उस हाथ के अंगूठे के नाखून पर रखनी चाहिए, जिसका स्वर चल रहा हो। भगवती की मानसिक आराधना, प्रार्थना करते हुए राजद्वार में प्रवेश करने से सफलता मिलती है।

दरिद्रता का नाश-

दरिद्रता, हानि ऋण, बेकारी, साधन हीनता वस्तुओं का अभाव, कम आमदनी बढ़ा हुआ खर्च, कोई रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की अर्थ चिन्ता से मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार हो जाती है। जो वर्तमान अर्थ चक्र से निकाल कर साधक को संतोष जनक स्थिति पर पहुँचा दे।

दरिद्रता नाश के लिए गायत्री की श्रीं शक्ति की उपासना करनी चाहिए। मंत्र के अन्त में तीन बार श्रीं बीज का सम्पुट लगाना चाहिए। साधन काल के लिए पीले वस्त्र, पीले पुष्प, पीला यज्ञोपवीत, पीला तिलक, पीला आसन उपयोग करना चाहिए। शरीर पर शुक्रवार को हल्दी मिले हुए तेल की मालिश करनी चाहिए और रविवार को उपवास करना चाहिए। पीताम्बर धारी, हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का ध्यान करना चाहिए। पीत वर्ण लक्ष्मी का प्रतीक है, भोजन में भी पीली चीजें प्रधान रूप से लेनी चाहिए। इस प्रकार की साधना से धन की वृद्धि और दरिद्रता का नाश होता है।

सुसन्नति की प्राप्ति-

जिनके सन्तान नहीं होती है, होकर मर जाती है, रोगी रहती है, गर्भपात हो जाते हैं, केवल कन्याएं होती हैं तो इन कारणों से माता पिता को दुख रहना स्वाभाविक है। इस प्रकार के दुखों से भगवती की कृपा द्वारा छुटकारा मिल सकता है।

इस प्रकार की साधना में स्त्री पुरुष दोनों ही सम्मिलित हो सकें तो बड़ा अच्छा, एक पक्ष के द्वारा ही पूरा भार कंधे पर लिए जाने से आँशिक सफलता ही मिलती है। प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर साधना पर बैठें। नेत्र बन्द करके श्वेत वस्त्राभूषण अलंकृत किशोर आयु वाली, कमल पुष्प हाथ में लिए हुए गायत्री का ध्यान करें। ‘यं’ बीज के तीन संपुट लगा कर गायत्री का जप चन्दन की माला पर करें।

नासिका से साँस खींचते हुए पेडू तक ले जानी चाहिए पेडू को जितना वायु से भरा जा सके भरना चाहिए। फिर साँस रोक कर ‘यं’ बीज संपुटित गायत्री का कम से कम एक अधिक से अधिक तीन बार जप करना चाहिए। फिर धीरे-धीरे साँस को निकाल देना चाहिए। इस प्रकार पेडू में गायत्री शक्ति का आकर्षण और धारण कराने वाला यह प्राणायाम दस बार करना चाहिए। तदंतर अपने वीर्य कोष या गर्भाशय में शुभ्र वर्ण ज्योति का ध्यान करना चाहिए। यह साधन स्वस्थ, सुन्दर तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान सन्तान उत्पन्न करने के लिए है।

इस साधना के दिनों में प्रत्येक रविवार को चावल, दूध, दही आदि केवल श्वेत वस्तुओं का ही भोजन करना चाहिए।

शत्रुता का संहार -

द्वेष, कलह, मुकदमा बाजी, मनमुटाव को दूर करना और अत्याचारी अन्यायी अकारण आक्रमण करने वाली मनोवृत्ति का संहार करना, आत्मा तथा समाज में शाँति रखने के लिए आवश्यक होता है। इसके लिए चार क्लीं बीज मंत्रों के संपुट समेत रक्त चंदन की माला से पश्चिमाभिमुख होकर गायत्री का जप करना चाहिए। जप काल में शिर पर यज्ञ भस्म का तिलक लगाना तथा ऊन का आसन बिछाना चाहिए। लाल वस्त्र पहने, सिंहारुढ़, खड्ग हस्ता, विकराल बदना दुर्गा वेषधारी गायत्री का ध्यान करना चाहिए।

जिन व्यक्तियों का द्वेष दुर्भाव निवारण करना हो उनका नाम पीपल के पत्ते पर रक्त चंदन की स्याही और अनार की कलम द्वारा लिखना चाहिए। इस पत्ते को उल्टा रख कर प्रत्येक मंत्र के बाद जल पात्र में से एक छोटी चमची भरके जल लेकर उस पत्ते पर डालना चाहिए। इस प्रकार 108 मंत्र नित्य जपने चाहिए। इससे शत्रु के स्वभाव का परिवर्तन होता है और उसको द्वेष कराने वाली सामर्थ्य घट जाती है।

भूत बाधा की शाँति-

कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों, शारीरिक विकृतियों तथा प्रेतात्माओं के कोप से कई बार भूत बाधा के उपद्रव होने लगते हैं। कोई व्यक्ति उन्मादियों जैसी चेष्टा करने लगता है, उसके मस्तिष्क पर किसी दूसरी आत्मा का आधिपत्य दृष्टि गोचर होता है। इसके अतिरिक्त कोई मनुष्य या पशु ऐसी विचित्र दशा का रोगी होता है जैसा कि साधारण रोगों में नहीं होता। भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ना, अदृश्य मनुष्यों द्वारा की जाने जैसी क्रियाओं का देखा जाना, भूत बाधा के लक्षण हैं।

इसके लिए गायत्री हवन सर्वश्रेष्ठ है। सतोगुणी हवन सामग्री से विधि पूर्वक यज्ञ करना चाहिए और रोगी को उसके निकट बिठा लेना चाहिए। हवन की अग्नि में तपाया हुआ जल रोगी को पिलाना चाहिए। बुझी हुई यज्ञ भस्म सुरक्षित रख लेनी चाहिए। किसी रोगी को अचानक भूत बाधा हो तो उस यज्ञ भस्म को उसके हृदय, ग्रीवा मस्तक, नेत्र कर्ण, मुख नासिका आदि पर लगाना चाहिए।

दूसरों को प्रभावित करना -

जो व्यक्ति अपने प्रतिकूल हैं उन्हें अनुकूल बनाने के लिए अंतुष्टों को संतुष्ट करने के लिए, उपेक्षा करने वालों में प्रेम उत्पन्न करने के लिए गायत्री द्वारा आकर्षण क्रिया की जा सकती है। वशीकरण तो घोर ताँत्रिक क्रियाओं द्वारा ही होता है पर चुम्बकीय आकर्षण, जिससे किसी व्यक्ति का मन अपनी ओर सद्भावना पूर्वक आकर्षित हो गायत्री की दक्षिण मार्गी इस योग साधना से भी हो सकता है।

गायत्री का जप तीन प्रणव लगाकर जपना चाहिए और ऐसा ध्यान करना चाहिए कि अपनी त्रिकुटी मस्तिष्क का मध्य भाग) में से एक नील वर्ण विद्युत तेज की रस्सी जैसी शक्ति निकल कर उस व्यक्ति तक पहुँचती है जिसे आपको आकर्षित करना है और उसके चारों ओर अनेक लपेट मारकर लिपट जाती है। इस प्रकार लिपटा हुआ वह व्यक्ति अर्ध तंद्रित अवस्था में धीरे-धीरे खिंचता चला आता है और अनुकूलता की प्रसन्न मुद्रा उसके चेहरे पर छाई हुई है। आकर्षण के लिए यह ध्यान बड़ा प्रभावशाली है।

किसी के मन में मस्तिष्क में, उसके अनुचित विचार हटाकर अपने उचित विचार भरने हों तो, ऐसा करना चाहिए कि शाँत चित्त होकर उस व्यक्ति को अखिल नील आकाश में अकेला सोता हुआ ध्यान करें और भावना करें कि उसके कुविचारों को हटाकर आप उसके मन में सद्विचार भर रहे हैं। इस ध्यान साधना के समय अपना शरीर भी बिल्कुल शिथिल और नील वस्त्र से ढ़का हुआ होना चाहिए।

रक्षा-कवच-

किसी शुभ दिन उपवास रखकर, केशर, कस्तूरी, जायफल, जावित्री, गोरोचन इन पाँच चीजों के मिश्रण की स्याही बनाकर अनार की लकड़ी से पाँच प्रणव संयुक्त गायत्री मंत्र बिना पालिश किये हुए कागज या भोजपत्र पर लिखना चाहिए। यह कवच चाँदी के ताबीज में बन्द करके जिस किसी को धारण कराया जाय उसकी सब प्रकार रक्षा करता है। रोग, अकाल मृत्यु, शत्रु, चोर, हानि, बुरे दिन, कलह, भय, राजदंड, भूत प्रेत, अभिचार आदि से यह कवच रक्षा करता है। इसके प्रताप और प्रभाव से शारीरिक, आर्थिक और मानसिक सुख साधनों में वृद्धि होती है।

काँसे की थाली में उपरोक्त प्रकार से गायत्री मंत्र लिख कर उसे प्रसव कष्ट से पीड़ित प्रसूता को दिखाया जाय और फिर पानी से धोकर उसे पिला दिया जाय तो कष्ट दूर होकर, सुख पूर्वक शीघ्र प्रसव हो जाता है।

बुरे मुहूर्त और शकुनों का परिहार-

कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं कि कोई कार्य करना या कहीं जाना है पर उस समय कोई शकुन या मुहूर्त ऐसे उपस्थित हो रहे हैं जिनके कारण आगे कदम बढ़ाते हुए झिझक होती है। ऐसे अवसरों पर गायत्री की एक माला जपने के पश्चात कार्य आरंभ किया जा सकता है। इससे सारे अनिष्टों और आशंकाओं का समाधान हो जाता है। और किसी अनिष्ट की संभावना नहीं रहती। विवाह न बनता हो या विधिवर्ग न मिलता हो, विवाह मुहूर्त में सूर्य, बृहस्पति चन्द्रमा आदि की बाधा हो तो चौबीस हजार जप का नौ दिन वाला लघु अनुष्ठान करके विवाह कर देना चाहिए। ऐसे विवाह से किसी प्रकार का अनिष्ट होने की कोई संभावना नहीं है। वह सब प्रकार शुद्ध और ज्योतिष सम्मत विवाह के समान ही ठीक माना जाना चाहिए।

बुरे स्वप्नों के फल का नाश

कई बार ऐसे भयंकर स्वप्न दिखाई पड़ते हैं जिनसे स्वप्न काल में भी बड़ा त्रास और दुख मिलता है एवं जागने पर भी उनका स्मरण करके दिल धड़कता रहता है। ऐसे स्वप्न किसी अनिष्ट की आशंका का संकेत करते हैं। जब ऐसे स्वप्न हों तो एक सप्ताह तक प्रतिदिन दस-दस मालाएं गायत्री जप करना चाहिए और गायत्री का पूजन करना या कराना चाहिए। गायत्री सहस्र नाम या गायत्री चालीसा का पाठ भी दुःस्वप्नों के प्रभाव को नष्ट करने वाला है।

उपरोक्त पंक्तियों में कुछ थोड़े से प्रयोग और उपचारों का आभास कराया गया है। अनेक विषयों में अनेक विधियों से गायत्री का जो उपयोग हो सकता है उसका वर्णन बहुत विस्तृत है। वह ऐसे छोटे-मोटे लेखों में नहीं आ सकता। उसे तो स्वयं अनुभव करके अथवा इस मार्ग के किसी अनुभवी सफल प्रयोक्ता को पथ-प्रदर्शक नियुक्त करके ही जाना जा सकता है। गायत्री की महिमा अपार है। वह कामधेनु है। उसकी साधना उपासना करने वाला कभी भी निराश नहीं लौटता।

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