
प्रत्येक वस्तु सुख देने वाली।
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(डॉ. गोपालप्रसाद ‘वंशी’ बेतिया)
इन्द्रप्रस्थ में जब राजसूर्य-यज्ञ समाप्त हो गया और सब अभ्यागत अतिथि बिदा होने लगे तो पाँडवों ने बड़े प्रेम से दुर्योधन को कुछ दिन और अपने पास ठहरा लिया और उसका पूरा आदर-सत्कार किया। एक दिन पाँडव मय दानव का बनाया हुआ सभा-भवन उसे दिखलाने लगे। सभा-भवन में एक जगह अधिक मूल्य के स्वच्छ उजले पत्थर और शीशे इतने अच्छे ढंग से जड़े थे कि वहाँ पानी बहता मालूम होता था- उद्दाम वेग से बहती हुई नदी मालूम होती थी। इस मिथ्या पानी के प्रवाह, झकोरे खाती हुई नदी को देखकर दुर्योधन भ्रम में पड़ गया। उसे लहराता हुआ जल समझ कर तैर कर पार जाने के लिए कपड़े उतारने लगा। यह देख भीमसेन और द्रौपदी आदि ठहाका मार हंस पड़े।
इसी प्रकार यह संसार माया का रचा हुआ घर है। मनुष्यों की चित्त की प्रसन्नता के लिए रंग-बिरंग के चित्रपटों से सज्जित और संवारित है। इसमें मृगतृष्णा के जल सदृश धोखे वाले विशेष अवसर भी हैं, जिनको देखकर मनुष्य घबरा उठता है कि, ‘हाय! मैं डूबा मैं मरा!’ और घबड़ा कर हाथ पैर मारने लगता है, धीरज और स्थिरता की लगाम हाथ से छोड़ देता है, संशय और भ्रम के वश में आ जाता है। उसके चेहरे का रंग उड़ने लगता है मानो वह वास्तव में किसी गहरी मुसीबत में पड़ गया है। परन्तु जब अज्ञान का परदा दूर होता है, तो लगता है कि कुछ बात ही न थी। पानी तो था ही नहीं, कपड़े व्यर्थ उतारे, बेकार ही परेशानी हुई।
यह खूब याद रखने की बात है कि दुनिया में जितनी चीजें प्रत्यक्ष में घबड़ा देने वाली मालूम होती हैं, असल में मनुष्य की प्रसन्नता और आनन्द के लिए ही प्रकृति ने उन्हें बनाया है, अज्ञानता ही से मनुष्य चक्कर में पड़ता है। संसार की सृष्टि किसी शत्रु के हाथों नहीं हुई है बल्कि यह मनुष्य की आत्मा का ही सारा विकास है। संसार की कोई वस्तु वास्तव में दुखदायी नहीं है, वरन् प्रत्येक पदार्थ मनुष्य के सुख, प्रसन्नता और आनन्द का कारण है।
कई प्रकार की परिस्थितियाँ, घटनाएं और वस्तुएं मनुष्यों को प्रिय या अप्रिय होती हैं, प्रिय की प्राप्ति में वह सुख और अप्रिय की प्राप्ति में दुख अनुभव करता है। यह रुचि, इच्छा, पसंदगी ही दुख-सुख की जननी है। वस्तुतः संसार की एक भी घटना ऐसी नहीं है जो मानव प्राणी के वास्तविक स्वार्थ के विपरीत हो, दुख-दायक या अनावश्यक हो।
एक उदाहरण लीजिए- जेल से लोग डरते हैं पर अनेकों कैदी जेलखानों में वैसी ही सुविधा पूर्वक जीवन यापन करते हैं, जैसे कि साधारण मनुष्य अपने घरों में रहते हैं। यदि जेलखाना वस्तुतः कोई भयंकर विपत्ति होती जो बाहर वालों को यह जैसे आतंकित करती है वैसी ही भीतर वालों को भी करती। पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता। फाँसी की सजा कम होकर यदि दस वर्ष की जेल रह जाती है तो अपराधी फूला नहीं समाता। इसी प्रकार कोई कायर डरपोक युद्ध सैनिक लड़ाई के मोर्चे पर प्राण संकट देखता है और डर के मारे भाग खड़ा होता है एवं पकड़े जाने पर जेलखाने जाता है तो वह मृत्यु की अपेक्षा जेल से ही बीतने को सौभाग्य समझता है और ईश्वर को इस कृपा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद देता है। इससे प्रकट है कि जेल में सुख-दुख का कोई तत्व नहीं केवल मनुष्य की मान्यताएं ही उसका कारण हैं।
इसी प्रकार स्त्री, संतान, धन, वैभव, प्रशंसा पदवी आदि एक के लिए जीवन पूरी हैं तो दूसरे को आपदायें प्रतीत होती हैं। एक मनुष्य जिसके लिए लालायित है दूसरा उसे त्यागे फिरता है और घोर घृणा करता है। जिस परिस्थिति को पाकर एक मनुष्य शिर धुलता है, छाती पीटता है खाना सोना भूल जाता है और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है दूसरा आदमी वैसी ही या उससे भी बुरी परिस्थिति में रहता हुआ संतोष पूर्वक जीवन व्यतीत करता है और धैर्य तथा साहस पूर्वक कठिनाई से लड़ता है। एक मनुष्य आज अच्छी स्थित में होते हुए भी अपने भविष्य को घोर निराशा मय, अंधकार पूर्ण सोचता है और चित्त को दुख सागर में डुबोये रहता है। दूसरा व्यक्ति आज घोर संकट में होते हुए भी भविष्य की सुनहरी कल्पना करता है और आशा की उमंगों में आनंदित रहता है। यह सब बातें बताती हैं कि वस्तुएं या परिस्थितियाँ नहीं, मनुष्य की इच्छाएं, भावनाएं, मान्यताएं और कल्पनाएं उसे दुखी या सुखी बनाती हैं।
जो लोग आनंदित जीवन बिताने के इच्छुक हैं उन्हें आनन्द के उद्गम के संबंध में सही जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। इच्छानुकूल वस्तुएं मनचाही परिस्थितियाँ पाने पर ही जो सुखी होना सोचते हैं वे जीवन भर कभी भी सुखी नहीं हो सकेंगे क्योंकि पूर्णतया अभीष्ट मनोरथ कभी किसी को प्राप्त नहीं हो सकता। हाँ, अपनी रुचि इच्छा और भावना को सुसंयत बना कर वर्तमान परिस्थितियों में भी आनन्द प्राप्त करने का स्वर्ण सुयोग प्राप्त किया जा सकता है। आध्यात्म विद्या का तत्व ज्ञान यही है। वह वस्तुओं की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ने से मना करती है और अपने दृष्टिकोण में सुधार करना सिखाती है, जिससे हर घड़ी, हर परिस्थिति में आनन्दित रहा जा सके।
संसार की प्रत्येक वस्तु परिस्थिति मनुष्य के सुधार, विकास एवं आनन्द के लिए है। दुख का एक कण भी इस विश्व में नहीं है। हमारा अज्ञान एवं दूषित दृष्टिकोण ही दुख का कारण है। उसे सुधार लिया जाए तो फिर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। संसार की प्रत्येक वस्तु और घटना सुख ही देने वाली है।