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Magazine - Year 1951 - Version 2

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सहस्त्राँशु गायत्री ब्रह्म यज्ञ का परिचय

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First 13 15 Last
गत अंक में ‘सहस्त्राँशु गायत्री ब्रह्म यज्ञ’ के एक मार्ग पर प्रकाश डाला गया था। अब उसकी पूरी जानकारी एवं विधि व्यवस्था का उल्लेख किया जा रहा है।

चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण पूरे करने पर हमने गत आश्विन सन् 2008 की नवरात्रियों में पूर्ण निराहार, केवल जल के आहार पर जो आवास तपश्चर्या की थी, उसमें माता का कुछ विशेष संदेश एवं प्रकाश प्राप्त हुआ। गुरु देव के आदेशानुसार 24 महापुरश्चरणों का जो संकल्प किया था, वह पूरा हो जाने पर अपने आध्यात्मिक पिता (गुरु) के आदेश की पूर्ति हो गई। अब माता की बारी थी, उनके चर्णो में मस्तक रखकर आदेश माँगा तो उन्होंने “सहस्रांशु ब्रह्म यज्ञ” करने का आदेश दिया और उसका सारा विधान भी बताया। आज्ञा को शिरोधार्य करना ही एक मात्र हमारा कर्त्तव्य था। उनके चरणों की साक्षी लेकर इस महायज्ञ का संकल्प कर लिया गया। एक मास तक योजना बनाने के उपरान्त कार्तिक सुदी 11 (देवोत्थान) सन् 2008 से इसका प्रारम्भ भी कर दिया गया है।

माता की प्रेरणाओं से आरम्भ हुए इस “गायत्री सहस्रांशु ब्रह्म यज्ञ” की योजना इस प्रकार है। (1) यह यज्ञ किसी एक ही स्थान तक सीमित न रह कर एक हजार स्थानों में होगा, (2) जैसे सूर्य की सहस्र रश्मियाँ होती हैं, शेष जी के सहस्र मुख हैं, मस्तक के ब्रह्म रंध्र में अवस्थित ब्रह्मकमल में सहस्र पंखुड़ियां होती हैं, उसी प्रकार यह यज्ञ भी सहस्रों ऋत्विजों द्वारा पूर्ण होगा, (3) इस यज्ञ में 125 करोड़ गायत्री महामन्त्र का जप किया जायेगा। (4) 125 लाख आहुतियों का हवन होगा। (5) 125 हजार उपवास होंगे (6) 125 हजार (सवालक्ष) व्यक्तियों को गायत्री विद्या का समुचित ज्ञान कराया जाएगा।

यह कार्य इतना विशाल है कि कल्पना मात्र से मस्तक चकरा जाता है। आज के युग में भोग और स्वार्थ की प्रधानता है, धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य कोई बिरले ही होते हैं। ऐसी दशा में इतनी बड़ी संख्या में ऋषियों का तत्पर होना कठिन प्रतीत होता है। परन्तु दूसरे ही क्षण नव आशा का संचार होता है कि महाशक्ति अपना काम स्वयं करेगी। हमें तो केवल निमित्त मात्र बनना है।

प्राचीन काल में महाप्रभु अंगिरा के आदेशानुसार नारद जी ने अधार्मिकता का परिमार्जन करने के लिए 24 करोड़ भगवद्भक्त बनाने का व्रत लिया था। नारद जी ने अपनी शक्ति से नहीं दैव शक्ति की सहायता से उसे पूरा किया था। हमें “सहस्त्राँशु ब्रह्म यज्ञ” का प्रेरणा देने वाली प्रेरक शक्ति ही प्रधान साधन बनेगी। हमारे जैसे तुच्छ व्यक्ति तो अपनी अयोग्यता और कार्य की महानता-इन दोनों की तुलना करने मात्र से काँप जाते हैं।

यह बात भली प्रकार समझ लेने की है कि यह महायज्ञ अत्यन्त गम्भीर सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला है। इसमें युग परिवर्तन के बीज छिपे हुए हैं। जैसे नव प्रभात की पूर्व सन्ध्या में ब्राह्मी साधना आवश्यक होती है, उसी प्रकार नानाविधि पाप तापों से आस देने वाली इस घनघोर अन्धकारमयी निशा का परिवर्तन करके शान्तिदायक, सतोगुणी उषा के स्वागत में यह यज्ञ किया जा रहा है। इसमें सम्मिलित होना हर एक जागृत आत्मा का पवित्र कर्त्तव्य है।

तप से ही शक्ति उत्पन्न होती है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक जिस किसी ने भी कोई भौतिक या आत्मिक वरदान पाया है वह तप द्वारा ही पाया है। समस्त सुखों, सम्पत्तियों, सफलताओं, शक्तियों का कारण तप है। जब तप की पूँजी समाप्त हो जाती हैं तो बड़े-बड़े प्रतापी कटे हुए वृक्ष की तरह भूमि पर गिर पड़ते हैं। वह आत्मबल जिसके द्वारा परमात्मा को प्राप्त किया जाता है, वह ब्रह्म तेज जिससे समस्त संसार काँपता है, वह दिव्य शक्ति जिसके कारण समस्त सम्पदाएँ करतलगत होती हैं, इस सहस्रांशु यज्ञ द्वारा एक महान् तपश्चर्या का आयोजन किया गया है। सहस्रों ऋत्विजों की सम्मिलित शक्ति उत्पन्न होगी, उसके द्वारा लोक कल्याण का भारी प्रयोजन सिद्ध होगा।

त्रेता युग में ऋषियों ने अपना थोड़ा थोड़ा रक्त संचय करके एक घट भरा था और उसे भूमि में गाड़ दिया था, उससे सीता जी उत्पन्न हुईं और रावण के विनाश एवं राम राज्य की स्थापना का कारण हुईं। देवताओं की सम्मिलित शक्ति से ही “दुर्गा” उत्पन्न हुई थी, जिनके द्वारा भयंकर असुरों का विनाश हुआ। आज भी अनेक प्रकार के पाप-तापों से, अनीति, अभाव और अविचारों से मानव जाति पीड़ित है, इनको हटाने के लिए इसे सहस्रों ऋत्विजों के सम्मिलित तप से एक ऐसी प्रचण्ड शक्ति का आविर्भाव होगा जो दुरितों का विध्वंस करके शान्तिदायक भविष्य का निर्माण करेगी।

इस युग का यह असाधारण, एक अभूतपूर्व यज्ञ है, इसके परिणाम अत्यन्त महान होंगे। इसके पीछे प्रभु की प्रचण्ड प्रेरणा एवं महान योजना सन्निहित है। इसमें सम्मिलित होकर साधना करना अपनी अलग अकेली साधना की अपेक्षा अनेक गुना उत्तम है। लंकाध्वंस के लिए वानरों को और गोवर्धन उठाने में ग्वाल बालों को जो श्रेय प्राप्त हुआ था, वह इस महान यज्ञ के ऋत्विजों को भी प्राप्त होगा। यों साधारण रीति से भी जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का आँचल पकड़ते है उन्हें आशाजनक परिणाम प्राप्त होता है। हमें अपने दीर्घ कालीन अनुभव के आधार पर यह सुनिश्चित विश्वास है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। परन्तु इस यज्ञ में सम्मिलित होकर साधना करने के सत् परिणाम की आशा तो बहुत अधिक की जा सकती है।

इस यज्ञ में किसने कितना भाग लिया? इसका परिणाम संसार के लिए कितना कल्याणकारक सिद्ध हुआ? सम्मिलित होने वालों को व्यक्तिगत रूप से क्या लाभ हुआ? इन सब बातों का एक सचित्र इतिहास भी बनेगा और युग युगान्तरों तक इसमें सम्मिलित होने वालों का यश प्रकाशवान रहेगा।

यह यज्ञ सम्भवतः 24 मास में पूरा हो जाने की आशा है। पर आवश्यकतानुसार यह तीन वर्ष भी चल सकता है। इसमें धार्मिक प्रवृत्ति के कोई भी द्विज, स्त्री-पुरुष प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकते है। कम से कम एक वर्ष तक सम्मिलित रहना आवश्यक है। अधिक चाहे जितने समय तक शामिल रहा जा सकता है। किसी भी मास की अमावस्या या पूर्णमासी से साधना प्रारम्भ करके इस यज्ञ में सम्मिलित हो सकते है।

इस यज्ञ में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति ‘ऋत्विज’ कहे जाएंगे। प्रत्येक ‘ऋत्विज’ को एक वर्ष तक नियमित रूप से यह पाँच व्रत पालन करने होंगे- (1) व्रत, (2) हवन, (3)उपवास, (4) आराधना, (5)ब्रह्म संदीप।

जप कम से कम गायत्री की 5 माला (540 मन्त्रों का) नित्य कराना चाहिये। और रविवार को 1 माला अधिक जपनी चाहिये। इस प्रकार एक वर्ष में 2 लाख जप पूरे होंगे। जिन सज्जनों को अवकाश और उत्साह हो उन्हें अधिक जप करना चाहिए। जो पूरा गायत्री मन्त्र न जप सकें वे लघु पंचाक्षरी गायत्री (ॐ भूभुर्वः स्वः) का साधन करें।

प्रत्येक मास की पूर्णमासी या अन्तिम रविवार को 108 गायत्री मन्त्रों का हवन करना चाहिए। जो सज्जन हवन न कर सकें वे हमारे लिए एक हजार अस्सी (दस माला) जप कर दें। बदले में हम उनके लिए 108 आहुतियों का हवन कर देंगे। एक वर्ष में सवा हजार आहुतियों का हवन होना चाहिए।

उपवास प्रत्येक रविवार को रखना चाहिए फल दूध पर रहने की जिन्हें सुविधा न हो वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार लेकर उपवास कर सकते हैं।

गायत्री माता का चित्र स्थापित करके उसकी प्रतिदिन धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि से पूजा आरती वन्दना आदि करने को आराधना कहते हैं। ऋत्विज के लिए आराधना भी आवश्यक है। जो सज्जन निराकार उपासक हों, वे धूप बत्ती आदि में अग्नि की ज्योति प्रज्ज्वलित करके उसे माता का प्रतीक मान कर उसकी पूजा आराधना कर लें।

ब्रह्म संदीप का अर्थ है गायत्री विद्या के गुप्त ज्ञान का समुचित प्रकाश करना।(1) गायत्री साहित्य का स्वयं सर्वांगपूर्ण स्वाध्याय बार बार करना जिससे इस विद्या के अनेकों गुप्त रहस्यों की भली प्रकार जानकारी हो जाए तथा (2) दूसरे धार्मिक प्रवृत्ति के सत्पुरुषों को अपना साहित्य देना, जिससे उनकी अभिरुचि भी इस परम कल्याणकारी मार्ग में हो। यह दोनों कार्य ब्रह्म संदीप कहलाते हैं।

हो सके तो पूरी 17 पुस्तकें जो करीब 21/- की हैं मँगा लेनी चाहिएँ। न हो सके तो 11 छोटी पुस्तकें जो 3/- की हैं मँगाकर अपना छोटा सा गायत्री पुस्तकालय बना लेना चाहिए। पुस्तकों की जिल्द बनवाकर रख लेनी चाहिए और अपने निकट जो भी धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य हैं, उन्हें एक एक करके यह पुस्तकें पढ़ाना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि वे भी सहस्रांशु यज्ञ में भागीदार बनें। इस प्रकार जितने ऋत्विज बढ़ाये जा सकें बढ़ाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए ताकि यज्ञ का इतना विशाल कार्यक्रम पूरा हो सके। एक वर्ष में कम से कम 5 ऋत्विज बना कर ब्रह्म संदीप पूरा करना भी प्रत्येक साधक का वैसा ही आवश्यक कर्तव्य है, जैसा कि जप, वचन, उपवास और आराधना को पूरा करना।

अपनी गायत्री पुस्तकें दूसरों को पढ़ने की सूचना के लिए नोटिस बाँटने से काम सरल हो जाता है। आपके गायत्री पुस्तकालय के लिए ऐसा विज्ञापन गाँव हो तो 250, शहर हो तो 500 हम अपने खर्च से छाप कर अपने पोस्टेज से आप के पास भेज सकते हैं। इसके लिए अपने मकान का पूरा पता और पुस्तकें मिलने का समय भी लिखना चाहिए, जो नोटिसों में छाप दिया जाए।

कुछ ऐसे प्रतिष्ठित एवं धार्मिक प्रवृत्ति के स्वाध्यायशील सज्जनों के पते हमें लिखने चाहिए जिन तक आप की पहुँच न हो पाती हो, उनको यहाँ से गायत्री उपासना के लिए प्रेरणा दी जायगी।

आश्विन और चैत्र की नवरात्रि में साधारण साधना की अपेक्षा कुछ अधिक जप और तप करना चाहिए।

नियत समय पर जप या हवन न कर सकें तो उतना हमसे उधार लेकर अपनी साधना पूरी की जा सकती है और हमारा उधार पीछे चुकाया जा सकता है।

इस यज्ञ में सम्मिलित होने वालों को एक अलग कागज पर अपना संकल्प लिख कर भेजना चाहिए, जिसमें (1) आरम्भ करने की तिथि, (2) प्रतिदिन की जप संख्या, (3) उपवास किस प्रकार करेंगे, (4) हवन पूर्णमासी को या महीने के अन्तिम रविवार को करेंगे। (5) आराधना किस प्रकार करेंगे, (6)ब्रह्म संदीप के लिए किस प्रकार, कितना कार्य करेंगे। यह सब बातें विस्तारपूर्वक लिखते हुए अपना पूरा नाम, पूरा पता, आयु, वर्ण आदि का उल्लेख करना चाहिए और हर महीने अपने कार्य की सूचना मथुरा भेजते रहनी चाहिए जिससे यज्ञ की प्रगति का ठीक विवरण विदित होता रहे। कोई बात पूछनी हो तो जवाबी पत्र भेजना चाहिए।

यह यज्ञ सहस्र अश्वमेधों से अधिक महत्वपूर्ण है। इसमें सम्मिलित होने वाले ऋत्विजों को जो शक्ति और शान्ति मिलेगी वैसी अकेली स्वतन्त्र साधना से मिलनी सम्भव नहीं है। इस सम्मिलित तपश्चर्या से संसार का भी लाभ होगा और अपना भी। लोक कल्याण के लिए किया हुआ पुण्य परमार्थ अपने लिए भी कल्याणकारक ही होता है। तप का धन ही मनुष्य जीवन का वास्तविक धन है। इसे संचित करना धन जमा करने से अधिक बुद्धिमानी की बात है।

हमारे अनेक मित्र हमसे बहुधा पूछते रहते हैं कि ‘हमारे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए’। हमारी आवश्यकताएँ बड़ी सीमित हैं इसलिए व्यक्तिगत रूप से हमें कभी किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए उन पूछने वाले सज्जनों को धन्यवाद देकर चुप हो जाते हैं। पर आज वह अवसर आया है, जिसके लिये हम अपने सभी मित्रों और समस्त संबन्धियों को सहायता और सेवा के लिए आमन्त्रित करते है, क्योंकि जितना बड़ा बोझ कन्धे पर लिया है वह अनेक साथियों के हार्दिक सहयोग से ही उठाया जाना सम्भव है। यदि यह यज्ञ पूरा न हुआ तो हमें मर्मान्तक कष्ट होगा और उसकी शान्ति के लिए हमें ऐसा प्रायश्चित करना पड़ सकता है जो हमारे प्रेमियों के लिए दुख का कारण होगा।

जप, हवन, उपवास की पूर्ति आसानी से हो जाएगी, पर सवालक्ष सत्पात्रों को गायत्री विद्या का समुचित ज्ञान देना निश्चित ही कठिन है। इस कार्य में विशेष रूप से हाथ बटाने की अपने हर प्रेमी से हमारी हार्दिक प्रार्थना है।

इस महान यज्ञ में साझीदार बनने के लिए हम उन सभी आत्माओं को आमंत्रित करते हैं जिसके अन्दर दैवी प्रकाश काम कर रहा हो, जिनके अन्तःकरण में माता की दिव्य प्रेरणा काम कर रही हो। इस आमन्त्रण को स्वीकार करना, इस साझेदारी में सम्मिलित होना कितना श्रेयष्कर है इसकी कोई भी सत्पात्र परीक्षा कर सकता है।

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