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Magazine - Year 1951 - Version 2

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अकेले दुकेले मत भटको

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(लेखक श्री स्वामी भोले बाबा जी महाराज)

सुनते हैं कि पूर्वकाल में एक महाभयानक वन था उसमें पाँच बहिनें और एक भाई, छः लुटेरे रहते थे। इनकी एक बुढ़िया माँ थी, सड़क पर बैठी रहती थी। वहाँ दस पन्द्रह मनुष्य मिलकर ही गुजर सकते थे, अकेले दुकेले आदमी की वहाँ गुजर न थी। जब कभी दैवयोग से कोई अकेला दुकेला आदमी उस सड़क पर होकर गुजरता था तो लुटेरों की बुढ़िया उसको देखकर ऊंचे स्वर से पुकारती थी-’अकेले दुकेले का ईश्वर ही संरक्षक है।’ बुढ़िया के ये शब्द सुनकर छुओ बहिन-भाई लुटेरे दौड़कर आ जाते थे और उस अकेले मनुष्य का सब धन लूट लेते थे, कपड़े तक छीन लेते थे, एक लंगोटी लगा कर उसे वहाँ से उसकी इच्छा पर छोड़ देते थे। एक बात अच्छी थी, जान नहीं लेते थे। बेचारा जंगल में दो चार दिन भूखा प्यासा घूमता रहता, जंगल के फल फूल खाकर जीता रहता, अन्त में जब कोई ग्राम मिल जाता, तो वहाँ पर मेहनत मजूरी करके अपना पेट भरता रहता था। कोई कोई जिसका भाग्य अच्छा होता, वह धन कमा कर कुछ साथी मिल जाते, तो उनके साथ अपने देश भी पहुँच जाता था, नहीं तो प्रायः बहुत से तो लुटेरों के पंजों से छूटकर किसी ग्राम में ही अपनी शेष आयु पूरी करते थे।

पूर्व काल में तो यह वन था ही, आजकल भी यह वन विद्यमान हैं, छहों लुटेरे और उनकी बुढ़िया भी प्रत्यक्ष देखने में आयी है, आती है और जायेगी। संसार ही यह वन है, शरीर का अभिमान करने वाली अस्मिता लुटेरों की बुढ़िया हैं, श्रोतादि पाँच ज्ञानेंद्रियां लुटेरी और छठा मन लुटेरा है। अकेले दुकेले मनुष्य को जहाँ देखते हैं वहाँ ही छओं आकर लूट लेते है। बुढ़िया उसको देखकर पुकारती है, ‘अकेले दुकेले का ईश्वर संरक्षक हैं, इसका अभिप्राय है कि यह अकेला है, विवेक वैराग्य आदि कोई उसके साथ नहीं है, उसको लूट लेना चाहिए। पाँचों इन्द्रियाँ और मन उसे विवेक आदि से रहित देखकर पाँचों विषयों में फँसाकर उसके छक्के छुड़ा देते हैं। मनुष्य अपने आत्म-धन को भूल जाता है अथवा यों कहना चाहिए कि लुटवा बैठता है, अन्त में जब सब पुण्य समाप्त हो जाता है, तब यहाँ से मरकर दूसरे लोक में चला जाता है। इस प्रकार छओं लुटेरों के वश हुआ जीव चौरासी योनियों के चक्र में घूमता रहता हैं, अपने घर अपने धाम अपने स्वरूप ब्रह्मतत्त्व में नहीं पहुँचता, निरन्तर जन्मता मरता और दुःख उठाता रहता है।

ऐसा देखकर वेदवेत्ता ऐसे नर-पशुओं पर दया करुणा करते हुए यहाँ अकेले दुकेले रहने को निषेध करते हैं, कहते हैं कि अकेले दुकेले मत रहो, मूढ़ बनकर रहना अकेले रहना है, विषय भोगों की इच्छा सहित रहना दुकेले रहना है, सीधी सी बात यह है कि पामर-प्रकृति शास्त्र संस्कार रहित पुरुष अकेला है और विषयी पुरुष दुकेला है। पामर पुरुष तो अपना और अपने कुटुम्बियों का बोझा ही ढोते हैं, कमाते हैं, परन्तु खाते पीते पहिनते नहीं, मात्र धन जमा करने में ही रहते हैं। विषयी पुरुष कमाते हैं, खाना पीना आदि भोग भी करते हैं। फिर भी जो कुछ ये कमाते हैं, इन्द्रियों के भोगों में खर्च करते हैं यानि पांचों इन्द्रियों को और छठे मन को ही तृप्त करते रहते हैं। इनको परलोक की खबर नहीं है। जब परलोक की खबर नहीं तो उनको अपने आत्म धन की खबर होगी ही कहाँ से? ये तो इन छओं लुटेरों के वश हुए अपने को ऐसे भूल जाते हैं, मानो ये स्वयं हैं ही नहीं, छओं इन्द्रियाँ ही इनका इष्टदेव है, इनका स्वरूप हैं, इनसे भिन्न ये अपने को जानते ही नहीं, दिन-रात उनके ही पूजन में तृप्त करने में, पालन पोषण करने में लगे रहते हैं। मरने तक इनका धर्म इनकी चाकरी करना ही है। ऐसों का जीवन मरण पशु के समान ही है।

वेदवेत्ता गला फाड़-2 कर कह रहे हैं कि अकेले दुकेले मत रहो, सुहृदों के-सन्मित्रों के साथ रहो तो तुमको ये छओं लुटेरे नहीं लूट सकेंगे। परन्तु भावी बलवान है, दुर्भाग्यवश वेदवेत्ताओं का कथन-हित वचन इनके कान तक नहीं पहुँचता, कान तक पहुँचता भी है, तो उनके गले में नहीं उतरता, इसलिए ये छओं लुटेरों के पंजे में से नहीं छूटते और जब तक छूटते नहीं, तब तक इनके छक्के भी छूटते रहेंगे। हरीच्छा! जैसे कुछ हो-हो, विद्वानों का इसमें कुछ वश नहीं चलता। जिनके ऊपर ईश्वर की कृपा है, जिनका भाग्य उदय होने वाला है, वे वेदवेत्ताओं के इस कथन को सुनकर चले जाते हैं, सुहृद-सन्मित्रों की खोज करते हैं और उनको पाकर निश्शंक हो जाते हैं, लुटेरों से छूट जाते हैं, अपने धन को पाकर सर्वदा के लिए धनी, सुखी, स्वतंत्र और सम्राट हो जाते हैं।

पहला सन्मित्र विचार है। विचार बिना मनुष्य मरा हुआ सा बेहोश सा होता है, विचार के प्राप्त होते ही मनुष्य जीता हुआ सा हो जाता है, समझने लगता है कि अविचार से मैं अपने को साढ़े तीन हाथ का मान रहा हूँ, नहीं तो मैं देह से भिन्न हूँ, आशा ने मुझे दीन दुःखी कर रखा है, यदि मैं आशा छोड़ कर निराश हो जाऊँ तो धनियों का भी धनी और ऐश्वर्य वालों का भी परम ऐश्वर्य वाला हूँ। आशा के कारण ही मुझे दर दर भटकना पड़ता है, नहीं तो मैं स्वतन्त्र ही हूँ।

ऐसा विचार कर मनुष्य आशा त्याग कर देता है तो उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, शुद्ध अंतःकरण में सत्य असत्य का विवेक हो जाता है। सत्या सत्य का विवेक होने से सत्य में मनुष्य राग करने लगता है और असत्य से उसको वैराग्य हो जाता है।

प्रिय पाठको! विवेक वैराग्य आदि सन्मित्रों के साथ ही संसार रूपी वन में विचारो, अकेले दुकेले पामर विषयी पुरुषों के समान मत भटको।

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