
प्राण रक्षा के अवसर
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(श्री वाला शंकर दुर्लभ जी भट्ट जूनागढ़)
बात बहुत दिन की है। अपने ग्राम से मैं अपने पिता जी के साथ दूसरे गाँव को जा रहा था। पिता जी घोड़े पर थे और मैं पैदल। रास्ते में एक बरसाती नदी पड़ती थी, जो गहरी बहुत न थी पर चौड़ाई बहुत थी। वर्षा के दिन थे, थोड़ा थोड़ा पानी बरस रहा था। हम लोगों ने नदी को पार करने के लिए उसमें प्रवेश किया, कीचड़ बहुत था इसलिए चलना धीरे-धीरे हो रहा था।
अचानक एक दम मूसलाधार वर्षा होने लगी। और नदी में पानी इतने जोर से बढ़ा कि दो चार मिनट में ही नदी में भारी उफान आ गया। बीच नदी में पहुँचते-पहुँचते पानी इतना बढ़ आया कि पिता जी का घोड़ा बहने लगा मैंने उसकी पूछ पकड़ ली, पिता जी ने उसकी गरदन पकड़ ली इस प्रकार हम दोनों पिता पुत्र उस घोड़े के साथ उफनती हुई नदी के तीव्र प्रवाह में बहने लगे। एक दो डुबकी लगीं और यह दिखाई देने लगा कि अब मृत्यु निश्चित है। पिता जी ने घबराकर कहा बेटा गायत्री माता को पुकारो अब हमारे प्राण केवल वही बचा सकती हैं। मैं हत बुद्धि हो रहा हूँ। गायत्री माता जोर जोर से चिल्लाने लगा। पिताजी की घिग्घी बंध रही थी वे भी माता पुकार रहे थे। हमारी जीवन नौका बना हुआ वह घोड़ा बार-बार उलटा तिरछा हो जाता था और अब डूबा तब डूबा दिखाई पड़ता था।
हमारी पुकार निष्फल नहीं गई। एक बड़ा सा टूटा हुआ पेड़ आगे बहता जा रहा था। हम लोग उससे अटक गये घोड़ा भी साथ साथ आसानी से बहने लगा इस प्रकार एक दो घंटा बीत गया। वर्षा रुकी, नदी का प्रवाह कम हुआ और पेड़ एक ऐसी जगह जा पहुँचा जहाँ से नदी को पार करना सरल था, हम तीनों पार हो गये। उस दिन की घटना किसी दूसरे की दृष्टि में कितनी ही सामान्य क्यों न हो पर वह हमारे लिए ग्राह के मुख से गज के बचाने के समान महत्वपूर्ण थी। माता ने हमें भुजा पकड़ कर उस दिन बचाया था, ऐसा ही हम मानते हैं।
अभी आठ वर्ष पूर्व की बात है। मेरे पैर में काँच लगा। काँच का विष ऐसा फैला कि रक्त दूषित होकर धनुर्वात रोग हो गया। बुखार था और शरीर में ऐंठन बेतरह रहती थी।
स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि एक दिन मेरी मृत्यु निश्चित समझ ली गई और चार पाई से उतार कर मृत्यु की प्रतीक्षा के लिए जमीन पर लिटा दिया गया। उस बेहोशी में भी मुझे गायत्री का ध्यान आ रहा था। माता ने कृपा की मेरे साँस बढ़े। जमीन से उठाकर चार पाई पर लाया गया और कुछ दिन में अच्छा हो गया इस घटना को लोग मेरी मृत्यु से वापसी कहते हैं।
प्रारम्भिक जीवन में मेरी शिक्षा और योग्यता किसी भी विषय में न थी परन्तु माता की कृपा से मुझे फोटोग्राफी का आर्ट मालूम हो गया। ख्याति इतनी फैली की जूनागढ़ के नवाब ने मेरे घर पर अपनी मोटर भेज कर मुझे बुलाया और राजमहल का फोटोग्राफर नियुक्त कर लिया। मेरे काम से वे इतने प्रसन्न थे कि कई बार उन्होंने पाँच पाँच सौ रुपये के इनाम दिये। मुझ से कुढ़कर नवाब साहब का ए. डी. सी. मुझे अलग करना चाहता था, मैं स्वयं चला गया और उसने अपने एक रिश्तेदार को उस जगह नियुक्त कर दिया। यह समाचार जब नवाब साहब को मिले तो ए. डी. सी. पर बहुत नाराज हुए और उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। मुझे उन्होंने 25) मासिक तरक्की अतिरिक्त इनाम और गैर हाजिरी के दिनों का वेतन देकर पुनः मेरी जगह पर नियुक्त कर दिया।
अब मैं दिनकर स्टूडियो के नाम से अपना स्वतंत्र फोटोग्राफी का काम करता हूँ। उसमें मुझे अच्छी सफलता, प्रतिष्ठा और आजीविका प्राप्त होती है यह सब गायत्री माता की कृपा ही है।