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Magazine - Year 1953 - Version 2

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ईश्वरीय न्याय और नियम

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महेश्वरस्य विज्ञाय नियमान्न्याय संयुतान्। तरय सत्ताँच स्वीकुर्वन कर्मणातमुपासयेत।

अर्थ-परमात्मा की सत्ता और इसके न्यायपूर्ण नियमों को समझकर ईश्वर उपासना करनी चाहिए।

ईश्वर सर्वव्यापक, दयालु, सच्चिदानन्द, जगत पिता, न्यायकारी आदि अनेक महिमाओं से युक्त है। उसका ध्यान रखने से मनुष्य का बुराइयों से बचना और दूसरों के साथ आत्मीयतापूर्ण सद्व्यवहार करना अधिक सम्भव है। इसलिए आस्तिकता मनुष्य जाति की महान आवश्यकता है। अपनी आत्मा को लघुता से विकसित करके उसे पूर्ण-महान-परम-आत्मा (परमात्मा) बना देना मानव जीवन का लक्ष्य है।

ईश्वर उपासना के विविध कर्मकाण्ड एक प्रकार के आध्यात्मिक व्यायाम हैं, जिनके द्वारा आत्म बल बढ़ता है और उस आत्मबल द्वारा नाना प्रकार के भौतिक सुख एवं आत्मिक आनन्द प्राप्त होते हैं। उन आनन्दों को ही ईश्वरीय कृपा भी कहा जाता है उसने हमें जीवन तथा जीवन यापन के अनेक साधन दिए हैं, जिनके कारण वह दयामय, दानी और परम पिता कहलाता है। कृतज्ञता और उपकारी के प्रति श्रद्धा की महान् भावना को अन्तःकरण में स्थिर और प्रबल रखना प्रार्थना का मुख्य उद्देश्य है।

इन सब बातों को समझते हुए ईश्वर की उपासना करनी चाहिए पर साथ ही ध्यान रखना चाहिए कि वह न्यायकारी एवं नियम रूप है। जैसे अग्नि, बिजली आदि का नियमानुकूल व्यवहार करने से वे बहुत उपयोगी सिद्ध होती हैं किन्तु यदि उनके नियमों को थोड़ा भी तोड़ा जाय तो वे प्राणघातक बन जाती है इसी प्रकार ईश्वरीय नियमों का पालन करना ही उससे लाभ उठाने का सर्वोत्तम मार्ग है।

ईश्वर का सबसे निकटवर्ती स्थान अपनी आत्मा है। वहीं से परम प्रभु सदगुरु के रूप में सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता है। हमारी मलीनता ही उसके रूप का दर्शन करने और उसकी वाणी सुनने में बाधा डालती है। यदि अपनी अन्तरात्मा को पवित्र बना लिया जाय तो ईश्वर का साक्षात्कार और प्रेम संभाषण बड़ी आसानी से हो सकता है। अंतरात्मा की पुकार ही ईश्वरीय वाणी है। उसे सुनने से, उसके संकेतों पर चलने से बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े ही समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है।

परमात्मा और आत्मा के बीच में जो आदान प्रदान होता है वह एक न्याय तथा नियम की सन्तुलित तुला के आधार पर ही है। जीव जितना ही ईश्वरीय नियमों पर चलता है या उन्हें तोड़ता है, उसी के आधार पर उसे कर्मफल मिलता है। स्वेच्छापूर्वक भले या बुरे कर्म करने में सब जीव पूर्ण स्वतंत्र हैं पर वे उन कर्मों का फल प्राप्त करने में पराधीन हैं। अपने किये हुए प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य भोगना होता है। उससे छुटकारा मिलना कठिन है।

ईश्वर उपासना की अनेक प्रक्रिया प्रचलित हैं। सभी धर्मों में ईश्वर आराधना के विधान मौजूद हैं। इसका मूल उद्देश्य यही है कि मनुष्य के चित्त में ईश्वर के सर्वव्यापक और न्यायकारी होने के संस्कार जमे और वह बुराइयों से बचे। निश्चय ही पुलिस कप्तान को सामने खड़ा देखकर जेबकट की यह हिम्मत नहीं पड़ती कि वह उस अधिकारी की जानकारी में जेब काटे। क्योंकि वह जानता है कि ऐसा करने पर उसका अपराध छिप न सकेगा। वह तुरन्त पकड़ा जायेगा और जेल की यातना भोगेगा।

ठीक यही बात ईश्वर उपासना के सम्बन्ध में चरितार्थ होती है। जो उस परम शक्ति को सर्वत्र व्यापक देखेगा उसकी न्यायशीलता पर विश्वास करेगा, वह इस बात को नहीं भूलेगा कि कोई पाप चाहे कितने ही गुप्त रूप से किया जाय ईश्वर की जानकारी से छिपा नहीं रहता और न्यायशील परमात्मा किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। उसकी न्याय तुला सबके लिए एक समान है। ‘पुण्यात्मा का पुण्यफल और पापी को दारुण दुःख’ यह उस परमात्मा की न्यायशीलता अविच्छिन्न है, इसमें कभी कोई अन्तर नहीं आ सकता।

परमात्मा किसी की निन्दा स्तुति से प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होता। वह ‘कथनी’ की अपेक्षा ‘करनी’ को महत्व देता है। बकवाद की अपेक्षा उसे व्यवहार प्रिय है। बकवादी लोग नाना प्रकार के स्तोत्र पढ़कर भी उसे भुलावे में नहीं डाल सकते और न अपने लाभ के लिए पक्षपात करा सकते हैं। ईश्वर की अधिक कृपा प्राप्त करने का तो एकमात्र मार्ग यही है कि मनुष्य के गुण कर्म और स्वभाव में धर्म धारणा, कर्तव्य निष्ठा, सच्चाई और सात्विकता का परिपूर्ण समावेश हो। ईश्वर उपासना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उपासक किसी गफलत में नहीं रहता, वह प्रभु को भूलता नहीं, उसकी सर्व व्यापकता तथा न्यायशीलता का विस्मरण नहीं करता, फलस्वरूप वह कुमार्गगामी होने से बच जाता है और सन्मार्ग का अवलम्बन करके परम आनन्ददायक सत्परिणामों को प्राप्त करता है। इस प्रकार ईश्वर उपासना का प्रकारान्तर से परिणाम बड़ा कल्याण कारक होता है।

आज लोग ईश्वर उपासना के मूल हेतु को भूल गये हैं और उसे खुशामद पसंद चापलूस राजा नवाब की भाँति तथा रिश्वतखोर अफसर की तरह समझकर प्रशंसा के छंद सुनाकर या पैसा पाई की पूजा पत्री चढ़ाकर लुभा लेना चाहते हैं। इस बालक्रीड़ा का वस्तुतः ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं होता। सच्ची उपासना का तात्पर्य जो भली प्रकार समझता है वास्तव में वही सच्चा भक्त है। और उसी की भक्ति फलदायिनी होती है।

गायत्री का पंद्रहवाँ अक्षर ‘म’ इस महासत्य की ओर संकेत करता है कि -’अन्याय की और मत झुको। न्याय पर आरुढ़ होओ।’ इस सुव्यवस्थित संसार में हमें केवल उतना ही पदार्थ शान्तिदायक हो सकता है जो न्यायपूर्वक उपार्जित है। जो अन्याय-पूर्वक प्राप्त किया गया है वह चमकते हुए शृंगार की तरह आकर्षक तो अवश्य लगता है पर उसको उपभोग के लिए स्पर्श करते ही झुलसन आरम्भ हो जाती है। जैसे तेजाब पीकर कोई अपनी प्यास नहीं बुझा सकता उसी प्रकार अन्याय का मार्ग ग्रहण करके सुखोपभोग की आशा करने वाला व्यक्ति भी निताँत असफल रहता है। आज चारों ओर अन्याय का बोलबाला है। हर व्यक्ति यह सोचता है कि जैसे बने वैसे मुझे सुखोपभोग के साधन प्राप्त कर लेने चाहिएं। वह इस महान सत्य और कठोर तथ्य को भूला हुआ है कि अन्याय के बदले में विपत्ति के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। जो लोग अनीतिपूर्वक संपत्ति सत्ता और शक्ति को हथियाने में सफल हुए हैं वे बाहर से भले ही मौज करते हुए दिखाई दें, पर थोड़े ही समय में इन भूल भुलैयों का पर्दाफाश हो जाता है और यह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगता है कि अनीति अपने लिए, अपने परिजनों के लिए, तथा समस्त संसार के लिए, केवल विपत्ति ही बढ़ाने में समर्थ हो सकती है।

गायत्री- नीति और न्याय की स्थापना पर बल देती है और बताती है कि जो बोओगे वही काटोगे। प्रारब्ध और कुछ नहीं, भूत काल में किये हुये अपने भले बुरे कर्मों का परिणाम मात्र है। पर-आत्मा के न्याय युक्त शासन में मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, और न किसी के अधिकार का हनन होता है। अपना प्रयत्न, पुरुषार्थ, विचार, भाव, संकल्प और कार्य ही अपने लिए दुख और सुख उत्पन्न करता है। इन्हीं के आधार पर ईश्वर प्रसन्न या अप्रसन्न होता है। दैवी कृपा या दैवी कोप प्राप्त होने का मूल कारण भी यही है।

पन्द्रह वे अक्षर ‘म’ के अनुसार हमें सच्चे रूप में आस्तिक बनना चाहिए। ईश्वर की सर्वव्यापकता और न्यायशीलता पर विश्वास करते हुए अपनी विचारधारा तथा कार्य पद्धति को ऐसा बनाना चाहिए जिससे चिरस्थायी सुख शान्ति की प्राप्ति हो सके।

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