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Magazine - Year 1954 - Version 2

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मानव जीवन का आदर्श-संयम

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(श्री अगरचन्द जी नाहटा)

मनुष्य और पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों में यही प्रधान अन्तर है कि उनमें विवेक का बड़ा अभाव व कमी है और मनुष्य में उसकी अधिकता है। वास्तव में पूछा जाय तो विवेक ही मनुष्य की मनुष्यता का माप दण्ड है। जब जो चाहा किया, कहा, खाया, हिताहित व कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य विचार नहीं किया तो मनुष्य शरीर धारण करने पर भी वह मनुष्य के रूप में पशु ही है। विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम ही संयम है। हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति की जाँच करें, यदि वह अनावश्यक है, अहितकर है, दूसरे को एवं अपने को कष्टदायक है, तो उससे विरत हो जाये, यही संयम है। हर प्रवृत्ति चाहे मन की हो, चयन की हो, या काया की, उसकी जाँच करें और स्वच्छन्दता पर नियंत्रण कर हित (स्वपर-गुणकारी), परिमित (अनावश्यक को छोड़कर आवश्यक हो, उसका आचरण भी विवेकपूर्वक) आचरण ही संयम है। इसके लिये 5 इन्द्रियाँ 4 कृपाय) कलुषित प्रवृत्तियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ), शरीर, मन व आत्मा पर नियंत्रण होना आवश्यक है। भारतीय अध्यात्म साधना में इस पर बड़ा जोर दिया गया है। क्योंकि असंयमित व विवेक रहित स्वच्छन्द जीवन ही मनुष्य के पतन का प्रधान व एकमात्र कारण है।

मनुष्य प्रतिदिन कुछ न कुछ प्रवृत्ति तो करता ही रहता है। नेत्रों से सुन्दर-असुन्दर पदार्थ देखता रहता है। कानों से भली बुरी-बातों को सुनता रहता है नाक से सुगंध-दुर्गंध ग्रहण करता रहता है, रसना से विविध खाद्यों का रस अनुसरण करता रहता है, त्वचा से कोमल कठोर, गर्म शीत आदि की विविध अनुभूति करता रहता है, इसी प्रकार मन से भी शुभाशुभ बातें सोचता ही रहता है। यों प्रवृत्तियाँ निरन्तर होती रहती हैं। इनमें बहुत सी अनावश्यक व अहितकर भी होती हैं। आत्मा की शक्ति इन सब प्रवृत्तियों में फैली हुई रहती है। बिखरी हुई रहती है। इन बिखरी हुई शक्तियों का एकीकरण ही संयमाभूयास व संयमाचरण का प्रधान उद्देश्य होता है। बिजली की शक्ति अनेक बल्बों में बिखरने पर साधारण प्रकाश रूप लगती है, वही संचित होने पर अद्भुत कार्य कर दिखाती है। इसी तरह बिखरी हुई शक्ति का संग्रह व एकीकरण किया जाय तो आत्मा में बड़ी-भारी शक्ति विकसित होती है, जिसके अद्भुत चमत्कारों का वर्णन महर्षि पातंजलि के योगसूत्र में हम पाते हैं। उसके विभूति पाद में लिखा गया है कि अमुक प्रवृत्ति के संयम से ऐसी विभूतियाँ व विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। योग का उद्देश्य ही चित्त वृत्तियों का निरोध है। इन्द्रिय, शरीर व मन पर आत्मा का नियंत्रण होता है। तो हम बहिर्मुखता से हटकर अन्तर्मुखता की और बढ़ते हैं। उनके नियंत्रण रूप संयम के द्वारा आध्यात्मिक शक्तियों की वृद्धि होती है।

योगियों की बात एक बार एक किनारे रख के भी सोचते हैं, तो असंयमित जीवन से व्यक्ति, समाज, देश, राष्ट्र सभी का अकल्याण है। मन की इच्छाओं का क्या? कभी कुछ करने का, कभी कुछ और करने का दिल होता रहता है। यदि स्वच्छंदता से उन इच्छाओं के अनुरूप ही प्रवृत्ति करते रहें तो मरण व दुख पद पर समझिये। थोड़े से दृष्टान्त आपके जीवन में से देकर आपका ध्यान जीवन में संयम को आवश्यकता की ओर आकर्षित कर देना चाहता हूँ। जरा ध्यान दीजिये, ये ही आदर्श-जीवन की अद्भुत बातें हैं जिनके विवेक से जीवन बनता है, और अविवेक व असंयम से जीवन बिगड़ता है, दुखी होता है।

1. खाने में देखिये-संयम की बड़ी आवश्यकता रहती है। जो आया वही भक्ष्य-अभक्ष्य व अपरिमित खाता रहे तो ठीक न पचने व स्वास्थ्य के विरोधी तत्वों के शरीर में प्रवेश कर लेने के कारण रोगों की उत्पत्ति हो जायेगी। बीमार व्यक्ति यदि खाने का संयम न रखे, जो इच्छा में आये वही खाते तो तुरन्त रोग बढ़कर मरण तक को प्राप्त हो सकता है। रोगी को अपनी इच्छा पर संयम रखना, रोक लगाना जरूरी होता है- यदि उसे रोग मुक्त होना है, स्वस्थ रहना है उसकी परिचर्या करने वाले को भी उसी पर अंकुश रखना पड़ता है। बालक व रोगी सुपथ्य के लिए बड़े झुँझलाते हैं, इठलाते हैं, यावत जिद भी करते हैं वे रोते तक हैं, पर उन पर उस समय करुणा नहीं की जा सकती बल्कि उससे हित के लिये ही संयम पालन करवाया जाता है संयम नहीं रखे, तो कष्ट रोग वृद्धि यावत मरण निश्चित है। इस भय से ही सही, पर संयम रखना तो जरूरी होता है ही।

3. बोलने में संयम न रखे तो कलई या मनोमालिन्य की सृष्टि होती है। चाहे जैसा जो वाक्य मन में आया, हर किसी को कह दिया जाए तो इसका परिणाम बड़ा दारुण होता है। वचन के घाव का इलाज नहीं, शब्द बाण के सदृश्य है। छूटा कि परवश हुए। इसलिए बोलते समय वाक् शक्ति पर बड़ा संयम रखना पड़ता है। जिसका अपनी शक्ति पर नियंत्रण है वह सफल वक्ता बन सकता है हित, परिमित व सत्यवचन बोलिये, आवश्यकता से अधिक एक शब्द का उच्चारण न करे। जो कुछ बोला जाय मधुर, सुचिन्तित व स्वपर हितकारी हो, यह विवेक रखना परमावश्यक है। वचन के असंयम से ही बात का बतंगड़ बन जाता है। अधिक झगड़े इसी कारण पैदा होते हैं। तूने मुझे ऐसा क्यों कहा? गाली दे दी, मजाक कर दी, मुझे ऐसा दिखा दिया, मेरी निंदा की है, अच्छा अब मौका मिलने पर मैं भी न चूकुँगा। इस तरह इस बात की बात में झगड़ा बढ़ जाता है।

वाद्ययंत्रों के वादन में, मोटर गाड़ी आदि के चलाने में यंत्रों पर हाथों का संयम रखना जरूरी होता है। थोड़ा सा हाथ का संयम खत्म हुआ कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी। ताल और वाद्य पर कंट्रोल न रहा तो सारा मजा किरकिरा हो जायेगा।

मनुष्य को हर व्यवहार में ‘अति’ से बचना पड़ता है। क्योंकि न्यूनता से काम परिपूर्ण नहीं होता, और अति से किया कराया बिगड़ जाता है। इसीलिए ‘अति सर्वत्र वर्जयते’ कहा गया है। कम और अधिक दोनों के बीच के सन्तुलित व्यवहार से ही कार्य सिद्धि होती है। यह यथा योग्य सन्तुलित व्यवहार संयम का ही एक प्रकार है इस प्रकार हम देखते हैं कि संयम के बिना जीवन ठीक से चल ही नहीं सकता, सिद्धि मिल नहीं सकती।

संयम रूपी ब्रेक की आवश्यकता काम में अनुभूत होती है। मोटर, रेल, साइकिल आदि में ब्रेक न हो तो महान अनर्थ हो जाय। जीवन में कभी चलने की आवश्यकता होती है तो कभी बीच-बीच में रुकना भी आवश्यक हो जाता है। रुकना ही संयम है इससे शक्ति बढ़ती है।

मकान के सब दरवाजे खुले रहते हैं तो इधर-उधर से धूल धक्कड़ इकट्ठा हो मकान को अशोभनीय बना देते हैं। अतः कचरा करकट प्रवेश न करने पायें इसके लिये खिड़कियाँ व दरवाजे बन्द रखने आवश्यक होते हैं। तदनुरूप विविध प्रवृत्तियों से जो कर्म रूप कचरा आत्मा में आ रहा है, उसको बन्द करने के लिए मन, वचन, काया को जो छूटा खुला रखा है, उसे काबू में लाना होगा, उसके हर कर्म बंधन के मार्गों को बन्द करना होगा।

जैनागमों में तो संयम को बड़ा ही महत्व दिया गया है, जैन-मुनियों का विशेषण जहाँ भी आता है, उन्हें तप और संयम से आत्मा को मावित करने वाला बतलाया गया है, भगवान महावीर का जीवन व साधना तो तप और संयम का अपूर्व और आदर्श उदाहरण है। जैन धर्म के अनुसार संसार में अनादि काल से परिभ्रमण करते रहने के कारण उसके कर्म ही हैं, आत्मा के हाथ कर्म का बन्धन मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, मन वचन काया हरत्रि योग और प्रमाण्द से होता है। कर्मों के आने के मार्ग को आश्रम कहा जाता है। कर्मबंधन को रोकने को संसार या संयम कहते हैं। पूर्व कर्म का आत्मा में अलग हो जाना निर्जरा कहलाता है और कर्मों से सर्वथा छुटकारा पाना ही मुक्ति मोक्ष कहलाता है। इन चारों तत्वों को ठीक समझने के लिये सरोवर की उपमा दी जाती है। आत्मा रूपी सरोवर है, कर्म रूपी जल है, सरोवर पानी के अनेकों मार्ग होते हैं, वे नाले, खोले आश्रव समझिये, आश्रव द्वारा कर्म रूप जल के आने के मार्ग को रोक देना, संवर कहलाता है हमें यदि सरोवर को खाली करना है तो सबसे पहले नये आने वाले जल को रोकना पड़ेगा, उसके बाद पहले के आये हुए जल को उलीच कर बाहर निकालना पड़ेगा और धूप अग्नि की गर्मी से सरोवर को सुखाना पड़ेगा, संयम के द्वारा आत्मा में आने वाले नये कर्म रुक जाते हैं, फिर तप और शुभ भावना रूप निर्जरा से पूर्व कर्मों को क्षय बनाने से आत्मा का मोक्ष हो जाता है।

संयम 17 प्रकार के होते हैं। 5 इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, इन त्रियोगी और चार कृषाय पर अंकुश रखना साधक के लिए अत्यावश्यक है, बहिर्मुखता छोड़ आत्मा में ही निवास करना, स्थिर रखना, रमते रहना ‘संयम’ है।

संयम के द्वारा शक्ति का संचय होता है, क्योंकि निरर्थक प्रवृत्तियों में शक्ति का जो अपव्यय होता है, वह रुकने से ही शक्ति बढ़ती है, उस संचित शक्ति से आला का उत्थान सहज हो जाता है। बिखरी हुई शक्तियाँ किसी भी काम को पूर्णतया सफल बनाने में असमर्थ होती हैं, तब संचित शक्ति से बड़े-बड़े कार्य भी सुगम हो जाते हैं असत् कार्यों में जो शक्ति लगती थी, वह अच्छे कार्यों में लगने से परिणाम शुभ ही होगा।

संयम मार्ग यथेच्छा प्रवृत्ति करने वालों के लिये काँटों का दुर्गम मार्ग है। पर वैराग्यवान् साधक व्यक्तियों के लिए आगे बढ़ने में वह परम आवश्यक है। जब मन, वचन, कायारूप बाहर की प्रवृत्तियों से हटकर आत्मा अन्तर्मुखी होती है। उसके सारे दुख-सुख रूप में प्रतीत होने लगते हैं। इसलिये कहा गया है कि संयमी पुरुष के आगे चक्रवर्ती का सुख भी तुच्छ है, क्योंकि संयम का आनन्द अपरिमित है। संयम सुख स्वाश्रयी है। तब बाहरी सुख परिमित, क्षणिक और परिणामतः दुःखोत्पादक है, बाहर का सुख वास्तव में सुख नहीं सच्चा सुख तो संयम में है।

साधक के लिये एकान्त का महत्व इसलिये है कि संसारी आत्मा निमित्त वासी है, भले बुरे जैसे-जैसे संयोग मिलते हैं, मन वचन, काया उनसे प्रभावित हो, अनुरूप प्रवृत्त हो जाते हैं, अतः निमित्त कारण ही कम मिले तो प्रवृत्ति का कम हो जाना स्वाभाविक है। गुफा, वन, जंगल आदि एकान्त स्थानों में चित्तवृत्ति अधिक एकाग्र होती है। क्योंकि वहाँ इन्द्रियों को आकर्षित करने वाले साधन कम होते हैं। मनोबल के बढ़ जाने पर तो जहाँ कहीं भी रहा जाय, वन ही घर है, घर ही वन है, मन अपने हाथ में और वश में है तो कहीं भी जाइये कैसे भी बुरे संयोगों में रहिये उनका आप पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। पर जहाँ तक तथाविध मनोजय नहीं है, संयोगों का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। वहाँ तक साधक को बुरे संयोगों से बचे रहना आवश्यक बतलाया है, यही संयम साधना का उद्देश्य है, गुफा में बैठे ध्यान करने से मन की एकाग्रता इसलिए अधिक होती है कि वहाँ बाहरी शब्द सुनाई नहीं देता। बाहरी चीजों का अवलोकन वहाँ से किया नहीं जा सकता, न गुफा में कुछ दर्शनीय वस्तुएं ही होती है कि जिससे इन्द्रियाँ क्षुब्ध हों, विकार जाग्रत हों, न चंचल हो, वहाँ गंध भी कुछ नहीं रहती न अस्वाद योग्य खाद्य व स्पर्श योग्य स्निग्ध व कोमल वस्तुएं ही होती हैं, इसलिए वहाँ मन को संयमित रखना सहज होता है वहाँ वचन व्यवहार भी करे किससे? अतः सहज ही मौन रह जाता है क्रमशः मन उस अवस्था में अभ्यास और उस वातावरण से शाँत हो जाता है।

बाहरी आकर्षणों से बचने के लिए जिस प्रकार एकान्त की आवश्यकता है, उसी प्रकार वैराग्य की भी। जहाँ तक बाहरी पौदगलिक आकर्षणों के प्रति अरुचि नहीं होती, एकान्त स्थान में रहने पर भी मन स्थिर नहीं हो पाता, उनका मन बाहर जाकर विषय सुखों का अनुभव करने के लिए छटपटाता रहता है, अतः संयमित जीवन के लिए विषय और कषायों के प्रति विरक्ति अरुचि रूप वैराग्य का होना भी आवश्यक है।

संक्षेप में सार वही है कि सर्वप्रथम अनावश्यक प्रवृत्तियों से हटिए फिर मानी हुई आवश्यकताओं को कम करिये। वचन से मौन, काया से निश्चल और मन को एकाग्र करिए। इन्द्रिय और मन को एकाग्र करिये, इन्द्रियाँ और मन पर आत्मा का नियंत्रण हो। प्रत्येक प्रवृत्ति विवेक पूर्वक हो। स्थिर, शाँत, और पूर्ण संयमित बनकर आत्मा में ही रमते हुए संयम सुख का आनन्द लूटिए।

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