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Magazine - Year 1954 - Version 2

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उत्तम सन्तान कैसे प्राप्त हो?

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बालक के शरीर की उत्पत्ति माता-पिता के शरीर से होती है। जैसी खरी-खोटी धातु लगाई जायेगी वैसा ही बर्तन बनेगा। जैसी ईंट, चूने का प्रयोग होगा वैसा ही मकान बनेगा। यदि माता-पिता के शरीर स्थूल या सूक्ष्म रोगों से ग्रसित हैं तो सन्तान पर भी उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा।

शरीर शास्त्र के ज्ञाता यह भलीभाँति जानते हैं कि कितने ही रोग ऐसे हैं जो पीड़ियों तक चलते हैं। कुष्ठ, उपदंश, मृगी, उन्माद, अर्श, क्षय आदि के बीजाणु माता-पिता के शरीर में विद्यमान हों तो, बहुधा उनका प्रभाव सन्तान में भी देखा जाता है। माता-पिता के रंग रूप की छाया भी बालकों पर रहती है। गोरे या काले माता-पिता की सन्तान प्रायः अपने माता-पिता के रंग की ही होती है। माँ-बाप के शरीर की कृशता या स्थूलता भी बालकों पर प्रकट होती देखी गई है।

वेष, भाषा, संस्कृति, रुचि, आहार, विहार, आचार, विचार आदि बातों में भी बच्चे अपने माँ-बाप का अनुसरण करते हैं। छोटा बालक माँ के उदर में ही उन बातों के बहुत कुछ संस्कार ग्रहण कर लेता है और जन्म धारण के पश्चात उन बातों को सहज ही अपनाने लगता है। इस प्रकार शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बालक सत्तर प्रतिशत अपने जन्मदाता शरीरों की प्रति मूर्ति होता है। वंश, जातियाँ, नस्ल, वर्ण आदि विभागों के मूल में यही तत्व काम करता है। यदि माता-पिता का प्रभाव सन्तान पर न आता तो इस प्रकार का वर्गीकरण दृष्टिगोचर न होता और नीग्रो, चीनी, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, यूरोपियन आदि जातियों में जो आकृति, रंग, स्वभाव आदि में जो अन्तर दिखाई पड़ता है वह भी न दीखता।

पिता-माता के शरीर स्वभाव और प्रवृत्तियों का अनुसरण प्रायः अन्य सभी जीव जन्तुओं की भाँति मनुष्य जाति में भी होता है। साथ ही मनुष्य के मानसिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का उत्तराधिकारी उसके आत्मजों को मिलता है। हम माता-पिता के धन सम्पत्ति एवं यश-अपयश के ही नहीं उनकी आन्तरिक विशेषताओं, आध्यात्मिक सम्पदाओं के भी उत्तराधिकारी होते हैं। उत्तम ब्राह्मण कुल में बहुधा सात्विक कुल के बालक जन्मते हैं और बधिक, मलेक्ष्छ एवं कसाइयों के घरों में वैसी ही प्रकृति के बच्चे जन्मते और बनते हैं।

यों हर जीव अपने पूर्ण जन्मों के स्वतंत्र संस्कार और प्रारब्ध साथ लाता है। इसलिए कभी-कभी संतान माता-पिता से भिन्न स्वभाव की होती देखी गई है, पर ऐसा होना अपवाद स्वरूप ही है। अधिकाँश बच्चे अपने जन्मदाताओं के गुण-कर्म स्वभाव के होते हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था में इस तत्व को प्रमुख आधार मानकर जन्म एवं वंश को प्रधानता दी गई है। एक शरीर त्यागकर जीव जब दूसरे शरीर में जाने को होता है तो वह अपनी संचित रुचि और प्रवृत्ति के अनुकूल स्थान को ढूंढ़ता है। रेलगाड़ी के फस्ट क्लास डिब्बे में यात्रा करने वाले यात्री स्टेशन पर उतर कर फस्ट क्लास के यात्रियों के लिए बने हुए विशेष मुसाफिरखाने में चले जाते हैं और तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले उसी दर्जे के निमित्त बने हुए मुसाफिरखाने में जा बैठते हैं। वैसे ही जीव भी अगले जन्म के लिए अपने उपयुक्त वंश में जा पहुँचता है। आकाश में उड़ते हुए पक्षी तथा कीट पतंग अपनी रुचिकर वस्तुओं को ढूँढ़ते फिरते हैं और जब अनुकूल अभीष्ट वस्तु मिल जाती है तब उसे प्राप्त करने के लिए नीचे-ऊपर आते हैं। गिद्ध मृत माँस को, कौए विष्ठा को, भौंरा फूलों को, बाज चिड़ियों को ढूँढ़ते फिरते हैं। जहाँ उनकी मनचाही वस्तु दिखाई देती है वहीं उतर पड़ते हैं। जीवों को प्रारब्ध तो अपने कर्मानुसार ही भुगतने पड़ते हैं, जो हर कुल और वंश में भुगते जाने संभव है- पर जन्म लेने के लिये वे अपनी पूर्ण संचित रुचि के अनुकूल स्थिति ही ढूँढ़ते हैं और दयामय प्रभु उन्हें इच्छित वातावरण में ही जन्मने का अवसर प्रदान कर देते हैं।

माता-पिता की जैसी आध्यात्मिक भूमिका होती है, उसी के अनुरूप प्रारब्ध संस्कार वाले जीव उनके शरीर में प्रवेश करके उस वातावरण में जन्म धारण करते हैं। इसलिए यदि अपने घर में उत्तम सन्तान को जन्म देना है तो उसके लिए अपने आपको उत्तम बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग स्वयं पतित दशा में हैं, जिनकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्थिति गिरी हुई है, उनकी सन्तान भी दीन-हीन ही रहेगी।

सन्तानोत्पादन एक महान उत्तरदायित्व है, जिसे उठाने के लिए बहुत समय पूर्व तैयारी करने की आवश्यकता है। किसी महत्वपूर्ण कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण करने के लिए जिस प्रकार उसके लिए सभी आवश्यक उपकरण इकट्ठे करने पड़ते हैं, उसी प्रकार उत्तम सन्तान प्राप्त करने के लिए जहाँ बालक की उत्तम शिक्षा दीक्षा की आवश्यकता है, वहाँ उसके जन्म से पूर्व वे परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेनी भी आवश्यक है जिनमें कोई उत्तम जीवन स्थान, उत्तम फसल प्राप्त करने के लिए किसान ग्रहण करता है। पौधों को सींचने और रखवाली की व्यवस्था करता है किन्तु यदि भूमि की अच्छी जुताई, परिपुष्ट बीज आदि की पूर्ण तैयारी ठीक प्रकार न हो तो सिंचाई और रखवाली की अच्छी व्यवस्था भी निष्फल चली जाती है और किसान वैसी फसल न कर सकेगा, जैसी कि वह चाहता है।

कहा गया है कि सन्तान के कारण उसके पितरों को नरकगामी होना पड़ता है। कारण स्पष्ट है कि सन्तान को समुचित पूर्ण तैयारी के बिना ही उत्पन्न कर डालना एक भारी पाप है, जिसका दण्ड उसे पारलौकिक जीवन में तो मिलता ही है, लौकिक जीवन में भी उसकी कम दुर्गति नहीं होती। सन्तान की हीनता और नीचता से जो अनुचित कार्य होते हैं उसे पिता-माता की भी निन्दा होती है, क्योंकि वे सुयोग्य सन्तान उत्पन्न करने का अपना उत्तरदायित्व पूरा करने में सफल न हो सके। जो व्यक्ति अनधिकार चेष्टा करते हैं वे निन्दा के पात्र होते हैं। मनुष्योचित गुण जिसमें न हो वह तो पशु ही है। पशुओं की भाँति केवल काम प्रेरणा से गर्भाधान में प्रवृत्त हो जाना और एक असंस्कृत जीव उत्पन्न कर देना-पशु प्रवृत्ति है। यह मनुष्यता के प्रति, देश और जाति के प्रति एक अपराध भी है। क्योंकि उनके पाशविक उद्देश्य के फलस्वरूप जो बालक उपजते हैं, संसार के लिए अहितकर और अवाँछनीय कार्य करते हैं उनसे पृथ्वी का बोझ बढ़ता और संसार में अनीति तथा अशाँति की वृद्धि होती है। इस गड़बड़ी की जिम्मेदारी उन माता-पिता पर है जो सन्तानोत्पत्ति का महान् उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने से पूर्व उसकी भावी संभावनाओं पर विचार नहीं करते। ऐसी गैरजिम्मेदारी किसी व्यक्ति की लौकिक और पारलौकिक दुर्गति का ही कारण हो सकती है। ऐसे पिता नरकगामी नहीं होंगे तो क्या स्वर्गगामी होंगे?

आज हमारे परिवार क्लेश और कलह से भर रहे हैं। उनमें प्रधान कारण असंस्कृत सन्तान है। घर के मुखिया एवं बड़े-बूढ़े छोटों की उद्दण्डता, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, चोरी, स्वार्थपरता, अशिष्टता से परेशान देखे जाते हैं। स्कूलों में अध्यापक सिर धुनते हैं, घर में अभिभावकों की आँतें-पीतें जलती हैं। क्या लड़कियाँ क्या लड़के सभी की चाल बेढंगी है। जब तक बचपन रहता है तब तक उद्दण्डता करते हैं, कुछ समझदार होते हैं तो वासना और विलासिता की ओर झुक पड़ते हैं, बड़े होने पर उनकी कार्य पद्धति स्वार्थपरता से ओत-प्रोत हो जाती है। माता-पिता के लिए, संस्कृति के लिए, मनुष्यता के लिए यह अभिशाप ही सिद्ध होते हैं। हमारी नई पीढ़ियां इसी मार्ग का अनुसरण कर रही हैं। कोई विरले ही भाग्यशाली घर ऐसे होंगे जिनमें कर्त्तव्यपालन, शिष्टाचार, सद्भावना, सेवा, त्याग, आत्मीयता एवं सदाशयता का अमृत बरसता हो। प्राचीन काल में जो स्थिति घर-घर थी वह आज कहीं दिखाई नहीं पड़ती, जो बातें पूर्व काल में कहीं नहीं देखी जाती थीं वे घर-घर में मौजूद है। परिस्थितियों में इतना भारी परिवर्तन हो जाने के कारणों में सबसे बड़ा माता-पिता की गैर जिम्मेदारी है, जो सन्तानोत्पत्ति के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त किये बिना इस भारी उत्तरदायित्व को कंधे पर उठाने का दुस्साहस कर बैठते हैं। इन्हीं भूलों के कारण आज हमारा पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन विषाक्त बनता चला जा रहा है।

यह सभी जानते हैं कि माता-पिता को अपने शरीर का पूर्ण विकास कर लेने तक, युवावस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। वासना पूर्ति के लिए नहीं, सन्तानोत्पत्ति के लिए काम सेवन करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी पूर्ण संयम का पालन करने से बलवान, निरोग, बुद्धिमान और दीर्घजीवी सन्तान पैदा होती है। परन्तु इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि माता-पिता के शुद्धाचरण का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ता है। बालक केवल हाड़ माँस का ही नहीं होता, उसमें अन्तः चेतना का भी प्रमुख भाग रहता है और इस चेतना में भी माता पिता की बौद्धिक चेतना का भाग रहता है। यदि माता-पिता के मन में, मस्तिष्क में, अन्तःकरण में, कुविचार, स्वार्थपरता, वासना, असंयम, अनुदारता की वृत्तियाँ भरी हुई हैं तो वह उसी रूप में या थोड़े बहुत परिवर्तन रूप में बालक में भी प्रकट होंगी। जैसे कोढ़ी या क्षय ग्रस्त स्त्री-पुरुषों के रज-वीर्य से दूषित रक्त वाले बालक जन्मते हैं वैसे ही बौद्धिक एवं नैतिक दृष्टि से रोगी लोगों की सन्तान भी पतित मनोभूमि की होती है।

व्यभिचार जन्य जारज और वर्णशंकर सन्तान आमतौर से दुष्ट दुराचारी एवं कुसंस्कारों से भरी हुई होती है क्योंकि उनके माता-पिता में पाप वृत्तियों की प्रधानता रहती है। जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर द्वेष, घृणा एवं मनोमालिन्य रहता है, उनके बच्चे प्रायः कुरूप और बुद्धिहीन होते हैं। डॉक्टर फाउलर ने इस संबंध में बहुत खोजबीन की है। उन्होंने बहुत से बालकों की विशेषताओं का कारण उनके माता-पिता की मानसिक स्थिति को पाया है, शारीरिक दृष्टि से गिरी हुई माता-पिता के द्वारा उन्होंने उत्तम स्वास्थ्य के बालकों की उत्पत्ति का कारण उन्होंने दंपत्ति का पारस्परिक सच्चा प्रेम पाया। इसी प्रकार उन्हें इस बात के भी प्रमाण मिले कि उद्विग्न मनोदशा के दंपत्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अच्छी स्थिति के होने पर भी बीमार और बुद्धिहीन सन्तान के जनक बने।

डॉक्टर जान केवन ने मनोविज्ञान की दृष्टि से इस सम्बंध में विशेष शोध की है और वे अनेक उदाहरणों एवं प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि माता-पिता सद्गुणी, अच्छे स्वभाव के, कर्त्तव्यनिष्ठ, नीतिवान और धर्मात्मा हैं तो उनकी शारीरिक अपूर्णताओं और विकास की अन्य सुविधाओं के अभाव में भी बालक उत्तम शरीर और मन वाले उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी जो प्रतिकूल अपवाद देखे जाते हैं उनमें भी मानसिक प्रतिकूलताओं को ही उनने निमित्त कारण पाया है। धर्मात्मा लोग भी जब किसी अनीति से पीड़ित होते हैं और उनके मन में पीड़ा, उद्वेग एवं प्रतिहिंसा की अग्नि जलती है तो उसके बुरे संस्कारों से बालक की मनोभूमि भर जाती है। इसी प्रकार कभी-कभी बुरे आदमी भी परिस्थिति वश उच्च विचारधारा से भरे होते हैं तो उसकी उत्तम छाया भी बच्चों पर आती है। पुलस्त्य ऋषि के घर रावण का हिरण्य कश्यप के घर प्रहलाद का जन्म होने जैसी घटनाओं में उनके माता-पिता की मनोदशा के परिवर्तनों को ही कारण माना है।

हमें नीतिवान एवं चरित्रवान होना चाहिए। क्योंकि यह सफलता समृद्धि और उन्नति का, सुपरिचित मार्ग है। हमारा यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी मनोभूमि को, अपने दृष्टिकोण को, उच्चकोटि के आदर्शों से ओत-प्रोत करें, क्योंकि इसी मार्ग पर चल कर लोक और परलोक की सुख शाँति संभव है। आज कुपात्र सन्तान की बाढ़ आई हुई है और सम्पन्न सन्तति के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं।

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