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Magazine - Year 1955 - Version 2

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पाप से सावधान!

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(प्रो. राम चरण महेन्द्र, एम.ए.)

पाप एक ऐसी दुष्प्रवृत्ति है, जो नाना रूप आकृति और अवस्थाओं में मनुष्य पर आकर्षण किया करती हैं। कहते हैं, मनुष्य के मन के किसी अज्ञात कोने में शैतान का भी निवास है। जहाँ पुष्पों से सुरभित कानन का सुन्दर स्थल है, वहाँ कांटों से भरे बीहड़ भी हैं। जहाँ ज्ञान का प्रकाश है, वहीं कहीं कहीं घनघोर अन्धकार भी है। यही अन्धकार पाप की ओर प्रवृत्त कर मनुष्य के अधः पतन का कारण बनता है।

पाप की ओर प्रवृत्त करने वाला मनुष्य का अज्ञान है। अज्ञान के अन्धकार में उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता, वह वासना के वशीभूत हो उठता है और किसी न किसी रूप में पतन के ढाल मार्ग पर आरुढ़ हो जाता है।

पाप पशुत्व है, मनुष्य के शरीर मन और आत्मा का नारकीय बन्धन है, दुखदायी नर्क में ले जाने वाला दैत्य है। वास्तव में इनका निर्माण इसलिए किया गया है कि मनुष्य की परीक्षा प्रतिपल प्रतिक्षण होती चले।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा— मनुष्य में रहने वाले ये बारह दोष तनिक सा अनुकूल अवसर पाते ही उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं।

मुनि सनत्सुजात के अनुसार, “जैसे व्याध मृगों को मारने का अवसर देखता हुआ उनकी टोह में लगा रहता है, उसी प्रकार इनमें से एक एक दोष मनुष्यों का छिद्र देखकर उस पर आकर्षण करता है।”

अपनी बहुत बड़ाई करने वाला, लोलुप, अहंकारी, क्रोधी, चञ्चल और आश्रितों की रक्षा न करने वाले—ये छः प्रकार के मनुष्य पापी हैं। महान् संकट में पड़ने पर भी ये निडर होकर इन पाप कर्मों का आचरण करते हैं। सम्भोग में ही मन रखने वाला, विषमता रखने वाला, अत्यन्त भारी दान देकर पश्चाताप करने वाला, कृपण, काम की प्रशंसा करने वाला तथा स्त्रियों के द्वेषी—ये सात और पहले के तेरह प्रकार के मनुष्य नृशंस वर्ग के कहे गए हैं। सावधान रहें!

मनुष्य प्रायः तीन अंगों से पाप में प्रवृत्त होता है 1—शरीर 2—वाणी और 3—मन द्वारा। इनके भी विभिन्न रूप हो सकते हैं, विभिन्न अवस्थाएँ और स्तर हो सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य का अधःपतन करने में समर्थ हैं। तीनों द्वार बन्द रखें, शरीर, मन और वाणी का उपयोग करते हुए बड़े सचेत रहें। कहीं ऐसा न हो कि आत्म संयम की शिथिलता आ जाये और पाप पथ पर चले जायं!

शरीर के पापों में वे समस्त दुष्कृत्य सम्मिलित हैं, जिन्हें रखने से ईश्वर के भव्य मन्दिर रूपी भवसागर से पार कराने वाले पवित्र मानव शरीर को भयंकर हानि पहुँचती है। कञ्चन तुल्य काया में ऐसे विकार उपस्थित हो जाते हैं जिससे जीवितावस्था में ही मनुष्य नर्क की यन्त्रणाएँ प्राप्त करता है।

हिंसा प्रथम कायिक पाप है। आप सशक्त हैं,तो हिंसा द्वारा अशक्त पर अनुचित दबाव डालकर पाप करते हैं। मद, ईर्ष्या द्वेष आदि की उत्तेजना में आकर निर्बलों को दबाना, मारपीट या हत्या करना जीवन को गहन अवसाद से भर लेना है। हिंसक की अन्तरात्मा मर जाती है। उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता, उसके मुख मुद्रा से क्रोध, घृणा, द्वेष, की अग्नि निकला करती है।

हिंसक पशु की कोटि का व्यक्ति है। उसमें मानवोचित गुण नहीं रहते। बल के मद में वह अपने स्वार्थ, आराम, वासना पूर्ति के लिए काम करता है। उसे पशु की योनि प्राप्त होती है और जीवन अशान्त बना रहता है।

हिंसा का तात्पर्य यह नहीं कि आप किसी के शरीर को चोट पहुँचाएँ, मारें पीटें ही, दूसरे के हृदय को किसी प्रकार का आघात पहुँचाना, कटु वचन का उच्चारण, गाली गलौज आदि भी हिंसा के ही नाना रूप हैं।

आपका जीवन सदा सबके लिए हितकारी हो, सेवा करें, आस पास के सब व्यक्ति आपसे प्रेरणा और बल प्राप्त करें, आप मृदु वचनों का उच्चारण करें, तो आपके लिए सुखदायिनी मुक्ति दूर नहीं है।

चोरी करना कायिक पाप है। चोरी का अर्थ भी बड़ा व्यापक है। किसी के माल को हड़पना, डकैती रिश्वत, आदि तो स्थूल रूप में चोरी हैं ही, पूरा पैसा पाकर अपना कार्य पूरी दिलचस्पी से न करना, भी चोरी का ही एक रूप है। किसी को धन, सहायता या वस्तु देने का आश्वासन देकर, बाद में सहायता प्रदान न करना भी चोरी का एक रूप है। फलतः अनिष्टकारी एवं त्याज्य है।

व्यभिचार मानवता का सबसे घिनौना निकृष्टतम कायिक पाप है। जो व्यक्ति व्यभिचार जैसे निंद्य पाप−पंक में डूबते हैं, वे मानवता के लिए कलंक स्वरूप हैं। आये दिन समाज में इस पाप की शर्माने वाली गन्दी कहानियाँ और दुर्घटनाएँ सुनने में आती रहती हैं। यह ऐसा पाप है, जिसमें प्रवृत्त होने से हमारी आत्मा को महान दुःख होता है। मनुष्य आत्म ग्लानि का रोगी बन जाता है, जिससे आत्म हत्या तक की दुष्प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। पारिवारिक साँख्य, बाल बच्चों, पत्नी का पवित्र प्रेम, समृद्धि नष्ट हो जाती है। सर्वत्र एक काला अन्धकार मन वाणी और शरीर पर छा जाता है।

शरीर में होने वाले व्यभिचार जनित रोगों की संख्या सर्वाधिक है। अप्राकृतिक तथा अति वीर्यपात सू मूत्र नलिका सम्बन्धी गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं, जिन्हें न डाक्टर ठीक कर सकता है, न रुपया पैसा इत्यादि ही सहायक हो सकता है। वेश्यागमन के पास से मानव−शरीर अशक्त हो जाता है और स्थायी रूप से निर्बलता, सिरदर्द, बदहजमी, रीढ़ का दुखना मिर्गी, नेत्रों की कमजोरी, हृदय की धड़कन, बहुमूत्र पक्षाघात, प्रमेह, नपुंसकता, क्षय और पागलपन आदि शारीरिक रोग उत्पन्न होकर जीवितावस्था में ही नर्क के दर्शन करा देते हैं।

व्यभिचार के दोनों−रूप परस्त्री गमन तथा परपुरुष गमन त्याज्य हैं। सावधान! यह मन में चिन्ता, अधैर्य, अविश्वास, ग्लानि का सृष्टा महा राक्षस है। यह पाप समाज से चोरी चोरी किया जाता है अतः मन छल कपट, धूर्तता, मायाचार, प्रपञ्च आदि से भर जाता है। ये कुवासनाएँ कुछ समय लगातार मन में प्रविष्ट होने से अंतर्मन में गहरी मानसिक ग्रन्थियों की सृष्टि कर देती हैं। ऐसे व्यक्ति मौन सम्बन्धी बातों में निरन्तर दिलचस्पी, गन्दे शब्दों का प्रयोग, बात बात में गाली देना, गुह्य अंगों का पुनःपुनः स्पर्श, पराई स्त्रियों को वासनामय कुदृष्टि से देखना, मन में गन्दे विचारों—पापमयी कल्पनाओं के कारण खींचतान अस्थिरता, आकर्षण−निकर्षण आदि मनः संघर्ष निरन्तर चलते रहते हैं। यही कारण है कि विकारी पुरुष प्रायः चोर निर्लज्ज, दुस्साहसी, कायर, झूठे और ठग होते हैं, अपने व्यापार तथा व्यवहार में समय समय पर अपनी इस कुप्रवृत्ति का परिचय देते रहते हैं। लोगों के मन में उनके लिए विश्वास, प्रतिष्ठा, आदर की भावना नहीं रहती, समाज से उन्हें सच्चा सहयोग प्राप्त नहीं होता और फलस्वरूप जीवन−विकास के महत्वपूर्ण मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।

व्यभिचार की मनःस्थिति अशान्त, सलज्ज, दुःख पूर्ण होती है। उसमें द्वन्द्व चलता रहता है, अन्तःकरण कलुषित हो जाता है। मनुष्य की प्रतिष्ठा एवं विश्वस्तता स्वयं अपनी ही नजरों में कम हो जाती है प्रत्येक क्षेत्र में सच्ची मैत्री या सहयोग भावना का अभाव मिलता है। ये सब मानसिक दुःख नर्क की दारुण यातना के समान कष्टकर हैं। व्यभिचारी को निज कुकर्म का दुष्परिणाम रोग−व्याधि सामाजिक बहिष्कार के रूप से इसी जीवन में भुगतना पड़ता है।

मन में पापमय विचार रखना घातक है। आपका मन तो निर्मल शुद्ध देव मन्दिर स्वरूप होना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, चिन्ता आदि वे दुष्ट मनोभाव हैं, जो मनुष्य का प्रत्यक्ष नाश करने वाले हैं!

महर्षि जैमिनी के अनुसार जो द्विज लोभ से मोहित हो पावन ब्राह्मणत्व का परित्याग कर कुकर्म से जीविका चलाते हैं, वे नर्कगामी होते हैं।

जो नास्तिक हैं, जिन्होंने धर्म की मर्यादा भंग की है, जो काम भोग के लिए उत्कण्ठित, दाम्भिक और कृतघ्न हैं, जो ब्राह्मणों को धन देने की प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, चुगली खाते, अभिमान रखते और झूठ बोलते हैं, जिनकी बातें परस्पर विरुद्ध होती हैं, जो दूसरों का धन हड़प लेते हैं, दूसरों पर कलंक लगाने के लिए उत्सुक रहते हैं और पराई सम्पत्ति देखकर जलते हैं, वे नर्क में जाते हैं।

जो मनुष्य सदा प्राणियों के प्राण लेने में लगे रहते हैं, पराई निन्दा के प्रवृत्त होते हैं, कुँए, बगीचे, पोखर आदि को दूषित करते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं।

वाणी से कुशब्दों, गाली, अपमान जनक, कटु वचन उच्चारण करना भी पाप है। आपको चाहिए कि शरीर मन वाणी को सहज सात्विक कार्यों में लीन रखें, शुभ सोचें, शुभ उच्चारण करें।

First 8 10 Last


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