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Magazine - Year 1958 - Version 2

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युग-निर्माण का मंगलाचरण

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धर्म, शिक्षा, न्याय, सभ्यता; विज्ञान, कला आदि मानव जीवन की आवश्यक प्रवृत्तियों की जन्मभूमि यह भारत भूमि है। पशु को मनुष्य बनाने वाली जिस सभ्यता और संस्कृति का उद्भव यहाँ हुआ वह किसी देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग या समाज के लिए नहीं, वरन् समस्त संसार के लिए है। भारतीय सभ्यता-मानवता की, समस्त मनुष्य जाति की अत्यन्त ही विवेक एवं दूरदर्शिता से भरी हुई जीवन पद्धति है। इसे अपनाने पर मनुष्य अगणित प्रकार की असुविधाओं, विकृतियों, और बुराइयों से बच कर सुख, समृद्धि, सफलता और सद्गति का अधिकारी बनता है।

जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुए अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर-घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख शान्ति की कमी न थी। इस संस्कृति के ढांचे में ढले हुए नर रत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भूसुर (पृथ्वी के देवता)मानती थी। यह देश स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास इस तथ्य का मुक्त कण्ठ से उद्घोष कर रहा है।

भारतीय संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित प्रत्येक परिवार में स्वर्गीय शान्ति एवं सद्भावनाओं का निवास रहता था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे इसका उदाहरण देखना हो तो विमाता की आज्ञा से 14 वर्ष के लिये वनवास जाने वाले राम, अन्धे माता पिता को कन्धे पर काँवर में बिठा कर तीर्थ यात्रा कराने वाला श्रवण कुमार, पिता के दान करने पर यमपुर खुशी-खुशी प्रस्थान करने वाले नचिकेता का चरित्र पढ़ लेना चाहिये। भाई का भाई के लिए क्या कर्त्तव्य है इसकी झाँकी राम, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पढ़ लेने से सहज ही हो जाती है। कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठिर ने भ्रातृ प्रेम के वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुला कर नल ने अपने भाई को क्षमा ही कर दिया। ऐसे भ्रातृ प्रेम के उदाहरण पग-पग पर मिलेंगे। सच्चे मित्र कैसे होते हैं यह कृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के साथ अपना कर्त्तव्य पालन करके दिखाया था।

पति पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिएं इसके उदाहरण पत्नीव्रती पुरुष और पतिव्रता नारियों ने पग-पग पर उपस्थित किये हैं। सीता, सावित्री, शैव्या, दमयन्ती, गान्धारी, अनुसूया, सुकन्या आदि की कथाएँ घर-घर गाई जाती हैं। परस्त्री को माता एवं पुत्री समझने वाले भी सभी कोई थे। शिवाजी द्वारा यवन कन्या को सुरक्षित रूप से सम्मानपूर्वक राजमहल में पहुँचा देना, अर्जुन का उर्वशी को लौटा देना, कच का रूपगर्विता देवयानी का प्रस्ताव अस्वीकार करना, सूर्पणखा का लक्ष्मण द्वारा उपहास होना जैसे प्रसंगों की कमी नहीं है। भीष्म, हनुमान, जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी प्रचुर संख्या में परिलक्षित होते थे।

अतिथि सत्कार के लिये मोरध्वज का अपना पुत्र दे देना, भूखे बहेलिये के लिए कबूतर कबूतरी का अपना शरीर दे देना, दुर्भिक्ष पीड़ित समय में अनेक दिनों से भूखे ब्राह्मण परिवार का अपनी थाली की रोटियाँ चाण्डाल को दे देना आदि अनेकों वृत्तांत महाभारत में देखे जा सकते हैं शरणागत कबूतर की रक्षा के लिये राजा शिवि ने अपना माँस काट-काट कर दे दिया था। कुन्ती ने ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को राक्षस का आहार बनने के लिये भेजा था।

अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन सम्पदा संग्रह ऐश आराम को लात मार कर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोक सेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने राज-पाट और सुख सौभाग्य को छोड़कर हिंसा और अज्ञान में डूबे हुये संसार को दया और आत्मज्ञान की शिक्षा देने के लिए निकल पड़े। महावीर ने लालची और विषयासक्त दुनिया को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया। भागीरथ ने राज सुख को छोड़ कर दीर्घ काल तक कठोर तप किया और प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए तरण तारणी गंगा का अवतरण कराने का महान कार्य संपादित किया। नारद जी कुछ घड़ी भी एक स्थान पर न ठहर कर आत्म-ज्ञान का प्रसार करने के लिए हर घड़ी पर्यटन करते रहते थे। व्यास जी ने संसार को धर्म ज्ञान देने के लिये अष्टादश पुराणों की रचना की। आदि कवि बाल्मीक ने रामायण की रचना करके मानव जाति को कर्त्तव्य पथ पर चलने के लिये अग्रसर किया। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, धन्वन्तरि, प्रभृति ऋषियों ने जीवन भर जड़ी बूटियों, धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करके रोगग्रस्त पीड़ितों का बाण करने के लिये सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिष विद्या की महान खोज, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों की गतिविधियों और उनका मनुष्य जाति पर जो प्रभाव पड़ता है उसकी खोज करने वाले वे ऋषि ही थे। सूर्य सिद्धान्त, मकरन्द, ग्रहलाघव, आदि को देखने से आश्चर्य होता है कि उस समय बिना वैज्ञानिक यन्त्रों के इस प्रकार की शोध करके संसार को महान ज्ञान देने के लिए उन्हें कितना श्रम करना पड़ा होगा।

सदा अपने को तप से तप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्व मानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अन्तरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पाराशर, याज्ञवलक्य, शंख, कात्यायन, गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, शृंगी, लीमस, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन, आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिये वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरन्तर प्राचीन काल के महापुरुषों की गाथाएँ, विरुदावलियां, धर्मचर्चाएँ सुना-सुना कर मानव जाति की सुप्त अंतरात्माओं को जगाया करते थे। दधीचि ने असुरत्व से देवत्व की रक्षा के लिए अपनी हड्डियाँ ही दान कर दीं। धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिये बन्दा वैरागी खौलते तेल के कढ़ाव में प्रसन्नता-पूर्वक कूद पड़ा। हकीकतराय के कत्ल, गुरु बालकों के जीवित दीवारों में चुने जाने की कथाएँ आज भी धर्म कर्त्तव्य की उपेक्षा करके धन संग्रह और इन्द्रिय भोगों में लगे हुये लोगों पर लानत देती हुई आकाश में विहार कर रही है।

आज अधिकांश पण्डित, पुरोहित, साधू, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुये मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य प्रमाद से चित्त हटा कर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिये कुछ भी श्रम नहीं करते। पर भारतीय संस्कृति की परम्परा इससे सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानन्द, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ, आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक हित के लिये जीवन भर घोर परिश्रम प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा को एकान्त मुक्ति से अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा-”आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।” बुद्ध ने उत्तर दिया-”जब तक संसार में एक भी प्राणी बन्धन में बँधा हुआ है तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिये बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।”। स्वामी दयानन्द सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गये थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि “लोक सेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है।” स्वामी जी तपस्या से लौट आये और अज्ञानग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को हो अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया। शंकराचार्य और दयानन्द अपने इस महान त्याग के उपलक्ष में विष पान करके स्वर्ग सिधारे। गान्धी जी ने जीवन भर ऐसा ही तप करके महात्मा शब्द को सार्थक किया लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय जैसे व्यक्तियों का चरित्र ही ‘पण्डित’ शब्द का वास्तविक प्रमाण है। गुरु कैसे होते हैं यह जानना हो तो गुरु गोविन्द सिंह आदि सिखों के दश गुरुओं का चरित्र पढ़ना चाहिये। शिष्य भी तब ऐसे ही होते थे। एकलव्य, आरुणि उद्दालक, धोम्य, नचिकेता आदि शिष्यों के चरित्र पढ़ने से अपनी संस्कृति पर सहज ही गर्व होने लगता है।

भारतीय संस्कृति में पले हुए राजा कैसे होते थे इसका उदाहरण राजा जनक के जीवन से मिल सकता है। वे अपने गुजारे के लिए स्वयं खेती करते थे और राज्य कोष से एक पाई भी अपने लिए न लेकर उसे जनता के निमित्त ही खर्च करते थे। जनक को अपना खेत जोतते समय हल की नोक की उचाट से एक कन्या मिली थी। हल की नोक को संस्कृति में सीता कहते है, इसलिए जनक ने अपने खेत में मिली हुई इस कन्या का नाम भी सीता रखा था। महर्षि विश्वामित्र को जब किसी यज्ञीय (लोक हितकारी) कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चन्द्र ने समस्त राज्य कोष ही दान नहीं कर दिया वरन् अपने तथा स्त्री-बच्चों के शरीर को बेच कर आदर्श उपस्थित किया। छत्रपति शिवाजी का विशाल राज्य था, उसे उन्होंने समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दिया था और स्वयं की आज्ञानुसार एक मुनीम की तरह उसका संचालन करते थे। भरत भी राम की चरण पादुकाओं को शासक मानकर स्वयं एक तुच्छ सेवक की भाँति 24 वर्ष राज्य चलाते रहे। धौलपुर की राजगद्दी के मालिक नृसिंह भगवान और मेवाड़ की राजगद्दी के मालिक भगवान एकलिंग जी माने जाते थे। राजा लोग अपने को उनका संचालक कहते थे। पीछे यद्यपि यह बात दिखावा मात्र रह गई, पर आरम्भ में यह त्याग भी उसी शृंखला का एक प्रतीक अवश्य था। विक्रमादित्य प्रजा की वास्तविक स्थिति जानने के लिए वेष बदले प्रजाजनों के बीच घूमता रहता था। राणा प्रताप राजसुख की परवाह न करके जीवन भर स्वाधीनता संग्राम में धर्म युद्ध लड़ते रहे। महान् राज पुत्र दुर्गादास राठौर को लड़ाई में रोटी भी नसीब नहीं हो पाती थी तो वह घोड़े पर चढ़ा हुआ भाले की नोंक में छेद कर भुट्टे भून खाता था और स्वाधीनता संग्राम लड़ता रहता था। छत्रसाल की गाथा सर्वविदित है। ऐसे होते थे यहाँ के शासक। राज्यों के मन्त्री कैसे होते थे उसका नमूना चाणक्य का जीवन है। यह विश्व का अभूतपूर्व कूटनीतिज्ञ एक फूँस की झोपड़ी में गरीब लोगों की भाँति रहता था और राज्य-कोष से अपने व्यय के लिये कुछ भी नहीं लेता था।

धन सम्पत्ति जिनके पास होती थी वे उसे सात पीढ़ियों के लिए तिजोरी में बन्द नहीं करते थे वरन् तात्कालिक लोक हित के लिए उसे मुक्त हस्त से दान करते रहते थे। राजा कर्ण की दानवीरता प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वे सवामन स्वर्ण रोज दान करते थे। कृष्ण ने जब उनकी दानवीरता की परीक्षा कराई है तो उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर कवच कुण्डल दिये हैं। मरते समय भी दाँत तोड़ कर उसमें लगा हुआ स्वर्ण दान करके याचकों को विमुख नहीं लौटने दिया है। मोरध्वज ने अपने पुत्र को दिया है। राजा बलि ने तीनों लोक का राज्य ही नहीं अपना शरीर भी उस समय लोक सेवा के प्रतीक समझे जाने वाले ब्राह्मण-वामन-को दान दिया है। जरूरतमंदों के लिए लोग अपनी परसी थाली तक दे देते थे। भामा शाह ने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति तिनके की तरह राणा प्रताप को दे डाली। राजा महेन्द्र प्रताप अपनी जमींदारी राष्ट्रीय शिक्षा के लिये अर्पित करके भारतीय स्वाधीनता के लिए विदेश भागे थे। परशुराम ने 21 बार पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके उसे दान दिया था। सुभाष बोस को बर्मा में भारतीयों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम चलाने के लिए दे दिया था। उससे पूर्ण श्री बोस भारत की अपनी लाखों रुपये की सम्पत्ति को राष्ट्र के लिए सौंप कर उसको सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित कर गये थे। सी. आर. दास अपनी बैरिस्ट्री में हजारों रुपया कमाते थे, वह सारा का सारा देकर और कई बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। जमुनालाल बजाज ने अपने को गाँधी जी का पाँचवाँ दत्तक पुत्र घोषित करके अपनी सारी सम्पत्ति महात्मा गाँधी के चरणों में अर्पित कर दी थी।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा राममोहनराय, गोपाल कृष्णा गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रद्धानन्द, सर्वदानंद , दर्शनानंद, लेखराम, हैडगेवार आदि का जीवन जिस प्रकार से व्यतीत हुआ है उसमें भारतीय संस्कृति की झाँकी देखी जा सकती है। भूषण, गंग और चन्दबरदाई आदि चारणों ने अपनी ओजस्वी वाणी और कविता से अनेकों निष्प्राणों को प्राणवान बनाया। गंग इसी अपराध में हाथी के पैर के नीचे कुचलवाये गये, चन्दबरदाई ने गजनी में जो कष्ट सहा वह किसी से छिपा नहीं है। सन् 57 से लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी वीर सैनिक और सन् 21 से लेकर सन् 47 तक की अहिंसात्मक राज्य कान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं उनकी गाथाएँ पढ़ते-सुनते हुए भुजाएँ फड़कने लगती हैं। पाकिस्तानी बर्बरता के सामने सिर न झुका कर अपने धर्म का अक्षुण्य रखने के लिये पंजाब और बंगाल के लाखों स्त्री-पुरुषों ने जो त्याग किये हैं उनका स्मरण करके चित्तौड़ की रानियों के जौहर और गुरु गोविन्दसिंह के कुछ पुत्रों की स्मृति ताजी हो जाती है।

आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के लिये घोर तप करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। ध्रुव प्रहलाद, सरीखे भक्त प्राचीन काल में हुए हैं और मध्यकाल में सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, रैदास, कबीर, दादू , रामानन्द, रामानुज, षटकोपाचार्य, तिरुवल्लुवर जैसे संतों की संख्या बहुत बड़ी है। अनीति के निवारण के लिए त्रेता में ऋषियों ने अपना खून निकाल-निकाल कर एक घड़ा भरा था और वह रक्त घट अन्त में राक्षसों के विध्वंस कराने के निमित्त-सीता जन्म-का हेतु बना था। इसी मार्ग पर यह आस्तिक सन्त अपनी साधना, भक्ति , ज्ञान, दीक्षा, आदि के द्वारा अनीति निवारण और धर्म विस्तार कार्य करते रहे हैं।

विश्व मानव की सेवा के लिये भारतीय स्त्रियाँ भी पुरुषों से पीछे नहीं रही है। उनका कार्य क्षेत्र पुरुषों के समान विस्तृत क्षेत्र में न रह कर सीमित क्षेत्र में रहा है, इसलिये उन्हें यश उतना ही मिला है केवल कुछ पतिव्रता स्त्रियों के कौतूहलपूर्ण चरित्रों का ही ग्रंथों में विस्तृत वर्णन आया है पर सच बात यह है कि भारतीय नारी ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से अधिक कार्य किया किया है। उन्हीं की प्रेरणा और छत्रछाया से समर्थ होकर पुरुष जाति कुछ कर सकने में सफल हो सकी। इसीलिये उनका नाम पुरुषों से पहले लिया जाता रहा है। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, मायाब्रह्म, सावित्री सत्यवान् आदि नामों में पहला नाम नारी का है दूसरा नर का है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं रहा है जिसमें भारतीय नारी ने महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन न की हो। वेदों के दृष्टा जिस प्रकार विश्वामित्र आदि ऋषि हुए हैं वैसे ही ऋषिकाएँ-स्त्रियाँ भी हुई हैं। ऋग्वेद 10। 85। 10-134। 10-39। 10-40। 8-91। 10-95। 5-28। 8-91 आदि अनेकों सूत्रों की दृष्टा घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, जुहु, अदिति, सरमा, रोमशा, लोपा मुद्रा, शाश्वती सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ ही हैं। मनु की पुत्री इडा, बड़ी प्रकाण्ड याज्ञिका थी। उसने अपने पिता मनु का यज्ञ कराया था। मैत्रेय एक समय की अद्वितीय विद्वान थी। शाण्डिल्य की पुत्री श्री मती ने अत्यन्त कठोर तप किये थे। महाभारत में शान्ति पर्व के अध्याय 30 में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिये थे। भागवत में स्वधा की पुत्री वयुना और धारिणी का वर्णन है, वे विज्ञान विद्या में निष्णात् थीं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित वेदवती को चारों वेद सस्वर कण्ठाग्र थे। भारती देवी नामक महिला ने शंकराचार्य से ऐसा शास्त्रार्थ किया था कि बड़े-बड़े विद्वान भी अचंभित रह गये थे। उसके प्रश्नों से निरुत्तर होकर शंकराचार्य को उत्तर देने के लिये कुछ मास की मोहलत माँगनी पड़ी थी।

युद्ध कला प्रवीण कैकेयी को दशरथ जी लड़ाई में अपने साथ ले गये थे और जब रथ टूटने लगा तो कैकेयी ने ही उसका तात्कालिक उपचार करके पराजय से बचाया था। मदालसा, महामाया के चरित्र भी प्रसिद्ध हैं। चित्तौड़ की रानियाँ, बूँदी की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, चाँदबीबी आदि के पराक्रम से दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। द्रौपदी, गान्धारी, कुन्ती आदि की असाधारण योग्यता को सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती। मीरा ने लोक लाज छोड़ कर राज परिवार त्याग कर जनता जनार्दन के हृदय में भक्ति का दिव्य रस ओत-प्रोत किया था। समाज सुधार और राजनैतिक क्षेत्रों में प्राण-प्राण से संलग्न महिलाएँ इस शताब्दी में भी कम नहीं हुई हैं।

महापुरुषों और महान नारियों के दिव्य चरित्र से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना जगमगा रहा है। यहाँ घर-घर में ऐसे नर रत्न-पैदा होते रहे हैं जिनके उज्ज्वल चरित्र प्रकाश स्तम्भों की भाँति आज भी गिरी हुई मनुष्य जाति का पथ-प्रदर्शन करने के लिए जाज्वल्यमान हो रहे हैं। यह क्रम इस देश में केवल इसलिये चलता रहा है कि यहाँ ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्रति लोगों की गम्भीर आस्था रही है। इन धर्म शास्त्रों, ऋषि प्रणालियों, आप्त वचनों का अनुगमन करने के लिये लोग श्रद्धापूर्वक हृदय और मस्तिष्क के द्वार खोले रहे हैं। आज भोगवादी भौतिक संस्कृति ने उस हमारी सनातन परम्परा से जनसाधारण को विमुख कर दिया है। फलस्वरूप सर्वत्र घोर अशान्ति, दारिद्र, रोग शोक, भय, उत्पीड़न, तृष्णा और वासना से सभी के हृदय जर्जर हो रहे हैं।

हमारा निश्चित विश्वास है कि भारतीय संस्कृति, ऋषि प्रणीत, रीति नीति-अपना करके ही मनुष्यता का उत्कर्ष हो सकता है, अन्यथा वर्तमान गति विधि उसे सब प्रकार नष्ट करके ही छोड़ेगी। सत्य अमर है, श्रद्धा अमर है, धर्म अमर है, प्रेम अमर है, न्याय अमर है ये कभी मन्द भले ही हो जावें पर मर नहीं सकते। भारतीय संस्कृति भी अमर है, वह आज तमसाच्छन्न हो रही है पर कल अवश्य ही निर्मल होगी। हमारी अन्तरात्मा कहती है कि वह पुनः सजीव होगी और उसकी विजय दुन्दुभी फिर एक बार विश्व में बजेगी।

हम उस भविष्य की प्रतीक्षा करते हैं जिसमें भारत में घर-घर अपने प्राचीन आदर्शों की भावना एवं मान्यता का विकास होगा। लोग आपस में ऐसे व्यवहार रखेंगे जैसे प्राचीन भारत में रखे जाते थे। माँ बाप, भाई बहिन, भाई-भाई, पिता-पुत्र, सास-बहु, स्त्री-पुरुष, स्वजन सम्बंधी, बन्धु-बन्धुओं के बीच ऐसे प्रचुर एवं प्रेमपूर्ण संबंध होंगे जिन्हें देख कर देवता भी ईर्ष्या करें। पुरुष स्त्रियों के प्रति और स्त्रियाँ पुरुषों के प्रति अत्यन्त ही पवित्र भावनाएँ रखा करेंगे। व्यापारी और ग्राहक के बीच उचित मुनाफे पर ठीक वस्तुओं का ईमानदारी के साथ क्रय-विक्रय होगा। मजदूर पूरा काम करने में और मालिक पूरी मजदूरी देने में कसर न रखेंगे। आलस्य को, काम से जी चुराने को मानवी अपराध समझा जायगा और हर आदमी पसीना बहाये बिना रोटी खाना पसन्द न करेगा। मनुष्य परस्पर सहिष्णु, सहनशील, एक दूसरे की स्थिति और कठिनाई को समझने वाले, तथा उदार व्यवहार करने वाले होंगे। छल, चोरी, व्यभिचार,बेईमानी, दगाबाजी, विश्वासघात, अनीति, अन्याय आदि से लोग वैसे ही घृणा करेंगे जैसे अखाद्य और अभक्ष को भूखा रहने पर भी कोई नहीं खाता। संयम, सदाचार और नियमित जीवन के कारण सब लोग निरोग और दीर्घजीवी रहेंगे। सन्तोषी और परिश्रमी होने के कारण उन्हें किसी बात का घाटा न रहेगा। परस्पर स्नेह और सद्भावों के कारण आपसी व्यवहार स्वर्गीय सुख जैसे मधुर हो जावेंगे।

युग निर्माण के साँस्कृतिक पुनरुत्थान मंगलाचरण एवं शिलान्यास के रूप में ब्रह्मास्त्र का महान धर्मोपचार आरंभ किया गया है। गायत्री और यज्ञ की आध्यात्मिक शक्ति महान् है। इन दोनों के समन्वय से सूक्ष्म आकाश में जो दिव्य-चेतना उत्पन्न होगी उससे राष्ट्र निर्माण के उपयुक्त वातावरण बनेगा। गायत्री और यज्ञ की शक्ति के बारे में आगे के पृष्ठों पर प्रकाश डाला जा रहा है।

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