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Magazine - Year 1959 - Version 2

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Language: HINDI
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गृहस्थ में रह कर भी मुक्ति लाभ संभव है।

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First 9 11 Last
(श्री शंभूसिंह कौशिक)

शास्त्रों में बतलाया गया है कि धर्म ही मनुष्य का सब से बड़ा आश्रय और सद्गुण है। इसका आशय यह है कि धर्म के द्वारा ही मनुष्य को अपने कर्त्तव्य का बोध होता है और उसी का पालन करके वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त हो सकता है। धर्म के द्वारा ही मनुष्य को परमात्मा तथा उसकी लीला का कुछ अनुमान हो सकता है और आध्यात्मिक पथ में प्रगति करके वह जीवनमुक्त पद प्राप्त कर सकता है।

पर धर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान मनुष्य के लिये सहज नहीं है। क्योंकि संसार में इतने अधिक विभिन्न धर्म और धर्म-गुरु पाये जाते हैं। मनुष्य का एक निश्चय पर पहुँचना कठिन होता है और वह प्रायः भ्रम में पड़ जाता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो मनुष्य कुछ निस्सार कर्म काण्डों को धर्म का सार समझ बैठता है और सब तरफ से आँखें बन्द करके एक लकीर पर चलते चला जाता है। इस प्रकार के धर्म-पालन को अंध श्रद्धा का नाम दिया जाता है और उससे चाहे मनुष्य को थोड़ा-सा संतोष भले ही हो जाय आध्यात्मिक जीवन से उसे अनजान और वंचित ही रहना पड़ता है।

यों तो धर्म का आविर्भाव मानव-सभ्यता के आदि काल से ही हो चुका है। पर उस समय मनुष्य जो कुछ अद्भुत घटना देखता था उसी में ईश्वर की कल्पना कर लेता था। यदि वह देखता कि कहीं आकस्मिक रूप से पृथ्वी में से या जल में से अग्नि प्रकट हो गई तो वहीं पूजा प्रार्थना शुरू कर देता था। इसी प्रकार उल्कापात, तीव्र तूफान, भूकम्प आदि नाशकारी घटनाओं को भी वह ईश्वर का कोप समझ कर उसे भेंट पूजा द्वारा संतुष्ट करने की चेष्टा करता था, इसी प्रकार उसने ईश्वर की सत्ता के विषय में एक मनमानी कल्पना करके उसे धर्म का रूप दे दिया।

पर जैसे-जैसे मनुष्य एक ही प्रकार की घटनाओं को लगातार सर्वत्र देखता गया और उन पर मनन करके उसने प्रकृति के नियमों की एकरूपता को समझ लिया तो वह ब्रह्म और प्रकृति की अखण्डता को अनुभव करने लगा। वह समझने लगा कि संसार में भिन्न-भिन्न रूप और नाम दृष्टि-गोचर होते हैं वास्तव में उनका उद्गम स्थान एक ही है और व्यवहार में पृथक-पृथक जान पड़ने पर भी उनके भीतर एक ही सत्ता-एक ही शक्ति कार्य कर रही है। इस से उसके हृदय में ज्ञान, प्रेम, भक्ति के उच्च भावों का उदय होने लगा और उसकी क्षुद्र वृत्तियाँ दूर होने लगीं।

यह मनुष्य के उत्थान का-ऊर्ध्व गति को प्राप्त होने का वास्तविक मार्ग है। यह मनुष्य के लिये एक स्वाभाविक रास्ता है, जिसमें अस्वाभाविकता की कोई बात नहीं जान पड़ती। पर संसार में ऐसे लोगों का अभाव नहीं जो इस सरल-स्वाभाविक मार्ग को महत्व हीन बतला कर अपना एक निराला पंच-जीवन-दर्शन स्थापित करने में ही अपना बड़प्पन समझते हैं। वे कहते हैं कि वही दर्शन और साधन प्रणाली श्रेष्ठ है जिसमें अपनी कोई विशिष्टता हो। इस विषय की आलोचना करते हुये विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक लेख में कहा है—

“अनेक व्यक्ति स्पर्धापूर्वक यह कहते हैं कि इस प्रकार का एक विशेष भाव रहने वाला दर्शन-शास्त्र प्रकृष्ट (अति उत्तम) है। सब रूप त्याग कर किसी एक विशेष मनुष्य में, ईश्वर का दर्शन करना ही चरम पूजा है। मुझे मालूम है कि मनुष्य इस प्रकार के कृत्रिम उपाय द्वारा हृदय की किसी एक वृत्ति विक्षुब्ध करके बहुत बड़े परिमाण में लाभ उठा सकता है। किसी एक रस को अत्यन्त तीव्र बनाकर खड़ा कर सकता है। किन्तु, क्या इतना करना ही हमारी साधना का लक्ष्य होना चाहिये। अनेक बार देखा जाता है कि अन्धे होने पर स्पर्श शक्ति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। परन्तु क्या इस प्रकार से शक्ति एक स्थान से चुरा कर दूसरे स्थान पर उपचय (अति-संग्रह) करने से उसे शक्ति की सार्थकता कहा जा सकता है? जहाँ उसका नाश हुआ है क्या वहाँ का विचार नहीं करना चाहिये? जहाँ से शक्ति को नष्ट किया गया क्या उस त्रुटि का दुष्परिणाम हमको भोगना नहीं पड़ेगा?”

हमारे देश में सैंकड़ों प्रकार के पंथों और सम्प्रदायों ने ईश्वर और धर्म के जो एक दूसरे से सर्वथा भिन्न प्रकार के चित्र खींचे हैं और लोगों को नई-नई तरह की साधन-प्रणालियों में लगाया है उसके फल से उनका कोई विशेष कल्याण हुआ हो ऐसी बात नहीं। जो लोग इस प्रकार के कृत्रिम उपायों से एक विशेष प्रकार की उन्नति करने में लग जाते हैं उनका जीवन प्रायः असन्तुलित हो जाता है। वे दर्शनीय अथवा चमत्कारी भले ही बन जायँ पर संसार के काम के नहीं रहते और इस कारण उनके जीवन का सर्वांगपूर्ण विकास भी नहीं हो पाता। बिना इस प्रकार के सर्वांगीण विकास के हम मुक्ति मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकते। विश्वकवि की यह सम्मति विचारणीय है—

“वस्तुतः स्वभाव का परिपूर्ण लाभ ही धर्म है, और धर्म-नीति का श्रेष्ठ लाभ यही है। भगवान की धारणा को संकीर्णता में बाँध कर भक्ति की उत्तेजना को उग्र नशे की तरह बनाने में मनुष्यत्व की सार्थकता नहीं मानी जा सकती। भगवान को भी उनके स्वभाव (स्वाभाविक रूप) में ही प्राप्त करने की साधना करनी होगी, तभी हमारा कल्याण होगा। भगवान को केवल अपनी किसी विकृति (त्रुटि) को उपयोगी बना कर, उनको लेकर बहुत-बहुत जोश दिखाने को हम मंगलमय नहीं मान सकते। हो सकता है कि उसमें कहीं सत्य छिपा हो। पर जो शक्तिमान है वह तो उसके द्वारा किसी प्रकार अपना काम चला सकता है, किन्तु उनके दल-में जो अन्य साधारण शक्ति के व्यक्ति आकर जमा होते हैं उनका कुछ ठौर ठिकाना नहीं। उनका आलाप क्रमशः प्रलाप हो उठता है, एवं वे उत्तेजना और उन्माद के पथ पर अपघात (अकाल मृत्यु) को प्राप्त होते हैं।”

सत्य बात यह है कि शुद्ध धर्म कोई गूढ़ रहस्य या कठिन समस्या नहीं है। सीधे से सीधा और अल्प ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी उस पर चलता हुआ अपना और संसार का कल्याण कर सकता है और इस प्रकार आत्मोन्नति के उच्च स्थान पर पहुँच सकता है। पर जो धर्म को अस्वाभाविक बातों में फँसा कर उसे किसी प्रकार सिद्धि, चमत्कार अथवा गुरुडम का साधन बना लेते हैं वे कभी उसके मर्म को प्राप्त नहीं कर पाते और धर्म के रहस्य की बड़ी-बड़ी बातें करने पर भी वे मुक्ति-मार्ग से दूर बने रहते हैं। साँसारिक राग दोषों से बच कर मुक्ति पथ का अनुगामी स्वाभाविक धर्म का अनुयायी ही हो सकता है।

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