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Magazine - Year 1959 - Version 2

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व्रतशीलता की आवश्यकता

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बुरे विचारों और बुरे कार्यों की ओर मनुष्य का मन स्वभावतः चलता है, कोई परिस्थिति एवं प्रेरणा मिलने पर तो वह और भी अधिक तेजी से उस ओर अग्रसर होता है किन्तु सद्विचारों और शुभ कार्यों के बारे में ऐसी बात नहीं है। उसके लिए पहले तो इच्छा ही नहीं होती, यदि किसी प्रेरणा या उत्तेजना से इच्छा हुई भी तो वह उत्साह ठंडा होते ही शिथिलता आ जाती है, और वह शुभ संकल्प लड़खड़ाने लगता है, यदि उसे सँभालने का प्रयत्न न किया गया तो कुछ ही दिनों में वह समाप्त भी हो जाता है। जप, तप, साधना, दान, पुण्य, सेवा परमार्थ की इच्छा और कल्पना कई लोग करते हैं पर यदि उस इच्छा के पीछे प्रेरणा प्रोत्साहन बना रहा तो ही उसका कार्य रूप बनता है अन्यथा वह मनोरथ केवल कल्पना मात्र रह कर समाप्त हो जाते हैं।

आत्म निर्माण और परमार्थ यह दो कार्य मानव जीवन को सफल बनाने वाले मुख्य आधार हैं। इनके लिये प्रत्येक धर्मप्रेमी की अभिरुचि भी होती है। परन्तु इच्छा शक्ति एवं संकल्प बल की दुर्बलता के कारण वे भावनाएं चरितार्थ नहीं हो पातीं, कभी थोड़ा सा कुछ कार्य हुआ भी तो मानसिक शिथिलता आते ही उत्साह ठंडा पड़ता है और कोई मामूली सी झंझट आने के बहाने वह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।

अमुक व्रत निभ नहीं सका, इसका हेतु लोग अमुक कठिनाई आ जाना बताया करते हैं। यह एक बहाना है। वास्तविकता इससे भिन्न है। तथ्य यह है कि वह कठिनाई आने से पूर्व मन उस सम्बन्ध में उत्साह खो चुका होता है, कोई बहाना इस झंझट से छुटकारा पाने के लिए ढूंढ़ता रहता है। जब कोई बहाना मिल जाता है तो उसे अपनी दुर्बलता छिपाने का एक अच्छा अवसर मानकर झट उस शुभ संकल्प को समाप्त कर देता है जहाँ ऐसी बात नहीं होती वह व्रत निभता रहता है। अनेक झंझटों और कठिनाइयों के बीच भी लोगों ने बड़े बड़े कठिन व्रत जीवन भर निभाये हैं, कोई सामाजिक आपत्ति उसमें बाधक हुई भी है तो उस आपत्ति का अनिवार्य काल समाप्त होते ही वे तुरन्त अपने व्रत पर आरुढ़ हो जाते हैं और जो उस कठिनाई के समय से छूट हुई थी उसकी पूर्ति भी कर लेते हैं। यदि निष्ठा सच्ची और पक्की हो तो वह सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसकी यात्रा रुकती नहीं।

यह मानसिक दुर्बलता ही है जो मार्ग सन्मार्ग के पालकों को पग पग पर बाधक बनती है। कितने ही ऐसे विचारक, मनीषी, सेवाभावी और उच्च महत्वाकांक्षाएं रखने वाले लोग होते हैं जो यदि अपने आदर्शों को लगातार निबाहते रह सके होते तो निश्चय ही संसार के इतिहास में अपना काम अमर कर गए होते, दूसरे के लिए अनुकरणीय प्रकाश स्तंभ सिद्ध हुए होते, जीवन का लक्ष पूर्ण करते हुए अत्यन्त आनन्दपूर्वक नर-तन की सार्थकता का रसास्वादन करते। पर उनकी उच्च मनोभूमि को इस हत्यारी मानसिक दुर्बलता ने ही सफल न होने दिया। उन बेचारों ने जब जब छुट पुट प्रयत्न आरंभ किये कि यह दुर्बलता आड़े आई। कोई छोटी सी प्रतिकूल परिस्थिति सामने आते ही उत्साह ठंडा हुआ, प्रयत्न छूटा, प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार की अनेकों महान आत्माएं हैं जिनके उच्च अन्तःकरण को इस दुर्बलता ने विकसित नहीं होने दिया। उनकी आन्तरिक बेकार चली गई।

इस दुर्बलता पर विजय प्राप्त करने का एक मात्र उपाय “व्रतशीलता” है। प्रतिज्ञा में, शपथ में, प्रण में एक प्रेरणा विकास करती है। जब-जब मन ढीला पड़ता है तब तब अंतरात्मा धक्का मारती है कि यह करते रहने का तो व्रत लिया था। व्रत तोड़ना कायरता है, अधर्म है, पाप है, लोकापवाद का-निन्दा अपयश का हेतु है, इसलिए जैसे बने वैसे अब इस व्रत को तो निबाहना ही है।

सज्जनों और देवताओं की उपस्थिति में अग्नि देवता को साक्षी करके भाँवर फिरते हुए पति पत्नी आजीवन दाम्पत्ति संबंध निवाहने की प्रतिज्ञा करते है तो फिर अनेक अड़चनें आते रहने पर भी उसे निबाहते हैं। निबाहने की भावना हो तो कठिनाइयाँ लुढ़कती पुढ़कती चलती रहती हैं और व्रत भी निभ जाता है। व्रत निभे तो स्थिर मन से स्थिर कार्यक्रम के अनुसार स्थिर प्रयत्न का जो परिणाम होना चाहिए वह भी होता ही है। विवाह के समय ली हुई प्रतिज्ञा-अनेक आँधी तूफानों से टकराती हुई अन्ततः भरी पूरी गृहस्थ फुलवारी के रूप में उपस्थित होती है। नाती पोतों से भरा पूरा घर छोड़कर ही वह दम्पत्ति अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों ने गत 21 वर्षों में अपनी मनोभूमि को निश्चय ही बहुत परिष्कृत किया है। उन्होंने इतने उच्च विचार, लम्बे समय तक निरंतर प्राप्त किये हैं कि यदि उनके कार्य रूप में परिणत होने का अवसर आ जाय तो इनमें से प्रत्येक परिजन एक युगपुरुष-नररत्न सिद्ध हो सकता है। उनमें अनेकों की शक्ति और स्थिति भी ऐसी है कि वे अपना जीवन सफल करें इतना ही नहीं वरन् अनेकों के बुझे हुए दीपकों को जलाकर इस निराशा की निशा में धर्म और ज्ञान की दीपावली जगमग कर सकते हैं। पर कठिनाई एक ही है मानसिक दुर्बलता। उसे परास्त करने के लिए जिस व्रतशीलता की आवश्यकता है उसके बिना कोई ऊँची आशा भी नहीं की जा सकती।

कुछ कर गुजरने के लिए व्रतशीलता, संकल्पव्रत आवश्यक है। हिन्दू धर्म में संकल्प पर बहुत जोर दिया गया है। पंडित लोग हर छोटी छोटी बात का संकल्प कराते हैं। यहाँ तक कि संख्या सरीखे दैनिक कृत्य में भी पहले संकल्प बोला जाता हे, कोई दान देना हो, ब्राह्मण भोजन कराना हो, तो पहले संकल्प पढ़ाया जायेगा तब वह कार्य सम्पन्न होगा। आरंभ में संकल्प करना फिर उसे पूर्ण करना, यह मानसिक उत्साह और आत्मविश्वास बढ़ाने का अचूक नुस्खा है। मैं अमुक कार्य करूंगा यह प्रण करने के बाद जब पूर्ण कर लिया जाता है तो करने वाले की हिम्मत बढ़ती है उसे अपनी क्षमता और शक्ति पर विश्वास होता है, अपनी कुशलता सफलता पर उसे गर्व होता है। मनोबल बढ़ाने का यही मार्ग है। सचमुच ही सफलता के लिए संकल्प-बल आवश्यक है। एक बार असफल होने पर भी यह संकल्प बल ही उसे बार-बार प्रयत्न करने और जब तक सफलता न मिले निरन्तर लगे रहने की प्रेरणा देता है। निराशा की या प्रयत्न छोड़ बैठने की तो व्रतधारण करने वाले के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। उसे तो हर परिस्थिति का सामना करते हुए-चाहे कितना ही विलम्ब क्यों न लगे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगे रहने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं है। वह व्रत की पूर्ति के लिए जीवन भर प्रतीक्षा एवं प्रयत्न करने में प्रसन्नता पूर्वक लगा रह सके ऐसी प्रेरणा संकल्प व्रत में ही सन्निहित रहती है।

हम लोग जीवन में कुछ ठोस काम कर सकें इसके लिए व्रतशील होना आवश्यक है। प्रतिज्ञाबद्ध होकर जो कार्य हो सकेगा वह व्रतहीन रहने पर किसी प्रकार संभव नहीं है। कई व्यक्ति एक ऐसी लंगड़ी दलील उपस्थित किया करते हैं कि—”हम व्रत तो नहीं लेते पर यह कार्य करने का प्रयत्न करेंगे। व्रत लेने पर यदि वह नहीं किया तो पाप लगेगा। इसलिए व्रत न लेना ही उचित है।”

ऐसे लोग न तो व्रत की शक्ति को समझते हैं और न मर्यादा को। व्रत लिये बिना कोई प्रयत्न देर तक उस दिशा में टिका रहेगा ऐसी आशा नहीं की जाती। जिम्मेदारी का काम देने से पूर्व किसी व्यक्ति से बौण्ड भराये जाते हैं। बिना व्रत लिए कोई व्यक्ति जिम्मेदारी निबाहने योग्य नहीं समझा जाता। प्राचीन काल में कोई छात्र गुरुकुल में शिक्षा तभी प्राप्त कर सकता था जब उसका व्रतबंध-उपनयन-संस्कार हो जाय। बिना प्रतिज्ञा का व्यक्ति बेपेंदी का लोटा है जो किधर भी लुढ़क सकता है। सरकारी किसी प्रतिनिधि संस्था में, असेम्बली या पार्लमेण्ट में भी चुना हुआ सदस्य तभी प्रवेश कर सकता है जब यह निर्धारित शपथ ले ले। कोई सदस्य शपथ लेने से इनकार करे—कहे शपथ की क्या जरूरत है हम तो ऐसे ही पार्लमेन्ट के नियम पालन करते रहेंगे, तो उसे संकल्प शक्ति की महत्ता तथा आवश्यकता से अपरिचित बेवकूफ कह कर चुनाव में सफल होने पर भी उस संस्था से बहिष्कृत कर दिया जायगा। सरकारी नौकरियों से लेकर शिक्षा संस्था में प्रवेश पाने तक के लिए एक निर्धारित प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने होते हैं। निश्चय ही व्रतशीलता आवश्यक है। महान कार्यों के लिए तो उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। इसके अभाव में मनोबल शिथिल हो जाना और किसी भी प्रवाह में बह जाने की आशंका बनी रहती है।

अब हम सब अपने उच्च विचारों को सामूहिक रूप से कार्यान्वित करने के लिए सुव्यवस्थित योजनाबद्ध कदम उठा रहे हैं। ऐसी संक्राति बेला में ‘व्रत’ ही हमारा प्रधान अवलम्बन है। दुर्बल मनोभूमि में इसी आधार पर दृढ़ता एवं निष्ठा संभव है। व्रत लेने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आज ही इस क्षण पूर्ण रूपेण वह स्थिति प्राप्त हो जानी चाहिए जिसके लिए प्रतिज्ञा की गई है वरन् यह है कि ईमानदारी और सचाई के साथ यह प्रयत्न करेंगे कि निर्धारित लक्ष की ओर निरन्तर बढ़ते रहेंगे। बीच बीच में जो बाधाएं आपत्तियाँ, अड़चनें एवं असफलताएं सामने आवेंगी उनमें हताश न होते हुए—भूलों को सुधारते हुए—निरन्तर लक्ष मार्ग पर बढ़ते रहेंगे। दिशा और यात्रा की निरन्तरता का ही व्रत लिया जाता है। यदि इरादा और प्रयत्न छोड़ न दिया जाय तो व्रत निभता ही है, चाहे प्रगति कितनी ही धीमी क्यों न हो पर प्रयत्न कर्ता का व्रत टूटा हुआ नहीं माना जा सकता। कोई भी त्रुटि न हो ऐसी स्थिति व्रत धारण के दिन नहीं वरन् संकल्प पूर्णता के दिन प्राप्त होती है।

आत्म निर्माण और परमार्थ साधना का व्रत लेने में उन लोगों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जो इन दोनों बातों की महत्ता स्वीकार करते हैं और उन्हें कार्य रूप में परिणत करना चाहते हैं। आत्म निर्माण का जो कार्यक्रम व्रतधारी के लिए निर्धारित किया गया है वह कुछ भी कठिन नहीं है। उपासना, आत्म चिन्तन, स्वाध्याय, गुण कर्म स्वभाव का लेखा जोखा यह चारों काम व्यवहारिक दृष्टि से भी बहुत सरल हैं। इन्हें कौन नहीं कर सकता है? अब तक भी हम लोग अस्त व्यस्त रूप से इन कार्यों को करते ही रहे हैं। फिर नित्य, निरन्तर, नियमित रूप से इन्हें करने की प्रतिज्ञा लेकर अपनी कार्यशैली को अत्यधिक प्रभावशाली बनाने का अवसर आने पर झिझकने की आवश्यकता ही क्या है? यह एक अव्यवस्था को व्यवस्था में, ढिलमिल नीति को तीव्र प्रयत्न में परिणत करने का प्रयत्न है। इससे प्रत्येक परिजन को आत्मिक प्रगति में सहायता ही मिल सकती है, कोई नई अड़चन-आने की तो किसी भी प्रकार संभावना है ही नहीं।

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