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Magazine - Year 1960 - Version 2

Media: TEXT
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दोषों में भी गुण ढूँढ़ निकालिये

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संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोष-मय है। न तो कोई ऐसा पदार्थ है जिससे किसी प्रकार का दोष न हो और कोई चीज ऐसी जिसमें केवल दोष ही दोष भरे हों। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी दोनों प्रकार की वृत्तियाँ काम करती हैं। परिस्थिति के अनुसार उनमें से कभी कोई दबती है तो कभी उभरती है। जिससे एक मनुष्य जो एक समय से बुरा प्रतीत होता था दूसरे समय में अच्छा लगने लगता है।

हर वस्तु के बुरे और भले दोनों ही पहलू हैं। उन्हें हम अपनी दृष्टि के अनुसार देखते और अनुभव करते हैं। हंस के सामने पानी और दूध मिला कर रखा जाए तो केवल दूध ही ग्रहण करेगा और पानी छोड़ देगा। फूलों में शक्कर होती तो है पर उसकी मात्रा बहुत स्वल्प है, हम लोग किसी फूल को तोड़ कर चखें तो उसमें जरा सी मिठास प्रतीत होती है पर शहद की मक्खी को देखिए वह फूलों में से केवल मिठास ही चूसती है शेष अन्य स्वादों का जो बहुत सा पदार्थ फूल में भरा पड़ा है, उसे व्यर्थ समझ कर छोड़ देती है।

स्वाति की बूँद एक ही प्रकार की होती है पर उससे अलग-अलग जीव अपनी आंतरिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग प्रकार के लाभ उठाते हैं। साँप के मुख में जाकर स्वाति बूँद हलाहल विष बन जाती है, सीप के मुख में पड़ने से वह मूल्यवान मोती बनती है, बाँस के छेदों में जाने से वंशलोचन उपजता है और पपीहे के मुख में जाने से उसकी प्यास-मात्र लुप्त होती है। वस्तु एक ही थी पर अलग-अलग जीवों ने उसका उपयोग अपने-अपने ढंग से किया और उसका लाभ भी अलग-अलग उठाया। एक वैद्य पारद् को लेकर बहुमूल्य रसायन बनाता है जिससे अनेक व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ करते हैं। दूसरी ओर उसी पारद को खाकर दूसरा आदमी प्राणघात कर लेता है। चाकू से एक विद्यार्थी कमल बनाता है, कागज काटता है, दूसरा ना समझ बालक उससे अपनी उंगली काट लेता है। बिजली से एक व्यक्ति बत्ती जलाने, पंखा चलाने और रेडियो बजाने का काम लेता है दूसरा उसी का गलत उपयोग करके अपने लिए संकट उत्पन्न कर लेता है।

सड़े गले कूड़े करकट का जब खाद रूप से सोना कमाया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि घटिया स्वभाव के आदमियों से भी यदि हम बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवहार करें तो उनसे सज्जनता की प्रतिक्रिया प्राप्त न हो। जब साँप, रीछ और बन्दर जैसे अनुपयोगी जानवरों को सिखा पढ़ा कर लोग उनसे तमाशा कराते और धन कमाते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम बुरे, ओछे और मूर्ख समझे जाने वाले लोगों को अपने लिए हानिकारक सिद्ध होने देने की अपेक्षा उन्हें उपयोगी लाभ दायक न बना सकें। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हमारा निज का दृष्टिकोण और स्वभाव सही हो। यदि वही गलत है, यदि हम अपनी निज की दुर्बलताओं के प्रवाह में बहते हैं और छोटे-छोटे कारणों को बहुत बड़ा रूप देकर कुछ-कुछ समझने लगने की भूल करते हैं, सामने वाले में केवल दोष ही दोष ढूँढ़ते हैं, तो वही मिलेगा जो हमने ढूँढ़ा था। दोष विहीन कोई वस्तु नहीं, यदि हम दोष ढूंढ़ने की आदत से ग्रसित हो रहे हैं और किसी के प्रति दुर्भावपूर्ण भावना बनाये हुए हैं तो उसके जितने दोष हैं वे सब बहुत ही बड़े-बड़े रूप में दिखाई देंगे और वह व्यक्ति दोषों के पर्वत जैसा दीखेगा। यदि इसके विपरीत हमारा दृष्टिकोण उसी व्यक्ति के प्रति आत्मीयता पूर्ण रहा होता, उसकी सज्जनता पर विश्वास करते तो उसमें अनेकों गुण ऐसे दिखाई देते जिससे उसे सज्जन एवं सत्पुरुष कहने को ही जी चाहता।

भूल हर किसी से होती है। दुर्गुणों और दुर्बलताओं से रहित भी कोई नहीं है। पर जिसे हम प्यार करते हैं, उनकी भूलों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें बहुत छोटी मानते हैं, यदि कोई बड़ी भूल भी होती है तो उसे हंसकर सहन कर लेते हैं और उदारतापूर्वक क्षमा कर देते हैं। यह अपनी भावनाओं का ही खेल है कि दूसरों की बुराई या भलाई बहुत छोटी हो जाती है या अनेकों गुनी बढ़ी-चढ़ी दीखती है।

लोगों की बुराई-भलाई इतना महत्व नहीं रखती जितनी हमारी दृष्टि, दृष्टि में दोष उत्पन्न हो जाए तो हर चीज अटपटी दिखाई देगी। रंगीन काँच का चश्मा पहन लिया जाए तो हर चीज उसी रंग की दिखाई देगी। पीलिया रोग वाले का चेहरा खून एवं मल-मूत्र ही पीला नहीं होता वरन् सभी चीजें उसे पीली दिखाई देने लगती हैं। कई व्यक्ति हर घड़ी किसी न किसी की निन्दा करते सुने जाते हैं, दूसरों के दोषों का वर्णन करने में उन्हें बड़ा मजा आता है, ऐसे लोग बहुधा अपने आपको आलोचक या सुधारक कहते हैं पर वस्तुतः बात दूसरी ही होती है। उनके मन में दूसरों के प्रति घृणा और द्वेष के भाव भरे होते हैं, वे ही दूसरों की निन्दा के रूप से बाहर निकलते रहते हैं। जो आदमी लहसुन खाकर या शराब पीकर आया है, उसके मुँह में से इन पदार्थों की दुर्गन्ध स्पष्ट रूप से आती है। इसी प्रकार दुर्भावना युक्त ओछे आदमियों के मुख में से निन्दा, बुराई, दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण की धारा ही प्रवाहित होती रहेगी। ऐसे लोग किसी की भलाई या सद्भावना पर विश्वास नहीं कर सकते, उन्हें सभी धूर्त या दुष्ट दिखाई देते हैं। ऐसे लोगों को दोष दृष्टा ही कहा जायेगा। उनकी अपनी दुर्बलता उनके चारों ओर धूर्तता दुष्टता के रूप में बिखरी दिखाई पड़ती है।

इस प्रकार का दोषदर्शी दृष्टिकोण मनुष्य के लिए एक भारी विपत्ति के समान है। प्रेम और द्वेष छिपाये नहीं छिपते। दुर्भावों में वह शक्ति है कि जिसके प्रति उस तरह के भाव रखे जायें तो उस तक किसी न किसी प्रकार जा ही पहुँचते हैं और वह किसी दिन जान ही लेता है कि अमुक व्यक्ति मेरा निन्दक या द्वेषी है। यह जान लेने पर उसके मन में भी प्रतिक्रिया होती ही, वह भी शत्रुता करेगा। इस प्रकार उस दोष दर्शी के शत्रु ही चारों ओर बढ़ते जायेंगे। शत्रुता के साथ विपत्ति जुड़ी हुई है, जिसके जितने ज्यादा शत्रु होंगे वह उतना ही चिंतित, परेशान एवं आपत्तिग्रस्त रहेगा। उसके मार्ग में समय-समय पर अनेकों बाधाएं आती ही रहेंगी। उन्नति के मार्ग में सहयोग देने वालों की अपेक्षा रोड़े अटकाने वाले ही अधिक होंगे। ऐसी स्थिति अपने लिए उत्पन्न कर लेना कोई बुद्धिमता की बात नहीं है। निन्दात्मक दृष्टिकोण अपनाये रखना एक अबुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य ही कहा जा सकता है।

यदि हम अपने आपसे सच्चे और सज्जन हों तो हमें सदा दूसरों की भलाइयाँ और अच्छाइयाँ दृष्टिगोचर होंगी। जिस प्रकार हम किसी के सुन्दर चेहरे को ही बार-बार देखते हैं उसी से प्रभावित होते हैं और प्रशंसा करते हैं। यद्यपि उसी मनुष्य के शरीर से मलमूत्र के दुर्गन्धपूर्ण कुरूप और कुरुचिपूर्ण स्थान भी हैं पर उनकी ओर न तो ध्यान देते हैं और न चर्चा करते हैं। इसी प्रकार सुरुचिपूर्ण मनो-भावना के व्यक्ति आमतौर से दूसरों के सद्गुणों को ही निरखते-परखते रहते हैं। उसके द्वारा जो अच्छे काम बन पड़े हैं उन्हीं की चर्चा करते हैं। उसके प्रशंसक और मित्र बनकर रहते हैं। आलोचकों और निन्दकों की अपेक्षा आत्मीयता, सद्भाव रखने वाला व्यक्ति किसी की बुराई को अधिक जल्दी और अधिक सरलता पूर्वक दूर कर सकता है।

कोई व्यक्ति जो अपने को सज्जन और समझदार मानता है उस पर यह जिम्मेदारी अधिक मात्रा में आती है कि वह सामान्य लोगों की अपेक्षा अपने में कुछ असामान्य गुण सिद्ध करे। सामने वाले से मतभेद होने पर उसे बुरा भला कहना निन्दा या अपमान भरे शब्द कहना, लड़-झगड़ पड़ना इतना तो निम्नकोटि के लोग भी करते रहते हैं। कुँजड़े और कंजड़ भी इस नीति से परिचित हैं? यदि इसी नीति को वे लोग भी अपनावें जो अपने को समझदार कहते हैं तो वे उनका यह दवा करना निस्सार है कि हम उस मानसिक स्तर के हैं। कुँजड़े-कंजड़ जैसे फूहड़ शब्द इस्तेमाल करते हैं इसे भले ही उनने न किए हों, शिक्षित होने के कारण वे साहित्यिक शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं पर नीति तो वही रही, भावना तो वही रही, क्रिया तो वही रही। वे अपने आपको शिक्षित कुँजड़ा या कंजड़ कह सकते हैं, इतनी ही उनकी विशेषता मानी जा सकती है।

हर समझदार आदमी पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह जिनकी निन्दा करना चाहता है उनकी अपेक्षा अपने आपको अधिक ऊंचा, अधिक सभ्य और अधिक सुसंस्कृत सिद्ध करे। यह भी तभी हो सकता है जब वह अपने में अधिक सहिष्णुता, अधिक प्यार, अधिक आत्मीयता, अधिक सज्जनता, अधिक उदारता और अधिक क्षमाशीलता धारण किये होना प्रमाणित करे। इन्हीं गुणों के आधार उसके बड़प्पन की तौल की जायेगी। यदि कभी भी दो व्यक्तियों में से एक को चुनना पड़े, एक को महत्व देना पड़े तो बाहर के विवेकशील आदमी इसी आधार पर महत्व देंगे कि किसने अधिक उदारता और सज्जनता का परिचय दिया। जिसमें यह अधिकता पाई जायेगी उसी की ओर लोगों की सहज सहानुभूति आकर्षित होगी। पर यदि ऐसा नहीं है तो दोनों एक ही स्तर पर रखे जायेंगे। दोनों की निन्दा की जायेगी और लोग उनके बीच में पड़ने की अपेक्षा उनसे दूर रहना ही पसंद करेंगे।

दूसरों की अच्छाइयों को ढूंढ़ने, उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होने एवं उनकी प्रशंसा करते रहने का स्वभाव यदि हम अपना बना लें तो यह सारी दुनिया हमें एक सुरम्य सुगंधित बगीचे की तरह मनोरम दिखाई देगी। हर व्यक्ति और हर वस्तु में कुछ न कुछ अच्छाई मौजूद है। हमारे लिये इतना ही पर्याप्त है। शहद की मक्खी के लिए, इतना ही पर्याप्त है कि फूल में मिठास के तनिक से कण मौजूद हों, जब एक नन्हीं-सी विद्या और बुद्धि से हीन मक्खी इतना कर सकती है कि फूल में से अपने काम की जरा सी चीज को निकालने मात्र का ध्यान रखे और अपना छत्ता मीठे शहद से भर ले तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि लोगों के अंदर उपस्थित अच्छाइयों को ही तलाश करें भले ही वे थोड़ी-सी ही मात्रा में क्यों न हों। यदि हमारी दृष्टि ऐसी रहे तो हमें अपने चारों और सज्जन एवं स्नेही ही दिखाई देंगे। हमारा मन घड़ी प्रसन्नता और संतोष से ही भरा रहेगा।

ताली एक हाथ से नहीं बजती। अन्य व्यक्ति दुर्जन भी हो तो हमारी सज्जनता उनके हथियारों को व्यर्थ बना देगी। सड़क टूट हुई हो, जगह-जगह गड्ढे हों तो मोटर में बैठने वाले को दचके लगने स्वाभाविक हैं, पर बहुत बढ़िया किस्म की मोटर जिसमें लचकदार कामनी या स्प्रिंगदार सीटें हों-उस टूटी सड़क पर भी किसी यात्री को सुविधा पूर्वक यात्रा करा सकती है। दुनिया में बुरे लोग हैं-ठीक है-पर यदि हम अपनी मनोभूमि को सहनशील, धैर्यवान, उदार और गुदगुदी बना लें तो बढ़िया मोटर में बैठने वाले यात्री की तरह इस टूटी सड़क वाली दुनिया में भी आनंद पूर्वक यात्रा कर सकते हैं।

जो उपलब्ध है उसे कम या घटिया मानकर अनेक लोग दुःखी रहते हैं और अपने भाग्य को कोसते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि अधिक ऊंची किस्म के सुख-साधन, सामग्री प्राप्त करने के लिए उतावले होकर लोग अनुचित रीति से भी उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और अन्याय और अत्याचार करने में भी नहीं चूकते। यह मार्ग समाज में अशान्ति और अपने लिये दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाला ही है। ऐसे अनुचित कदम उठने में वह असन्तोष ही मुख्य कारण है जिससे, और अधिक मात्रा में, और अधिक बढ़िया किस्म की वस्तुएं प्राप्त करने की लालसा लगी रहती है। यदि हम इन लालसाओं पर नियंत्रण कर लें, अपना स्वभाव सन्तोषी बना लें, तो मामूली वस्तुओं से भी काम चलाते हुए प्रसन्न रह सकते हैं। अपने से भी कहीं अधिक गिरी स्थिति में, गरीबी में दिन गुजारने वाले लाखों करोड़ों व्यक्ति मौजूद है। उनकी तुलना में हम कहीं अधिक अच्छी स्थिति में माने जा सकते हैं। हमारी स्थिति के लिये भी लालायित करोड़ों व्यक्ति इस दुनिया में मौजूद है। दुःखी परेशान, चिन्तातुर एवं अभावग्रस्त भी इस संसार में कम नहीं हैं, उन्हें यदि हमारी स्थिति प्राप्त हो जाए तो निश्चय ही वे अपने भाग्य की सराहना करेंगे। इतने पर भी हम असंतुष्ट और दुःखी हैं तो इसमें कोई वास्तविक तथ्य नहीं है वरन् अपनी मानसिक लालसा ही इसमें मुख्य कारण है।

अपने से अधिक सुखी, अधिक साधन-सम्पन्न, अधिक ऊंची परिस्थिति के लोगों के साथ यदि अपनी तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि सारा अभाव और दारिद्र हमारे ही हिस्से में आया है। परन्तु यदि इन असंख्यों दीन-हीन, पीड़ित, परेशान लोगों के साथ अपनी तुलना करें तो अपने सौभाग्य की सराहना करने को जी चाहेगा। ऐसी दशा में यह स्पष्ट है कि अभाव या दारिद्र की कोई मुख्य समस्या अपने सामने नहीं है। समस्या केवल इतनी ही है कि हम अपने से गिरे लोगों से अपनी तुलना करते हैं या बढ़े हुए लोगों से। इस तुलना में हेर-फेर करने से हमारा असंतोष, संतोष में और संतोष, असंतोष में परिणित हो सकता है।

जिन स्वजन संबंधियों से, उनके छोटे-छोटे दुर्गुणों के कारण हमें झुँझलाहट आती है, जो हमें भार रूप और व्यर्थ मालूम पड़ते हैं, उनके द्वारा अपने ऊपर अब तक किये हुए अहसानों एवं उपकारों का स्मरण किया जाए तो लगेगा कि वह बड़े ही त्यागी, सेवा-भावी और उदार हैं। यदि उनकी अब तक की समस्त सेवा सहायताओं का स्मरण किया जाए तो लगेगा कि वे साक्षात उपकारों के देवता हैं। उनका कृतज्ञ होना चाहिए और भाग्य को सराहना चाहिये कि ऐसे उपकारी स्नेह मित्र स्वजन सम्बंधी हमें उपलब्ध हुए। तृष्णा का कोई अंत नहीं। एक से एक अच्छी और एक से एक सुन्दर चीजें इस दुनिया में मौजूद हैं। उस क्रम का अन्त नहीं आज जो कुछ हम चाहते हैं उसे मिलने पर कल और बढ़िया का मोह बढ़ेगा। बढ़ियापन का कहीं अन्त नहीं। इस कुचक्र में उलझने से सदा घोर असन्तोष ही बना रहेगा। इस लिए यदि चित्त का समाधान करना हो तो कहीं न कहीं पहुँच कर सन्तोष करना पड़ेगा। यदि उस सन्तोष को आज ही वर्तमान स्थिति में ही, कर लिया जाए तो तृप्ति, पूर्णता और संतोष के रसास्वादन का आनन्द आज ही उपलब्ध हो सकता है। इसके लिये एक क्षण की प्रतिक्षा न करनी पड़ेगी।

सुख और दुःख किन्हीं परिस्थितियों का नाम नहीं, वरन् मन की दशाओं का नाम है। संतोष और असंतोष वस्तुओं में नहीं वरन् भावनाओं और मान्यताओं से होता है। इसलिये उचित यही है कि सुख-शाँति की परिस्थितियाँ ढूँढ़ते फिरने की अपेक्षा अपने दृष्टिकोण को ही परमार्जित करने का प्रयत्न करें। इस प्रयत्न में हम जितने ही सफल होंगे अंतःशाँति के उतने ही निकट पहुँच जायेंगे।

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