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Magazine - Year 1960 - Version 2

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साधना के लिये गंगा तट की महिमा और महत्ता

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(स्वामी सच्चिदानन्द जी महाराज)

भगवान श्री कृष्ण ने गीता के अध्याय 10 श्लोक 31 में स्वयं मुख से कहा है- ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवि’ अर्थात- नदियों में भागीरथी गंगा मैं हूँ।

भगवद् स्कन्द 11 अध्याय 16 में आता है-’तीर्थानाँ स्रोतसाँ गंगा’ तीर्थों में गंगा सबसे श्रेष्ठ है।

यों गंगाजल की लौकिक महत्ता भी कम नहीं है। पर इसका मूल महत्व तो पारलौकिक एवं आध्यात्मिक ही है। गंगा से कितने मनुष्यों और अन्य जीव-जन्तुओं की तृष्णा शाँत होती है, कितनी भूमि हरी-भरी शस्यश्यामला बनती है, उसके जल से सिंचित होकर कितनी घास-पात, कितना अन्न, शाक, फलों का भण्डार उत्पन्न होता है इसे सभी लोग जानते हैं। सभी जानते हैं कि लाखों करोड़ों मनुष्यों और पशु-पक्षियों का जीवन गंगा पर निर्भर रहता है। यदि गंगा का अवतरण न हुआ होता तो आज जहाँ की भूमि हरी-भरी दीखती है, जहाँ अगणित मनुष्य और पशु-पक्षी आनन्द से किलोल करते हैं वहाँ का दृश्य दूसरा ही हुआ होता। उस भूमि पर आज श्मशान जैसी विभीषिका दृष्टिगोचर होती। भगवती गंगा जिस प्रदेश में होकर गुजरती है वहाँ के समीपवर्ती लोगों को तो जीवन के बहुमूल्य आधार दिये ही हैं, साथ ही दूरवर्ती जनता को भी बहुत कुछ दिया है। यहाँ की समृद्धि दूर-दूर तक फैल कर प्रकारान्तर से सारे देश की श्री, समृद्धि को बढ़ाती है। जैसे पानी से भरे हुए भगौने का उसके किसी एक छोटे स्थान पर भी आग से गरम किया जाए तो वह गर्मी सारे बर्तन या पानी में फैल कर सभी को गरम कर देती है, इसी प्रकार गंगा के द्वारा उत्पन्न हुई समृद्धि सारे देश को ही नहीं सारे विश्व को समृद्ध बनाती है। जो सघन बन गंगा के किनारे हैं उनकी कीमती लकड़ी देश के कोने-कोने में जाकर गृह निर्माण एवं काष्ठ शिल्प की आवश्यकता पूरी करती है। यहाँ की उर्वरा भूमि में उत्पन्न हुआ अन्न समीपवर्ती लोगों की आवश्यकता से कहीं अधिक होता है और दूरवर्ती लोगों की भी क्षुधा शाँत करने में सहायक होता है। ब्राह्मी आदि अगणित जड़ी-बूटियाँ गंगाजल में ही पनपती हैं। गंगा के द्वारा मनुष्य जाति को जो आर्थिक लाभ होता है, जो विपुल श्री सम्पदा प्राप्त होती है उसका अनुमान लगा सकना भी कठिन है।

आरोग्य की दृष्टि से गंगाजल का जो महत्व है उससे आधुनिक वैज्ञानिक एवं डॉक्टर भी आश्चर्यचकित हैं। विश्लेषण करने पर गंगाजल में ताँबा, स्वर्ण, पारद आदि धातुओं एवं अनेक बहुमूल्य क्षारों की ऐसी संतुलित मात्रा मिली है जिसका सेवन एक प्रकार से औषधि का काम करता है। अच्छे स्वास्थ्य को वह और भी अधिक बढ़ाने में सहायक होता है। गिरे हुए स्वास्थ्य को गिरने से रोकता है और बीमारियों को निरोग बनाने में बहुमूल्य औषधि का काम करता है। अनेकों रोगी जो वर्षों तक खर्चीला औषधि उपचार करने पर रोग मुक्त न हो सके, केवल मात्र गंगाजल के सेवन से रोग मुक्त होते देखे गये हैं। कोढ़ की एक मात्र चिकित्सा गंगाजल मानी गई है। प्राचीन काल के आयुर्वेद ज्ञाता कोढ़ी लोगों को गंगा किनारे रहने और निरन्तर गंगाजल सेवन करते रहने की सलाह देते थे और उसका परिणाम भी आशाजनक होता था आज शहरों का मल-मूत्र पड़ते रहने से गंगा की वह विशेषता नहीं रही और रोगियों को उतना लाभ नहीं होता फिर भी प्राचीन परिपाटी के अनुसार आज भी भारत के अधिकाँश कोढ़ी गंगा किनारे निवास करते देखे जा सकते हैं।

संग्रहणी, शोध, वायु विकार, श्वास रोग, मृगी, हृदय रोग, रक्त चाप, मूत्र रोग, वीर्य और रज विकारों में गंगाजल का प्रभाव होता है, यों लाभ तो सभी रोगों में करता है। गंगाजल चिरकाल तक किसी शीशी या बर्तन में रखा रहने पर भी खराब नहीं होता। यह गुण संसार के और किसी सरोवर आदि के जलों में नहीं है। जल के खराब न होने का कारण यह है कि उसमें विकृति उत्पन्न करने वाले दूषित कीटाणुओं को मार डालने का गुण है। डाक्टरों ने एक बार यह परीक्षण किया कि हैजे के कीटाणु भरी बोतल को एक पात्र में रख कर थोड़े से गंगाजल में डाला और इसके परिणाम की जाँच की। उन्हें आशा थी कि विषैले कीटाणुओं से गंगाजल भी वैसा ही विषैला हो जायेगा पर परिणाम इससे भिन्न निकला। गंगाजल में पड़ते ही हैजे के कीटाणु नष्ट हो गये, पर गंगाजल दूषित न हुआ। यदि गंगा में यह विशेषता न हुई होती तो प्रतिदिन लाखों मन मल-मूत्र जो उसमें पड़ता है उसके कारण उसका जल रोग उत्पन्न करने वाला हो गया होता। ऐसा तो नहीं हुआ है गंगा की पवित्रता तो अभी भी बनी हुई है। पर प्रतिदिन पड़ने वाली गन्दगी को नष्ट करने में उस जल के गुणकारी अमूल्य तत्व नष्ट होते हैं और उसकी आरोग्यवर्द्धनी शक्ति भी घटती है। अब वही गंगाजल अधिक उपयोगी माना जाता है जो हिमालय के उन भागों में उपलब्ध है जहाँ मल-मूत्र का अधिक मिश्रण नहीं हो पाया है। यदि गंगा तटवर्ती हिमालय प्रदेशों में आरोग्य वर्धक स्वास्थ्य गृह खोलने की ओर सरकार ध्यान दे तो उससे रोगियों को शारीरिक ही नहीं आध्यात्मिक भी आशाजनक लाभ हो सकता है।

संसार की प्रत्येक वस्तु के तीन स्तर होते हैं- 1. स्थूल 2. सूक्ष्म 3. कारण। बाह्य दृष्टि से जो गुण या लाभ दिखाई पड़ते हैं वे स्थूल हैं। जो वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा गम्भीर अनुसंधान द्वारा प्रमाणित होते हैं वे सूक्ष्म हैं और जो तत्वदर्शी आत्म विज्ञान वेत्ता सूक्ष्म दृष्टा योगियों के द्वारा योग दृष्टि से देखें और समझे जाते हैं वे कारण-गुण कहलाते हैं। तुलसी यों स्थूल दृष्टि से एक हरा-भरा पौधा मात्र है। सूक्ष्म दृष्टि से ज्वर नाशक एवं अन्य कई रोगों का शमन के गुण उसमें है। कारण शोध पर पता चलता है कि उसमें सतोगुणी आध्यात्मिक तत्व इतनी अधिक मात्रा में है कि उसे घर में लगाने से और सेवन करने से शरीर में सतोगुणी प्रवृत्तियाँ अनायास ही बढ़ने लगती हैं। इसीलिये इसका धार्मिक कार्यों में उत्साहपूर्वक प्रयोग किया जाता है। गाय के संबंध में भी यही बात है। स्थूल दृष्टि से वह एक सीधा-साधा उपयोगी पशु मात्र है। सूक्ष्म दृष्टि से दूध में प्राण तत्व एवं जीवनी शक्ति की उतनी अधिक मात्रा है जितनी संसार के और किसी पदार्थ में नहीं। कारण दृष्टि से उसके कणों में देवत्व के परमाणु व्याप्त है जिसके सान्निध्य से मनुष्य में दिव्य गुण, धर्म, स्वभावों की, आचार एवं विचारों की अभिवृद्धि होती है। तुलसी और गाय की तरह प्रत्येक पदार्थ में अपने-अपने स्थूल, और कारण स्तर होते हैं। उन्हीं के अनुसार उनके गुणों का निरूपण किया जाता है। प्याज और लहसुन में स्थूल दृष्टि से थोड़ी सी बदबू के अतिरिक्त अन्य सब गुण-ही-गण् हैं पर कारण दृष्टि से उनमें तामसिकता की प्रधानता है। सेवन करने वालों में काम विकार और क्रोध भड़काते हैं इसलिए इन्हें त्याज्य माना जाता है।

गंगा भी स्थूल दृष्टि से, एक आर्थिक लाभ वाली उपयोगी नदी मात्र है। सूक्ष्म दृष्टि से उसमें आरोग्य वृद्धि का विशेष गुण है। किन्तु कारण दृष्टि से उसकी महिमा एवं महत्ता अपार है। उसकी कल-कल ध्वनि कानों को पवित्र करती है, उसके दर्शन से नेत्रों की कुवासनाएं शाँत होती हैं। उसकी समीपता से मन के कुविचारों पर अंकुश लगता है, उसके स्नान और पान से अन्तःकरण की भावनाएं सात्विक बनती हैं। मनुष्य के रोम-रोम में जन्म-जन्मान्तरों से संचित दुष्प्रवृत्तियां रमी होती हैं, इन्हीं के उभार से मनुष्य दुष्कर्म करने का थोड़ा-सा भी अवसर मिलने पर फिसल पड़ता है और न चाहते हुए भी बरबस दुष्कर्म कर बैठता है। यदि इन संस्कारजन्य प्रवृत्तियों पर अंकुश लग सके तो मनुष्य बहुत से पापों से बच सकता है।

गंगा के महात्म्य में जगह-जगह उसके पापनाशक गुण का वर्णन किया गया है। उसका तात्पर्य इन्हीं मानसिक दुष्प्रवृत्तियों से है जो अवसर आने पर, प्रलोभन उत्पन्न होने पर कुमार्ग की ओर, कुकर्म की ओर धकेल देती है। गंगा का सान्निध्य, इनके ऊपर एक शक्तिशाली अंकुश के समान है। गंगा महात्म्य में पापनाश का मूल तत्व यही अंकुश है।

कई लोग सोचते हैं कि किये हुए दुष्कर्मों का फल हमें गंगा स्नान करने के बाद न भोगना पड़ेगा, यह सोचना गलत है। किये हुए शुभ अशुभ कर्मों का प्रतिफल तो भोगना ही पड़ता है, वह स्नान आदि साधारण उपायों से छूट नहीं सकता। साधारणतया प्रत्येक कर्म का फल भोगना ही पड़ता है पर यदि उससे भी छुटकारा पाना हो तो प्रायश्चित और तपश्चर्या का कष्ट साध्य उपाय ही उसका माध्यम हो सकता है। चोरी करने वाले को जेल होती है, पर यदि चोर अपनी भूल मान कर अपना पाप प्रकट कर दे, चुराई हुई वस्तु लौटा दे और जितना दण्ड कानून से मिलना चाहिए उतना दण्ड भुगतने को स्वेच्छापूर्वक तैयार हो जाए तो उसे जेल से छूट मिल सकती है। जैसे गोपाल ने घनश्याम की चोरी की। कुछ दिन बाद उसे सद्बुद्धि आई। चोरी के पाप की भयंकरता को समझा। अब वह उस पाप से छूटना चाहता है। उसने अपनी अन्तरात्मा से सलाह ली। वह घनश्याम के पास पहुँचा। अपना पाप प्रकट किया, चुराई हुई वस्तुएं लौटा दी और साथ ही उसे जो छः महीने की कानूनन सजा होनी चाहिए थी, उसके बदले में वह घनश्याम के यहाँ कैदी के तौर पर बिना वेतन मजदूरी करने को तैयार हो गया, साथ ही भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा भी ली। ऐसी स्थिति में निश्चय ही घनश्याम को दया आवेगी, वह उसके शुद्ध भावना का सम्मान भी करेगी। क्रोध के स्थान पर उस पर प्रेम करेगा और उसने जिस मजबूरी में चोरी की थी वह वस्तुएं तो खर्च डाली पर चुराई हुई वस्तुएं लौटाने की व्यवस्था करने में उसका कितना कष्ट और त्यागपूर्ण दौड़−धूप करनी पड़ती उसे देखते हुए संभव है घनश्याम कुछ वस्तु लौटा भी दे और कम भी लेले। साथ ही मानव के नाते वह इतना तो अवश्य ही करेगा कि छः महीने तक कैदी के रूप में उसने जो निःशुल्क सेवा करने का प्रस्ताव किया था उसे अस्वीकार कर दे अर्थात् गोपाल को गले लगाते हुए कहे- मित्र तुम्हारा इतना अलौकिक साहस ही क्या कम है जो अपना प्रकट कर दिया, वस्तुएं लौटा दी। इतना भी इस दुनिया में कौन करता है? तुम्हारा सौजन्य सराहनीय है। भूल सभी से हो जाती है, पर उस भूल को स्वीकार करना और उसका प्रायश्चित करना या तो किसी मनुष्य की महानता का सबसे बड़ा प्रमाण है। तुम महान हो, तुमने जो साहस दिखाया उसके लिए मैं गदगद हूँ अब इतना मैं नहीं कर सकता कि तुम्हें कैदी की तरह छः महीने अपने घर पर रखूँ। मैंने तुम्हें क्षमा ही नहीं किया वरन् अपनी सम्मानास्पद मित्र भी माना है। आओ- हम लोग गले मिलें और एक-दूसरे के सच्चे मित्र बन कर रहें।

इस प्रकार प्रायश्चित्य में ही चुराने वाले केवल की कंपकंपी का और जिसका चुराया गया था उसके रोप एवं शाप का शमन हो सकता है। न्यायालय को भी अपने न्याय दण्ड का प्रयोग करने की माथापच्ची नहीं करनी पड़ती। शास्त्रकारों ने उन सभी पाप कर्मों के प्रायश्चित्य बताये हैं जो किये जा चुके और जिनके दण्ड मिलने निश्चित हैं। इन प्रायश्चित्तों के आधार पर मनुष्य स्वयं अपने आप ही सुधार सकता है और उनके दण्ड को तपश्चर्या आदि के रूप में भुगत सकता है। किये जा चुके पापों की निवृत्ति का तो प्रायश्चित ही एक मात्र आधार है जो गंगा तट पर और भी सुगमता से हो सकता है। पर गंगा महात्म्य का वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने जिन पापों के नाश का उल्लेख किया है वे मनोगत कुसंस्कार ही है। इनकी गणना भी मानसिक पापों में ही है, उनका उफान रुक जाना भी एक प्रकार से भावी पाप नष्ट हो जाना ही है। पिछले और अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि पिछले अनेक जन्मों के संचित उन कुसंस्कारों का शमन होता है जो पाप कर्मों के वास्तविक उत्पादक हैं।

गंगा के सान्निध्य से इन पाप वृत्तियों के नष्ट होने के अनेकों शास्त्र प्रमाण मिलते हैं। पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड, अध्याय 60, 39 और 43 में इस प्रकार के कतिपय श्लोक हैं, उनमें से कुछ नीचे देखिये-

गंगेति स्मरणादेव क्षयं याति च पातकम्।

कीर्तनादतिपापानि दर्शनाद्गुरुकल्मषम्॥

गंगा जी के नाम के स्मरण-मात्र से पातक, कीर्तन से अतिपातक और दर्शन से भारी-भारी पाप (महापातक) भी नष्ट हो जाते हैं।

स्नानात पानाश्च जाह्नव्याँ पितृणाँ तर्पणात्तथा।

महापातकवृन्दानि क्षयं यान्ति दिने-दिने॥

गंगा जी में स्नान, जलपान और पितरों का तर्पण करने से महापातकों की राशि का प्रतिदिन क्षय होता रहता है।

अग्न्ना दह्यते तूलं तृणं शुष्कं क्षणाद यथा।

तथा गंगाजलस्पर्शात् पुँसाँ पापं दहेत् क्षणात्॥

जैसे अग्नि का संसर्ग होने से रुई और सूखे तिनके क्षणभर में भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार गंगाजी अपने जल का स्पर्श होने पर मनुष्यों के सारे एक ही क्षण में दग्ध कर देती है।

तपोभिर्बहुभिर्यज्ञैर्व्रतैर्नानाविधैस्तथा।

पुरुदानैर्गतिर्या च गंगा संसेव्य ताँ लभेत्॥

तपस्या, बहुत से यज्ञ, नाना प्रकार के व्रत तथा पुष्कल दान करने से जो गति प्राप्त होती है, गंगाजी सेवन करने से मनुष्य उसी गति को पा लेता है।

त्यजन्ति पितरं पुत्राः प्रियं पत्न्यः सुहृद्गणः।

अन्ये च बान्धवाः सर्वे गंगा तान्न परित्यजेत्॥

पुत्र पिता को, पत्नी प्रियतम को, संबंधी अपने संबंधी को तथा अन्य सब भाई-बंधु भी प्रिय को छोड़ देते हैं, किन्तु गंगाजी अपने जनों का परित्याग नहीं करती।

विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनि।

धर्मद्रवेति विख्याते पापं में हर जाह्नवि॥

गंगे! तुम विष्णु का चरणोदक होने के कारण परम पवित्र हो तथा तीनों लोकों में गमन करने से त्रिपथ गामिनी कहलाती हो। तुम्हारा जल धर्ममय है, इसलिये तुम धर्मद्रवी के नाम से विख्यात हो। जाह्नवी? मेरे पाप हर लो।

विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुपूजिता।

त्राहि मामेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात्॥

भगवान विष्णु के चरणों से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्री विष्णु द्वारा सम्मानित वैष्णवी हो। मुझे जन्म से लेकर मृत्यु तक के पापों से बचाओ।

श्रद्धया धर्मसम्पूर्णे श्रीमता रजसा च ते।

अमृतेन महादेवि भागीरथि पुनीहि माम्॥

धर्म से परिपूर्ण महादेवी भागीरथी! तुम अपने शोभायमान रजःकणों से और अमृतमय जल से मुझे श्रद्धा-सम्पन्न बनाती हुई पवित्र करो।

गंगा गंगेति यो ब्रूयाद् योजनानाँ शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥

जो सैकड़ों योजन दूर से भी ‘गंगा, गंगा’ ऐसे कहता है वह सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

पाठयज्ञपरैः सर्वैर्मन्त्रहोमसुरार्चनैः।

सा गतिर्न भवेञ्जन्तोर्गंगासंसेवया च या॥

पाठ, कर्मों से भी जीव को वह गति नहीं मिलती, जो गंगा जी के सेवन से प्राप्त होती है।

विशेषात्कलिकाले च गंगा मोक्षप्रदा नृणाम।

कृच्छ्राञ्च क्षीणसत्वानामनन्तः पुण्यसम्भवः॥

विशेषतः इस कलिकाल में सत्त्वगुण से रहित मनुष्यों को कष्ट से छुड़ाने-मोक्ष प्रदान करने वाली गंगा जी ही हैं। गंगाजी के सेवन से अनन्त पुण्य का उदय होता है।

पुनाति कीर्तिता पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति।

अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम्॥

गंगा जी नाम लेने मात्र से पापों को धो देती हैं, दर्शन करने पर सप्त पीढ़ियों तक को पवित्र कर देती हैं।

न गंगासदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः।

ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः॥

ब्रह्मा जी का कथन है कि गंगा के समान तीर्थ, श्रीविष्णु से बढ़ कर देवता तथा ब्राह्मणों से बढ़कर कोई पूज्य नहीं है।

तीर्थानाँ तु परं तीर्थं नदीनामुत्तमा नदी।

मोक्षदा सर्वभुतानाँ महापातकिनामपि॥

गंगा तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ, नदियों में उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण महापातकियों को भी मोक्ष देने वाली हैं।

सर्वेषाँ चैव भूतानाँ पापोपहतचेतसाम्।

गतिरन्यत्र मर्त्यानाँ नास्ति गंगासमा गतिः॥

जिनका चित्त पाप से दूषित है, ऐसे समस्त प्राणियों और मनुष्यों की गंगा के सिवा अन्यत्र गति नहीं है।

पवित्राणाँ पवित्रं या मंगलानाँ च मंगलम्।

महेश्वरशिरोभ्रष्टा सर्वापापहरा शुभा॥

भगवान शंकर के मस्तक से होकर निकली हुई गंगा सब पापों को हरने वाली और शुभकारिणी है। वे पवित्रों को भी पवित्र करने वाली और मंगलमय पदार्थों के लिये भी मंगलकारिणी हैं।

कहा भी गया है- ‘औषधि जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणः हरिः।’ अर्थात् आध्यात्मिक रोगों की दवा गंगाजल है और इन रोगों के रोगियों के चिकित्सक नारायण हरि परमात्मा हैं। उन्हीं की कृपा से आन्तरिक पाप-दोषों का समाधान होता है। पाप वृत्तियाँ एक प्रकार की आध्यात्मिक बीमारियाँ ही हैं इनका उपचार साँसारिक उपायों से नहीं वरन् गंगातट पर निवास करते हुए नारायण हरि की, परब्रह्म परमात्मा की उपासना करने में ही है।

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